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भारत
राजनीति
सीएबी : हर भारतीय को पता होना चाहिए कि श्रीलंका को इसमें क्यों नहीं रखा गया है
इस विधेयक से हर निष्कासन एक सोचा-समझा सांप्रदायिक प्रयोग है।
सुरूर अहमद
10 Dec 2019
CAB

नागरिक संशोधन विधेयक, 2019 के अंदर विरोधाभासों का बोझ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है।

सोमवार को विधेयक को लेकर संसद में चली तीखी बहसें, जिसमें भारत के तीन मुस्लिम-बाहुल्य पड़ोसी देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, पारसी, जैन और सिख शरणार्थियों को भारत में नागरिकता प्रदान करने का प्रयास है।

सरकार अपने अन्यायपूर्ण विधेयक की रक्षा में तर्क रख रही है कि उसके इस क़दम से उन उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों की रक्षा का काम हो सकेगा, जो अपनी “जड़ें” भारत में देखते हैं। फिर भी, यह विधेयक ढेर सारी विसंगतियों से भरा हुआ है, जिसे भारत द्वारा धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करने की पहली कोशिश के रूप में कहा जा रहा है।

उदहारण के लिए, देर से सही केंद्र से यह सवाल पूछा गया वह इस बात का खुलासा करने की कृपा करें कि इस विधेयक से श्री लंका की तमिल आबादी को क्यों बाहर रखा गया है, जो मुख्य तौर पर हिन्दू हैं, और इस द्वीप राष्ट्र के सिंहली बहुसंख्यकों के हाथों लगातार उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं।

आख़िरकार, भारत के बाहर श्रीलंका ही वह देश है जहाँ सबसे अधिक अनुपात में (12.6%) हिन्दू बसते हैं। और यह 1971 के बाद से, जिस साल बांग्लादेश अस्तित्व में आया था, यह श्रीलंका में ही है जहाँ भारी संख्या में हिन्दुओं की हत्या की गई है। लेकिन इसके बावजूद, जहाँ एक ओर इस द्वीप वाले राष्ट्र को नागरिक संशोधन विधयेक से बाहर रखा गया है, वहीँ भारत के पूर्वी पड़ोसी को इसमें शामिल किया गया है। केंद्र ने न सिर्फ इस तथ्य को नजरअंदाज किया है कि श्री लंका के तमिल, उसकी आबादी के 17% के करीब हैं, और वे 74% वाली जनसंख्या वाले सिंहली-बौद्धों के हाथों पीड़ित हैं (यह कोई बताने वाली बात नहीं है कि अधिसंख्यक तमिल आबादी हिन्दुवाद में विश्वास करती है)। इसने श्री लंका के समूचे आजादी के बाद के इतिहास को नजरअंदाज करने का काम किया है।

4 फरवरी 1948 से ही, जिस दिन से श्री लंका को आजादी हासिल हुई है, इस द्वीप राष्ट्र में तमिलों को उनके अधिकारों से वंचित रखने का काम किया गया है। इसके आगे, 1983 से 2009 के बीच करीब एक चौथाई-शताब्दी तक खिंचने वाला लंबा गृह युद्ध छिड़ा रहा। इसने तकरीबन 1,50,000 और 2,00,000 के बीच तमिल (और सिंहली भी) ज़िंदगियाँ छीन लीं, जिनमें से अधिकतर तमिल मूल के थे।

यहाँ तक कि 1980 दशक के अंत में भी, लिबरेशन टाइगरस ऑफ़ तमिल एलम (लिट्टे) के कैडरों और भारतीय शांति सेना (आईपीकेऍफ़) के बीच चले संघर्ष में सैकड़ों तमिलों की मौत हुई और आईपीकेऍफ़ के जवान भी भारी संख्या में हताहत हुए।

इसमें कोई शक नहीं कि इस द्वीप राष्ट्र में तमिल आतंकी गतिविधियाँ जारी थीं, जो 1993 के श्री लंका के तीसरे राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा की हत्या और 1991 में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। इन्हीं कारणों से और आमतौर पर जिस तरह की कार्यनीति उन्होंने अपनाई उसकी वजह से लिट्टे अपना समर्थन खोता चला गया, जिसमें भारतीय सरकार की हमदर्दी भी शामिल थी।

