NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
पुस्तकें
भारत
राजनीति
किताब: दो कविता संग्रहों पर संक्षेप में
अनुराधा सिंह के कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ और देवेंद्र मोहन के कविता संग्रह ‘क़िस्सागोई’ पर कवि व पत्रकार अजय सिंह की टिप्पणी
अजय सिंह
24 Jan 2021
किताब

कवि अनुराधा सिंह (जन्म 1971) की कविताओं में सेंसुअस लोकतांत्रिक चेतना मिलती है, ख़ासकर औरत - मर्द के रिश्ते के मसले पर, और यह चेतना बराबर अपने लिए स्वतंत्र जगह की मांग करती है। यह उनकी कविताओं की ख़ास बात है। उनका पहला कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ (2018, भारतीय ज्ञानपीठ) इस चेतना और मांग को प्रतिबिंबित करता है।

संग्रह में शामिल 74 कविताओं में (ज़्यादातर कविताएं आकार में छोटी हैं) अनुराधा सिंह की लोकतांत्रिक चेतना थोड़ी रेडिकल-थोड़ी वाममुखी है। हालांकि वहां हिचक भी दिखायी देती है कि उसे प्रखर, आगेदेखू होना चाहिए या नहीं, और उसे मर्मस्थल की शिनाख़्त कर उस पर चोट करनी चाहिए या नहीं। यह कशमकश, यह अंतर्द्वंद्व बाज़ वक़्त उनकी कविताओं को नया तेवर भी देता है, और आगे क़दम बढ़ाने से रोक भी देता है। जाहिर है, यह स्थिति लंबे समय तक बनी नहीं रह सकती।

अनुराधा सिंह की कविताओं में औरत अपनी आज़ादी की ख़्वाहिश का नया व्याकरण रचने की कोशिश करती दिखायी देती है। जैसे, ये पंक्तियां: ‘अब तय करना/किस भाषा में मिलोगे मुझसे/क्योंकि मैं तो व्याकरण से उलट/परिभाषाएं तोड़ कर मिलूंगी’ (पेज 26)। या, ये पंक्तियां, जो ज़बर्दस्त हैं, और बहसतलब भी: ‘जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा/दरअसल उन्होंने ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया।’ (पेज 12) अब यह जो औरत है, वह संदेह करती है, सवाल करती है, बहस करती है। और यह लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार ही है।

संकेत हैं, लेकिन इस औरत का स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में उभरना—जहां मर्द से अलग उसकी निजी सत्ता व यौनिकता हो—और दावेदारी पेश करना अभी बाक़ी है। औरत को मर्द के ही संदर्भ/प्रसंग में क्यों देखा जाये और ‘बूढ़े आदमी की जवान प्रेमिका की तरह’ (पेज 17) - जैसी पिटी-पिटाई लाइन क्यों लिखी जाये? (बूढ़ी औरत का जवान प्रेमी भी हो सकता है!) नयी मानवीय संवेदना के आधार पर, गैर-पितृसत्तात्मक धरातल पर, अलग ढंग का जो औरत-मर्द रिश्ता बनता नज़र आ रहा है (जिसमें दोस्ती व सहभागिता है)—या जिसकी कल्पना बार-बार कौंधती है—उसकी सकारात्मकता व जटिलता की पहचान अभी बाक़ी है।

अनुराधा सिंह की कविताओं में मुसलमान औरत, दलित औरत, आदिवासी औरत, हाशिए पर फेंक दी गयी औरत, मेहनतकश - संघर्षशील औरत की आमद अभी होना है। ‘सद्दाम हुसैन हमारी आखि़री उम्मीद था’ शीर्षक कविता का औचित्य क्या है, यह मेरी समझ में नहीं आया। इसी तरह, एक कविता में कारखाने की चिमनी और बंदूक को एक ही पलड़े पर रखना (पेज 11)–दोनों को एक समान विध्वंसक बताना—निहायत बेतुका है।

कवि से यह उम्मीद की जायेगी कि भविष्य में उसकी कविताओं में सामाजिक-राजनीतिक सरोकार व्यापक व सघन होंगे, और उन्हें कलात्मक अभिव्यक्ति मिलेगी। यह काम किसी एनजीओ (गै़र-सरकारी संगठन) से जुड़कर नहीं, बल्कि सचेत व संगठित जनोन्मुख वैचारिक-राजनीतिक प्रक्रिया और व्यवहार से जुड़ कर ही हो पायेगा। अनुराधा सिंह अगर चाहें, तो इस सिलसिले में वह शमशेर बहादुर सिंह, गोरख पांडेय व नाज़िम हिकमत की कविताओं से मदद ले सकती हैं।

पत्रकार और कवि देवेंद्र मोहन (जन्म 1950) के पहले कविता संग्रह ‘क़िस्सागोई’ (2020, संभावना प्रकाशन) में अतीतमोह या अतीत की याद (नास्टेल्जिया) की कई छवियां तैरती-उतराती हैं। ख़बरों, सूचनाओं, घटनाओं व संस्मरणों (काल्पनिक या वास्तविक) की आवाजाही इन छवियों में होती रहती है। अब यह आवाजाही कितनी अख़बारी है और कितनी संवेदनात्मक, यह एक अलग मसला है।

