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किताबें : सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं
कई बार सरहदें मिलनबिंदु का काम करती हैं, और अक्सर उनके बीच तनाव व टकराहट भी बनी रहती है। साहित्य व कला में यह चीज़ नयी अभिव्यक्ति, नया संयोजन (केमिस्ट्री) पैदा करती है।
अजय सिंह
29 Apr 2021
किताबें : सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं

सरहदें सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं होतीं: वे हमारी आत्मा में भी खिंची होती हैं। हमारे आत्मजगत और यथार्थजगत या बाहरी दुनिया के बीच कई सरहदें होती हैं, और उनके बीच मिलनबिंदु भी होते हैं। कई बार सरहदें मिलनबिंदु का काम करती हैं, और अक्सर उनके बीच तनाव व टकराहट भी बनी रहती है। साहित्य व कला में यह चीज़ नयी अभिव्यक्ति, नया संयोजन (केमिस्ट्री) पैदा करती है।

कवि, अनुवादक व गद्यकार प्रेमलता वर्मा (जन्म 1938) का दूसरा कविता संग्रह ‘दो सरहदों के बीच’ (2012, साहित्य भंडार) इसी कशमकश, द्वंद्व व मिलनबिंदु  को आत्मीय व रचनात्मक गहनता के साथ अभिव्यक्त करता है। 248 पेज के इस संग्रह में 93 कविताएं हैं, जो कवि के ‘आत्ममंथन की स्थिति’ का अता-पता देती हैं। ‘आत्ममंथन’ कई स्तरों पर रहा है, जिसकी झलक इस संग्रह से मिलती है। यह संग्रह बताता है कि कवि के रचनात्मक आवेग और संवेदनात्मक सक्रियता में कमी नहीं आयी है—वह सघन और प्रखर होती चली गयी है।

प्रेमलता वर्मा का पहला कविता संग्रह ‘सुइयों का पैरहन’ 1970 में आया था, राधाकृष्ण प्रकाशन (दिल्ली) से। 42 साल बाद, 2012 में, उनका दूसरा कविता संग्रह छपने की नौबत आ पायी। हिंदी साहित्य जगत में कवि व गद्यकार के रूप में प्रेमलता वर्मा की अच्छी-ख़ासी ख्याति रही है। इसके बावजूद अब तक उनके कुल दो कविता संग्रह ही आ पाये हैं, और उन दोनों के बीच 42 साल का फ़ासला है। कवि/लेखक अगर संपर्क साधने की कला (नेटवर्किंग) में माहिर नहीं है, तो उसे ऐसी स्थिति झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए!

इस बीच, प्रेमलता दिल्ली छोड़ कर लातिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में बस गयीं। क़रीब 50 साल होने को आ रहे हैं, वह वहीं हैं। लेकिन उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं छोड़ी हैं, और वह भारत की नागरिक हैं।

अब यह दो संस्कृतियों, दो परिवेशों—भारत और अर्जेंटीना—के बीच जो द्वंद्व व टकराहट है, साथ ही दोनों के बीच आत्मीय मिलनबिंदु भी है—यही ‘दो सरहदों के बीच’ की कई कविताओं में व्यक्त हुआ है। ‘पैडल में उलझी भाषा’, ‘ब्रेज़री बेचनेवाली’, ‘शमशेर जी के प्रति’, ‘देलियो कास्त्रो का पियानो सुनकर’, ‘खेल’, ‘हथकड़ी’, ‘बहुजन हिताय’, आदि कविताएं कई तरह की अर्थ ध्वनियां लिये हुए हैं।

'विस्मृति के रहगुज़र’ 

कवि अशोकचंद्र (जन्म 1956) की संस्मरण किताब ‘विस्मृति के रहगुज़र’ (2016, अनिमेष फ़ांउंडेशन) दरअसल यादों का झरोखा है - स्मरण, संस्मरण, लेख व डायरी का मिलाजुला रूप। यह पढ़ने लायक किताब है। इसमें कई हिंदी साहित्यकारों को बड़ी आत्मीयता व सजलता के साथ याद किया गया है, उनके बारे में लिखा गया है, और एक लेख (स्मृतिसभा की रिपोर्टिंग) भाकपा (माले-लिबरेशन) के दिवंगत महासचिव विनोद मिश्र पर है।

जिन साहित्यकारों को याद किया गया है/उन पर लिखा गया है, उनके नाम हैं: सुरेंद्रपाल, त्रिलोचन, मधुकर सिंह, अनिल सिन्हा, वीरेन डंगवाल, मोहन थपलियाल, संजीव, महेश्वर, बीर राजा, गंगाप्रसाद मिश्र, और ठाकुरप्रसाद सिंह। इनमें उपन्यासकार संजीव को छोड़ कर बाक़ी सब दुनिया से विदा हो चुके हैं।

‘विस्मृति के रहगुज़र’ में मुझे जो सबसे ख़ास लेख लगा, वह है, भुला दिये गये कवि सुरेंद्रपाल (1932-1970) पर लिखा गया लेख, ‘सुरेंद्रपाल की कविता-उत्खनन की ज़रूरत’। अशोकचंद्र ने कवि सुरेंद्रपाल के जीवन, संघर्ष और उनके एकमात्र कविता संग्रह ‘शीत भीगा भोर’ (1963) पर गहरे लगाव व भाव-प्रबलता के साथ लिखा है। इससे पता चलता है कि असमय मौत के शिकार और उपेक्षित-अलक्षित रह गये सुरेंद्रपाल में कितनी काव्य प्रतिभा और ऊर्जा थी। अशोकचंद्र ने उनकी कई कविता पंक्तियां उद्धृत की हैं। एक नमूना देखियेः ‘आकाश से—/अदृश्य चीज़ों की बारिश हो रही है।/रात—/सोने के खेत में चांदी बो रही है।’

'मोहभंग'

लेखक चंद्रमोहन सिंह (जन्म 1946) के पहले कहानी संग्रह ‘मोहभंग’ (2020, आईसेक्ट) में 14 कहानियां हैं। 103 पेज के इस संग्रह में कई कहानियां आकार में छोटी हैं। अक्सर लगता है, कहानी बनते-बनते रह गयी। शायद स्पेस और दिया जाता, शायद मेहनत और की जाती, शायद विज़न का विस्तार किया जाता, तो कहानी निखर आती।

चंद्रमोहन के पास थीम और सोच तो है, लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि कहानी को व्यक्ति चित्र और स्मरण चित्र होने से बचाया जाये। ‘मोहभंग’, ‘परिंदे जेल के’, ‘कुछ नहीं’, आदि कहानियां कहानी बनते-बनते रह गयी हैं।

लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। 

Books
Premlata Verma
Ashok Chandra
Chandramohan Singh

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