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नागरिकता संशोधन क़ानून : दक्षिण एशिया से जुड़े हर विचार के लिए एक गंभीर ख़तरा
एकरूपता के सांचे में ज़बरदस्ती ढाले जाने से देश टूट जाएगा। साथ ही दक्षिण एशिया भी बिखर जाएगा।
पार्थ एस घोष
14 Dec 2019
CAB: A Serious Threat

यहां-वहां की बातों में फंसने की बजाए, नागरिकता संशोधन विधेयक को हम इन शब्दों में बयां कर सकते हैं- इसका मक़सद मुस्लिमों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना देना है; उनकी भारतीयता का सबूत लगातार मांगा जाता रहा है, लेकिन कभी उसे पर्याप्त नहीं माना गया। विधेयक के ज़रिये मुस्लिमों की पीड़ा से हिंदुओं को एक क़िस्म का सुख परोसा जा रहा है। मुस्लिमों को भारतीय समाज में ''उनकी जगह'' दिखाई जा रही है।

लेकिन क़ानून के पीछे किसी तर्क को खोजना मुश्किल है। वह भी ऐसे वक़्त में जब बढ़ते आर्थिक दबाव पर तुरंत ध्यान देने की ज़रूरत है। इस क़ानून को तार्किक परिणिति पर पहुंचाने के लिए बीजेपी ने एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ इंडिया) की घोषणा की है। सांप्रदायिक माहौल वाले दक्षिण एशिया में, जहां धार्मिक हिंसा में लाखों लोग जान गवां चुके हों, वहां इस क़दम से भारत के पड़ोस में ख़तरनाक संभावनाएं उभर आई हैं।

नए नागरिकता क़ानून के मुताबिक़, मुस्लिम बहुल अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक हिंसा का शिकार हिंदू, बौद्ध, क्रिश्चियन, जैन, सिख या पारसी, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 के पहले से भारत में शरण ले रखी हो, उन्हें अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। हिंदू बहुसंख्यक राष्ट्र के तौर पर भारत में उन्हें ‘’प्राकृतिक तौर पर नागरिकता’’ लेने के रास्ते आसान बनाए जाएंगे। इन फ़ायदों से केवल मुस्लिम समुदाय को अलग रखा गया है। तब भी जब इस समुदाय ने भी दूसरे समुदायों की तरह ही धार्मिक हिंसा की प्रताड़ना सही हो। पाकिस्तान में धार्मिक हिंसा के शिकार अहमदिया और शिया, अफ़ग़ानिस्तान में हज़ारा शिया आसानी से हमारे दिमाग में आ जाते हैं। बांग्लादेश में सबसे प्रसिद्ध केस तो लेखक और एक्टिविस्ट तसलीमा नसरीन का है।

CAB राजनीतिक तौर पर एक चालाकी भरा कदम है, इसमें बौद्ध, ईसाई, जैन, सिखों और पारसियों को हिंदुओं के साथ मिला दिया गया है। जनसांख्यकीय कारणों के चलते 1947 में भारत और अविभाजित पाकिस्तान के बीच और बाद में भारत-बांग्लादेश के बीच आने-जाने वाले लोगों में मुख्यत: हिंदू और मुस्लिम ही रहे हैं। दूसरे समुदाय के लोग बेहद कम संख्या में थे। उनमें भी ज़्यादातर सिख थे, जिन्हें दिल्ली और पड़ोसी राज्यों में अच्छे तरीके से बसा दिया गया।

हाल के सालों में बहुत छोटी संख्या में अफ़ग़ानिस्तान से भारत में सिख समुदाय के लोग आए हैं। उन्हें UNHRC ने भारतीय राज्य के साथ मिलकर शरणार्थी का दर्जा दिया या फिर वे स्थानीय सिख आबादी में घुल गए। बौद्धों की स्थिति बिलकुल अलग है। यहां बीजेपी सरकार ने बड़ी चालाकी से अरुणाचल में चकमा और हाजोंग बौद्धों के सवाल को छोड़ दिया। कुछ दशक पहले हाजोंग लोगों को भारत की नागरिकता दी गई थी, लेकिन बड़े स्थानीय विरोध के चलते उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं मिला और वे अर्द्ध-नागरिक बनकर रह गए। अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, नागालैंड, मणिपुर और असम के जनजातीय क्षेत्र फ़िलहाल नागरिकता संशोधन अधिनियम के दायरे से बाहर हैं।

