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बजट की फाँस – कुआँ भी, खाई भी!
जब बजट पेश हुआ तो पता चला कि सरकार ने कुआँ और खाई में से एक चुनने के बजाय ऐसा रास्ता चुना जिसमें कुआँ और खाई दोनों हैं अर्थात सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च में भी कटौती कर दी और वित्तीय घाटा भी अनियंत्रित रूप से बढ़ गया।
मुकेश असीम
03 Feb 2020
nirmala sitharaman

अपने बजट पूर्व विश्लेषण में मैंने लिखा था कि सरकार के लिए इधर कुआँ, उधर खाई वाली स्थिति है क्योंकि नवउदारवादी और कींसवादी जो दो विकल्प उसके सामने हैं वो दोनों ही अर्थव्यवस्था की मूल समस्याओं को हल नहीं कर सकते। बजट से पहले बहस सिर्फ इस मुद्दे पर थी कि क्या सरकार सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च कम कर वित्तीय घाटा नियंत्रित करने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी या अर्थव्यवस्था को किकस्टार्ट करने के लिये वित्तीय घाटे के बढ़ने की चिंता किये बगैर सरकारी खर्च बढ़ाने की कींसवादी नीति अपनायेगी। किंतु जब बजट पेश हुआ तो पता चला कि सरकार ने कुआँ और खाई में से एक चुनने के बजाय ऐसा रास्ता चुना जिसमें कुआँ और खाई दोनों हैं अर्थात सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च में भी कटौती कर दी और वित्तीय घाटा भी अनियंत्रित रूप से बढ़ गया।

बहुत से आर्थिक विशेषज्ञ पहले यह उम्मीद कर रहे थे कि सरकार आम मेहनतकश लोगों व मध्यम वर्ग के हाथ में कुछ पैसा पहुंचाने का प्रयास करेगी ताकि बाजार में उपभोक्ता माँग का विस्तार हो जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूँजी निवेश फिर से शुरू हो सके। इसके लिये मनरेगा के लिये बजट बढ़ाने, शहरों में रोजगार गारंटी योजना शुरू करने, मध्यम वर्ग के लिये आयकर में छूट बढ़ाने आदि की चर्चा चल रही थी। किंतु जब 31 जनवरी को सालाना बजट पूर्व आर्थिक सर्वेक्षण संसद में प्रस्तुत किया गया तभी यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सरकार की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है और वह विनिवेश, निजीकरण, व्यवसायीकरण को तेज करने व शिक्षा,स्वास्थ्य, आदि सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटाने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी। आर्थिक सर्वे में सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण तेज करने, खाद्य सब्सिडी घटाने, शिक्षा का व्यवसायीकरण जारी रखने, बाजार के अदृश्य हाथ पर भरोसा करने और सरकारी हस्तक्षेप को कम करने पर ज़ोर दिया गया था।

वित्त मंत्री ने जब बजट पेश किया तो आर्थिक सर्वे में कही गई बातों पर ही बढ़ती नजर आईं। बजट के आय-व्यय खाते का हिसाब देखें तो यह बजट नवउदारवाद और कींसवाद दोनों की सबसे बदतर बातों का मिक्स्चर है। भारत जैसे देश में जो 117 देशों के भूख सूचकांक में 102 वें स्थान पर है वहाँ बजट में खाद्य सब्सिडी का बजट 70 हजार करोड़ रुपये घटा दिया गया है – 1.85 लाख करोड़ रुपये से 1.15 लाख करोड़ रुपये। वैसे तो इसके भी वास्तव में खर्च किए जाने पर शक है क्योंकि इस साल में भी बजट अनुमान 1.85 लाख करोड़ के बजाय संशोधित अनुमान के अनुसार वास्तविक खर्च 1.08 लाख करोड़ ही किया जा रहा है। इसका अर्थ है कि पहले ही लगभग दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूब चुकी फूड कार्पोरेशन पूरी तरह दिवालिया होने के कगार पर है और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का भविष्य संकट में है। देश की सबसे गरीब जनता के लिए यह ख़बर मौत की घंटी के बराबर है क्योंकि पहले ही झारखंड जैसे राज्यों से राशन न मिलने से मौतों की खबरें आती रही हैं।

