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डॉ. अम्बेडकर, हिन्दुत्व और हिन्दू-राष्ट्र के ख़तरे
‘अगर वास्तव में हिन्दू राज बन जाता है तो इस देश के लिए भारी ख़तरा उत्पन्न हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर उनका हिन्दुत्व लोगों की स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर यह लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिन्दू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।’
उर्मिलेश
14 Apr 2021
डॉ. अम्बेडकर, हिन्दुत्व और हिन्दू-राष्ट्र के ख़तरे

इस बार डॉ. बी आर अम्बेडकर की जयंती ऐसे दौर में मनाई जा रही है, जब एक तरफ महामारी से हमारा राष्ट्र, समाज और समूची मनुष्यता बेहाल है तो दूसरी तरफ भारत के मौजूदा सत्ताधारी लोकतंत्र का बहुत तेजी से ध्वंस कर रहे हैं और अपने राजनीतिक-अभीष्ट माने जाने वाले ‘हिन्दुत्व’ को राष्ट्र की विचारधारा बनाने में जुटे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वे भारत को एक आधुनिक संवैधानिक लोकतंत्र के बदले हिन्दू-राष्ट्र बनाने पर आमादा हैं।

आजादी के बाद जिस संविधान के आधार पर हमारे लोकतंत्र की बुनियाद रखी गयी, उसके प्रारूप-लेखन समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ही थे। भारतीय संविधान भले ही डॉ. अम्बेडकर के सपनों का संविधान नहीं है पर इसके रचयिताओं में वह एक प्रमुख नाम थे। संविधान सभा में प्रचंड बहुमत कांग्रेसी सदस्यों का था इसलिए संविधान-निरूपण में उनके विचारों का वर्चस्व रहा। पर संविधान सभा में शामिल विभिन्न राजनीतिक धाराओं के सदस्य़ भी स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा थे, इसलिए उनमें स्वतंत्र भारत के स्वरूप आदि को लेकर कुछ व्यापक सहमतियां थीं। इस बात पर भी सहमति थी कि भारत को एक ऐसा लोकतंत्र बनाना है, जिसमें राष्ट्र-राज्य (स्टेट) का अपना कोई धर्म नहीं होगा। डॉ. अम्बेडकर इस धारणा के मुखर पैरोकार थे।

संविधान सभा के कांग्रेसी, समाजवादी, उदारवादी और संकीर्णतावादी, सभी तरह के सदस्यों ने अंततः इसे स्वीकार किया। लेकिन संविधान लागू किये जाने के 71 सालों बाद आज भारत के उस संकल्प पर बड़ा खतरा मंडराता नजर आ रहा है। भारतीय राष्ट्र-राज्य के हाथ में एक धर्म थमाने की कोशिश हो रही है। सत्ता पर काबिज हिन्दू-राष्ट्रवादी अपने इस राजनीतिक-प्रकल्प को समाज में स्वीकार्यता दिलाने की कोशिश भी कर रहे हैं।

डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी के ठीक उलट सोच वाले इन हिन्दू-राष्ट्रवादियों का सियासी-तमाशा देखिये कि स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी या रवीन्द्र नाथ टैगोर की तरह अम्बेडकर को भी वे समय-समय पर अपने वैचारिक-दायरे में लाने की बेढंगी और भद्दी कोशिश भी करते रहते हैं। ऐसे में यह जानना मौजू होगा कि अम्बेडकर की हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र और हिन्दू धर्म पर क्या राय थी? यह तो सभी जानते हैं कि उन्होंने अपने तमाम समर्थकों और शुभचिंतकों के साथ सन् 1956 में अपने को बौद्ध के रूप में धर्मांतरित किया और औपचारिक तौर पर उसमें सभी लोग दीक्षित हुए।

डॉ. अम्बेडकर ने सिर्फ हिन्दू धर्म, हिन्दूवाद या हिन्दुत्व पर ही नहीं, धर्म की संपूर्ण धारणा और सत्ता पर भी काफी लिखा-पढ़ा है। भारत के आधुनिक नेताओं और विचारकों में इस विषय पर उनसे ज्यादा विचारोत्तेजक, क्रांतिदर्शी और गंभीर लेखन शायद ही किसी और ने किया। उनकी इन धारणाओं को समझना बहुत जरूरी है। इससे पता चलता है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य का उनका सेक्युलर-लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य क्या और क्यों था?

