NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
जेल और थानों में सीसीटीवी: क्या इससे पुलिस ज़्यादतियों पर अंकुश लग सकता है?
अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि राज्य एवं जिला स्तरों पर ऐसी निगरानी कमेटियों का भी निर्माण किया जाए तथा ऐसे कैमरों को स्थापित करने की दिशा में तेजी लायी जाए।
सुभाष गाताडे
04 Dec 2020
सीसीटीवी
Image courtesy: Brave India

सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका के संदर्भ में पिछले दिनों एक अहम फैसला दिया। इसके तहत उसने तमाम राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वह हर थाने में क्लोजड सर्किट टीवी (सीसीटीवी), जिसमें आवाज़ रिकॉर्डिंग की भी सुविधा हो तथा रात में ‘देखने’ की व्यवस्था हो, जल्द से जल्द स्थापित करे। अदालत की इस त्रिसदस्यीय पीठ ने - जिसमें न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति के एम जोसेफ और न्यायमूर्ति अनिरूद्ध बोस भी शामिल थे - अपने आदेश में यह भी जोड़ा कि ऐसी सुविधा केन्द्रीय एजेंसियों के दफ्तरों में भी स्थापित की जानी चाहिए फिर चाहे सीबीआई हो, नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) हो या नारकोटिक्स कन्टोल ब्यूरो (एनसीबी) हो या एनफोर्समेण्ट डायरेक्टोरेट हो।

भारत जैसे मुल्क में पुलिस बलों या अन्य केन्द्रीय एजेंसियों के दस्तों द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना एवं यातनाओं से अक्सर ही रूबरू होना पड़ता है। आप तमिलनाडु के थोडकुडी जिले में पिता पुत्रों- जयराज उम्र 62 वर्ष और बेंडक्स उम्र 32 साल - की हिरासत में मौत के प्रसंग को देखें, जब दोषी पुलिसकर्मियों की संलिप्तता को साबित करने के लिए जन आंदोलन करना पड़ा था। जून, 2020 या आप कुछ वक्त़ पहले राजधानी दिल्ली से ही आर्म्स एक्ट के तहत बंद विचाराधीन कैदी की पुलिस द्वारा निर्वस्त्र कर की गयी पिटाई का दृश्य चर्चित हुआ था जब किसी न कैमरे में उपरोक्त नज़ारा कैद कर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया था। 

त्रिसदस्यीय पीठ का मानना था कि चाहे मानवाधिकार आयोग हो या मुल्क की अदालतें हो, वह किसी विवाद की स्थिति में इस सीसीटीवी फुटेज का इस्तेमाल कर सकती हैं, जहां हिरासत में बंद लोगों के मानवाधिकारों के हनन की अक्सर शिकायतें आती रहती हैं और जनाक्रोश भी सड़कों पर उतरता रहता है। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि राज्य एवं जिला स्तरों पर ऐसी निगरानी कमेटियों का भी निर्माण किया जाए तथा ऐसे कैमरों को स्थापित करने की दिशा में तेजी लायी जाए।

गौरतलब है कि जहां तक थानो में सीसीटीवी लगाने का सवाल है, देश के अन्य न्यायालय भी इस किस्म का निर्देश पहले दे चुके हैं।

मुंबई के अग्नेलो वाल्दारिस नामक युवक की पुलिस थाने में मौत के प्रसंग पर विचार करते हुए अदालत ने बताया  था कि थाने के हर कोने में महाराष्ट्र सरकार रोटेटिंग कैमरे अर्थात चल कैमरों को लगाए, उन्हें 24 घंटे चलने दें। किसी की सोने की जंजीर की चोरी के आरोप में अग्नेलों और अन्य तीन जनों को पुलिस उठा कर ले आयी थी और अपराध उगलवाने के लिए उन्हें यातनाएं दे रही थी। गुजरात उच्च अदालत ने भी गुजरात सरकार को इसी किस्म का निर्देश अन्य मामले में दिया था और एक निश्चित सीमा तक उसे पूरा करने को कहा था।

