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भारत
राजनीति
मध्य प्रदेश में 28 सीटों पर उपचुनाव: देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व घटना
उपचुनाव के नतीजों से न सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार का भविष्य तय होगा, बल्कि कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव की भी परीक्षा होगी, जो कि भाजपा में उनके और उनके समर्थको की आगे की राजनीति का सफर तय करेगी।
अनिल जैन
22 Oct 2020
मध्य प्रदेश
Image courtesy: scroll

वैसे तो संसद या विधानमंडल के किसी भी सदन की किसी भी खाली सीट के उपचुनाव होना एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन आगामी 3 नवंबर को मध्य प्रदेश की 28 सीटों के लिए के लिए होने जा रहे उपचुनाव देश के संसदीय लोकतंत्र की एक अभूतपूर्व घटना है। राज्य की 230 सदस्यों वाली विधानसभा में 28 यानी 12 फीसद सीटों के लिए के लिए उपचुनाव इसलिए भी अभूतपूर्व और ऐतिहासिक है कि इससे पहले किसी राज्य में विधानसभा की इतनी सीटों के लिए एक साथ उपचुनाव कभी नहीं हुए।

आमतौर पर किसी भी उपचुनाव के नतीजे से किसी सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं होता, सिर्फ सत्तापक्ष या विपक्ष के संख्याबल में घटत-बढत होती है। लेकिन मध्य प्रदेश में 28 विधानसभा सीटों के उपचुनाव से न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष का संख्या बल प्रभावित होगा, बल्कि राज्य की मौजूदा सरकार का भविष्य भी तय होगा कि वह रहेगी अथवा जाएगी।

इतना ही नहीं, इन उपचुनावों के नतीजों से मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, फिर से मुख्यमंत्री बनने की आस लगाए बैठे प्रदेश कांग्रेस के सर्वेसर्वा कमलनाथ और उन ज्योतिरादित्य सिंधिया का सियासी मुस्तकबिल भी तय होगा, जिनकी वजह से सात महीने पहले कमलनाथ सिंहासन से आसन पर आ गए थे और शिवराज आसन से सिंहासन पर जा बैठे थे। उस उलटफेर की वजह से ही इस समय 28 सीटों पर उपचुनाव होने जा रहा है।

गौरतलब है कि इसी साल मार्च महीने में एक चौंकाने वाले घटनाक्रम के तहत पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से अपना 18 साल पुराना नाता तोड़ कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए थे। उनके समर्थन में कांग्रेस के 19 विधायकों ने भी कांग्रेस और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था।

उसी दौरान तीन अन्य कांग्रेस विधायक भी पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए थे। इन तीन में से दो को पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का तथा एक विधायक को पूर्व सांसद मीनाक्षी नटराजन का समर्थक माना जाता था। कुल 22 विधायकों के पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे देने के कारण सूक्ष्म बहुमत के सहारे चल रही कांग्रेस की 15 महीने पुरानी सरकार अल्ममत में आ गई थी।

सरकार को समर्थन दे रहे कुछ निर्दलीय, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विधायकों ने भी कांग्रेस पर आई इस 'आपदा’ को अपने लिए 'अवसर’ माना और वे भी पाला बदल कर भाजपा के साथ चले गए।

प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा के शीर्ष नेता पहले दिन से दावा करते आ रहे थे कि वे जिस दिन चाहेगे, उस दिन कांग्रेस की सरकार गिरा देंगे। सिर्फ 15 महीने बाद ही उनका दावा हकीकत में बदल गया। कांग्रेस सत्ता से रुखसत हो गई। विधानसभा की प्रभावी सदस्य संख्या के आधार पर भाजपा बहुमत मे आ गई और इसी के साथ एक बार फिर सूबे की सत्ता के सूत्र भी उसके हाथों में आ गए।

इसी बीच तीन विधायकों के निधन की वजह से विधानसभा की तीन और सीटें खाली हो गईं और कांग्रेस के तीन अन्य विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया। इस प्रकार विधानसभा की कुल 28 सीटें खाली हो गईं।