उन्होंने आधुनिक जीवन और समाज में धर्म की भूमिका को बहुत सीमित माना। किसी व्यक्ति के निजी मामले से ज्यादा नहीं। हिन्दू जैसे धर्म को वह लोकतांत्रिक समाज के निर्माण के रास्ते में बाधा मानते थे। इसके लिए उन्होंने कुछ ठोस कारण गिनाये हैं। लेकिन उससे पहले हम धर्म, राष्ट्र और विज्ञान पर उनके विचारों को समझने की कोशिश करें। इससे हिन्दुत्व या ऐसे किसी भी धर्म के प्रति उनके मनोभाव और विचारों की पृष्ठभूमि को समझने में आसानी होगी।

डॉ. अम्बेडकर ने धर्म के साम्राज्य और प्रभुत्व को खत्म करने में विज्ञान की महान् भूमिका का बार-बार अभिनंदन किया है। हम सब जानते हैं कि एक समय खगोल विद्या से लेकर जीव-शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र, यहां तक कि स्वास्थ्य और चिकित्सा शास्त्र जैसे विषयों पर भी धर्म का प्रभुत्व था। इन सबको धार्मिक मान्यताओं की रोशनी में प्रस्तुत करने का चलन था। अम्बेडकर ने ज्ञान पर धर्म के शिकंजे के ऐतिहासिक संदर्भ को लेकर बहुत महत्वपूर्ण और विस्तारपूर्वक लिखा है। उनकी इस संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित टिप्पणी से उस लेखन के मिजाज को समझा जा सकता हैः ‘धीरे-धीरे धर्म का यह विशाल साम्राज्य नष्ट हो गया। कोपरनिक्स की क्रांति ने खगोल विद्या को धर्म के प्रभुत्व से मुक्त किया और डार्विन की क्रांति ने जीव-शास्त्र तथा भूगर्भ शास्त्र को धर्म के जाल से बाहर निकाला। वैद्यक-शास्त्र (चिकित्सा) के क्षेत्र में ‘ब्रह्म-ज्ञान’ का अधिकार अभी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुआ है। वैद्यकीय समस्याओं में उसका हस्तक्षेप आज भी जारी है। परिवार नियोजन, गर्भपात तथा जीव में शारीरिक दोष, बंध्याकरण आदि विषय़ों पर ईश्वरपरक मान्यताओं का प्रभाव आज भी है। मनोविज्ञान अब तक धर्म की जकड़ से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर सका है। परन्तु डार्विन के सिद्धांत ने ब्रह्मज्ञान को इतनी गहरी चोट पहुंचाई और उसके अधिकार को यहां तक नष्ट किया कि उसके बाद ब्रह्मज्ञान ने अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किए।’ (डॉ अम्बेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड-6, पृष्ठ10)। अम्बेडकर ने यह बात पिछली शताब्दी के पाचवें दशक में लिखी होगी लेकिन मौजूदा भारतीय असलियत भी इसमें कहीं न कहीं झलकती है, जहां चिकित्सा के नाम पर नीम-हकीमी और बाबा-स्वामियों की पूरी दुनिया आज भी आबाद है। बीते कुछ वर्षों के दौरान मौजूदा सरकार ने उस दुनिया को प्रश्रय दिया और बढ़ाया है।

अम्बेडकर वृहत्त वैश्विक संदर्भ में इन तमाम विद्याओं पर धर्म के वर्चस्व के टूटने की प्रक्रिया को महान् क्रांति कहते हैं और इसका श्रेय विज्ञान को देते हैः इस तरह धर्म के साम्राज्य के विनाश को एक महान् क्रांति माना जाना पूर्णतः स्वाभाविक है। विज्ञान ने पिछले चार सौ वर्षों में धर्म के साथ जो संघर्ष किया, उसी का यह परिणाम है।