इतना दिमाग और ऊर्जा ख़र्च करने के बजाए बीजेपी सीधा रास्ता चुन सकती थी; भाड़ में जाए पंथनिरपेक्षता, भाड़ में जाएं अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के प्रति भारतीय उत्तरदायित्व। अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए मुस्लिम शरणार्थियों का बसना अवैध है, जिनका भविष्य डोलता रहेगा। उन्हें कभी भारतीय नागरिक बनने के सपने नहीं देखने चाहिए।

किसी को ध्यान नहीं है कि प्रताड़ित और दलित समुदायों को शरण देने में भारत का बड़े दिल वाला इतिहास रहा है। चाहे शरणार्थी अफ़ग़ानिस्तान, भूटान, म्यान्मार, श्रीलंका से हों या फिर तिब्बत और ईरान जैसे देशों से। 70 के दशक की शुरुआत में भारत ने पूर्वी पाकिस्तान से क़रीब एक करोड़ शरणार्थियों को शरण दी थी। इनमें कम से कम 15 फ़ीसदी मुस्लिम थे। यह सब तब हुआ था, जब भारत ने किसी अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर भी नहीं किए थे।

नागरिकता संशोधन अधिनियम को बेहतर तरीके से समझने के लिए हमें इसे आर्थिक, मानवीय, राजनीतिक और क्षेत्रीय जैसे चार आयामों से समझना होगा। पिछले कुछ सालों से जारी सांप्रदायिक राजनीति को इस कानून से ''इज़्ज़त'' मिलती दिखाई देती है। हम जानते हैं कि दक्षिण एशिया के सभी देशों की राजनीति में सांप्रदायिकता पाई जाती है, हम यह भी मानते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इसी वजह से इसका फ़ायदा उठाने वाला हर राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर इससे किनारा करता रहता है। यहां तक कि हिंदू कट्टरपंथी बीजेपी को भी ''सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास'' जैसा नारा लगाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इस पंक्ति में आखिर में आने वाले शब्दों, ''सबका विश्वास'' को हाल ही में मुस्लिम चिंताओं की वजह से जोड़ा गया है। लेकिन जब रोज़ाना की राजनीति की बात आती है तो यह नारा खोखला दिखाई पड़ता है। पिछले कुछ महीनों में लिखे लेखों में मैंने इसी पर विस्तार से टिप्पणियां की हैं। मुझे यहां इसे दोहराने की जरूरत नहीं है।

आज भारत में जो भी विरोधाभास नज़र आते हैं, उन्हें किसी की नज़रों से ओझल नहीं होना चाहिए। एक तरफ राज्यों के अधिकारों की कीमत पर भारतीय संघ को एकमात्र राजनीतिक इकाई में बदलने की नीति है, तो दूसरी तरफ भारतीय राष्ट्र को बिखराव की तरफ मोड़ा जा रहा है। एक राष्ट्र-एक चुनाव, एक राष्ट्र-एक कर, एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड और केंद्र से डॉयरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर जैसी नीतियां पूरी कहानी बता देती हैं। ऐसा मोदी सरकार और लोगों में सीधा संबंध जोड़ने के लिए किया जा रहा है।

लेकिन यह नीति वहां उलटी पड़ जाती हैं, जहां राज्यों में मूल निवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में 60 से 80 फ़ीसदी आरक्षण होता है। जो सरकार जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के ख़ात्मे पर जश्न मनाती हैं, वह उत्तर-पूर्व राज्यों के विशेषाधिकारों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्धता की बात कहती है। आखिर कैसे ऐसी दोहरी प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं? केवल कोई पागल या मुस्लिमों से नफरत करने वाला ही शब्दों के इस खेल की सराहना कर सकता है। आखिर जम्मू-कश्मीर भारत का एकमात्र मुस्लिम आबादी वाला राज्य था, जो अब दो केंद्र शासित प्रदेशों में बंट गया है।