इसके अतिरिक्त शहरी रोजगार गारंटी शुरू करना तो दूर रहा, बजट में ग्रामीण क्षेत्र के मजदूरों के लिये मनरेगा योजना पर आबंटन में भी 9 हजार करोड़ की कटौती कर दी है।

सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर दूसरा बड़ा हमला स्वास्थ्य सेवाओं पर है जहाँ एक तो महँगाई दर की तुलना में देखने पर खर्च का बजट प्रावधान घट गया है, वहीं दूसरी ओर देश में डॉक्टरों की कमी दूर करने के नाम पर जिला अस्पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपने का षड्यंत्र तैयार है। बजट घोषणा के अनुसार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल में जिला अस्पतालों के साथ मेडिकल कॉलेज खोले जायेंगे। मेडिकल कॉलेज के लिए शुरुआती पूँजी भी निजी क्षेत्र को सरकार ही देगी जिसका पैसा मेडिकल उपकरणों पर सेस लगाकर जुटाया जायेगा, यह सेस बजट में लगा भी दिया गया है अर्थात बहुत से मेडिकल उपकरण और भी महँगे हो जायेंगे जिसका खामियाजा अंत में मरीजों को ही भुगतना होगा। इस योजना का अर्थ है कि जिला अस्पतालों का पहले से मौजूद पूरा बहुमूल्य तंत्र निजी क्षेत्र के हाथ में होगा जिन्हें पूँजी भी खुद नहीं जुटानी होगी।

इसका प्रयोग कर वे महँगी फीस वाले निजी मेडिकल कॉलेज खोलकर खूब मुनाफा कमायेंगे, साथ ही कुछ सालों में जिला अस्पतालों के मालिक भी हो जायेंगे और देश की गरीब मेहनतकश जनता के लिए सस्ते अस्पताली इलाज का अंतिम सहारा भी छिन जायेगा। इसको एक काल्पनिक स्थिति न समझें क्योंकि मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भुज में भूकंप पीड़ितों के लिए सार्वजनिक धन से खोला गया अस्पताल इसी तरह पीपीपी मॉडल के जरिये अडानी की कंपनी को सौंपा जा चुका है। असल में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में इस पीपीपी मॉडल का अर्थ ही हो गया है पब्लिक संपत्ति की प्राइवेट लूट। इसके साथ ही एम्स दिल्ली और पीजीआई चंडीगढ़ जैसे सभी केंद्रीय मेडिकल संस्थानों के बजट में भी कटौती की गई है जबकि अच्छे मेडिकल संस्थानों के अभाव में देश के कोने कोने से गंभीर रोगों के इलाज के लिए बहुत से मरीजों को अभी भी इन संस्थानों में ही आना पड़ता है।

किसानों की आय दुगनी करने और ग्रामीण इनफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर असल में कृषि आधारित उद्योगों को बड़ी सुविधायें और रियायतें देने की घोषणा की गई है। किसान रेल, कृषि उड़ान, रेफ्रीजरेटेड ट्रक, वेयरहाउस, आदि के लिए खर्चकृषि उद्यमी और व्यापारी बन चुके अमीर पूंजीवादी फार्मरों और कृषि आधारित उद्योग चलाने वाले पूँजीपतियों के लाभ के लिए है। किसानों के 86% सेअधिक भाग जिसके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है उसके लिए इससे क्या फायदा है? उनके लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के वादे से भी सरकार पीछे हट गई है।

जो 1500 करोड़ का खर्च उस मद में पिछले साल घोषित हुआ था उसमें से लगभग नहीं के बराबर खर्च किया गया है। इन गरीब, सीमांत किसानों को तो अपनी उपज उन अमीर फार्मरों को ही कौड़ियों के दाम बेचनी पड़ेगी जो इन किसान रेल, उड़ान, ट्रक, वेयरहाउस के जरिये व्यापार कर कृषि उत्पाद को शहरी उपभोक्ताओं को कई गुना महँगे दामों पर बेचकर तगड़ा मुनाफा कमायेंगे। ग्रामीण क्षेत्र में पूँजीपति फार्मरों का यह वर्ग भूमिहीन खेत मजदूरों और गरीब सीमांत किसानों का बड़ा शोषक है। कम मजदूरी पर श्रम करा यह खेत मजदूरों का तो शोषण करता ही है, फसल के वक्त छोटे किसानों की उपज को यही सस्ते दामों खरीदकर फिर सरकारी एजेंसियों या बड़े पूँजीपतियों को ऊँचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाता है। उपरोक्त इनफ्रास्ट्रक्चर से जिस बाजार में पहुँच के जरिये किसानों की आय बढ़ाने की बात की गई है वह सिर्फ इसके मुनाफे को बढ़ाने के लिए।