समय के साथ-साथ, मज़बूत भावनात्मक और जातीय रिश्ते होने के बावजूद भारत में तमिल आबादी का श्री लंका की तमिल जातीय आबादी के प्रति संदेह पनपता चला गया। और ठीक इसी दौरान, 1980 के दशक से ही भारी संख्या में “सीलोन के तमिलों” या “जाफना के तमिलों” के भारी संख्या में श्री लंका से पलायन और भारत में प्रवेश जारी रहा, जहाँ पर अब उन्हें राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा।

ऐसा लगता है कि बीजेपी सिर्फ़ भारत के एकमात्र तमिल-बहुल राज्य की जनता को आहत करने से डर रही है। तमिलनाडु वह राज्य है जिसने शासक दल के हिन्दुत्ववादी विचारधारा की हमेशा मुखालफत की है। बीजेपी का इस राज्य में शायद ही कोई अस्तित्व है. इस साल लोक सभा चुनाव में इसका सूपड़ा साफ़ हो गया था।

यहाँ तक कि इसके गठबंधन की सहयोगी पार्टी ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कजघम-एआईएडीएमके (जिसकी स्थिति लिट्टे पर द्रविड़ मुन्नेत्र कज़घम या डीएमके के पक्ष से भिन्न है) मात्र एक सीट वहाँ से जीत सकी। बीजेपी नहीं चाहती कि दक्षिण से उसे और अधिक अलगाव झेलना पड़े। इसीलिए, केंद्र द्वारा, उन हिन्दुओं और अन्य गैर-मुस्लिम समुदाय के लोगों को जिनकी जडें भारत में हैं, को सुरक्षित ठिकाना प्रदान करने की उत्कट आकांक्षाओं पर घरेलू दबाव ने विजय हासिल की है। यही वह राजनीतिक मजबूरी है जिसके चलते सरकार ने खुद को श्री लंका के तमिलों को नागरिकता बिल में जगह देने से दूर रखा है। जबकि इसने अफ़ग़ानिस्तान को इसमें शामिल किया है, एक ऐसा देश जिसके साथ भारत अपनी सीमा तक साझा नहीं करता है।  

यद्यपि श्री लंका में तमिल आबादी की वास्तविक परिस्थितियाँ बेहद ख़राब बनी हुई हैं। लिट्टे और इसके समर्थकों को 2009 में सैन्य आक्रमण के जरिये तब के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षा के नेत्रत्व में श्री लंका सरकार ने निर्ममता से कुचल दिया। कई विश्लेषक आज तक कहते पाए जाते हैं कि श्री लंका के शासक वर्ग के ‘सिर्फ-सिंहली’ मानसिकता को बदलने के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए हैं, जो तमिल आबादी को बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में धकेलने का काम करते हैं।

नवम्बर 2019 में हुए हालिया चुनावों में कट्टरपंथी नेता गोताबया राजपक्षा श्री लंका के नए राष्ट्रपति चुने गए हैं। उन्होंने तत्काल अपने भाई महिंदा को प्रधान मंत्री के रूप में नियुक्त कर दिया है। ये घटनाक्रम फिर से तमिल आबादी के भविष्य पर नए प्रश्न खड़े करने के साथ ही श्री लंका के मुस्लिम समुदाय पर, जो हाल के वर्षों में सिंघली राष्ट्रवाद और सिंघली पहचान से और दूर होती गई है, और खुद को उनके जातीय-विभाजित देश में अधिकाधिक अलग-थलग होते पाते हैं।

यदि भारतीय सरकार का इरादा वास्तव में पीड़ित अल्पसंख्यकों को मदद करने का है तो उसे सिंहली मुसलमानों और हिन्दू तमिलों को अपनी नागरिकता की योजना में जगह अवश्य देनी चाहिए, क्योंकि जो वह लागू करने जा रही है, वह सिर्फ़ भारत में ही विभाजनकारी माहौल नहीं पैदा करेगा, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया पर भी इसका प्रभाव पड़ने जा रहा है।

