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  • Ghaffar Khan
    राजमोहन गांधी
    सीमांत गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष: सभी रूढ़िवादिता को तोड़ती उनकी दिलेरी की याद में 
    21 Jan 2022
    राजमोहन गांधी की लिखी किताब, 'गफ़्फ़ार ख़ान: नॉनवायलेंट बादशाह ऑफ़ द पख़्तून्स' का एक अंश।
  • josy
    अली किरमानी
    क्यों प्रत्येक भारतीय को इस बेहद कम चर्चित किताब को हर हाल में पढ़ना चाहिये?
    13 Dec 2021
    खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ के द्वारा लिखित द साइलेंट कूप से खुलासा होता है कि भारतीय डीप स्टेट कैसे अपने आवरण में काम करता रहता है।
  • शाहीन बाग़ में लगे हुए भारत के मानचित्र
    सौरभ शर्मा
    एंटी-सीएए विरोध की आत्मा को फिर से जीवंत करती एक ग्राफ़िक बुक
    07 Aug 2021
    इटा मेहरोत्रा की 'शाहीन बाग़: ए ग्राफ़िक रिकॉलेक्शन' दृश्यात्मक अर्थ विज्ञान की तलाश करती एक ऐसी किताब है, जो प्रतीक बन चुके विरोध स्थल को मुश्किल समय में फिर से जीवंत करने में मदद करती है।
  • किताबें : सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं
    अजय सिंह
    किताबें : सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं
    29 Apr 2021
    कई बार सरहदें मिलनबिंदु का काम करती हैं, और अक्सर उनके बीच तनाव व टकराहट भी बनी रहती है। साहित्य व कला में यह चीज़ नयी अभिव्यक्ति, नया संयोजन (केमिस्ट्री) पैदा करती है।
  • आई हैव बिकम द टाइड
    अजय सिंह
    गीता हरिहरन का उपन्यास : हिंदुत्व-विरोधी दलित आख्यान के कई रंग
    23 Feb 2021
    322 पेज का उपन्यास ‘आई हैव बिकम द टाइड’ कई शताब्दियों की यात्रा करता है। यह उपन्यास दलित ज़िंदगियों व जाति असमानता और जाति उत्पीड़न के बारे में है, जो सदियों से जारी है। क़रीब 900 सालों तक इसकी कथा…
  • The Ultimate Goal
    के एस सुब्रमण्यन
    भारतीय गुप्तचर एजेंसियों पर लिखी गई फिर एक नई किताब, लेकिन नहीं मिलती कोई नई जानकारी
    14 Feb 2021
    रॉ के पूर्व प्रमुख की किताब भारत के अतीत और भविष्य के बारे में जितनी जानकारी देती है, उससे कहीं ज़्यादा छोड़ देती है
  • किताब
    अजय सिंह
    किताब: दो कविता संग्रहों पर संक्षेप में
    24 Jan 2021
    अनुराधा सिंह के कविता संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ और देवेंद्र मोहन के कविता संग्रह ‘क़िस्सागोई’ पर कवि व पत्रकार अजय सिंह की टिप्पणी
  • क्या लोकलुभावनवाद, बहुसख्यकवाद से अलग है?
    अजय गुदावर्ती
    क्या लोकलुभावनवाद, बहुसंख्यकवाद से अलग है?
    19 Nov 2020
    उदारवादी होने के अपने ख़तरे हो सकते हैं,लेकिन ज़रूरी तो नहीं कि लोकतांत्रिक या समावेशी होने के भी ऐसे ही ख़तरे हों।
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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License