पूँजीपतियों के उद्योगों के लिए आवश्यक नकदी फसलों के उत्पादन में जुटने के बाद सीमांत किसान वर्ग अभी खाद्य उत्पादों का भी विक्रेता कम ग्राहक अधिक होता जा रहा है। गाँव के भूमिहीन मजदूर तो खाद्य पदार्थों के ग्राहक हैं ही। ग्रामीण बाजार के राष्ट्रीय बाजार में विलय की पहले से जारी प्रक्रिया इस के बाद पूरी हो जायेगी और इसके बाद गाँवों के खरीदार गरीब किसानों /मजदूरों को भी खाद्य पदार्थ तुलनात्मक रूप से कम ग्रामीण बाजार दामों के बजाय लगभग शहरी बाजार के मूल्यों पर ही खरीदने होंगे। यह ग्रामीण भूमिहीनों और सीमांत किसानों के जीवन को तकलीफ के नए स्तर तक ले जायेगा।

इसके राजनीतिक पक्ष को देखें तो गाँवों से जिला स्तर तक की राजनीति में तो प्रधान तौर पर एवं राज्य-देश स्तर तक की राजनीति में भी यह वर्ग अभी फासीवाद के लिए लठैत/गोलीबाज़ उपलब्ध कराने वाला मुख्य आधार है – इन भूपतियों में पुराने ब्राह्मण/क्षत्रिय जातियों के ही नहीं तमाम पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के भूपति भी शामिल हैं। अतः कुल पूंजीवादी मुनाफे में कुछ बेहतर हिस्सा इस वर्ग की मुख्य माँग रही है जो लाभकारी कृषि की शब्दावली में प्रस्तुत की जाती है ताकि सीमांत किसानों को भी 'लाभ' के इस मायावी सपने में फँसा इन अमीर फार्मरों के पीछे ही गोलबंद करने में सफल हो सके, हालांकि उन किसानों के हित इन 'किसानों' के ठीक विपरीत हैं।

इस बजट में शिक्षा वंचितों और निम्न मध्यम वर्ग की पहुँच से बाहर करने की प्रक्रिया को भी और तेज किया गया है। खुद बजट पूर्व सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण ने यह बात मानी थी कि निजीकरण व्यवसायीकरण से शिक्षा महँगी होकर समाज के वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो रही है, खास तौर पर उच्चशिक्षा। लेकिन किया क्या जाए? सर्वे ने कहा - निजीकरण जारी रखो!

बजट में भी कहा गया कि विदेशी कर्ज और पूँजी निवेश से शिक्षा संस्थान उन्नत किये जायेंगे। नतीजा सरकार को अच्छी तरह मालूम है कि शिक्षा महँगी होकर आम मेहनतकश जनता खास तौर पर वंचित समुदायों की पहुँच से बाहर हो जायेगी। फिर ये लोग क्या करें? इनके लिये बताया गया कि 100 बड़े संस्थान ऑनलाइन कोर्स शुरू करेंगे, वंचित और गरीब लोग उससे पढ़ लें, उन्हें कॉलेज जाकर क्या करना है, वे मजदूर हैं, उन्हें मजदूर ही रहना है! असल में यह अधिसंख्य मेहनतकश जनता को शिक्षा से वंचित करने की शासक पूंजीपति वर्ग की सोची समझी सर्वसम्मत नीति है और कोई चुनावी पार्टी इस पर मुँह नहीं खोलती कि सबके लिए उत्तम, समान और सुलभ सार्वजनिक शिक्षा का वादा कहाँ गया।

जहाँ तक मध्य वर्ग को आयकर 'छूट' का सवाल है उसका वास्तविक मकसद है बिना एग्जेंप्शन वाली आयकर व्यवस्था पर जाना। यह उसके लिये शुरुआत भर है। गैस सिलिंडर पर सब्सिडी लेने न लेने के चुनाव की तरह। संगठित क्षेत्र की औपचारिक नौकरियों वाला मध्य वर्ग ही वह मुख्य तबका है जिसके जीवन में अभी कुछ हद तक सामाजिक सुरक्षा है। इस सामाजिक सुरक्षा का आधार यही आयकर एग्जेंप्शन हैं। इनके खत्म होने का मतलब है पीएफ़/पीपीएफ़, जीवन बीमा, डाक घर बचत योजनाओं, म्यूचुअल फंड, आदि पर टैक्स छूट आंशिक/पूर्णतः समाप्त होना। इसके बाद धीरे-धीरे इस छूट की व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर इन स्कीमों को बंद करने की तरफ बढ़ा जा सकता है।
 

