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भारत
राजनीति
सीएबी : पवन वर्मा और अब्दुल ख़ालिक़ की अंतरात्मा सीएबी पर कब जागेगी?
समरसता वाले भारत का सपना ओपिनिन कॉलमों से आगे जाना चाहिए।
एजाज़ अशरफ़
11 Dec 2019
सीएबी
पश्चिम बंगाल में सीएबी की प्रस्तावित प्रति जलाई जा रही है

केंद्र सरकार के नागरिक संशोधन विधेयक को क़ानूनी रूप में लागू करवाने की ज़िद ने जनता दल (यू) के महासचिव पवन कुमार वर्मा और लोक जनशक्ति पार्टी के प्रधान सचिव अब्दुल ख़ालिक़ को जहाँ एक मौक़ा और दे दिया है कि वे ठोस एक्शन के माध्यम से, अपने उन सिद्धांतों का झंडा बुलंद करें जिन्हें वे अपने पत्रकारीय लेखों के ज़रिये ज़ाहिर करते रहे हैं। भारत के एक धर्मनिरपेक्ष, सामंजस्यपूर्ण और बहुसांस्कृतिक स्वरूप को लेकर थोड़ा बहुत ज़ोर में अंतर के साथ दोनों ही लोग इस मान्यता को स्वीकार करते हैं और आत्म-केन्द्रित, आक्रामक और हिन्दूवाद की बढती प्रवृत्ति पर विलाप करते हैं।

अगर उनके लेखों से उनका आकलन करें तो वर्मा और ख़ालिक़ के पास वह आवश्यक विश्लेषणात्मक कौशल है जो थाह ले सके कि नागरिक संशोधन विधेयक से भारत के आईडिया को ही क्या ख़तरे हैं। यह विधेयक नागरिकता प्रदान करने के जन्म के आधार को ही खिसका कर धर्म की ओर ले जाती है और इस आधार पर मुस्लिमों के भारत पर अपने स्वाभाविक दावे से मना कर देता है। यह अपवाद मुस्लिमों के लिए नर्कीय है, एक ऐसी प्रवृत्ति जिसे वर्मा और ख़ालिक़ दोनों ने ही अपने वैचारिक लेखों में लगातार ख़ारिज किया है।

दोनों ही राजनीतिक रूप से हाज़िर-जवाब हैं, लुटियन दिल्ली से दोनों के तार अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं और आशा है कि समाचार पत्रों को पढ़ते हैं। वे इस बात से भली भांति परिचित हैं कि नागरिकता विधेयक भारतीय जनता पार्टी के अखिल भारतीय राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को तैयार करने के एजेंडे से से सम्बद्ध है। यह वह धमकी है जो गृह मंत्री अमित शाह हर पखवाड़े लागू करने की धमकी देते रहते हैं। इस विधेयक के ज़रिये अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए ग़ैर-मुस्लिमों को हिरासत में लेने और देश से बहिष्कृत करने से बचाया जा सकता है। इसे सिर्फ़ मुस्लिमों को ही भुगतना पड़ेगा यदि वे अपनी प्रमाणिक नागरिकता को साबित करने में असमर्थ साबित होते हैं।

इसके बावजूद न ही वर्मा और न ही ख़ालिक़ को इस बात की परवाह है कि वे अपने दलों पर दबाव डालकर नागरिकता विधेयक के ख़िलाफ़ मत देने का दबाव बनाएं। अनुमान लगाया जा सकता है कि वे कहेंगे कि उनके पास इतना दबदबा ही नहीं है कि वे अपने दलों को मजबूर कर सकें या उनकी स्थिति में बदलाव ला सकें, या वे कह सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए काफ़ी प्रयास किये लेकिन क्या करें वे असफल रहे। 8 दिसम्बर को टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने वर्मा को उधृत किया है जिसमें वे कहते हैं “उनकी पार्टी के पिछले मत के अनुसार जो उन्हें पता है, उनके लोक सभा के सदस्यों ने सीएबी [नागरिकता संशोधन विधेयक] के समर्थन में मतदान किया है।”

स्पष्ट है कि वर्मा से यह सवाल नहीं पूछा गया था कि क्या सीएबी पर उनकी पार्टी की सोच उनके पोषित आदर्शों का उल्लंघन नहीं कर रही, और क्या वे इस असंगति के चलते भारी पीड़ा का अनुभव नहीं कर रहे। लेकिन अगर उनसे यह सवाल किया गया होता तो, जैसा कि किसी नेता का इस पर रटा-रटाया जवाब होता वैसे ही वर्मा जी का जवाब होता, और वे दावा करते कि वे पार्टी के निष्ठावान सिपाही हैं।

