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CAA-NRC विरोध : मेरे देश से मेरा रिश्ता काग़ज़ों के आधार पर नहीं है!
शुक्रवार को मंडी हाउस से लेकर जंतर मंतर तक मार्च हुआ और इसके बाद महिला संगठनों और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों ने कई कार्यक्रम भी पेश किए, जिसके माध्यम से सरकार पर हल्ला बोला और अन्य लोगों को जागरूक किया।
सोनिया यादव
04 Jan 2020
CAA Protest

'देश की महिलाएं जाग उठी हैं, पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं
बंधन की बेड़ियों को तोड़ते हुए, सड़कों पर हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं'


ये शब्द समाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी के हैं। शबनम 3 जनवरी को सावित्रीबाई फुले की जयंती पर महिला संगठनों और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों के साथ नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ आयोजित विरोध मार्च में हिस्सा ले रही थीं। शबनम 62 साल की हैं और बड़े जोश से कहती हैं, ‘आज की महिला जागरूक हैं, संविधान में विश्वास रखती हैं, अपने हक़ को जानती हैं और इसलिए सड़कों पर उतर कर संघर्ष कर रही हैं।"

सिर्फ शबनम ही नहीं हम ऐसी कई उम्रदराज महिलाओं से मिले, जो इस कड़कड़ाती ठंड़ में अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आंदोलन के लिए उतरी हैं। नारे लगा रही हैं, देश को बचाने की बात कर रही हैं और साथ ही सरकार से कई सवाल कर रही हैं।

नरेला से प्रदर्शन में हिस्सा लेने मंडी हाउस पहुंची लगभग 70-75 साल की राजवती देवी ने न्यूज़क्लिक से कहा, ‘हम कभी स्कूल नहीं गए, हमने कोई पढ़ाई नहीं की। बस घर में बच्चों को संभाला है और मिट्टी के बर्तन बनाए हैं। दो बेेटियां और तीन बेटे हैं वो भी ज्यादा नहीं पढ़े। एक छोटी सी झुग्गी-बस्ती में हम गुजारा करते हैं, ऐसे में कहां से हम कागज़ दिखाएंगे। हमें तो अपने बच्चों की सही उम्र भी ना पता है। हम क्या करेंगे?'
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दिल्ली के घोघा गांव की रहने वाली यासमीन कहती हैं, ‘हम बहुत गरीब लोग हैं, पति दरगाह के पास छोटी सी दुकान में चादर और फूल-अगरबत्ती बेचने का काम करते हैं। हम अपने एक रिश्तेदार के घर में रहते हैं। पति के वालिद बहुत छोटी सी उम्र में गुजर गए थे, उनकी चार शादियां थी, मेरे पति दूसरी बीवी की संतान हैं। हमारे पास कोई कागज नहीं है न ही कोई जमीन-जायदाद। हम तो ज्यादा पढ़े-लिखे भी नही हैं,ऐसे में हमारा क्या होगा?

आम लोगों के साथ ही इस प्रदर्शन में कई कामकाजी महिलाएं भी शामिल हुईं, जो अपने दफ्तरों से छुट्टी लेकर पहुंची थी। ऐसी महिलाओं ने सीएए और एनआरसी को लेकर मोदी सरकार से कई अहम सवाल किए। उनका कहना है कि 'आज अभी नहीं उठेंगे तो शायद कभी नहीं उठ पाएंगे।'

गुरुग्राम की एक निज़ी संस्था में बतौर एचआर मैनेजर काम कर रहीं, आस्था ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, ‘सरकार कैसे कह रही है कि सीएए मुस्लिम विरोधी नहीं है, ये नागरिकता देने के लिए है, लेने के लिए नहीं। क्या सरकार ये कहना चाहती है कि बाहरी लोगों को इस कानून से पहले नागरिकता देने का प्रावधान ही नहीं था। इस कानून में सिर्फ एक मुस्लिम समुदाय को ही क्यों छोड़ा गया है? सरकार कैसे कह सकती है कि मुस्लिम समुदाय के लोग प्रताड़ित नहीं होते या वो बेहतर अवसर की तलाश में भारत नहीं आ सकते। सीएए को सरकार छननी की तरह इस्तेमाल करना चाहती है जो आगे एनआरसी में मुस्लिम समुदाय के लोगों को प्रभावित करेगा।'
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भारत सरकार के अधीन एक मंत्रालय में कार्यरत एक महिला सेक्शन अधिकारी (नाम ना छापने की शर्त पर) ने बताया, ‘सरकार के पास पहले से ही किसी भी अन्य देश से आए शरणार्थियों को नागरिकता देेने का पूरा अधिकार था, फिर इस नए कानून की क्या जरूरत थी। क्या सरकार की मंशा सिर्फ एक समुदाय को बाहर करने की नहीं है? अगर नहीं है तो फिर ये कानून ही क्यों? क्या इन तीन देशों के मुस्लिम शरणार्थी अब भारत में नागरिकता नहीं ले पाएंगे, क्या सरकार उन्हें ही सिर्फ खतरा मानती है? सरकार एक ओर तो सरकारी संस्थाओं के निज़ीकरण पर उतारू है वहीं दूसरी ओर डिटेंशन सेंटर और नए कानून पर इतना पैसा खर्च करने को तैयार है। आखिर क्यों?’