कुछ साल पहले इसी तरह हिरासत में बन्दी बनाए गए ऐसे लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए न्यायमूर्ति टी एस ठाकुर की अगुआईवाली देश के सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने केन्द्र और राज्य सरकारों को इसी किस्म के आदेश दिए थे। पीठ ने कहा था कि देश के सभी जेलों में एक साल के अन्दर सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं, उसने यह भी जोड़ा कि देश के सभी लॉकअप्स और पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाने की सम्भावना पर भी गौर किया जाए ताकि जिन लोगों को वहां बन्दी बनाया गया है, उन्हें यातना न झेलनी पड़े।

फिलवक्त इस बात की तुरंत पड़ताल नहीं हो सकती कि आखिर इन आदेशों पर किस हद तक अमल हो सका तथा अगर नहीं हो सका तो इसकी क्या वजहें थीं कि सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को आगे आना पड़ा। क्या इसके पीछे सरकारी स्तर पर गंभीरता का अभाव था या राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी थी !

निश्चित ही पुलिस की हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए ऐसे प्रस्तावों पर अन्य कई मुल्कों में पहले से ही काम हो रहा है और उनका अनुभव भी इस मामले में सकारात्मक दिखता है। वह इस बात को रेखांकित करता है कि जहां इससे पुलिस ज्यादतियों पर अंकुश लग सकता है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि पुलिस के खिलाफ ज्यादती के नकली आरोपों से भी उनका बचाव हो सकता है क्योंकि वह सीसीटीवी के रिकार्ड छान कर अपनी बेगुनाही का सबूत दे सकते हैं।

एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने अपने एक अध्ययन में इस पर विस्तार से रौशनी डाली थी : सौरव दत्ता, डीएनए, 2 अक्तूबर 2014 - उनके मुताबिक वर्ष 2008 में कैटालोनिया के पुलिस थानों में सीसीटीवी लगाए गए और तब से पुलिस ज्यादतियों के खिलाफ आनेवाली शिकायतों में 40 फीसदी कमी आयी। अमेरिका के कैलोफोर्निया के रियाल्टो शहर के एक अन्य अनुभव की भी वह चर्चा करते हैं, जिसमें पुलिसकर्मियों के शरीर पर ही कैमरे तैनात किए गए। लगभग एक लाख आबादी के इस शहर में संचालित इस नियंत्रित प्रयोग के अन्तर्गत पुलिस द्वारा बल प्रयोग की घटनाओं में 59 फीसदी की कमी आयी और पुलिस के खिलाफ ज्यादतियों की शिकायत को लेकर 89 फीसदी कमी नोट की गयी।

उदाहरण के तौर पर, अमेरिका में रे टेन्सिंग नामक पुलिस अफसर को सैम्युअल डूबोस नामक 43 वर्षीय अफ्रीकी अमेरिकी व्यक्ति की हत्या करने को लेकर हैमिल्टन कौन्टी के न्यायाधीश ने सज़ा सुनायी। बिना आगे वाले हिस्से के लाइसेन्स प्लेट गाड़ी चला रहे डूबोस को टेन्सिंग ने रास्ते में रोक कर चालक का लाइसेन्स मांगा और चूंकि उसके पास लाइसेन्स नहीं था, इसलिए तैश में आकर टेन्सिंग ने अपनी पिस्तौल निकाल कर डूबोस पर चला दी, जिसमें उसकी ठौर (घटनास्थल) मौत हुई। इस हत्या को लेकर टेन्सिंग ने पहले बहाने बनाने की कोशिश की, मगर उसके शरीर पर लगे वीडियो कैमरे के फुटेज में असलियत सामने आयी। न्यायाधीश ने कहा कि यह शुद्ध हत्या है तथा उस अपराध में टेन्सिंग को सज़ा सुनायी। उसके चन्द रोज पहले अश्वेत अधिकारों के लिए संघर्षरत रही साण्डरा ब्लाण्ड नामक अश्वेत महिला की जेल में हुई मौत को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ, उसमें भी यही तथ्य सामने आया कि किस तरह पुलिस ने उसे कार चलाते हुए रोका था और महज सड़क पर लेन गलत चुनने के चलते उसकी पिटाई की थी। इस मामले में भी सच्चाई उजागर होने में पुलिस के शरीर पर लगे वीडिओ कैमरे के फुटेज ने काफी सहायता दी।