इसको लेकर विधेयक की आलोचना हो रही है, और साथ ही मुस्लिमों को इसकी परिधि से बाहर रखा गया है, बल्कि विरोधाभासों का वहीँ अंत नहीं हो जाता। उदहारण के लिए श्री लंका में, ये बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग हैं जो कट्टरपंथी हो रहे हैं और जिन्होंने ख़ुद को हिंसक गुटों में संगठित कर रखा है। फिर भी, भारत के नए कानून में पकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के बौद्धों को नागरिकता जल्द से जल्द कैसे मिले इसका प्रस्ताव रखा है। इसी प्रकार, विधेयक पडोसी देश म्यांमार के धार्मिक-जातीय तौर पर अल्पसंख्यक समुदाय रोहिंग्या को बाहर रखता है, जिन्हें भारी संख्या में बांग्लादेश ने शरण दी है।

यह विचार ही कि दूसरे देशों के अल्पसंख्यकों को, वे चाहे किसी धर्म को मानने वाले हों को भारत में शरण देने वाला यह उदात्त विधेयक है, अपने आप में बेहद सवालिया निशान छोड़ता है। कुछ विश्लेषकों का तो यहाँ तक मत है कि भारत की खस्ता आर्थिक स्थिति को देखते हुए आर्थिक तौर पर शरण लेने वाले लोग, दक्षिण एशिया के दूसरे देशों या उससे बाहर अपने लिए अवसरों की तलाश करना पसन्द करें।

इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के हालात के मुद्दे को तूल देकर  सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करना आसान भी है, खासकर उत्तर और मध्य भारत में जहाँ राजनैतिक रूप से बीजेपी का अच्छा खासा प्रभाव है। इस मामले में श्री लंका का सवाल इन क्षेत्रों में बीजेपी को सांप्रदायिक आधार पर विभाजन पैदा कर राजनीतिक फायदा पहुँचाता नहीं दिखता है। यही कारण है कि साफ़ तौर पर बिल में विरोधाभासों के होने बावजूद इसे हल करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है।

अपने सांप्रदायिक मुद्दे को नकाब पहनाने के लिए सरकार ने दिखावटी तर्क को आगे किया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में सताए जा रहे मुस्लिमों के लिए तो मुस्लिम बहुल या इस्लामी देशों में शरण लेने की सुविधा मौजूद है, लेकिन यही तर्क तो ईसाइयों और बौद्ध मत के अनुयायियों के लिय भी लागू होती हैं क्योंकि ऐसे ढेर सारे देश हैं जहाँ पर इन दोनों समुदायों का बहुमत है। ईसाई बहुल देशों की संख्या तो मुस्लिम देशों से क़रीब-क़रीब दोगुनी ही होगी।

वास्तविकता यह है कि पश्चिमी यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैण्ड और ढेर सारे दूसरे देशों में जब शरण देने या नागरिकता प्रदान करने का प्रश्न आता है तो धर्म के नाम पर भेदभाव करने का चलन नहीं है।

भारत का पड़ोसी देशों के विस्थापित लोगों को आश्रय प्रदान करने का लम्बा इतिहास रहा है। आज से साठ साल पहले, हजारों की संख्या में तिब्बती बौद्ध और दलाई लामा ने भारत में शरण माँगी थी। 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में भारत ने पूर्वी पाकिस्तान से आये लाखों लोगों को पनाह दी थी. हालाँकि बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद वे लोग वापस लौट गए थे।

नेपाल का मामला थोड़ा अलग है, सिवाय केन्द्रीय सेवाओं को छोड़कर जैसे आईएएस, आईएफ़एस और आईपीएस को छोड़कर, नेपाली लोग भारत में नौकरियाँ हासिल कर सकते हैं। फिर भी, वास्तविकता यह है कि मधेशिया लोग- भारतीय मूल के वे हिन्दू जो भारत और नेपाल देशों की सीमा पर ज्यादातर निवास करते हैं, ने अक्सर इस बात की शिकायत की है कि नए संविधान में उनकी हैसियत ग़ैर-बराबरी की कर दी गई है।

यह बेहद हास्यास्पद है कि आज हम म्यांमार के रोहिंग्याओं के प्रति उसी सह्रदयता से विस्तार का विरोध करते हैं जबकि मात्र धार्मिक पहचान के आधार पर – दूसरे पीड़ित अल्पसंख्यकों के प्रति वाक्पटुता का मुलम्मा चढ़ाकर मदद करने का ढोंग कर रहे हैं।

(सोरूर अहमद स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

CAB: What Indians Must Know About Sri Lanka’s Exclusion

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Sri Lanka Tamil
BJP domestic politics
Communalism through Citizenship

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