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कोविड-19: बिहार के उन गुमनाम नायकों से मिलिए, जो सरकारी व्यवस्था ठप होने के बीच लोगों के बचाव में सामने आये
रंजन झा से लेकर शादाब अख़्तर और ग़ालिब कलीम तक, अलग-अलग क्षेत्रों में लगे ये नौजवान स्वयंसेवक, महामारी की घातक दूसरी लहर के बीच बिहार के लोगों को आपातकालीन सेवायें मुहैया कराने के इस मौक़े पर सामने आये हैं।
तारिक अनवर
08 Jun 2021
कोविड-19: बिहार के उन गुमनाम नायकों से मिलिए, जो सरकारी व्यवस्था ठप होने के बीच लोगों के बचाव में सामने आये

नई दिल्ली: मुचकुंद कुमार 'मोनू' में कोविड-19 के तमाम लक्षण मौजूद तो थे, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बीमारी की पुष्टि के लिए आरटी-पीसीआर टेस्ट नहीं कराया था। बिहार के बेगूसराय ज़िले के प्रसिद्ध हिंदी कवि,रामधारी सिंह 'दिनकर' के गांव सिमरिया के रहने वाले 38 साल के इस नौजवान की सांस फूलने की शिकायत के बाद उनके रिश्तेदार उन्हें स्थानीय अस्पताल ले गये, मगर अस्पताल ने उन्हें राजधानी स्थित कोविड-19 के लिए समर्पित और देखभाल सुविधा वाले पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (PMCH) रेफ़र कर दिया।

मगर, उनका परिवार पीएमसीएच के बजाय उन्हें पटना के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) ले गया, जहां उनके लिए बेड का इंतज़ाम करवाया गया था। लेकिन, उनके रिश्तेदार ने न्यूज़क्लिक को बताया कि आरटी-पीसीआर टेस्ट की रिपोर्ट नहीं होने के चलते उन्हें कथित तौर पर वहां भर्ती करने से इन्कार कर दिया गया।

उसके परिजन अस्पताल के अधिकारियों से उन्हें भर्ती करने को लेकर एक घंटे से ज़्यादा समय तक आग्रह करते रहे,लेकिन इसका कोई फ़ायदा नहीं हुआ। रिश्तेदार का कहना है कि एम्स परिसर में एक एम्बुलेंस में लगातार लेटे रहने से मोनू के ख़ून का ऑक्सीजन स्तर 70 से भी नीचे हो गया।

उनके रिश्तेदार ने आरोप लगाते हुए कहा कि उन्हें वापस पीएमसीएच ले जाया गया, जहां ऑक्सीज़न तो नहीं ही मिली, इसके अलावा उन्हें दवायें या बीआईपीएप वाले नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन के लिए गहन देखभाल इकाई (आईसीयू) में ले जाये जाने जैसी कोई अन्य चिकित्सा सहायता भी नहीं मिली।

चूंकि उन्हें उस बीआईपीएपी पर रखा जाना ज़रूरी था, जो इस 'प्रीमियर' अस्पताल के सामान्य कोविड-19 वार्ड में उपलब्ध ही नहीं था,ऐसे में जवाहर नवोदय विद्यालय (JNV) के पूर्व छात्रों के संगठन के स्वयंसेवकों के एक समूह ने उनके लिए एक एनआईवी मास्क और ऑक्सीज़न सिलेंडर उपलब्ध कराया, मोनू ख़ुद इस प्रतिष्ठित संस्थान के पूर्व छात्र रहे थे।

लेकिन, तबतक बहुत देर हो चुकी थी। बेगूसराय के डीएवी पब्लिक स्कूल में इतिहास पढ़ाने वाले उस नौजवान शिक्षक की 18 अप्रैल को मौत हो गयी।

रंजन झा

इस घटना ने जेएनवी के पूर्व छात्र समूह के एक सदस्य, रंजन झा को देश में कोविड-19 महामारी की दूसरी और घातक लहर के दौरान ज़रूरतमंद रोगियों के लिए एक समूह बनाने के लिए प्रेरित किया,जिन्होंने अन्य लोगों के साथ मिलकर मोनू की हर मुमकिन मदद की थी।