सामाजिक बराबरी और महिला अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले कई महिला संगठनों ने सावित्रीबाई फुले को याद करते हुए फ़ैज अहमद फ़ैज की पंक्तियां 'बोल की लब आज़ाद हैं तेरे' के साथ 'हम देश बचाने निकले हैं, आओ हमारे साथ चलो' जैसे नारे लगाए। 'अब नहीं उठे तो ज़ुल्म बढ़ता जाएगा' और पाश की कविता 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना' जैसे गीत भी गाए।

अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (ऐपवा) की कविता कृष्णन ने न्यूज़क्लिक से कहा, ‘सावित्रीबाई फुले पर हिंदू महासभा के लोगों ने गोबर फेंका था, क्योंकि वो बच्चियों और ब्राह्मण विधवाओं को पढ़ाना चाहती थीं, वो बराबरी के लिए लड़ना चाहती थीं, दलितों और पिछड़ों को सम्मान दिलवाना चाहती थीं। सावित्रीबाई ने उस समय संघर्ष किया, अपनी लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। उनकी वजह से ही हम आज यहां खड़े हो पाए हैं। हमारा विरोध सिर्फ सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर नहीं है, ये संविधान को बचाने की लड़ाई है, बेहतर हिंदुस्तान बनाने की लड़ाई है।'
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एनआरसी पर सवाल उठाते हुए कविता कहती हैं, ‘दस्तावेजों के आधार पर नागरिकता तय नहीं होती। मेरे देश से मेरा रिश्ता काग़ज़ों के आधार पर नहीं है। हमारे संविधान की प्रस्तावना में 'हम भारत के लोग' की बात है, ये नहीं कहा गया कि 'हम लोग जिनके पास काग़ज़ात हैं, जो हमें भारतीय साबित करते हैं।' बहुत सी महिलाएं और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग जो घरों से भागकर शादी कर लेते हैं या मज़बूरन उन्हें घर से निकाल दिया जाता है, वो कहां से नागरिकता साबित करेंगे?

इस आंदोलन और नेतृत्व के सवाल पर कविता कहती हैं, 'इस संघर्ष में हमारे हारने का कोई सवाल ही नहीं है, हम लड़ेगे और जीतेंगे। ये आम लोगों की लड़ाई है, उनका आंदोलन है और इसका नेतृत्व भी आम लोग और आम महिलाएं सड़कों पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन के जरिए कर रहे हैं। सरकार संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ नहीं कर सकती। हम सरकार चुनते हैं, सरकार अपने अनुसार नागरिकों को नहीं चुन सकती।'

अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) की दिल्ली राज्य अध्यक्ष मैमुना मौल्ला नेे कहा, ‘सीएए और एनआरसी को लेकर देशभर में आंदोलन हो रहे हैं और सरकार इसका मुकाबला दमन से कर रही है। जो सरासर ग़लत है। हमें हिंदुस्तान को बचाना है, इसके संविधान को बचाना है। सीएए और एनआरसी से जो जनवाद के अंदर खतरा पैदा हो गया है, हमें आज उस ख़तरे से सबको बचाना है। आरएसएस और बीजेपी की सरकार हमारे हक़ों को रौंद रही है, हमें उनके खिलाफ़ लड़ना है।'
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शुक्रवार, 3 जनवरी को पहले मंडी हाउस से लेकर जंतर मंतर तक मार्च हुआ और इसके बाद महिला संगठनों और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों ने कई कार्यक्रम भी पेश किए, जिसके माध्यम से सरकार पर हल्ला बोला और अन्य लोगों को जागरूक किया।

जंतर-मंतर पर समाज सेवी और महिला अधिकारों के लिए लंबे समय से कार्यरत कमला भसीन ने अपने वक्तव्य में कहा कि अब देश की युवा लड़किया देश बचाने और अपने अधिकारों के लिए कमर कस चुकी हैं। वो किसी से डरने वाली नहीं हैं, अपने हक की लड़ाई खुद लड़ने वाली हैं। जिस संविधान ने उन्हें बराबरी का हक़ दिया है, आज वो उसी संविधान को बचाने के लिए सड़कों पर उतरी हैं।

इस अवसर पर कमला भसीन ने संविधान से जुड़ी अपनी एक रचना भी प्रस्तुत की। इसमें उन्होंने भारतीय संविधान की खुबसुरती की बात रखी। साथ ही इसे एकजु़ट होकर बचाने और इसके लिए संघर्ष की बात भी दोहराई।

