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भारत
राजनीति
खामोश दल, चिंतित मतदाता: सीएए-एनआरसी-एनपीआर और बिहार चुनाव 
नागरिकता का मुद्दा भले ही विभिन्न दलों के राजनैतिक एजेंडा में प्रमुखता में न छाया हुआ हो, लेकिन बिहार में अभी भी यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बना हुआ है।
बुद्धदेव हलदर
20 Oct 2020
बिहार चुनाव 

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने पिछले साल संसद के दोनों सदनों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2019 को पारित कराने के संबंध में बीजेपी सरकार की मदद की थी, जिसके एक दिन बाद 11 दिसम्बर के दिन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद द्वारा इस बिल पर अपनी रजामंदी दे देने के बाद से यह अधिनियम में तब्दील हो चुका था। हालाँकि नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 या सीएए को लेकर बिहार सहित देश भर में आमतौर पर जनभावना कहीं न कहीं इसके विपरीत बनी हुई थी। दिसम्बर 2019 में बिहार के छह जिलों भागलपुर, पटना, समस्तीपुर, दरभंगा, पूर्वी चम्पारण एवं अररिया में हजारों की संख्या में लोगों ने सड़क पर उतरकर सीएए के खिलाफ जमकर विरोध प्रदर्शन किया था।

इस साल जनवरी के मध्य में जाकर नितीश कुमार ने सीएए और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर अपनी महीने भर की चुप्पी तोड़ी थी और दावा किया था कि वे बिहार विधानसभा के भीतर सीएए को लेकर खुली बहस के लिए तैयार हैं। जबकि एनआरसी के बारे में नितीश कुमार का कहना था कि “इसे बिहार में लागू करने का कोई सवाल ही नहीं उठता, ना ही इसकी कोई जरूरत है।” इस सम्बंध में उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय को भी स्पष्ट संदेश दिया था, जो कि राज्य की कुल आबादी के 17% हिस्से के तौर पर हैं, कि उनके होते हुए उन्हें सीएए को लेकर किसी भी प्रकार की चिंता करने की जरूरत नहीं है।

हालाँकि सीएए और एनआरसी को लेकर बिहार के मुस्लिम मतदाताओं के बीच में नितीश कुमार की मंशा पर सवाल बने हुए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि एनपीआर, एनआरसी और सीएए के बीच कहीं न कहीं स्पष्ट संबंध है, जिसे गृह मंत्री अमित शाह ने विशिष्ट स्पष्टता के साथ यह भी कहा था कि ये सब कार्यान्वयन हेतु क्रोनोलोजी के अविभाज्य अंग के तौर पर उसके हिस्से के बतौर है।

यदि नवम्बर 2018 की बातों को एक बार फिर से याद करें तो उस दौरान नितीश कुमार ने इस बात का दावा किया था कि “बिहार में राजनीतिक और प्रशासनिक मसलों को लेकर जेडीयू और बीजेपी के बीच में किसी भी प्रकार के मतभेद नहीं हैं।” अब जैसा कि उम्मीद थी आगामी विधान सभा चुनावों के मद्देनजर बिहार मुख्यमंत्री ने बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन (एनडीए) के भीतर अपनी पार्टी के लिए जगह बनाने का काम किया है। वास्तव में देखें तो बिहार में एनडीए के नेता के तौर पर उनके द्वारा ही हाल के दिनों में सीटों के बँटवारे की घोषणा की गई है। इसके तहत बीजेपी को 121 सीटें और जेडीयू को 122 सीटें आवंटित की गई हैं, जिसमें सात सीटें राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) को दी जानी तय हुई हैं। याद रहे मांझी भी कई सीएए विरोधी प्रदर्शनों और रैलियों का हिस्सा रहे हैं।

भले ही नितीश कुमार और मांझी ने सीएए, एनआरसी एवं एनपीआर के खिलाफ अपनी आवाज उठाई हो लेकिन इस वर्ष के जनवरी माह में लखनऊ में एक रैली के दौरान गृह मंत्री ने इस बात को दुहराया था कि भले ही विरोध प्रदर्शन जारी रहे लेकिन सीएए को अब निरस्त नहीं किया जायेगा। लेकिन सात महीनों के भीतर जैसे ही बिहार के भीतर चुनावों की धमक तेज हुई, जेडी(यू) और हम दलों ने लाव-लश्कर सहित बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को अपनी पनाहगाह घोषित कर दिया है। उनके इस फैसले से यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सीएए और एनआरसी विरोधी विरोध-प्रदर्शनों में इन दोनों दलों की भागीदारी या सीएए, एनआरसी एवं एनपीआर को लेकर इनका विरोध सिवाय नौटंकी के कुछ नहीं था, या आगामी चुनावी सीजन को देखते हुए मतदाताओं को रिझाने की खातिर यह उनकी ओर से यह एक दिखावा भर था। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेता तेजस्वी यादव ने भी सीएए को लेकर नितीश कुमार के इस “यू-टर्न” को लेकर कड़ी आलोचना की है।