उस भयानक घटना से सबक़ लेते हुए 19 अप्रैल को एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के इस मार्केटिंग रणनीतिकार ने 'JNV COVID हेल्पलाइन' व्हाट्सएप ग्रुप बनाया,जिसमें अब तक़रीबन 80 लोग हैं और जिनमें कम से कम 48 डॉक्टर हैं। ये सभी जेएनवी के पूर्व छात्र हैं।

वह कहते हैं, “उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने मुझे एहसास दिला दिया कि अगर किसी के पास आरटी-पीसीआर रिपोर्ट नहीं है, तो उसे चिकित्सा उपचार नहीं मिलेगा। इससे मुझे यह सबक़ भी मिला कि कई बार मरीज़ों को बुनियादी चिकित्सा सहायता के अभाव में छोड़ दिया जाता है, उनकी मृत्यु तक हो जाती है। यह हमारे लिए उन आम लोगों के साथ खड़े होने का एक उपयुक्त पल था, जिन्होंने सरकार की तरफ़ से चलाये जा रहे जेएनवी में हमारी शिक्षा का वित्तपोषण किया है। इसलिए मैंने यह ग्रुप बनाया है।”

झा ने न्यूज़क्लिक को बताया,“इस ग्रुप के ज़्यादतर डॉक्टर इसी राज्य के निवासी हैं। इसके अलावा, इस समूह में कुछ पत्रकार, शिक्षाविद और विभिन्न क्षेत्रों के पेशेवर हैं। यह ग्रुप शुरू में जेएनवी से जुड़े लोगों को समर्पित था, लेकिन बाद में इस ग्रुप को सभी की सेवा के लिए खोल दिया गया। मैंने इस ग्रुप के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर भी प्रचार किया, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग हम तक पहुंच सकें।”

उन्होंने आगे बताते हुए कहा कि डॉक्टरों और स्वयंसेवकों के अलावा, उन्हें कई नौकरशाहों से भी मदद मिली,जो कि जेएनवी के ही पूर्व छात्र हैं। राज्य भर में सरकारी और निजी अस्पतालों में बेड, ऑक्सीज़न सिलेंडर, बीआईपीएपी और मरीजों के लिए दवाओं की व्यवस्था करने को लेकर वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अगर उन्हें ज़रूरी चिकित्सा सेवा मुहैया करा दी जाती है, तो बड़ी संख्या में संक्रमित रोगियों का इलाज तो उनके घर पर रहते हुए ही किया जा सकता है।

उन्होंने कहा,“मई के पहले हफ़्ते तक हमें प्रतिदिन तक़रीबन 100-150 फ़ोन कॉल आने लगे। विचार-विमर्श के बाद हमने फ़ैसला किया कि कम से कम मरीज़ों को अस्पतालों में भर्ती कराया जाये और लोगों को घबराने से बचाया जाये। हमने इसके लिए अपने पूर्व छात्रों के इस ग्रुप में शामिल उन डॉक्टरों का इस्तेमाल किया, जो टेलीफ़ोन पर परामर्श दिये जाने को लेकर ख़ुशी-ख़ुशी सहमत हो गये थे। हमने ज़बरदस्त समन्वय के साथ काम किया,विशेषज्ञ डॉक्टरों की मदद से हल्के और यहां तक कि मध्यम स्तर के रोगियों को घर पर ही चिकित्सा सेवायें मुहैया करायी, ज़िला प्रशासन,पत्रकारों और हमारे ग्रुप के प्रभावशाली शिक्षाविदों की मदद से उनके लिए दवाओं और ऑक्सीज़न सिलेंडर का इंतज़ाम किया। अस्पताल में भर्ती सिर्फ़ उन्हीं लोगों को कराया गया,जो गंभीर रूप से बीमार थे और वास्तव में जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराये जाने की ज़रूरत थी।” 