ध्यान रहे कि हिरासत में मौतों को लेकर या प्रताड़नाओं को लेकर सर्वोच्च न्यायालय समय समय पर पहले भी अपना हस्तक्षेप करता रहा है।

भारत में मानवाधिकारों के बढ़ते उल्लंघन की घटनाओं के मददेनजर वह केन्द्र और राज्य सरकारों को वह लताड़ता रहा है कि पुलिस ज्यादतियों को रोकने के लिए उसने पहले में जो दिशानिर्देश जारी किए थे, उन पर क्यों नहीं अमल हो रहा है।

हम बहुचर्चित डीके बसु फैसले को देख सकते हैं जब वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एएस आनंद और न्यायमूर्ति कुलदीप कुमार ने हिरासत के मामले में ग्यारह शर्तों का पालन करने के निर्देश दिए थे, यह बताया था कि अगर हिरासत में किसी की मौत हो जाती है तो किस तरह पोस्टमार्टेम की वीडियोग्राफी करनी चाहिए ताकि बाद में जरूरत पड़ने पर उसे सबूत के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके।

सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति एच एस बेदी और जे एम पांचाल की पीठ ने शिमोगा शहर में बाईस साल पहले डोड्डापेट थाने के अन्दर हुई गुरुमूर्ति और राजाकुमार की मौत के मामले में शेकरप्पा एवम छह अन्य कान्स्टेबलों को जिम्मेदार ठहराया था। दोषी पुलिसकर्मियों की सज़ा को सही ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दो बातें रेखांकित की थी :

एक, हिरासत में हत्या यह निःस्सन्देह ऐसा घृणित अपराध हैं, जो नागरिकों के रक्षक कहे गए लोगों द्वारा किए जाते हैं। इनमें सबसे विचलित करनेवाला पक्ष यही होता है कि पुलिसिया यूनिफार्म एवं प्राधिकार का डर दिखा कर उन्हें पुलिस हिरासत में या लॉकअप में यातनाएं दी जाती हैं, जहां पीड़ित पूरी तरह असहाय होता है।

दूसरे, नागरिकों की व्यक्तिगत आजादी और जिन्दगी की हिफाजत करने के लिए भले ही संवैधानिक प्रावधान बने हों, मगर हकीकत यही है कि पुलिस हिरासत में यातना एवं मौतों की घटना में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे मामलो की अदालतों द्वारा भर्त्सना किए जाने के बावजूद कुछ पुलिस अधिकारी ऐसा व्यवहार करते हैं कि सन्देह के आधार पर गिरफ्तार किए गए लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है।

इस स्थिति में सुधार के लिए विधि आयोग ने महत्वपूर्ण सिफारिशें भी की थीं, (1985) उसके मुताबिक इण्डियन इविडन्स एक्ट, 1872 (भारतीय साक्ष्य अधिनियम) में उचित संशोधन की आवश्यकता है ताकि हिरासत में हुई मौत को लेकर अपने आप को बेगुनाह साबित करने की जिम्मेदारी पुलिस की बने, दूसरे अपराध दण्ड संहिता की धारा 197 को खारिज करने की आवश्यकता है ताकि अदालत की वरीयता की रक्षा की जा सके।

प्रश्न उठना लाजिमी है कि हिरासत में यातना में उछाल किस वजह से सम्भव हो पाता है?