निश्चित तौर पर एक ऐसा बिंदु आता है जहाँ पर निष्ठा दासता में तब्दील हो जाती है। अवश्य ही एक ऐसा बिंदु होता है जहाँ किसी बिना रीढ़ वाले पुरुष या महिला को भी अपने निर्णय में थोड़े बहुत लोहे को मिलाने की ज़रूरत पड़ती है।

वर्मा का यह फ़ैसला कि सीएबी के झंडे को फहराते हुए भी उनकी नाव आराम से चप्पू मारते रहे, जबकि साथ ही उनके भारतीय बहुसंस्कृतिवाद के कसीदों वाला जयगीत भी जारी रहे, यह बेहद अचंभे वाली बात है क्योंकि वे कोई पेशेवर राजनीतिज्ञ नहीं हैं। एक पूर्व भारतीय विदेश सेवा अधिकारी के रूप में उन्हें 2013 में अपनी सेवानिवृत्ति के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सलाहकार और फिर 2014 और 2016 के बीच राज्यसभा में दो साल का कार्यकाल पूरा किया था। अगर वे अपने आदर्शों पर नहीं खड़े हो सकते, तो जैसा कि उनका मक़सद लगता है, क्या वह यह आशा करते हैं कि अपने लेखों के ज़रिये वे दूसरों को प्रेरित कर सकते हैं? हर्गिज़ नहीं।
उनके पाठक उनके लेखन से सिर्फ़ वर्मा के पूरी तरह से पतन का चार्ट निकाल सकते हैं। अपने बिलकुल हाल के लेख में वर्मा लिखते हैं, “... आज विचारधारा अतीत की तुलना में कहीं अधिक मृतप्राय हो गई है। पार्टियाँ सिद्धांतों से जुड़ाव से अधिक सत्ता से गोंद की तरह चिपक गई हैं। वास्तव में जितने अधिक विचारधारात्मक समझौते किये जाते हैं, उतने ही अधिक सिद्धांतों को सही ठहराया जाता है ताकि अपनी दगाबाजी को सही ठहराया जा सके।”

वास्तव में वर्मा ने बहुलतावादी भारत की चाहत का ज़बरदस्त प्रदर्शन किया है। 21 जुलाई 2018 के अपने लेख में वर्मा लिखते हैं, “एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की 70 सालों की क़समें खाने के बाद, मतदाताओं के सामने एक मात्र एजेंडा के रूप में पेश किया जाता है: तुम हिन्दू हो या एक मुसलमान हो? कई कारणों से यह बेहद निंदनीय है।”

जिन कारणों का वर्मा ने हवाला दिया है, उनमें से दो का ज़िक्र करना बेहद महत्वपूर्ण है- वह यह कि “यह मुसलमानों को बदनाम करता है”, और दूसरा यह कि “यह नागरिकता के ऊपर धर्म को विशेषाधिकार देता है, इसलिये यह हमारी बुनियादी बहुलतावादी गणतंत्र की बुनियाद को खोखला करता है।” हिन्दू-मुस्लिम बाइनरी को निर्मित करने के पीछे मकसद है कि सरकार की कमियों को धोखे में रखकर हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण किया जा सके। वर्मा इसमें आगे जोड़ते हैं, “लेकिन सिर्फ़ इन्हीं वजहों से समाज में इस तरह के सांप्रदायिक ज़हर को घोलने को निःसंचोक होकर कह सकते हैं कि, यह अक्षम्य अपराध है।”

निःसंचोक सीएबी महीने दर महीने भारतीय समाज में जहर घोलने का काम करेगी। लेकिन जिसे उन्होंने अपने लेख में “अक्षम्य अपराध” की संज्ञा के रूप में गिनाया था, वो अब एक रणनीति हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण करने के एक खेल, जिसे बिहार में बीजेपी के माध्यम से 2020 के विधानसभा के चुनाव में हासिल करने के रूप में क्षम्य हो चुकी है। 

वर्मा, काफी समझदारी से हिन्दू धर्म के अपने अपनी हिन्दुवाद की जबरदस्त पकड़ और इसके देवी-देवताओं के अद्भुत विशेषताओं को अपने लेख में रोशन करते हैं। 23 जुलाई 2019 के अपने लेख में वर्मा राम की वन्दनीय छवि को विकृत करने के सवाल पर अपनी बात रखते नजर आते हैं। “अंततः, हिन्दुओं को खुद ही ऐसे लोगो के खिलाफ लड़ना होगा जो इस प्रकार से अपने ही धर्म को नुकसान पहुँचा रहे हैं।”

22 जून 2019 के एक टुकड़े में वर्मा ने प्रतिकूल नोट रखते हुए लिखा “प्रधानमंत्री के सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के खिलाफ हमला करो। भारत एक राष्ट्र और सभ्यता के रूप में तभी बचा रह सकता है यदि सभी धर्मों का सम्मान हो। संविधान इस बात की उद्घोषणा करता है कि हम एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र हैं. विपक्ष को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसका वास्तव में पालन हो।”