रंजन बताते हैं कि उन्होंने उन रोगियों की एक सूची तैयार की थी, जिनका घर पर ही इलाज किया जा रहा था। उनका कहना है कि ऐसे मरीज़ों के आस-पास मौजूद डॉक्टरों की टीम दिन में दो बार दौरा करती थी। उन्होंने आगे बताया कि एक ऐसा वर्चुअल मेडिकल बोर्ड था, जहां विशेषज्ञों की एक समर्पित टीम की ओर से प्रतिदिन इन मामलों पर चर्चा की जाती थी।

हालांकि,ज़्यादातर काम तो ऑनलाइन ही किया जा रहा था,लेकिन ऐसे स्वयंसेवक भी थे, जो ज़रूरत पड़ने पर ऑफ़लाइन काम कर रहे थे। झा बताते हैं, “हमने उनके लिए ई-प्रशिक्षण के कई सत्र आयोजित किये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे अपनी जान जोखिम में डाले बिना लोगों की सुरक्षित सेवा कर सकें। हमने उनसे बार-बार आग्रह किया कि वे फ़ोन के ज़रिये सोशल मीडिया और संपर्कों का पूरा-पूरा इस्तेमाल करें और बेहद ज़रूरी होने पर ही बाहर निकलें। मरीज़ों के परिजनों को भी चिकित्सा उपकरणों के रख-रखाव और इस्तेमाल के तौर-तरीक़ों के बारे में ऑनलाइन प्रशिक्षण दिया जाता था।” 

झा का दावा है कि इस ग्रुप के डॉक्टरों ने तक़रीबन 5,000 मरीज़ों की देखभाल की। इनमें से 2,000 मरीज़ गंभीर रूप से बीमार थे। उन्होंने अब तक मिली सफलता के बारे में बात करते हुए कहा,“हमने 100 मरीज़ों को भर्ती कराया। कुल 5,000 मरीज़ों में से हम 50 को बचाने में नाकाम रहे। बाक़ी लोग ठीक हो गये हैं और उन्हें किसी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं हैं।"

उन्होंने पीएमसीएच के डॉ हरि मोहन,पटना स्थित इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आईजीआईएमएस) के सीनियर रेज़िडेंट, डॉ राजीव कुमार,पटना स्थित नालंदा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (एनएमसीएच) के डॉ अभिजीत,राजस्थान के जयपुर स्थित एसएमएस मेडिकल कॉलेज से डीएम कार्डियोलॉजी का अध्ययन कर रहे डॉ सुमित,पटना के पारस अस्पताल में कार्यरत और अपनी निजी प्रैक्टिस कर रहे डॉ विकास, बिहार सरकार के एक कार्यक्रम अधिकारी,कविता, ग़ाज़ियाबाद स्थित एक पत्रकार,श्वेता, पटना के साइंस कॉलेज में जूलॉज़ी पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर अखिलेश कुमार के साथ-साथ कई दूसरे लोगों को विशेष रूप से धन्यवाद दिया।

'मुझे मालूम है कि भूखा होना क्या होता है'

पटना के ग़ालिब कलीम, जो अंडमान में एक पर्यटन व्यवसाय के मालिक हैं,पिछले साल लगे लॉकडाउन के दौरान अपने 42 कर्मचारियों के साथ वहीं फंस गये थे। उन्होंने कहा कि वे किराने के उन सामान के सहारे डेढ़ महीने तक ज़िंदा रहे,जो उनके पास स्टॉक में थे, क्योंकि इस द्वीप पर एकमात्र राशन की उस दुकान का स्टॉक ख़त्म हो गया था।

ग़ालिब कलीम

कलीम का कहना है कि इसके बाद वे पहाड़ स्थित जंगलों में पायी जाने वाली कई पत्तेदार सब्ज़ियों के सहारे ज़िंदा रहे। वह बताते हैं,“हम खाने के लिए पास के पहाड़ के जंगल से अलग-अलग तरह के साग (पत्तेदार सब्ज़ियां) लाते थे। रात में जब समुद्र का उफ़ान कम हो जाता था,तब हम मछली पकड़ने के लिए समुद्र में जाते थे। इस तरह हम वहां पिछले लॉकडाउन में ज़िंदा बचे रहे।” 