दरअसल यातना देनेवाले को मालूम रहता है कि वह पूरी तरह सुरक्षित है, कोई भी अपराध करे वह दण्डमुक्त रह सकता है। खुद केन्द्र और राज्य सरकारें भी अपराध दण्ड संहिता की धारा 197 के अन्तर्गत दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने को मंजूरी नहीं देती हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसी मौतों को रोकने के लिए सरकार ने नीतियां नहीं बनायी हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिरासत में मौतों को लेकर अपने स्पष्ट दिशानिर्देश तय किए हैं, जिसमें ऐसी घटनाओं की सूचना 24 घण्टे के अन्दर पहुंचाने में, इस बात की पड़ताल करते हुए कि कहीं पुलिस या सरकारी अधिकारी ने कोई गड़बड़ी तो नहीं की है, इसे भी जांचने के दिशानिर्देश दिए हैं। इसके अलावा अपराध दण्ड संहिता की धारा 176 के अन्तर्गत, किसी भी अस्वाभाविक मौत को लेकर जिला प्रशासन के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह 24 घण्टे के अन्दर न्यायिक जांच करे। इतना ही नहीं हिरासत में मौत के मामले में शव परीक्षण को भी 24 घण्टे के अन्दर कराये जाने का प्रावधान बनाया गया है। 

लेकिन तथ्य बताते हैं कि इन सभी नियमों का धडल्ले से उल्लंघन किया जाता है।

सबसे बड़ा सवाल है कि सरकारें जनता की बेहतरी के प्रति कितनी गम्भीर होती हैं।

इस संदर्भ में संसद में हिरेन मुखर्जी व्याख्यान देते हुए नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्र प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने एक अहम बात कही थी, जिस पर हर हुकूमत को गौर करना ही चाहिए। उनका कहना था कि ‘सामाजिक न्याय के विचार की पड़ताल करते हुए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम न्याय के प्रणाली केन्द्रित नज़रिये (arrangement-focused view of justice) और नतीजा केन्द्रित नज़रिये (realization-focused understanding of justice) में फर्क करें। अक्सर हम न्याय को कुछ सांगठनिक प्रणालियों के सन्दर्भ में सोचते हैं - कुछ संस्थाएं, कुछ नियमन, कुछ व्यवहारगत नियम - जिनकी सक्रिय मौजूदगी हमें बताती है कि न्याय को अमल में लाया जा रहा है। सवाल यह पूछे जाने का है कि क्या न्याय की मांग महज संस्थाओं एवं नियमों के गठन तक सीमित रखी जा सकती है।

(सुभाष गाताडे वरिष्ठ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

CCTV
CCTV cameras
police
prisoners
Supreme Court
(arrangement-focused view of justice
realization-focused understanding of justice

Related Stories

ज्ञानवापी मस्जिद के ख़िलाफ़ दाख़िल सभी याचिकाएं एक दूसरे की कॉपी-पेस्ट!

आर्य समाज द्वारा जारी विवाह प्रमाणपत्र क़ानूनी मान्य नहीं: सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिक साथ रहने के लिए 'आज़ाद’, केरल हाई कोर्ट का फैसला एक मिसाल

मायके और ससुराल दोनों घरों में महिलाओं को रहने का पूरा अधिकार

जब "आतंक" पर क्लीनचिट, तो उमर खालिद जेल में क्यों ?

विचार: सांप्रदायिकता से संघर्ष को स्थगित रखना घातक

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक आदेश : सेक्स वर्कर्स भी सम्मान की हकदार, सेक्स वर्क भी एक पेशा

तेलंगाना एनकाउंटर की गुत्थी तो सुलझ गई लेकिन अब दोषियों पर कार्रवाई कब होगी?

मलियाना कांडः 72 मौतें, क्रूर व्यवस्था से न्याय की आस हारते 35 साल

क्या ज्ञानवापी के बाद ख़त्म हो जाएगा मंदिर-मस्जिद का विवाद?


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License