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सोशल मीडिया
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राजनीति
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगाम से थमती लोकतंत्र की सांस!
देश की शीर्ष अदालत ने पश्चिम बंगाल की सरकार को आईना दिखाते हुए कहा है कि आपको सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। भारत को एक आज़ाद देश की तरह बर्ताव करना चाहिए। हम बतौर सुप्रीम कोर्ट बोलने की आज़ादी की रक्षा करते हैं।
अमित सिंह
31 Oct 2020
अभिव्यक्ति की आज़ादी

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर छोटे-बड़े हमले और प्रतिबंधों को झेलते हुए हमारे लोकतंत्र ने कई दशक पार किए हैं लेकिन पिछले एक दशक में खासकर जब से सोशल मीडिया की ताकत आम जन को मिली है, इस पर खतरा बढ़ गया है।

इसका कारण यह है कि सरकारों और राजनीतिक दलों को इन पर होने वाली खरी टिप्पणियां बर्दाश्त नहीं होतीं है। गत बुधवार को कथित रूप से मानहानि करने वाले सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर राज्य सरकारों की कार्रवाई के ट्रेंड पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता जताई है।

फेसबुक पोस्ट से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा है कि आम नागरिकों को सरकार की आलोचना के लिए प्रताड़ित नहीं किया जा सकता। स्वतंत्र भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी है।

असल में दिल्ली की रहने वाली एक महिला ने लॉकडाउन के दौरान कोलकाता के राजाबाजार इलाके की भीड़भाड़ की तस्वीर शेयर करते हुए लॉकडाउन नियमों की ढिलाई पर सवाल उठाए थे तथा ममता बनर्जी सरकार की आलोचना की थी। जिसके बाद कोलकाता पुलिस ने महिला के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर उसे थाने में हाजिर होने के लिए समन भेजा था। इस आदेश के खिलाफ महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी।

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने मामले की सुनवाई करते हुए आर्टिकल 19(1)(a) के तहत नागरिकों की बोलने की आज़ादी की हर कीमत पर रक्षा करने की बात कही।

खंडपीठ ने कहा, 'आपको सीमा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। भारत को एक आजाद देश की तरह बर्ताव करना चाहिए। हम बतौर सुप्रीम कोर्ट बोलने की आज़ादी की रक्षा करते हैं। संविधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के गठन के पीछे यही कल्पना थी कि ये आम नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और ये सुनिश्चित करेगा कि राज्य उसे परेशान न करें।'

खंडपीठ ने सख्त लहजे में कहा, 'दिल्ली में रह रहे व्यक्ति को कोलकाता में समन करना हैरेसमेंट है। कल को मुंबई, मणिपुर या फिर चेन्नई की पुलिस इस तरह करेगी। आप बोलने की आज़ादी चाहते हैं या नहीं। हम आपको सबक सिखाएंगे।... यह खतरनाक ट्रेंड है।'

सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करने वालों के खिलाफ पश्चिम बंगाल सरकार की सक्रियता का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले 13 अप्रैल 2012 को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ एक कार्टून फॉरवर्ड करने के मामले में जादवपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अंबिकेश महापात्र को भी गिरफ्तार किया गया था। बाद में अदालत से उन्हें जमानत मिली।

बीते साल मई में बीजेपी की युवा मोर्चा नेता प्रियंका शर्मा को भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून पोस्ट करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उन्हें 14 दिन पुलिस हिरासत में रहना पड़ा था। उस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रियंका को जमानत पर रिहा करते हुए सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी।

नया नहीं है ट्रेंड

सोशल मीडिया पर थोड़ी सी तल्ख टिप्पणी पर देश की तमाम राज्य सरकारों द्वारा लोगों को गिरफ्तार करने का ट्रेंड नया नहीं है। इसमें देश की लगभग सभी दलों की सरकारें शामिल हैं। पिछले एक दशक में बड़ी संख्या में लोग इसके शिकार बने हैं। हाल में सोशल मीडिया पर टिप्पणी के चलते गिरफ्तारी के कई मामले में उत्तर प्रदेश में भी हुए हैं।