चालीस से कम उम्र का यह शख़्स महामारी की इस दूसरी लहर के दौरान वायरस से संक्रमित हो गया और बीमार पड़ गया। उनके ख़ून में ऑक्सीज़न लेवल गिरने के बाद उन्हें पटना के एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्हें तक़रीबन 20 घंटे तक खाने के लिए कुछ भी नहीं मिल पाया।

इन दो घटनाओं ने उन्हें एहसास करा दिया कि खाने के बिना ज़िंदा रहना कितना मुश्किल है। अस्पताल से ठीक होने और छुट्टी मिलने के बाद उन्होंने राशन और पके-पकाये भोजन के साथ उन वंचितों की मदद करने का फ़ैसला किया,जो भूखे सो जाने को मजबूर हैं, और लॉकडाउन के दौरान जिनकी नौकरी चली गयी है।

कलीम कहते हैं,“ऐसे समय में जब स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा ध्वस्त हो चुका हो और सरकार के बड़े-बड़े दावे बेनक़ाब हो चुके हों, ऐसे में सैकड़ों और हज़ारों लोग आम लोगों की चिकित्सा ज़रूरतों को पूरा करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। जो चीज़ मुझे याद आ रही थी, वह थी-भोजन की बुनियादी ज़रूरत को पूरा करना। चूंकि मैंने भूख के दर्द को महसूस किया था, इसलिए मैंने कोविड-19 के बाद के प्रभावों से गुज़रने के बावजूद जितना हो सके, राशन बांटने का फ़ैसला किया।”

उन्होंने इसकी पहल कैसे की, इसका जवाब देते हुए उन्होंने न्यूज़क्लिक से बताया,"मैंने इस सिलसिले में एक फ़ेसबुक पोस्ट डाली,और इसके बाद वित्तीय मदद मिलने लगी। घंटों के भीतर,मुझे एक लाख रुपये से ज़्यादा मिल गये। मुझे जो रक़म मिली, उससे मैंने अच्छी-ख़ासी मात्रा में चावल,चूड़ा (flattened rice),गेहूं का आटा,प्याज़,आलू और खाने का तेल ख़रीदा। लेकिन,मेरे सामने जो अगली चुनौती थी, वह थी-इन  चीज़ों के भंडारण के लिए जगह का नहीं होना और पैकिंग और इसे बांटने में मेरी मदद करने के लिए स्वयंसेवकों की टीम का नहीं होना।”

उन्होंने आगे बताते हुए कहा कि इसके लिए उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के उन कार्यकर्ताओं को तमाम खाद्य सामग्रियां सौंप दीं, जो पहले से ही ज़रूरतमंदों के बीच भोजन के पैकेट बांट रहे थे।

पैसे की सहायता मिलती रही। स्वयंसेवा के लिए झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग जब सामने आये,तब वह अपनी टीम बनाने में कामयाब हो गये, इसके बाद उन्होंने राशन की अगली खेप ख़रीदी और झुग्गी-झोपड़ियों,सड़क के किनारे और यहां तक कि उन लोगों के बीच भी खाना बांटना शुरू कर दिया, जो ज़रूरतमंद होने के बावजूद अपने स्वाभिमान की वजह से मदद लेने के लिए आगे नहीं आते हैं।

चूंकि बिहार में यास चक्रवात के प्रभाव के रूप में तेज़ हवायें और ठीक ठाक बारिश हुई, ऐसे में बेसहारा लोगों को पका हुआ भोजन परोसे जाने की ज़रूरत बढ़ गयी। कलीम ने अपनी टीम के साथ कई इलाक़ों का सर्वेक्षण किया और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की मदद के लिए कई इलाक़ों में सामुदायिक रसोई भी चलाये। उनका कहना है,"पका हुआ भोजन और राशन का वितरण अब भी जारी है।"