अब जैसा कि केंद्र सरकार समूचे देशभर में एनआरसी और सीएए को लागू करने को लेकर दृढ नजर आ रही है, ऐसे में इस बारे में अंदाजा लगाना स्वाभाविक है कि एनडीए के सत्ता में वापसी की सूरत में नई सरकार पर केंद्र की ओर से राज्य में सीएए और एनआरसी को लागू करने को लेकर दबाव डाला जाना तय है।

दूसरी तरफ यदि लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान की बात करें तो वे सीएए और एनआरसी के कट्टर समर्थक रहे हैं। बीजेपी के साथ भी उनके रिश्ते बेहद प्रगाढ़ हैं। हालांकि संसद के भीतर सीएए को लेकर विधेयक के पारित होने के दो हफ़्तों के भीतर ही बिहार सहित देशभर में सीएए विरोधी विरोध प्रदर्शनों को देखते हुए, पासवान का सुझाव था कि “हमें प्रदर्शनकारियों की भावनाओं का भी सम्मान करना चाहिए” और ऐसा करने की “जिम्मेदारी हमारी सरकार की है” कहा था। लेकिन फरवरी की शुरुआत में एक बार फिर से वे संसद के भीतर सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ बयान देते नजर आये और इसके लिए उन्होंने विपक्षी पार्टियों को जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी जमकर आलोचना करते हुए आरोप लगाये थे कि उनकी वजह से देश में “भय का वातावरण” “पैदा” हो रहा है। इसके एक हफ्ते के भीतर ही जब दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को बुरी तरह से हार का मुहँ देखना पड़ा तो उन्होंने इस बात को स्वीकारा कि शाहीन बाग़ और सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों को निशाना बनाना एक “भूल” थी। 

संसद के भीतर जहाँ पासवान ने सीएए एवं एनआरसी को अपना समर्थन दिया और विपक्षी पार्टियों की आलोचना की थी, वहीँ संसद के बाहर मीडिया के समक्ष, उन्हीं मुद्दों पर उनका रुख मानो शर्मिंदा महसूस करने जैसा बना रहता था। इस बात की प्रबल संभावना है कि ये सब शायद वे बिहार में एलजेपी के लिए चुनाव की तैयारियों को ध्यान में रखकर कर रहे थे, जहाँ दस में से दो मतदाता मुस्लिम हैं।

2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में भी एलजेपी एनडीए का हिस्सा थी, लेकिन आगामी चुनावों में इस बार उसने अकेले ही लड़ने का फैसला लिया है। इस बात को ध्यान में रखना होगा कि इन चुनावों में एलजेपी कहीं भी बीजेपी के खिलाफ चुनाव में नहीं खड़ी है, बल्कि राज्य में उसकी टक्कर जेडीयू से है। कुल मिलाकर लुब्बोलुआब यह है कि चुनावों के उपरान्त एलजेपी ने अपने समर्थन को बीजेपी को ही सुपुर्द करना है। (यह देखना भी बेहद रोचक है कि एलजेपी ने बीजेपी नेता राजेन्द्र सिंह को चुनाव में उतारने का फैसला लिया है, जिन्हें इस बार दिनारा सीट से चुनाव लड़ने का मौका नहीं दिया गया है, क्योंकि बीजेपी-जेडी(यू) सीट-समझौते के फार्मूले के आधार पर यह सीट इस बार जेडी(यू) के खाते में गई है।)

इसलिए एलजेपी इस बार सीएए, एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर बेहद संभलकर दाँव खेल रही है। चिराग पासवान ने हाल के दिनों में इन मुद्दों के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा है। जहाँ एक तरफ एलजेपी मुस्लिम वोटों को अपनी ओर लुभाने में लगी हुई है, वहीँ दूसरी ओर खुद को प्रासंगिक बनाये रखने के लिए उसे बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी की भी आवश्यकता है। यदि इस चुनाव में एलजेपी को अच्छी खासी सीटें हासिल हो जाती हैं तो इस बात की पूरी संभावना है कि चिराग पासवान जो कि खुद को “मोदी का हनुमान” बता रहे हैं, सीएए, एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर पुरजोर समर्थन करते नजर आयेंगे। और इसके साथ ही मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों एवं अन्य पिछड़ी जातियों की बहुतायत वाले इस बिहार में भारत को एक और असम देखने को मिल सकता है। लाखों बिहार वासियों के समक्ष अपनी नागरिकता के खोने का संकट उत्पन्न हो सकता है और संभवतया वे राज्य-विहीन हो जायें।