इस प्रदर्शन में शामिल एलजीबीटीक्यू एक्टीविस्ट रितुपरणा बोराह ने न्यूज़क्लिक को बताया, सीएए और एनआरसी से सबसे ज्यादा महिलाएं और एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोग ही प्रभावित होंगे क्योंकि सालों से इन लोगों का शोषण और उत्पीड़न होता रहा है। आज महिलाओं ने अपने हक के लिए खुद मोर्चा संभाला है, खुद सड़कों पर उतरीं हैं। सरकार महिलाओं की हितैषी होने का दावा करती है, तो फिर शाहीन बाग की औरतें जो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही हैं, उनकी क्यों नहीं सुनती? एलजीबीटीक्यू के लोगों के खिलाफ पहले ट्रांस बिल पास हो गया और अब कुछ दिनों में एनआसी आ जाएगा। औरतें स्कूल नहीं जाती, ट्रांस लोगों को घर से निकाल दिया जाता है, उनके सर्टीफिकेट मैच नहीं होते। ऐसे में ये लोग कहां जाएंगे। क्या सरकार नहीं चाहती कि इस समुदाय के लोग इस देश में रहे। हम सरकार से कहना चाहते हैं, हम इस देश के नागरिक हैं और हमें यहां से कोई नहीं निकाल सकता।'
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इस अवसर पर नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन (NFIW) की महासचिव एनी राजा ने कहा, ‘फातिमा शेख और सावित्रीबाई फुले ने उस समय महिलाओं की शिक्षा के महत्व को समझा, जब महिलाओं को घरों की चारदिवारी में कैद रखा जाता था, पर्दा प्रथा थी। आज महिलाएं देश के संविधान को बचाने के लिए सड़कों पर उतरी हैं, आज के समय ये सबसे महत्वपूर्ण है। सरकार किसी एक धर्म से उसके अधिकार नहीं छिन सकती और नाही आधी आबाधी के विरोध को नकार सकती है।'

लोगों को कुछ राजनीतिक पार्टियों द्वारा लोगों में भ्रम पैदा करने के सरकार के दावों पर एनी राजा कहती हैं, ‘देशभर में ये आंदोलन आम जनता और छात्रों द्वारा किया जा रहा है, वे संविधान के प्रति अपना दायित्व और उसमें मिले अपने अधिकारों को बखूबी समझते हैं। इसलिए आंदोलन कर रहे हैं। इस मामले में अगर कोई भ्रमित है तो वो सरकार है।

उसे पहले अपना भ्रम दूर करना चाहिए, प्रधानमंत्री कहते हैं एनआरसी की बात ही नहीं हुई, गृहमंत्री सदन में और सदन के बाहर कई बार कह चुके हैं कि सीएए के बाद एनआरसी आएगा, कानूनमंत्री कहते हैं कि एनपीआर का डाटा एनआरसी के लिए इस्तेमाल हो भी सकता है और नहीं भी। अगर सरकार की मंशा ठीक है तो सरकारी तौर पर ये ऐलान क्यों नहीं कर देती की एनआरसी नहीं लागू होगा देश में। सीएए में सिर्फ एक समुदाय के लोगों को नागरिकता से क्यों वंचित रखा है?’

'इस देश का मुसलमान पहले भी आबाद था और तुम्हारे बाद भी आबाद रहेगा, हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई' की तख्ती लिए कई स्कूली छात्र इस प्रदर्शन में शामिल हुए। जब हमने उनसे पूछा कि वो यहां क्यों आए हैं, तो उनका जवाब था, ‘हम हिंदू हैं लेकिन हमारे स्कूल में कई हमारे दोस्त मुस्लिम हैं, वो रोज़ आकर बताते हैं कि उनकी अम्मियां कई दिनों से रातों में धरना दे रही हैं। वो भी उसमें जाते हैं और इसलिए सुबह उन्हें खूब नींद आती है। वे कहते हैं कि उनकी अम्मी-अब्बा बहुत परेशान हैं क्योंकि सरकार उन्हें जल्दी निकालने वाली है।'
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जब हमने उनसे पूछा कि ये आपके हाथ में तख्तियां किसने दी हैं तो वे कहते हैं, 'ये हमारे घर वालों ने हमें लिखकर दी है और वो भी आज हमारे साथ यहां आए हैं, हमें स्कूल में भी सिखाया जाता है हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई। फिर आज सरकार दोनों को अलग क्यों कर रही है?’

इन मासूम बच्चों के सवाल का जवाब वहां शाहीन बाग से आईं महिलाओं ने दिया। उनका कहना है कि सरकार ने नागरिकता के मामले में हिंदू-मुस्लिम को बांट दिया है। जिस संविधान ने देश को आगे बढ़ाया, लोगों को अधिकार दिए, अब सरकार उसी पर हमला कर रही है।

सरकार पर उनका आरोप है कि जब बीजेपी को वोट चाहिए था तब क्यों नहीं हिंदू-मुस्लिम किया, आज जब वोट मिल गए तो क्यों बांट रहे हो? पीएम मोदी और उनके नेताओं के पास रैली करने का समय है लेकिन इतने दिनों से देश में जो आंदोलन हो रहा है, शाहीन बाग में जो औरतें बैठी हैं उनकी सुध लेने का समय नहीं है। पीएम देश से झूठ बोलकर सबको गुमराह कर रहे हैं। लेकिन हम उनके झूठ को समझ चुके हैं, अब हम चुप नहीं बैठेंगे।'

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