इन्हीं 28 खाली सीटों के लिए इस समय उपचुनाव हो रहे है। फिलहाल 230 सदस्यों वाली राज्य विधानसभा में 202 सदस्य हैं, जिनमे भाजपा के 107, कांग्रेस के 88, बसपा के दो, सपा का एक तथा चार निर्दलीय विधायक है। इस संख्या बल के लिहाज से भाजपा को 230 के सदन में बहुमत के लिए महज 9 सीटें और चाहिए जबकि कांग्रेस को फिर से सत्ता हासिल करने के लिए उपचुनाव वाली सभी 28 सीटें जीतना होगी।

जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है, उनमे से 25 सीटें तो कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे से खाली हुई हैं। विधायकों के निधन से खाली हुई तीन सीटों में भी दो सीटें पहले कांग्रेस के पास और एक सीट भाजपा के पास थी।

उपचुनाव वाली 28 सीटों में से 16 सीटें राज्य के अकेले ग्वालियर-चंबल संभाग में हैं, जिसे ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने प्रभाव वाला इलाका मानते है। इसके अलावा 8 सीटें मालवा-निमाड़ अंचल की हैं, जो कि जनसंघ के जमाने से भाजपा का गढ़ रहा है। दो सीटें बुंदेलखंड इलाके की और एक-एक सीट महाकोशल तथा भोपाल इलाके की हैं।

इन सभी 28 सीटों पर मुख्य मुकाबला वैसे तो भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होना है, लेकिन अपने नीतिगत फैसले के तहत उपचुनाव से हमेशा दूर रहने वाली बसपा ने भी इन सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर मुकाबले के त्रिकोणीय होने का दावा किया है। मध्य प्रदेश में बसपा पहली बार उपचुनाव लड़ रही है। मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने के बसपा के दावे का आधार उसका अपना पुराना चुनावी रिकॉर्ड है।
 
मूलत: उत्तर प्रदेश की पार्टी मानी जाने वाली बसपा तीन दशक पहले मध्य प्रदेश में भी एक बड़ी ताकत बन कर उभरी थी। हालांकि उस समय छत्तीसगढ़ भी मध्य प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। वर्ष 1996 के लोकसभा चुनाव मे उसने मध्य प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर चौंकाने वाली जीत दर्ज की थी। उसके बाद 1998 में मध्य प्रदेश विधानसभा में भी बसपा के 11 विधायक चुनकर आए थे और उसने पूरे चुनाव मे करीब 7 फीसद वोट हासिल किए थे। उसका यह वोट प्रतिशत तो 2013 के विधानसभा चुनाव तक कमोबेश बरकरार रहा, लेकिन विधायकों की संख्या घटती गई। हालांकि ग्वालियर-चंबल, विंध्य और बुंदेलखंड इलाके में कई जगह चुनाव मैदान में उसके उम्मीदवारों की मौजूदगी भाजपा और कांग्रेस की हार-जीत को प्रभावित करती रही।

वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा ने राज्य की सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खडे किए थे लेकिन सिर्फ दो ही जीत पाए थे। उसे प्राप्त होने वाले वोटों के प्रतिशत में भी जबर्दस्त गिरावट दर्ज हुई थी। उसे महज 0.9 फीसद वोट ही हासिल हुए थे। इस कदर छीज चुके जनाधार के बावजूद उसका दावा है कि वह इन उपचुनावों में चौंकाने वाले नतीजे देकर सत्ता की चाबी अपने पास रखेगी।

बसपा के अलावा भाजपा और कांग्रेस की संभावनाओं को प्रभावित करने के लिए 2018 में विधानसभा चुनाव के समय अस्तित्व में आई सपाक्स (सामान्य, पिछडा वर्ग, अल्पसंख्यक कल्याण समाज) पार्टी ने भी 16 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा गठित इस पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव में भी 110 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे और आठ सीटों पर उसने दूसरे अथवा तीसरे नंबर पर रहते हुए भाजपा तथा कांग्रेस के उम्मीदवारों की हार-जीत को प्रभावित किया था।

बसपा और सपाक्स पार्टी के अलावा शिवसेना ने भी भाजपा को सबक सिखाने की चेतावनी देते हुए मालवा-निमाड़ क्षेत्र की आठ और ग्वालियर शहर की दो सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। मालवा-निमाड़ इलाका महाराष्ट्र की सीमा को छूता है। इस इलाके में और ग्वालियर में मराठी भाषी मतदाताओं की खासी तादाद है। वैसे शिवसेना का मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में संगठनात्मक इकाइयां तो हैं लेकिन चुनाव मैदान में उसकी मौजूदगी कभी भी असरकारक नहीं रही।