पचास के दशक में एक स्कूली छात्र के तौर पर मुझे बताया जाता था कि उत्तर-पूर्व के कुछ हिस्सों में लगने वाला इनर लाइन परमिट एक अस्थायी प्रबंध है, जब इन क्षेत्रों का पूरी तरह भारत में विलय हो जाएगा, तो वक्त के साथ इसे खत्म कर दिया जाएगा। 6 दशकों बाद भी न केवल यह परमिट जारी हैं, बल्कि इन्हें दोबारा लागू किया जा रहा है। अरुणाचल, मिज़ोरम और नागालैंड में पहले से यह परमिट लागू था। अब असम, मेघालय और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों में भी इसकी मांगों को माना जा रहा है। मणिपुर में ILP सिस्टम को लागू भी कर दिया गया है। असम के उपमुख्यमंत्री और क्षेत्र में बीजेपी का चेहरा हेमंत बिश्वा शर्मा ने साफ़ कहा है कि जिन लोगों को CAB में नागरिकता मिल भी जाएगी, उन्हें रहवासी अधिकार, ज़मीन ख़रीदने के अधिकार या असम के कुछ खास हिस्सों में सरकार की अनुमति के बिना व्यापार करने के अधिकार नहीं मिलेंगे।

बीजेपी के साथ गठबंधन में हिस्सेदार असम गण परिषद ILP सिस्टम को सुरक्षित किए जाने की मांग कर रही है। आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि उत्तर-पूर्वी लोगों का बड़ा हिस्सा नए नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहा है।

मणिपुर में ILP एक्टिविस्ट लांचा निनगथोउजा ने हाल में कहा,''मणिपुर की स्थानीय मूल आबादी के सामने अपनी संस्कृति, इतिहास और भाषा के साथ ख़ात्मे का एक गंभीर संकट सामने है.... आखिर हमें अपनी ज़मीन पर ''बाहरी लोगों'' का अधिकार क्यों होने देना चाहिए? यहां बाहरी लोगों का मतलब विदेशी नहीं, बल्कि दूसरे हिस्सों से आए भारतीय हैं। ग़ौर करें कि मणिपुरी लोग (इस संदर्भ में मैती समझिए, कुकी या नागा नहीं) हिंदू हैं और वह सिर्फ बांग्लादेशी मुस्लिमों से चिंताग्रस्त नहीं हैं। उनकी चिंता का कारण बिहारी और बंगाली लोग भी हैं, जिनमें ज्यादातर हिंदू हैं।

अब इस बात में कोई संशय नहीं है कि नागरिकता संशोधन कानून सिर्फ एक सांप्रदायिक राजनीति है। असम में एनआरसी के ड्रामा में लोग तीन साल फंसे रहे, इस बीच बीजेपी ने राज्य में अपनी ताक़त मज़बूत कर ली। समझा जा सकता है कि CAB/NRC में भारतीय लोग चार सालों तक उलझे रहेंगे और 2024 में बीजेपी की चुनावी जीत का प्रबंध हो जाएगा। इस अवधि के दौरान बीजेपी समर्थक मुख्यधारा का मीडिया और पार्टी की सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी मुद्दे को ताज़ा रखेंगी।

आर्थिक पहलू की बात करें तो CAB से बहुत बड़ा आर्थिक और मानव संसाधन दबाव पड़ेगा। जेएनयू में प्रोफ़ेसर नीरजा गोपाल जयाल के असम एनआरसी से जुड़े अनुभवों और आंकड़ों को देखिए। तीन करोड़ तीस लाख की आबादी के लिए कराए गए एनआरसी में पचास हजार अधिकारी और 1600 करोड़ रुपए लगे। भारत में 88 करोड़ वोटर्स का एनआरसी करवाने के लिए करीब चार लाख छब्बीस हजार करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी।

अब एनआरसी में रजिस्टर करवाने के लिए आम लोगों को वक़्त और पैसे को भी जोड़ दीजिए। ऊपर से उन हज़ारों ''डिटेंशन सेंटर'' को बनाने का ख़र्च, जिनमें तथाकथित राज्य विहीन लोगों को रखा जाएगा, जिनकी पहचान एनआरसी में होगी।

अगर एनआरसी में ही 19 लाख लोग ''ग़ैर-भारतीय'' पाए गए, तो राष्ट्रीय स्तर पर यह आंकड़ा क़रीब पांच करोड़ के आसपास का होगा। इसका मतलब भारतीय करदाताओं को लाखों लोगों का ख़र्च उठाना पड़ेगा, जिनका रोज़गार छीनकर उन्हें कैंपों में ढकेल दिया गया।