दिलचस्प बात यह है कि अदालतों द्वारा सख्त टिप्पणी के बाद भी राज्य सरकारों द्वारा ऐसी कार्रवाई लगातार की जा रही है। बता दें कि कुछ दिन पहले एक विवादित ट्विटर पोस्ट को लेकर दिल्ली के पत्रकार प्रशांत कनौजिया को भी उत्तर प्रदेश पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और दो महीने से ज्यादा समय तक प्रशांत को जेल में रहना पड़ा है। उन्हें पिछली साल भी एक ट्वीट के लिए यूपी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था जिसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

यही नहीं उत्तर प्रदेश में तो पिछले दिनों बड़ी संख्या में पत्रकारों को भी सरकार को असहज करने वाली खबरों और ट्वीट के लिए एफआईआर और गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा है। इसमें द वायर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन, स्क्रॉल की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा, फतेहपुर जिले के पत्रकार अजय भदौरिया, मिर्जापुर में मिड डे मील में धांधली की खबर दिखाने वाले पत्रकार पवन जायसवाल, आज़मगढ़ में जनसंदेश टाइम्स के पत्रकार संतोष जायसवाल जैसे कई लोग शामिल हैं।

पिछले एक दशक में आई तेजी

देश में जैसे जैसे सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म ने जनता के बीच अपनी पहुंच बढ़ाई, वैसे-वैसे इस ट्रेंड को बढ़ावा मिलता गया है। पिछले कुछ सालों में देश के कई राज्यों में सोशल साइटों पर नेताओं के खिलाफ बयान देने पर अब तक कई लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है। गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद से इसमें इजाफा ही हुआ है।

वैसे अगर कुछ चर्चित मामलों की चर्चा की जाय तो वर्ष 2011 में बिहार में विधान परिषद के कर्मचारी और कवि मुसाफिर बैठा को फेसबुक पर सरकार के कामकाज की आलोचना के लिए नौकरी से निलंबित कर दिया गया था।

इसी तरह 2012 में मुंबई की दो लड़कियों शाहीन ढाडा और रीनू श्रीनिवासन को शिव सेना प्रमुख बाला साहेब ठाकरे की अंतिम यात्रा पर मुंबई बंद को लेकर फेसबुक पर कमेंट करने के एवज में गिरफ्तार कर लिया गया था। 2012 में यूपीए सरकार में मंत्री रहे पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम के खिलाफ ट्वीट करने पर बिजनेसमैन रवि श्रीनिवासन की गिरफ्तार किया गया था।

साल 2012 में ही अन्ना आंदोलन से जुड़े कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को फेसबुक पर यूपीए सरकार के घोटालों को लेकर एक कार्टून पोस्ट करने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था।

6 अगस्त 2013 को दलित साहित्यकार कंवल भारती को फेसबुक पर यूपी में सपा सरकार की आलोचना वाले एक पोस्ट के बाद गिरफ्तार कर लिया गया था। 05 अगस्त 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ फेसबुक पर कथित आपत्तिजनक पोस्ट लिखने के चलते केरल के कोल्लम जिले में सीपीआई (एम) कार्यकर्ता राजेश कुमार को गिरफ्तार कर लिया गया था।

18 मार्च 2015 को उत्तर प्रदेश के शहरी विकास मंत्री आज़म ख़ान के नाम पर विवादास्पद कमेंट करने पर बरेली में 11वीं कक्षा के एक छात्र को गिरफ्तार कर लिया गया था।

गौरतलब है कि सर्वोच्‍च न्यायालय के न्यायमूर्ति जे.चेलमेश्वर और आरएफ नरीमन की पीठ ने 24 अप्रैल, 2015 को जनहित याचिका पर सुनवाई कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आधारभूत मूल्य घोषित करते हुए सूचना तकनीक कानून की धारा 66-ए (IT ACT Section 66 A) को खत्म करने का निर्देश दिया। बड़ी संख्या में गिरफ्तारी इसी कानून के तहत की गई थी।

उस समय सुप्रीम कोर्ट ने दलील थी कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन कायम करना सरकार की जिम्मेदारी है। सरकारें खुद तय करें कि यह काम कैसे किया जाए। लेकिन कानून का भय दिखाकर बोलने की आज़ादी पर प्रतिबंध लगाना संविधान के अनुच्छेद 19-(1) के तहत प्रदत्त वैचारिक अभिव्यक्ति की आज़ादी का हनन है।