कुल मिलाकर राज्य की सभी 28 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधे मुकाबले की स्थिति है। इन सीटों पर जमीनी राजनीतिक के लिहाज से देखा जाए तो आमतौर पर माहौल सत्तारूढ़ भाजपा के अनुकूल नहीं है। मतदाता इस बात को लेकर भाजपा के उम्मीदवारों से खफा है कि उन्होंने एक अच्छी-भली चल रही सरकार को गिरा कर उपचुनाव की नौबत पैदा की है।
 
उपचुनाव के ऐलान से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया उपचुनाव वाले क्षेत्रों के दौरे पर निकले थे तो कई जगहों पर उन्हें काले झंडों और 'गद्दार वापस जाओ’ के नारे का सामना करना पडा था। यह स्थिति बताती है कि आम लोगों ने उनके दलबदल करने और कांग्रेस की सरकार गिराने के खेल को स्वीकृति नहीं दी है।

यह तथ्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कराए गए सर्वे में भी उभर कर आया है और राज्य सरकार को मिली खुफिया में भी इस आशय की सूचना दी गई है। यही वजह है कि भाजपा के प्रचार अभियान में सिंधिया को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है। पार्टी की ओर से पिछले दिनों भोपाल से विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में जो हाईटैक प्रचार रथ रवाना किए गए हैं, उन पर भी हर तरफ लगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा की तस्वीरों के साथ सिंधिया की तस्वीर नहीं है। अपने उम्मीदवारों के प्रचार के लिए भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अकेले ही दौरे कर रहे हैं, जबकि सिंधिया चाहते थे कि उनके और मुख्यमंत्री के चुनावी दौरे संयुक्त रूप से हो।

इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उपचुनाव वाली ज्यादातर सीटें ग्रामीण इलाकों की है, जहां पर कि भाजपा का जनाधार वैसे भी कमजोर माना जाता है। इस समय तो वहां के किसानों में पिछले दिनों केंद्र सरकार द्वारा पारित कराए गए कृषि संबंधी कानूनों को लेकर भी रोष है। चूंकि भाजपा के सभी उम्मीदवार कांग्रेस से आए हुए हैं, इसलिए भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं और नेताओं में भी उनको लेकर कोई उत्साह नहीं है, बल्कि यूं कहें कि एक तरह की नाराजी ही है।

कुल मिलाकर हालात भाजपा के लिए जरा भी माकूल नहीं है, लेकिन भाजपा के खिलाफ इस माहौल को अपने पक्ष में भुनाने के लिए जिस संगठन और रणनीतिक की आवश्यकता होती है, उसका कांग्रेस के पास अभाव है। कांग्रेस सिर्फ संगठन के स्तर पर ही कमजोर नहीं है बल्कि उसके नेताओं में भी एकजुटता का अभाव है।

2018 के विधानसभा चुनाव में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के बीच जिस तरह का तालमेल था, वह इस चुनाव में कहीं देखने को नहीं मिल रहा है। पूरे परिदृश्य में दिग्विजय सिंह की मौजूदगी कहीं नजर नहीं आ रही है और चुनाव अभियान के सारे सूत्र कमलनाथ ही संभाले हुए हैं।

बहरहाल, स्थिति बेहद दिलचस्प है। उपचुनाव के नतीजों से न सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार का भविष्य तय होगा, बल्कि कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक प्रभाव की भी परीक्षा होगी, जो कि भाजपा में उनके और उनके समर्थको की आगे की राजनीति का सफर तय करेगी।

अगर भाजपा अपनी हिकमत अमली से 10-12 सीटें जीत कर अपनी सरकार को बरकरार रखने में कामयाब भी हो जाती है तो, यह तय नहीं है कि शिवराज सिंह चौहान ही मुख्यमंत्री रहेंगे। उपचुनाव के नतीजे ही कांग्रेस में कमलनाथ का भी भविष्य तय करेंगे। अगर वे दोबारा सरकार बनाने में कामयाब नहीं होते हैं तो प्रदेश कांग्रेस के नेतृत्व में भी बदलाव होना अवश्यंभावी है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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