इस बीच, इस मुश्किल वक़्त में सरकार की जिस तरह की ज़िम्मेदारी अपने लोगों की देखभाल को लेकर थी, वह उसे निभाने के बजाय मदद कर रहे स्वयंसेवकों को कथित रूप से परेशान करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही है। ज़मीन पर काम कर रहे इन स्वयंसेवकों को लॉकडाउन को असरदार ढंग से लागू करने के नाम पर पुलिस प्रशासन की तरफ़ से पैदा की गयी तमाम तरह की समस्याओं और बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।

कलीम का आरोप है, “मानों इतना ही काफ़ी नहीं था कि लोगों को पूरी तरह से भगवान भरोसे उनके हाल पर छोड़ दिया गया। सरकार इसलिए नहीं चाहती कि नागरिक समाज भी राहत कार्य करे, क्योंकि ज़ाहिर है कि इससे अफ़सरों की बदनामी होती है। हमारी बार-बार की कोशिशों के बावजूद, हम उस इलेक्ट्रॉनिक पास को पाने में नाकाम रहे, जो कि प्रतिबंधों के दौरान आवाजाही के लिए अनिवार्य है। हम किसी तरह हालात को संभाल रहे हैं, पुलिस को समझा रहे हैं, कभी-कभी तो इसके लिए झूठे बहाने बनाने पड़ते हैं या उनकी नाराज़गी का सामना करना पड़ता है। महिला पुलिस अफ़सर तो दया दिखा देती हैं और बिना ज्यादा स्पष्टीकरण दिये हमें जाने देती हैं, लेकिन पुरुष अधिकारी तो निर्मम होते हैं।” 

'दो ही विकल्प थे- या तो ग़ुस्से का इज़हार करें या ज़मीन पर काम करें'

फ़ेसबुक पर निरंजन पाठक के नाम से लिखने वाले आरा ज़िले के निवासी नीलांबर पाठक कहते हैं, “चारों ओर एक गहरी निराशा थी-लोग चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मर रहे थे या अस्पताल के बेड, दवाओं, प्लाज़्मा आदि की तलाश में दर-दर भटक रहे थे। महामारी की इस विनाशकारी दूसरी लहर में दो ही विकल्प थे: या तो सोशल मीडिया पर सरकार के ख़िलाफ़ लिखकर अपने ग़ुस्से का इज़हार किया जाये या फिर लोगों की पीड़ा को कम करने के लिए ज़मीन पर कुछ सार्थक किया जाये।”

निरंजन पाठक

हालांकि, वह अस्पताल के बेड, दवायें, ऑक्सीज़न सिलेंडर आदि से देश भर में लोगों की मदद करने के लिए ऑनलाइन काम कर रहे कम से कम 25 लोगों की एक मज़बूत टीम का हिस्सा थे, लेकिन उन्होंने अपने दोस्त,राहुल पांडे की मदद से अपने गृह नगर में ज़मीन पर काम करने पर ध्यान केंद्रित किया।

उन्होंने वित्तीय और साज़-ओ-सामान किस तरह इकट्ठे किये, इसे बताते हुए वह कहते हैं, “मैंने दूसरा विकल्प चुना। मैंने अपने दोस्तों और परिचितों को सूचित करते हुए एक फ़ेसबुक पोस्ट लिखा था कि मैं अपनी सारी बचत राहत कार्यों पर ख़र्च करने को तैयार हूं। क्या आप इस नेक काम को आगे बढ़ाने में मेरी मदद करेंगे?” वह न सिर्फ़ भारत बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित अपने उन मित्रों का आभार जताते हैं, जिन्होंने धन और कई अन्य तरीक़ों से उनकी मदद की थी।