मानवाधिकार के नज़रिए से देखें तो असम में एनआरसी अपना अनुभव दिखा ही चुका है। राष्ट्रीय स्तर पर अशिक्षित भारतीय की पीड़ा को समझने के लिए असम के अनुभव को कम से कम तीस गुना कर दीजिए। इस वास्तविकता को समझने के लिए किसी का कार्ल मार्क्स या माओ जेडोंग होना जरूरी नहीं है। इसके बावजूद भारतीय राज्य एनआरसी का इस तर्क पर बचाव कर रहा है कि अगर कोई इसके परिणाम से खुश नहीं है, तो वह कोर्ट जा सकता है।

भारत में अच्छे पैसे वाले भी कोर्ट जाने से डरते हैं। न सिर्फ आर्थिक कारणों से बल्कि वहां होने वाली देरी से भी। इसके बावजूद हम आशा करते हैं कि ग़रीब आदमी क़ानून का सहारा ले सकेगा, जबकि आज भी भारत में तीन करोड़ तीस लाख केस लंबित पड़े हुए हैं। जैसे जीएसटी भरने की जटिलताओं से आजकल चार्टर्ड अकाउंटेंट फ़ायदा उठा रहे हैं, वैसे ही नागरिकता से जुड़े मामलों में वकील मालामाल हो रहे होंगे।

इस पूरी कवायद में सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब हिंदू ही होंगे। इस बात को आमतौर पर माना भी जाता है। आक्रामक हिंदू बहुसंख्यकों के भारत में रहते हुए गरीब मुस्लिमों ने किसी भी तरह की कार्रवाई से निपटने के लिए खुद को पहचान पत्र और दूसरे दस्तावेज़ों के साथ तैयार रखा है। लेकिन ग़रीब हिंदू इस मामले में सावधान नहीं हैं। असम में एनआरसी में बड़ी संख्या में फंसे रह गए हिंदुओं के पीछे यही वजह है।

अंतिम में सबसे अहम बात कि अगर यह कानून अपने तार्किक परिणाम तक पहुंचता है, तो इससे दक्षिण एशियाई क्षेत्रवाद को गहरा धक्का लगेगा। हम मानकर चलते हैं कि इस कवायद के बाद भारत में लाखों ग़रीब और असहाय मुस्लिम डिटेंशन कैंपों में रह रहे होंगे। तब यह कट्टरपंथी राजनीति के लिए चारा होंगे। पाकिस्तान में कट्टरपंथी समूह इसका फायदा उठाएंगे। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव बांग्लादेश में पड़ेगा।

बांग्लादेश में 90 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी है। आख़िर कब तक बिना चिंता के बांग्लादेश चुप बैठेगा? गृह मंत्री अमित शाह के मुताबिक़, अवैध बांग्लादेशी ''दीमक'' की तरह हैं, ऐसे हर एक दीमक की पहचान की जाएगी और इन्हें भारत से बाहर फेंका जाएगा। लेकिन इन्हें कहां फेंका जाएगा? क्या भारत ने उच्च स्तर पर बांग्लादेश के साथ वायदा नहीं किया है कि उसे चिंतित होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि अवैध बांग्लादेशी हमारी आंतरिक समस्या हैं? कौन भारतीय नेताओं को जाकर बताएगा कि सांप्रदायिक राजनीति पर केवल भारत का अधिकार नहीं है? बांग्लादेश ने भी इस पर मजबूत पकड़ बनाई है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि 20 करोड़ लोगों में वहां एक करोड़ साठ लाख हिंदू हैं।

एक और वास्तविकता से पाठकों को रूबरू होना चाहिए। राष्ट्रीयता, पूरी तरह किसी शख़्स के देश से जुड़े होने की पहचान नहीं होती। जैसे राष्ट्रीयता को नकार देने से कोई देश का दुश्मन नहीं बन जाता। श्रीलंकाई तमिल और भारतीय तमिल दोनों हिंदू हैं। लेकिन श्रीलंका के राष्ट्रीय परिदृश्य के मामले में दोनों का नज़रिया बिलकुल विपरीत रहा है। श्रीलंकाई तमिलों की नागरिकता पर कभी कोई सवाल नहीं रहा, इसके बावजूद वो श्रीलंका से अलग होना चाहते थे। वहीं भारतीय तमिल इन लोगों की श्रीलंकाई नागरिकता को लेकर हमेशा चिंतित रहे।