धर्म और ईश्वर के रिश्ते पर वह बड़ी मार्के की बात कहते हैं। उनका मानना है कि आदिम समाज के धर्म में ईश्वर की कल्पना का कोई अंश नहीं है---आदिम समाज में ईश्वर के वजूद के बगैर है धर्म। आदिम समाज में भी एक तरह की नैतिकता रही है पर वह सिर्फ ईश्वर से ही नहीं, धर्म से भी स्वतंत्र थी! मानव-समाज को वह धर्म (मूल्य, नियम और नैतिकता के संदर्भ में) चरित्र के संदर्भ में दो भागों में बांटते हैः आदिम समाज का धर्म और सभ्य समाज का धर्म। वह बताते हैं कि आदिम समाज के धर्म में ईश्वर का समावेश नहीं है जबकि सभ्य समाज के धर्म में ईश्वर आ गया। सभ्य समाज में  नैतिकता को धर्म के कारण पवित्रता प्राप्त होती है( वही, पृष्ठ-15)।

अम्बेडकर ने समाज, धर्म और सभ्यता के विकास की ऐतिहासिक व्याख्या ही नहीं की है, उन्होंने भारत के संदर्भ में यहां की सबसे बड़ी आबादी में अनुसरण किये जाने वाले हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व का भी गंभीर अध्ययन किया है। उनका यह अध्ययन वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों से गुजरते हुए पुराणों और उसके बाद के साक्ष्यों को सामने लाता है। इस धर्म विशेष का नाम हिन्दू भले बहुत बाद में पड़ा हो लेकिन इसकी मूल अंतर्वस्तु के हजारों साल के सफर और उसके तमाम साक्ष्यों और स्मृतियों की रोशनी में वह इसकी व्याख्या करते हैं।

हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व की अपनी विशद व्याख्या का निचोड़ पेश करते हुए अम्बेडकर कहते हैं कि यह एक ऐसा धर्म है जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की धारणा को अमान्य ही नहीं करता, उसका विरोध भी करता है। अपनी इस बात को साबित करने के लिए उन्होंने हिंदू धर्म ग्रंथों और उसके उपयोगिता सम्बन्धी दृष्टिकोण का शोध-परक अध्ययन पेश किया। ‘हिन्दुत्व का दर्शन’ शीर्षक उनके महत्वपूर्ण दस्तावेज में यह अध्ययन शामिल है। इसमें वह वर्णव्यवस्था को सामने लाते हैं और बताते हैं कि हिन्दूवाद या हिन्दुत्व की ब्राह्मणवादी व्यवस्था का मूल है- यह वर्णव्यवस्था ही है। इसमें श्रेणी-विभाजन का आधार वर्ण और जाति को रखा गया है। इसी आधार पर वह जाति को जनतंत्र, समानता, स्वतंत्रता और राष्ट्र की धारणा का निषेध मानते हैं।

उनका कहना है कि जाति सिर्फ श्रम का विभाजन नहीं है, यह श्रमिकों का भी विभाजन है। जाति के कारण मनुष्य की उसके कार्य के प्रति रूचि नहीं रहती। जाति के कारण बुद्धि का शारीरिक श्रम से सम्बन्ध नहीं रहता। यही नहीं, जाति मनुष्य की प्रमुख रूचि को विकसित करने के उसके अधिकार को नकारती है, जिसके कारण मनुष्य अंततः गतिहीनता का शिकार बनता है। जाति व्यवस्था नस्लों का विभाजन नहीं करती, वह एक ही नस्ल के लोगों के बीच सामाजिक-विभाजन कर डालती है।

डॉ. अम्बेडकर के मुताबिक भारतीय समाज व्यवस्था में जाति और वर्ण बेहद अहम् हैं और जाति व वर्ण के बगैर हिन्दू धर्म का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उनकी नजर में जाति राष्ट्र-निर्माण में बाधक है इसलिए हिन्दू धर्म या हिन्दुत्व भी भारतीय राष्ट्र के निर्माण में तब तक बाधक रहेगा, जब तक वह अपने को जाति या वर्ण व्यवस्था से मुक्त नहीं करता। जातियों के विनाश के बगैर यह संभव नहीं। जाति सिर्फ राष्ट्र-विरोधी ही नहीं, समाज-विरोधी भी है। संरचना और भावना, दोनों स्तरों पर वह राष्ट्र और समाज के लिए खतरनाक है।

हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व का सामाजिक-पोस्टमार्टम करते हुए वह मानते हैं कि इस तथ्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिन्दू धर्म मिशनरी-धर्म नहीं है। आज के दौर में तो हरगिज नहीं। सवाल ये नहीं है कि हिन्दू धर्म मिशनरी-धर्म था या नहीं। असल सवाल है कि हिन्दू धर्म मिशनरी-धर्म क्यों नहीं बन सका? अम्बेडकर इस सवाल का जवाब देते हैं, ‘हिन्दू धर्म उसके बाद मिशनरी धर्म नहीं रह गया, जब हिन्दुओं में जाति-प्रथा विकसित होने लगी। जाति और धर्म परिवर्तन साथ-साथ नहीं चल सकते। जाति किसी क्लब जैसी संस्था नहीं है, जिसकी सदस्यता सबके लिए खुली रहती है।’(जाति का विनाश: बी आर अम्बेडकर, हिंदी अनुवाद-राजकिशोर, पृष्ठ 73)।

अम्बेडकर अपने इसी परिप्रेक्ष्य और वैचारिकी के चलते हिन्दुत्व और हिन्दू-राष्ट्रवादियों की विचारधारा के स्थायी विलोम हैं। लेकिन देश की सत्ता पर काबिज आज के हिन्दू-राष्ट्रवादी सिर्फ मौकापरस्त ही नहीं हैं, काफी चतुर भी हैं। उनके पास बड़े आइकॉन नहीं हैं। इसलिए अपने राजनीतिक फायदे के लिए वे हर ऐसे व्यक्ति या महामानव का इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं, जो उनके वोट-बैंक में कुछ इजाफा कर दे। बीते कुछ सालों से अम्बेडकर को उन्होंने अपने निशाने पर रखा है। महामारी के इस भयावह दौर में दवा, अस्पताल, डाक्टर और टीकों की भारी किल्लत के बीच हिन्दुत्ववादियों की सरकार ने ज्योतिबा फुले और बी आर अम्बेड़कर के जन्मदिवस के मौके को ‘टीका उत्सव’ के के रूप में मनाने का ऐलान किया है। फुले की जयंती 11 अप्रैल थी और अम्बेडकर की जयंती आज 14 अप्रैल को है। सरकार चलाने वाले अपने आपको हिन्दू-राष्ट्रवादी कहते हैं और अब वे खुलेआम कहते हैं कि भारत में जो भी रहता है, वह हिन्दू ही माना जायेगा। यानी किसी अन्य धर्म, उसके मानने वाले या किसी भी धर्म को न मानने वाले, सारे लोग अपने आपको हिन्दू ही मानें! क्या ठिकाना एक दिन जनगणना कराते समय आदेश जारी कर दिया जाय कि भारत का हर नागरिक अपने को हिन्दू लिखे। सरकार चलाने वालों और भारतीय जनता पार्टी के लिए आरएसएस उसका सर्वोच्च और वास्तविक मार्गदर्शक है। आरएसएस भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का चिर-आकांक्षी है। इसलिए हिन्दू राष्ट्र भारतीय जनता पार्टी का भी अपना जरूरी एजेंडा है।

आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के इस एजेंडे को अम्बेडकर भारत के लिए बेहद खतरनाक मानते हैं। उनके अपने शब्दों में : ‘अगर वास्तव में हिन्दू राज बन जाता है तो इस देश के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर उनका हिन्दुत्व लोगों की स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है। इस आधार पर यह लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिन्दू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’ (संपूर्ण वांग्मय, अम्बेडकर फाउंडेशन, भारत सरकार नई दिल्ली खंड-15, पृष्ठ 365)।

डॉ. बी आर अम्बेडकर हिन्दू राष्ट्र की धारणा को लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए सिर्फ खतरनाक ही नहीं बताते, वह इसे हर कीमत पर रोकने और इससे देश को बचाने का आह्वान भी करते हैं। आज के दौर में वह हमारे समाज के लिए रास्ता दिखाने वाले बड़े आकाशदीप की तरह हैं। उनकी 130 वीं जयंती पर हमारी श्रद्धांजलि और सलाम!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Indian democracy
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