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बिहार में विकास की जाति क्या है? क्या ख़ास जातियों वाले ज़िलों में ही किया जा रहा विकास? 
बिहार में एक कहावत बड़ी प्रसिद्ध है, इसे लगभग हर बार चुनाव के समय दुहराया जाता है: ‘रोम पोप का, मधेपुरा गोप का और दरभंगा ठोप का’ (मतलब रोम में पोप का वर्चस्व है, मधेपुरा में यादवों का वर्चस्व है और दरभंगा में ब्राह्मणों का वर्चस्व है)। इसी कहावत के आसपास विकास की जाति को समझने की ज़रूरत है।
जितेन्द्र कुमार
17 May 2022
caste
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

जब हम लोकतंत्र कहते हैं तो जनकल्याण व समदर्शी नीति का भाव आता है। लेकिन बिहार जैसे सुबा में लोकतांत्रिक सरकारें नीति-निर्धारण अपनी जाति और अपनी जातीय बहुलता को ध्यान में रखकर करती रही हैं। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि इस बात को लेकर प्रबुद्ध वर्गों में न किसी को कोई परेशानी हुई है और न ही कभी इस पर कोई बहस या चर्चा हुई है।

पिछले दिनों लगभग दस दिन पहले 7 मई को रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने बिहार के कोसी रेलवे पुल से गुजरने वाली ट्रेन को हरी झंडी दिखाकर उद्धाटन किया। इस कोसी महासेतु का उद्धाटन आज से दो साल पहले सितबंर 2020 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। प्रधानमंत्री मोदी ने उस समय कहा था कि कोसी, मिथिला और सीमांचल के लोगों का वर्षों का सपना आज साकार हो रहा है और इस परियोजना के पूर्ण होने से इलाके के लोगों को न सिर्फ आवागमन में सुविधा होगी बल्कि उन्हें रोजगार और उद्योग-धंधा करने में भी सुविधा होगी।   

लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचिए। जिस विकास व रोजगार-धंधे की बात प्रधानमंत्री कह रहे थे, वह बात अन्य नेताओं के दिमाग में क्यों नहीं आई? या फिर हकीकत कुछ और है? बिहार में जाति के आधार पर किस तरह विकास को प्रभावित किया गया है, उसका बहुत ही महत्वपूर्ण उदाहरण निर्मली और भपटियाही के बीच का वह रेल पुल है। निर्मली और भपटियाही (सरायगढ़) के बीच मीटर गेज लिंक 1887 में बनाया गया था जो 1934 के विनाशकारी भूकंप में तबाह हो गया। इसके बाद कोसी और मिथिलांचल के बीच रेल संपर्क पूरी तरह टूट गया। इस पुल के पुनर्निर्माण में 88 साल लग गए और इस पुल के चालू हो जाने से निर्मली से सरायगढ़ की जो दूरी 298 किलोमीटर है, वह घटकर महज 22 किलोमीटर हो गई है। इस दूरी को तय करने के लिए दशकों तक निर्मली से सरायगढ़ तक का सफर दरभंगा-समस्तीपुर-खगड़िया-मानसी-सहरसा होते हुए तय करना पड़ता था।

इसे दूसरे रूप में डी-कोड करके समझिए, तो पता चलेगा कि उस पुल का निर्माण उस समय भी नहीं हुआ जब देश के सबसे ताकतवर रेलमंत्री ललित नारायण देश सहरसा से आते थे। उत्तर बिहार, खासकर मिथिलांचल के हर जिले में ललित नारायण मिश्र की आदमकद प्रतिमा लगी है और उस प्रतिमा पर एक पंक्ति लिखा होता है, “मैं रहूं या न रहूं, बिहार आगे बढ़कर रहेगा!” लेकिन उनके कार्यकाल में भी उस पुल का निर्माण इसलिए नहीं कराया गया क्योंकि इससे दलितों-बहुजनों को लाभ मिल सकता था। ललित नारायण मिश्र की तरफ से यह सोची-समझी रणनीति थी जिसके चलते उस रेल पुल का निर्माण नहीं करवाया गया। 