दिल्ली चुनाव के नतीजों ने इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि मतदाता उन दलों को नापसंद कर रहे हैं जो समुदायों के ध्रुवीकरण में रूचि रखते हैं। फरवरी माह में दिल्ली में हुई हिंसा को लेकर समाज का एक बड़ा वर्ग केंद्र सरकार की अकर्मण्यता को लेकर बेहद निराश था।  कोरोनावायरस के चलते लगाये गए लॉकडाउन से पहले तक सीएए का मुद्दा बिहार चुनाव में सबसे अहम् बना हुआ था। लेकिन महामारी के दौरान फैली अव्यवस्था एवं प्रवासी मजदूरों के दुःख-दर्द के प्रति रूखेपन, बढ़ती बेरोजगारी और नई कृषक नीतियों ने ऐसा लगता है कि राजनीतिज्ञों के लिए सीएए और एनआरसी को कम महत्वपूर्ण बना दिया है।

हालाँकि फिलवक्त राजनीतिज्ञों के अजेंडे में सीएए, एनआरसी और एनपीआर जैसे मुद्दे प्रमुखता में नहीं हैं, लेकिन इस सबके बावजूद बिहार में ये मुद्दे न सिर्फ मुस्लिम मतदाताओं के लिए बल्कि दलित एवं आदिवासी मतदाताओं के लिए भी बेहद अहम बने हुए हैं। मिसाल के तौर पर बिहार के औरंगाबाद के कुरैशी मोहल्ले के एक मतदाता मुहम्मद मजहर हुसैन के बयान पर ही एक बार गौर करें। उन्हें हाल ही में चर्चा में आये एक वीडियो रिपोर्ट यह कहते सुना जा सकता है “बिहार में एनआरसी को लागू नहीं करने को लेकर जो प्रस्ताव पास किया गया था, वह एक ड्रामा भर था...एक बार बिहार में चुनाव खत्म हो जाने के बाद यही जेडीयू के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार एनआरसी को लागू करने के लिए आगे आ जाएगी।” अपने इलाके में हुई “हिंसा” के लिए वे प्रशासन को जिम्मेदार ठहराते हैं, जिसमें एनआरसी विरोधी आन्दोलन के दौरान महिलाओं, बच्चों और बूढ़े नागरिकों तक के साथ मारपीट की गई थी। वे आगे कहते हैं “एक बार मुख्यमंत्री नितीश कुमार कहते हैं कि वे एनआरसी को लागू नहीं करेंगे, फिर वह पीछे के रास्ते से मोदी का हाथ थाम लेते हैं। यदि वे इसे लागू नहीं करना चाहते तो [संसद में] उन्होंने भला इसका समर्थन ही क्यों किया था...”

बिहार में मौजूद अन्य राजनीतिक पार्टियों जैसे कि आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों का वजूद वर्तमान महागठबंधन के भीतर सुदृढ़ बना हुआ है। इसके घटकों ने संसद के भीतर सीएए के खिलाफ मतदान किया था और संसद के बाहर भी इन्होने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों और रैलियों में भागीदारी की थी। एनआरसी की प्रक्रिया को भी ये पार्टियाँ अपना समर्थन नहीं देतीं। इस प्रकार इस बात की उम्मीद की जा सकती है कि यदि महागठबंधन सत्ता में आता है तो यह बिहार में सीएए और एनआरसी को लागू नहीं होने देगा। सत्ता में काबिज न होने की स्थिति में महागठबंधन को अल्पसंख्यकों, दलितों, हाशिये पर पड़े लोगों एवं अन्य नागरिकों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक रणनीति बनाने को लेकर विचार करना होगा। 

लेखक यॉर्क विश्वविद्यालय से कला एवं मानविकी अनुसन्धान परिषद द्वारा वित्त पोषित प्रोजेक्ट “रिइमेजिनिंग सिटीजनशिप: द पॉलिटिक्स ऑफ़ सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट इन इण्डिया” में पोस्ट-डॉक्टरेट रिसर्च एसोसिएट के तौर पर सम्बद्ध हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Silent Parties, Anxious Voters: CAA-NRC-NPR and Bihar Election

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