उन्होंने कहा कि उनके पोस्ट के जवाब काफ़ी उत्साहजनक थे,क्योंकि उन्हें 24 घंटे के भीतर तक़रीबन 1.84 लाख रुपये का दान मिल गया। अब उनके सामने यह चुनौती थी कि क्या करें और कैसे करें। सबसे पहले उन्होंने मिली हुई रक़म के एक हिस्से से छह बड़े-बड़े ऑक्सीज़न सिलेंडर ख़रीद लिए। उन्होंने बताया कि जैसे ही उन्होंने इस जानकारी के साथ अपनी फ़ेसबुक टाइमलाइन को अपडेट किया, उन्हें मिनटों में आठ टेलीफ़ोन कॉल आये, जिनमें हर फ़ोन में एक सिलेंडर की मांग की गयी थी।

उन्होंने इस बात का आकलन किया कि उनके पास जितने ऑक्सीज़न सिलेंडर हैं, उनसे वह महज़ आठ लोगों की ही मदद कर पायेंगे,ऐसे मे उनका कहना है कि उन्होंने इन सिलिंडरों को किसी को भी देने से इनकार कर दिया।

पाठक ने न्यूज़क्लिक को बताया,“मैं एक डॉक्टर के पास पहुंचा, उनसे पूछा कि अधिकतम कितने मरीज़ होंगे, जिन्हें इन आठ सिलेंडर से ऑक्सीज़न सपोर्ट दिया जा सकता है। उन्होंने मुझसे कहा कि अगर अस्पताल में पाइपलाइन है,तो प्रति सिलेंडर से कम से कम छह मरीज़ों को ऑक्सीजन की आपूर्ति की जा सकती है। ऐसे में इसका मतलब यह था कि अगर किसी अस्पताल को ये सिलेंडर दान कर दे दिये जायें, तो 48 मरीज़ों तक मदद पहुंचायी जा सकेगी। लिहाज़ा,मैंने किन्हीं  रोगियों को ऑक्सीजन सिलेंडर देने की योजना को छोड़ दिया और एक ऐसे छोटे से अस्पताल को चालू करने का फ़ैसला किया, जिसे अस्थायी रूप से इसलिए बंद कर दिया गया था, क्योंकि इसमें डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ़ नहीं थे, और जिसे कोविड-19 रोगियों के इलाज के लिए तैयार नहीं किया गया था।” 

पाठक ने बताया कि उन्होंने अस्पताल के मालिक से संपर्क किया और उन्हें किसी तरह अस्पताल खोलने को लेकर राज़ी कर लिया। जब उसने यह कहते हुए आगे बढ़ने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी कि वह इसके लिए अधिकृत नहीं है, तो पाठक ने उससे कहा कि अगर किसी तरह का आपराधिक मामले दर्ज होते हैं,तो वह सबका सामना करने के लिए तैयार हैं।

आख़िरकार वह सहमत हो गया और आठ बेड वाले एक "व्यवस्थित तौर पर सुसज्जित" आईसीयू सहित 18 बेड वाले उस अस्पताल को चालू कर दिया गया। हालांकि, पाठक ने बताया कि इस संस्थान का मालिक एक नीम हक़ीम था।

वह बताते हैं,“इसलिए,मैंने उन दो एमबीबीएस डॉक्टरों को काम पर रखा,जो एमडी (डॉक्टर ऑफ़ मेडिसिन) भी थे। इसके बाद, अस्पताल के लिए एसी और साफ़ चादर का भी इंतज़ाम किया गया। जब अस्पताल को सभी संभावित सुविधाओं के साथ काम-काज के लायक बना दिया गया, तो अगला कार्य इसके संचालन को बनाये रखने का था, जिसके लिए पैसों की नियमित आवक की दरकार थी। आम लोगों से लिए लिये जाने वाले पैसों की अपनी सीमायें होती हैं, इसलिए, हमने आईसीयू बेड के लिए प्रति दिन तक़रीबन 3,500-4,000 रुपये और सामान्य वार्ड में एक बेड के लिए 2,000 रुपये प्रतिदिन की न्यूनतम फ़ीस निर्धारित कर दी। यह फ़ीस सिर्फ़ उनके लिए थी,जो इसे वहन कर सकते थे।”