हालांकि इसके बाद भी सोशल मीडिया पर पोस्ट को लेकर राज्य सरकारों द्वारा गिरफ्तारी का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। जबकि देश की तमाम अदालतें इसे लेकर सरकारों को चेतावनी देती रही हैं।

इसी साल की शुरुआत में त्रिपुरा हाईकोर्ट ने कहा है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट डालना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। महज इसके लिए किसी की गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है।

लगातार बढ़ती जा रही है पाबंदी

सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने गत सोमवार को एक कार्यक्रम में कहा कि फ्री प्रेस और भाषण पर पाबंदी लगाने के लिए कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि कानून के उपयोग और दुरुपयोग का एक घातक कॉकटेल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है, ये खासकर उनके लिए है जो अपनी आवाज बुलंद करना जानते हैं।

गौरतलब है कि कई राज्य सरकारें सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के लिए अध्यादेश का भी सहारा ले रही हैं। इसमें केरल की पिनराई विजयन सरकार भी शामिल है। खबरों के मुताबिक केरल सरकार एक अध्यादेश ला रही है जिसके तहत मानहानिकारक सामग्री छापने वालों को पांच साल की जेल हो सकती है।

अध्यादेश का उद्देश्य केरल पुलिस अधिनियम में संशोधन करना है। सरकार अधिनियम में अनुच्छेद 118 (ए) जोड़ना चाहती है, जिसके तहत "यदि कोई किसी भी व्यक्ति को धमकाने, उसका अपमान करने या उसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के इरादे से किसी सामग्री की रचना करेगा, छापेगा या उसे किसी भी माध्यम से आगे फैलाएगा उसे पांच साल जेल या 10,000 रुपये जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।"

इसे लेकर जानकारों का कहना है कि आईपीसी की 499 और 500 धाराओं के तहत मानहानि का मामला दर्ज करने के लिए एक निवेदक की जरूरत होती है, लेकिन केरल के इस नए अध्यादेश के लागू होने के बाद पुलिस खुद ही किसी के भी खिलाफ मामला दर्ज कर सकती है।

जहां केरल सरकार के अनुसार यह अध्यादेश सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वाली सामग्री और इंटरनेट के जरिए लोगों पर हमलों से लड़ने के लिए लाया जा रहा है वहीं, अध्यादेश के आलोचकों का कहना है कि इसकी शब्दावली ऐसी रखी गई है कि इसकी परिधि में सिर्फ सोशल मीडिया नहीं, बल्कि प्रिंट और विज़ुअल मीडिया और यहां तक कि पोस्टर और होर्डिंग भी आ जाएंगे।

लोकतंत्र की घुटती सांसें

स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टिट्यूट की साल 2020 की डेमोक्रेसी रिपोर्ट में पाया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने के कगार पर है।

2014 में स्थापित वी-डेम एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है, जो गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में स्थित है। इसमें साल 2017 के बाद से प्रत्येक वर्ष दुनियाभर की एक डेटा आधारित लोकतंत्र रिपोर्ट प्रकाशित की है।

रिपोर्ट में 'उदार लोकतंत्र सूचकांक' में भारत को 179 देशों में 90वाँ स्थान दिया गया है। भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका 70वें स्थान पर है जबकि नेपाल 72वें नंबर पर है।

रिपोर्ट की प्रस्तावना में उल्लेख है कि भारत ने लगातार गिरावट का एक रास्ता जारी रखा है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है। रिपोर्ट में पाया गया कि भारत जनसंख्या के मामले में निरंकुशता की व्यवस्था की ओर आगे बढ़ने वाला सबसे बड़ा देश है।

इसी तरह दुनिया भर में प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत का स्थान पहले भी काफी नीचे था जो लगातार गिरता ही जा रहा है। इसी साल अप्रैल महीने में जारी हुए रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के वार्षिक विश्लेषण के अनुसार वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में 180 देशों में भारत 142वें स्थान पर है।

गौरतलब है कि लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला कोई भी शासन बोलने की आज़ादी के अधिकार को कम नहीं कर सकता। और अगर किन्हीं हालात में किसी भी पक्ष की ओर से बोलने के अधिकार पर पाबंदी लगाई जाती है या उसे बाधित किया जाता है तो इससे लोकतंत्र को ही नुकसान पहुंचेगा।

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