क़रीब 90 कविताओं के इस संग्रह में बंबई (अब मुंबई) शहर और मुंबई फ़िल्म उद्योग काफ़ी हद तक छाया हुआ है। मधुबाला, मीना कुमारी, सआदत हसन मंटो, देव आनंद, किदार शर्मा (किदार शर्मा पर तीन कविताएं हैं), तलत महमूद, मोहम्मद रफ़ी, साहिर लुधियानवी, सेठ चंदूलाल शाह, समुद्र, टाटा हस्पताल (अस्पताल-टाटा हस्पताल पर चार कविताएं हैं), आदि-इन सब पर इस संग्रह में कविताएं हैं। देवेंद्र सत्यार्थी, इंतिज़ार हुसैन, श्रीकांत वर्मा और फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा पर भी कविताएं हैं।

अब ये कविताएं अख़बारीपना व सूचनाओं से इस कदर भरी हुई हैं कि वे हमारी काव्यात्मक संवेदना में इज़ाफ़ा नहीं कर पातीं। अख़बारी वस्तुपरकता और कविता की संवेदनात्मकता के बीच द्वंद्वात्मक व कल्पनाशील रिश्ता क़ायम कर पाना बहुत मुश्किल काम है। संग्रह में पाकिस्तानी लेखक इंतिज़ार हुसैन पर कविता तो प्रतिक्रियावादी भी है-उसमें हिंदुत्व का टोन मौजूद है। इसी तरह, एक कविता में (पेज 213) महान मुग़ल सम्राट औरंगजे़ब पर की गयी अभद्र व ऊलजलूल टिप्पणी हिंदुत्व-प्रेरित लगती है। ‘क़ौमी तराना’ शीर्षक कविता रद्दी होने के साथ पाकिस्तान-विरोधी भी है।

मंगलेश डबराल पर लिखी गयी कविता ‘मंगलेश की चाय’ (1970) वाक़ई अच्छी और मार्मिक है। लेकिन संग्रह में देवेंद्र मोहन ने आपातकाल (1975-77) के दौरान लिखी अपनी कविताओं को क्यों शामिल किया है, यह समझ से बाहर है। आपातकाल पर इतना कुछ लिखा जा चुका है, और ये कविताएं उसमें कुछ नया नहीं जोड़तीं। बल्कि वे कविता भी नहीं लगतीं, बासी अख़बारी सूचनाएं ज़्यादा लगती हैं।

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Books
Hindi books
Devendra Mohan
Anuradha Singh
Muslim woman
Dalit woman
tribal woman
gender discrimination
manglesh dabral

Related Stories

क्यों प्रत्येक भारतीय को इस बेहद कम चर्चित किताब को हर हाल में पढ़ना चाहिये?

किताबें : सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं

गीता हरिहरन का उपन्यास : हिंदुत्व-विरोधी दलित आख्यान के कई रंग

यादें; मंगलेश डबरालः घरों-रिश्तों और विचारों में जगमगाती ‘पहाड़ पर लालटेन’

कोरोना लॉकडाउनः ज़बरिया एकांत में कुछ और किताबें

कोरोना लॉकडाउनः ज़बरिया एकांत के 60 दिन और चंद किताबें


बाकी खबरें

  • वसीम अकरम त्यागी
    विशेष: कौन लौटाएगा अब्दुल सुब्हान के आठ साल, कौन लौटाएगा वो पहली सी ज़िंदगी
    26 May 2022
    अब्दुल सुब्हान वही शख्स हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेशक़ीमती आठ साल आतंकवाद के आरोप में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बिताए हैं। 10 मई 2022 को वे आतंकवाद के आरोपों से बरी होकर अपने गांव पहुंचे हैं।
  • एम. के. भद्रकुमार
    हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आईपीईएफ़ पर दूसरे देशों को साथ लाना कठिन कार्य होगा
    26 May 2022
    "इंडो-पैसिफ़िक इकनॉमिक फ़्रेमवर्क" बाइडेन प्रशासन द्वारा व्याकुल होकर उठाया गया कदम दिखाई देता है, जिसकी मंशा एशिया में चीन को संतुलित करने वाले विश्वसनीय साझेदार के तौर पर अमेरिका की आर्थिक स्थिति को…
  • अनिल जैन
    मोदी के आठ साल: सांप्रदायिक नफ़रत और हिंसा पर क्यों नहीं टूटती चुप्पी?
    26 May 2022
    इन आठ सालों के दौरान मोदी सरकार के एक हाथ में विकास का झंडा, दूसरे हाथ में नफ़रत का एजेंडा और होठों पर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का मंत्र रहा है।
  • सोनिया यादव
    क्या वाकई 'यूपी पुलिस दबिश देने नहीं, बल्कि दबंगई दिखाने जाती है'?
    26 May 2022
    एक बार फिर यूपी पुलिस की दबिश सवालों के घेरे में है। बागपत में जिले के छपरौली क्षेत्र में पुलिस की दबिश के दौरान आरोपी की मां और दो बहनों द्वारा कथित तौर पर जहर खाने से मौत मामला सामने आया है।
  • सी. सरतचंद
    विश्व खाद्य संकट: कारण, इसके नतीजे और समाधान
    26 May 2022
    युद्ध ने खाद्य संकट को और तीक्ष्ण कर दिया है, लेकिन इसे खत्म करने के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका को सबसे पहले इस बात को समझना होगा कि यूक्रेन में जारी संघर्ष का कोई भी सैन्य समाधान रूस की हार की इसकी…
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License