अपने काम के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा,“ग़रीब मरीज़ों का इलाज तो उनकी परिवहन लागत के भुगतान करने की सीमा तक मुफ़्त था। यह महसूस करते हुए कि लोग अपने परिजनों के लिए कुछ भी भुगतान करने को तैयार हैं, हमने सुनिश्चित किया कि किसी भी मरीज़ (चाहे अमीर हो या ग़रीब) से ज़्यादा फ़ीस नहीं वसूली जाये। हमने अपने संपर्कों और संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए दवाओं की व्यवस्था की।” 

लेकिन, इतनी सुविधा इसलिए नाकाफ़ी थी,क्योंकि कुछ ही समय बाद इस अस्पताल की क्षमता चुकने लगी थी, तब उन्होंने तीसरे डॉक्टर से उन रोगियों को देखने का अनुरोध किया,जिनका इलाज घर पर रहते हुए किया जा सकता था। उन्होंने बताया कि यह कोशिश भी रंग लाने लगी और बड़ी संख्या में लोगों को उनके घर पर ही ज़रूरी चिकित्सा सहायता मिलने लगी।

वह बताते हैं,“ जब हमने घर-घर जाकर इलाज करवाना शुरू किया था,तब एक और चुनौती हमारा इंतज़ार कर रही थी। कई मरीज़ों को ऑक्सीज़न सपोर्ट की ज़रूरत थी, लेकिन हमारे पास पर्याप्त सिलेंडर नहीं थे। फिर से एक ईश्वरीय मदद मिली और यूएस-स्थित मनीषा पाठक और दिल्ली स्थित मनोज दुबे (दोनों मूल रूप से बिहार से हैं) नाम के दो फ़रिश्ते हमारे सामने आये, इन्होंने मुझे दो अलग-अलग लॉट में 13 ऑक्सीज़न कंसन्ट्रेशन भेजे। वे दोनों मुझे इस काम को जारी रखने को लेकर प्रोत्साहित करते रहे, वे कहते रहे कि कभी भी फ़ंड का संकट नहीं होने देंगे। इस तरह काम चलता रहा।” 

पाठक का कहना है कि जिस अस्पताल का वह प्रबंधन कर रहे थे, उससे 150 से ज़्यादा मरीज स्वस्थ होकर घर लौट आये और 100 से ज़्यादा मरीज़ों का घर पर कामयाबी के साथ इलाज किया गया।

'यह एक मुश्किल वक़्त था, जिसने हमें यूं ही नहीं बैठने दिया'

हर संभव चिकित्सा सहायता (ऑक्सीज़न सिलेंडर मुहैया कराने से लेकर अस्पताल के बेड और दवाओं के इंतज़ाम करने तक) के बाद, शल्य चिकित्सा उपकरणों से जुड़े तकनीकी विशेषज्ञ, शादाब अख़्तर भी ज़रूरतमंदों को राशन और पके-पकाये भोजन उपलब्ध कराते हुए मैदान में उतर गये।

शादाब अख़्तर

27 साल के शादाब बताते हैं,“यह एक मुश्किल वक़्त था,जिसने हमें यूं ही बैठने नहीं दिया। जब मेरा शहर (दरभंगा) सांस के लिए तरस रहा था, ऐसे समय में हमने इस संकट को दूर करने का संकल्प लिया और अस्पतालों में भर्ती और घर पर इलाज करा रहे मरीज़ों को ऑक्सीज़न सिलेंडर मुहैया कराकर राहत कार्य शुरू कर दिया। हम आपूर्तिकर्ताओं, अस्पतालों, छोड़ दिये गये एम्बुलेंसों से महज़ 19 सिलेंडर (छोटे-बड़े) का इंतज़ाम कर सके और उनका इस्तेमाल बेहद बुद्धिमानी से किया, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की सेवा की जा सके। हमें शहर के दो ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों से लगातार रिफ़िलिंग मिलती रही, उन्होंने हमें कभी निराश नहीं किया।” उनका कहना है कि उन्हें अस्पतालों में दवाओं और बेड के इंतज़ाम करने में ज़िला प्रशासन का भी भरपूर समर्थन मिला।