इन योजनाओं को बंद करना भारत के पूंजीपति वर्ग की पुरानी माँग है क्योंकि इनकी वजह से ब्याज दरें कम होने में बाधा आती है। बैंक जमा पर ब्याज दरें अधिककम नहीं कर सकते क्योंकि तब मध्य वर्ग जो घरेलू बचत का मुख्य स्रोत है इन स्कीमों में पैसा जमा करने लगता है।

लेकिन जमा पर ब्याज दर कम न हो तो बैंककर्ज पर ब्याज दर कम नहीं कर सकते। किंतु भारतीय पूंजीपति वर्ग प्रति इकाई पूंजी पर लाभ की दर के गिरने की समस्या का सामना कर रहा है और ब्याजदरों का लाभ की दर से अधिक होना कर्ज न चुका पाने का एक बड़ा कारण है क्योंकि कर्ज पर ब्याज कारोबार में हुये कुल मुनाफे में से ही चुकाया जाताहै। जब तक मुनाफे की दर तुलनात्मक रूप से ऊँची थी, पूँजीपति उसका एक हिस्सा बचत कर पूँजी जुटाने वाले मध्य वर्ग के साथ बाँटने को तैयार थे मगर अब वह मध्य वर्ग को उतना हिस्सा दे पाने की स्थिति में नहीं रह गया है। इसके चलते मध्य वर्ग के बड़े हिस्से के लिये ज़िंदगी मुश्किल होने वाली है खास तौर पर ब्याज के सहारे जीने की आशा वालों के लिये।

शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, महिला-बाल कल्याण, दलित-आदिवासी कार्यक्रमों सभी के विस्तार में जायें तो व्यय में कटौती या चोर दरवाजे से पूँजीपतियों को लाभ पहुंचाने की ऐसी ही स्थिति है पर सरकार का वित्तीय घाटा फिर भी अनियंत्रित ढंग से बढ़ा है। खुद सरकार मान रही है कि इस वर्ष के लक्ष्य 3.3% के मुक़ाबले यह 3.8% पर पहुँच गया है। किंतु अगर सरकार द्वारा बजट से बाहर एफ़सीआई, आदि सार्वजनिक कंपनियों के नाम पर लिए गये कर्ज को भी जोड़ा जाये तो अधिकांश विश्लेषकों के अनुसार यह 8 से 10% के आसपास पहुँच गया है।

इसका सबसे बड़ा कारण है अर्थव्यवस्था में मंदी, सरकार द्वारा पूंजीपति वर्ग को दी गई बहुतेरी रियायतों एवं उनके द्वारा की गई भारी टैक्स चोरी के कारण टैक्स वसूली में भारी कमी। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को तमाम तरह के उपाय करने पड़ रहे हैं जैसे रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष को खाली करना, सार्वजनिक उद्यमों एवं सम्पत्तियों को बेचना, आदि। इसी क्रम में अब सार्वजनिक क्षेत्र की महाकाय वित्तीय कंपनी एलआईसी में सरकारी शेयर बेचने का प्रस्ताव किया गया है। किंतु सवाल है कि संपत्ति बेचने की एक सीमा है, उसके बाद क्या? अभी तो यही कहा जा सकता है कि अंत में इन सरमायेदार परस्त नीतियों से हुये सरकारी घाटे का सारा बोझ विभिन्न तरह से आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही लादा जाना है। स्पष्ट है कि यही नीतियाँ जारी रहीं तो देश की आम जनता को ‘अच्छे दिनों’ के नाम पर अभी बहुत अधिक तकलीफदेह दिन देखने बाकी हैं।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।)

इसे भी पढ़े :  बजट की फांस– इधर कुआँ उधर खाई

Nirmala Sitharaman
Union Budge 2020
Budget stuck
Income tax slab
LIC
economic survey
privatization
Education Sector
Health Sector
food security
women and child welfare
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