यह लगता है कि यह एक ऐसे इंसान की ओर से बेहद गंभीर, भविष्यदर्शी और साहसिक सलाह आ रही है जिसकी खुद की पार्टी, बीजेपी के साथ साझा सरकार में है। क्या वर्मा से नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या धर्मनिरपेक्षता का सारा ठेका विपक्ष के ही जिम्मे है या उन पार्टियों की भी कोई जिम्मेदारी है जो सत्ता और विपक्ष के बीच में लटकन बन कर झूल रहे हैं? वर्मा को इस सवाल का जवाब टाइम्स ऑफ़ इन्डिया के संपादकीय पन्नों में देना चाहिए, जहाँ वे अक्सर छपते रहते हैं।

ख़ालिक़ एक पूर्व प्रशासनिक सेवा निवृत्त अधिकारी हैं जो इण्डियन एक्सप्रेस में छपते हैं, हालाँकि उतनी निरंतरता से नहीं जितना वर्मा टीओआई में। फिर भी जब कभी खालिक़ लिखते हैं तो वे हिन्दू-मुस्लिम मसलों पर, धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में हो रहे ह्रास और मुस्लिमों के अनिश्चित भविष्य जो सताए गए हैं और भयभीत हैं, पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं।

कई बार उनकी भावनायें उनके बेहतर होने के ऊपर साबित होती हैं। उदाहरण के लिए 2014 में ख़ालिक़ ने द हिन्दू की विद्या सुब्रह्मण्यम के सामने टसुए बहाकर इस बात को उजागर किया कि लोक जनशक्ति पार्टी को सिर्फ इसलिये बीजेपी के साथ गठबंधन में जाना पड़ा क्योंकि लम्बे समय तक इन्तजार करने के बावजूद कांग्रेस ने उनके नेताओं को सीटें नहीं दीं। उनके हिसाब से धर्मनिरपेक्ष खेमे से एलजेपी के पतन के पीछे कांग्रेस की गलती थी।

सौभाग्य से ख़ालिक़ ने तब से मुस्लिमों की दुर्दशा के प्रति अपनी उदासीनता नहीं जाहिर की है, कम से कम उनके अपने अखबारी लेखन में तो ऐसा नहीं दिखता।

वे बड़े जोश से मुस्लिमों को राहत पहुँचाने वाले तर्कों को रखते हैं और उनके हक के लिए लड़ते दीखते हैं जैसा कि उन्होंने अपने 23 सितम्बर वाले टुकड़े में किया. उस लेख में ख़ालिक़ एनआरसी को लेकर काफी निर्मम हैं: “ इस पूरी कवायद का स्पष्ट मकसद है उन मुसलमानों को खदेड़ना, जिनके पास दस्तावेज़ नहीं हैं और यहाँ तक कि उन्हें भी सजा देना है जो भारतीय नागरिक तो हैं, लेकिन उनके पास जन्म या नागरिकता साबित करने का कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं है। लोगों को धर्म के आधार पर “ग़ैर-नागरिक” घोषित करने की यह कवायद जो इतिहास में किसी लोकतंत्र में राज्य-प्रायोजित कृत्यों के रूप में अब तक की सबसे बड़ी अधर्मी कार्यवाही के रूप में याद रखी जायेगी।”

भारत अधर्म के रास्ते पर निकल पड़ा है। इसके बावजूद ख़ालिक़ और वर्मा अपने उच्च नैतिक पदों वाली स्थिति को गा-बजाकर ही संतुष्ट हैं। जबकि वे और उनकी पार्टियाँ भारत के मूल विचार को ही खारिज करने में साझीदारी की बुमिका में हैं, जिस विचार के बारे में यदि उनके लेखों से आकलन करें तो पता चलता है कि वे इसके प्रति कितने भावुक हैं। आखिर वो दिन कब आएगा जब वर्मा और ख़ालिक़ जैसों की आत्मा सीएबी पर जागेगी और वे भारत को हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिमों को दोयम-दर्जे के नागरिकों के रूप में बनाने के अभियान से खुद को बाहर करेंगे? जिस सवाल पर उनकी ऐसी महारत हासिल है, उस सवाल पर दोनों का अपने-अपने दलों से इस्तीफ़े की घोषणा इतिहास निर्मित करने का काम करेगा। चाहे सिर्फ सनद के लिए इसे एक नाकाम कोशिश के रूप में दर्ज किया जा सके, कि आख़िरकार सीएबी ने राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन में जबरिया निर्मित किये गए, आत्म-स्वार्थ के लिए तैयार की गई सर्वसम्मति को तोड़ने का काम किया है।

एजाज़ अशरफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
 

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