विकास की जाति पर बात करने के लिए सबसे मुफीद समय 1947 के बाद की कालावधि को रेखांकित किए जाने की जरूरत है। अखंड बिहार(1999 में झारखंड बना) में जितने भी उद्योग-धंधे लगे, अधिकांश दक्षिण बिहार में लगाए गए क्योंकि वहां खनिज संपदा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। जिन उद्योगों में स्थानीय खनिज संपदा को दोहन करने की जरूरत या गुंजाइश नहीं थी, उनसे सम्‍बंधित सभी फैक्ट्रियां उत्तर बिहार के बेगुसराय में लगीं। इसकी वजह यह थी कि बेगुसराय में भूमिहारों की बहुलता थी और राज्य के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह खुद भूमिहार थे। अगर पानी या नदी और ट्रेन का होना प्राथमिकता हो सकती थी तो वे फैक्ट्रियां मुंगेर में भी लगायी जा सकती थीं जो बेगुसराय से ज्यादा पुराना शहर था, गंगा नदी बहती है; या फिर भागलपुर में भी लग सकती थी; जहां बेगुसराय से बेहतर रेल मार्ग था, बेगुसराय की तरह नदी का प्रयाप्त जल उपलब्ध था। लेकिन वे फैक्ट्रियां अनिवार्यतः बेगुसराय में ही स्थापित की गयीं। दूसरी बात यह भी था कि मुंगेर और भागलपुर का एरिया में दलितों व पिछड़ों की भारी संख्या थी। अगर फैक्ट्रियां वहां लगती हो उन समुदाय को इसका सबसे अधिक लाभ मिल सकता था!

विकास की जाति को समझने का दूसरा सबसे बेहतरीन उदाहरण मधेपुरा है। इसे समझने के लिए एक कहावत की मदद लिए जाने की जरूरत है। बिहार में यह कहावत काफी प्रचलित रही है। इसे लगभग हर बार चुनाव के समय दुहराया जाता है: ‘रोम पोप का, मधेपुरा गोप का और दरभंगा ठोप का’ (मतलब रोम में पोप का वर्चस्व है, मधेपुरा में यादवों का वर्चस्व है और दरभंगा में ब्राह्मणों का वर्चस्व है)। मधेपुरा अंग्रेजों के समय 1845 में सब-डिवीज़न बना दिया गया था। 1947 में आजादी के बाद सहरसा, मधेपुरा सब-डिवीजन के अंतर्गत महज एक थाना था।1954 में सहरसा को ज़िला बना दिया गया और 1972 में उस सहसरा को कोसी कमिश्नरी का मुख्यालय भी। इस तरह एक थाना मुख्यालय, जो प्रखंड से भी छोटी इकाई होती है, उसे पहले जिला और बाद में कमिश्नरी हेडक्वार्टर बना दिया जाता है। इसके उलट, अंग्रेज़ों के समय के मधेपुरा सब-डिवीजन को आज़ाद भारत में ज़िला बनाने के लिए काफ़ी लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा और इसे 156 वर्षों के बाद 1981 में ज़िला का दर्जा दिया गया।

अब इसके लिए स्थानीय राजनीति पर गौर करने की जरूरत है। कांग्रेस पार्टी में उस तरफ से ललित नारायण मिश्रा नेहरू की कैबिनेट में हेवीवेट मंत्री थे जो सहरसा के थे, लेकिन राज्य में मधेपुरा के भूपेन्द्र नारायण मंडल भी थे जो उस समय पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व करते थे। दोनों की आपसी जातीय व वैचारिक प्रतिद्वन्दिता में सवर्ण-ब्राह्णण नियंत्रित सत्ता निर्णायक रही और सहरसा को तरजीह दिया जाता रहा। अब ‘मधेपुरा गोप का’ वाली कहावत को मधेपुरा के साथ किए गए भेदभाव के साथ जोड़कर देखें, तो समझ में आ जाएगा कि किस तरह जातीय आधार पर विकास को रोका जा रहा था।

बिहार में जातिगत आधार पर ही विकास का मॉडल तैयार होता रहा है, लेकिन प्रबुद्ध वर्ग इस बात को मानने से लगातार इंकार करते हैं कि विकास की कोई जाति होती है। अगर यह हकीकत नहीं होता तो ऊपर के दोनों उदाहरण इस बात को प्रमाणित करने के लिए काफी हैं कि किस तरह सवर्ण नेतृत्व ने राज्य के बहुसंख्य आबादी को नीचा दिखाया है। बिहार में विकास के हर मॉडल में जाति की भूमिका अहम है। इसलिए वहां सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह हो जाता है कि अगर किसी खास भू-भाग का कायाकल्प होना है तो इससे बहुतायत रूप से किन-किन जाति या समुदायों को लाभ मिलेगा।

उदाहरण के लिए मधेपुरा को ही लें। अगर आजादी के कुछ वर्षों बाद ही उसे जिला बना दिया जाता तो उस क्षेत्र के बहुसंख्य दलित, पिछड़े वहाशिये की जातियों को इसका लाभ मिलता। यह भी सही है कि जनसंख्या में बहुलता के कारण उस विकास का सबसे अधिक लाभ यादवों को मिलता, लेकिन सवर्ण और खासकर ब्राह्मण नेतृत्व ने उस क्षेत्र के बहुसंख्य पिछड़े समुदाय को हर तरह के लाभ से जान-बूझ कर वंचित कर दिया।