संक्रमण दर में गिरावट आने के बाद उन्होंने अपने एनजीओ-‘प्रयास’ की टीम के साथ मिलकर ख़ुद के स्थापित सामुदायिक रसोई के ज़रिये राशन और भोजन के पैकेट बांटना शुरू कर दिया है। 5-6 सदस्यों वाले परिवार के लिए 10 दिनों का पर्याप्त सूखा राशन रोज़-रोज़ बांटे जाने के अलावा उनका कहना है कि वह सामुदायिक रसोई के ज़रिये हर रोज़ 500 से ज़्यादा लोगों को खाना खिला रहे हैं।

उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के बाद जिन लोगों के सामने वित्तीय संकट पैदा हो गया है, उन्हें इससे निजात दिलवाने के लिए वह अस्थायी रोज़गार की ज़रूरत वाले लोगों को आजीविका का एक स्रोत मुहैया कराने की भी कोशिश कर रहे हैं।

वह कहते हैं, “सरकार इन दिनों लोगों को फ़ेस मास्क दे रही है। हमने इसके उत्पादन का टेंडर हासिल कर लिया है। हम उन गांवों में जाते हैं, जहां प्रवासी श्रमिक लौट आये हैं और उनके परिवार गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं और उन महिलाओं को यह काम दे रहे हैं,जो कच्चे माल से सिलाई का काम जानती हैं। उन्हें उत्पाद की डिलीवरी करत समय ही बिना किसी देरी के भुगतान कर दिया जाता है। हम 3 रुपये प्रति मास्क की दर से भुगतान करते हैं, जबकि सरकार की तरफ़ से हमें प्रति मास्क 3.50 रुपये मिलते हैं। हम तत्काल भुगतान करते हैं, हालांकि हमारे 3 लाख रुपये से ज़्यादा की राशि नौकरशाही प्रक्रिया में फंस हुई है। लेकिन, हमारे काम से लोगों को आर्थिक रूप से काफ़ी हद तक राहत मिल रही है।”

जिस समय बिहार सहित पूरा देश, सरकारी मशीनरी के तक़रीबन पूरी तरह नाकाम हो जाने के बीच घातक वायरस के सबसे बुरे उभार के ख़िलाफ लड़ाई लड़ रहा है, ऐसे समय में ये गुमनाम नायक ज़रूरतमंदों के लिए उम्मीद की रौशनी के रूप में सामने आये हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

COVID-19: Meet Unsung Heroes of Bihar who Came to People’s Rescue When Govt Systems Collapsed

COVID 19 Second Wave
COVID 19 in Bihar
Bihar government
Oxygen shortage
Bihar Residents
COVID 19 Volunteers
COVID 19 Relief Work
Lockdown Impact
Migrant workers

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  • भाषा
    ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉनसन ‘पार्टीगेट’ मामले को लेकर अविश्वास प्रस्ताव का करेंगे सामना
    06 Jun 2022
    समिति द्वारा प्राप्त अविश्वास संबंधी पत्रों के प्रभारी सर ग्राहम ब्रैडी ने बताया कि ‘टोरी’ संसदीय दल के 54 सांसद (15 प्रतिशत) इसकी मांग कर रहे हैं और सोमवार शाम ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में इसे रखा जाएगा।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    कोरोना अपडेट: देश में कोरोना ने फिर पकड़ी रफ़्तार, 24 घंटों में 4,518 दर्ज़ किए गए 
    06 Jun 2022
    देश में कोरोना के मामलों में आज क़रीब 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है और क़रीब ढाई महीने बाद एक्टिव मामलों की संख्या बढ़कर 25 हज़ार से ज़्यादा 25,782 हो गयी है।
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CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License