इसके बावजूद श्रीलंकाई तमिलों ने अपने देश से वफ़ादारी दिखाते हुए भारत वापस भेजे जाने से इंकार कर दिया। 1964 में शास्त्री-श्रीमावो पैक्ट में स्वदेश वापसी की बात कही गई थी।एक आखिरी बात। आज यह करना भले ही चलन में लगे, पर दुनिया की हर चीज को धर्म के चश्मे से देखने की जरूरत नहीं होती। एक शख़्स में कई नृजातीयताएं होती हैं, जिसे समाजिक मानविकीशास्त्री ''नृजातीयता की तन्यता (Elasticity of ethnicity)'' कहते हैं। लेकिन यह राजनीतिक वर्ग की दिक्कत है कि वे इन सारी विविधताओं को एक धर्म, एक राष्ट्र के नाम पर नीचा दिखा देते हैं। भारत में साम्राज्यवाद के ख़ात्मे की शुरूआत इसे बदलने के वायदे के साथ हुई थी।

लेकिन अब यह भी संकीर्ण राष्ट्रवाद के ज़हर से बच नहीं पाया। नतीजतन, दक्षिण एशियाई राष्ट्र जिन्हें अपनी विविधता का जश्न मनाना चाहिए था, अब वे धीरे-धीरे बहुसंख्यकवादी हो रहे हैं। उन्हें कौन बताएगा कि दक्षिण एशियाई विभाजन के 70 सालों के पीछे इतिहास की 70 शताब्दियां हैं? इसी लंबे इतिहास को टैगोर ने अपनी कविता 'भारत तीर्थो' या 'भारत तीर्थ' में दर्ज किया है।

'केहो नहीं जाने कार अहोबाने काटो मानुशेर धारा

दुरबार श्रोते एलो कोथा होते, समुद्रे होलो हारा

हेथाये अरजो, हेथा अनार्जो, हेथाये द्रविड़ चीन-

शौक, हुण दल पथन मोगोले एक देहे होले लीन

पोश्चिम आजी खुलीअच्छे दार, सेथा होते सोबो आने उपहार,

दिबे आर निबे, मिलाबे मिलिबे, जाबे ना फिरे-

एई भारतेर महामनाबेर सागरतीरे।'

इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह होगा-

कोई नहीं जानता

किसने आवाज़ दी,

लोग चले आए धाराओं में,

धारा बनकर गिर चले समुद्र में

 

यहां रहते हैं

आर्य और अनार्य,

द्विड़, चीनी और सीथियन

हूण, पठान और मुगल-

आज यह सब

एक आत्मा और शरीर में हो चुके हैं समाहित

 

पश्चिम का दरवाज़ा खुल चुका है,

नए विचारों का आगमन जारी है

देने और लेने,

घुलने और मिलने की

सतत प्रक्रिया जारी है

 

मानवता के इस समुद्र से

वह लोग कभी वापस नहीं लौंटेंगे

यह है हमारा भारत

(उस वक़्त भारत का मतलब हिंदुस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और म्यांमार हुआ करता था)

कितने बांग्लादेशी जानते हैं कि बांग्लादेश बनने से दक्षिण एशिया के बचे हुए लाखों बंगालियों से उनकी एक अहम पहचान का अधिकार छिन गया। भागलपुर से जब मैं ''प्रवासी बंगाली'' के तौर पर 1971 से पहले कोलकाता जाता था, तब मैं अपनी यात्राओं को ''बांग्लादेश की यात्राएं'' कहता था, मतलब वह ज़मीन जो बंगालियों की है।

जिन्हें मेरी बात पर शक है, उन्हें यू ट्यूब पर 1958 की फ़िल्म रागिनी से किशोर कुमार-लता मंगेशकर का मशहूर गाना ''मैं बंगाली छोकरा....मैं मद्रासी छोरी'' सुनना चाहिए। इसका हीरो एक जगह कहता है-''हमरा बांग्लादेश में हर गोरी के लंबे बाल''।

हज़ारों सालों में कई चीज़ों से मिलकर दक्षिण एशिया बना है। यह सभ्यता की वह जगह है, जिसका जश्न मनाना चाहिए। मैं उम्मीद करता हूँ कि मोदी और शाह की जोड़ी यह बात समझेगी।

लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस में सीनियर फ़ेलो हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

CAB: A Serious Threat to Every Idea of South Asia

South Asia history
Modi-Shah
Syncretism in Asia
Bangladesh 1971
Probhashi
citizenship bill
Dividing India
Uniting India

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