जब लालू यादव 1990 में राज्य के मुख्यमंत्री बने, तब उन्होंने मधेपुरा को तवज्जो दी। वहां उसी बी एन मंडल (भूपेन्द्र नारायण मंडल) के नाम पर विश्वविद्यालय खोला गया जबकि चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री बने डॉ. जगन्नाथ मिश्रा अपने कार्यकाल में सहरसा से सटे बनगांव मेहिसी में मंडन मिश्र विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा कर चुके थे। लालू यादव ने बीएन मंडल विश्वविद्यालय का उद्घाटन करते हुए कहा था कि मंडन मिश्र संस्कृत के विद्वान थे, तो उनके नाम पर संस्कृत विश्वविद्यालय बनना चाहिए, सामान्य विश्वविद्यालय उनके नाम पर क्यों हो? मधेपुरा में पिछले तीस वर्षों में काफ़ी कुछ बदला है। लालू-राबड़ी के काल में विश्वविद्यालय खोले गये और रेल की फ़ैक्ट्री लगायी गयी। नीतीश कुमार के कार्यकाल में, जब तक शरद यादव की हैसियत थी क्योंकि वे वहां के सांसद थे, वहां इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज की स्थापना की गयी।

वर्तमान समय में जाति का विकास देखना हो तो आप दरभंगा को देख लीजिए। नीतीश कुमार व नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में वह नालन्दा के बाद बिहार का सबसे हैपनिंग शहर बन गया है। दरभंगा में एम्स दिया गया, जबकि वहां राज्य का सबसे प्रतिष्ठित दरभंगा मेडिकल कॉलेज पहले से ही था (उसे पुर्णिया या मुंगेर में भी दिया जा सकता था); एयरपोर्ट शुरू हो गया है; सॉफ्टवेयर टेक्नॉलोजी पार्क बनाया जा रहा है; आइआइएमभी दिए जाने की योजना है। अगर भविष्य में कभी हुआ, तो दरभंगा मिथिला प्रदेश की राजधानी बनेगा। उस मिथिला का, जिसके बारे में कहा जाता था कि यह ज्ञान की नगरी है (इस विरोधाभास को भी समझने की जरूरत है कि जिसे ज्ञान की नगरी कहा जा रहा था वहां की 96 फीसदी जनसंख्या निरक्षर थी)!

विकास की जाति और जातीय आधार पर अवहेलना का अन्य सटीक उदाहरण किशनगंज, पूर्णिया समेत सीमांचल के अधिकांश जिले हैं। बिहार के उन जिलों में मुसलमानों की आबादी कुल मिलाकर लगभग चालीस फीसदी है। लेकिन बिहार की राजनीति में मुसलमानों की हैसियत अब वोटर की भी नहीं रह गई है, इसलिए उतनी बड़ी आबादी के लिए आजतक एक भी सरकारी मेडिकल कॉलेज नहीं स्थापित किया गया है। उसी तरह सीमांचल में एक भी बेहतर कॉलेज या विश्वविद्यालय स्थापित नहीं हुआ है।       

इसलिए किसका विकास हो रहा है इसका एक मात्र मतलब यह है कि किस जाति का विकास हो रहा है? या फिर कह लीजिए कि विकास की जाति क्या है, इसे समझने का सबसे आसान तरीका यह जानना है कि किसके शासनकाल में किस जाति-समुदाय के लोगों की प्रतिमा लगायी जाती है; किसके नाम पर संस्थानों के नाम रखे जाते हैं; और किसके नाम पर सड़क का नामकरण हो रहा है। अगर उस काल का विवरण मिल जाए तो विकास की जाति के बारे में काफी आसानी से समझा जा सकता है और विकास की जाति का गहराई से पता लगाया जा सकता है।

हां, हम जानते हैं कि हर जाति या समुदाय के लोग अपनी जाति का मिथक गढ़ने की भी कोशिश करते हैं, लेकिन सबसे असरकारी मिथक ताकतवर समुदाय ही गढ़ पाते हैं क्योंकि सांस्कृतिक रूप से वे हमारे दिलो-दिमाग को नियंत्रित करते हैं। ऐसे मिथक सामान्यतया झूठे होते हैं, लेकिन ये दिमाग में काफी गहराई से बैठा दिया जाता है और उसका असर लंबे समय तक रहता है।

दुखद यह है कि गोबरपट्टी के अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार इस मसले पर बात नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि यह बताने से किसी की बनी-बनायी छवि खंडित हो जाएगी और कहीं न कहीं यह भी लगता है कि लालू प्रसाद यादव या अन्य पिछड़ी जातियों के नेता सवर्ण नेतृत्व को पीछे छोड़ देंगे!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।) 

ये भी पढ़ें: बिहार में जातीय जनगणना का मुद्दा बीजेपी की परेशानी क्यों बना हुआ है?

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