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COVID-19 और मानसिक स्वास्थ्य
सीताराम भाटिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस एंड रिसर्च, नई दिल्ली में क्लीनिकल सायकियेट्रिस्ट के तौर पर काम करने वाले डॉक्टर आलोक सरीन से दानिया की बातचीत।
दानिया रहमान, आलोक सरीन
08 May 2020
आलोक सरीन
Image Courtesy: Catch News

कोरोना वायरस महामारी की रोकथाम के लिए अपनाए गए लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे तरीकों ने दुनियाभर में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ा दिया है। इस महामारी के दौर में असुरक्षा और एंज़ायटी (व्यग्रता) बढ़ गई हैं। एक ओर महामारी ने दिखाया है कि स्वास्थ्य अपने-आप में एक सामाजिक मुद्दा है। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के बारे में अब तक व्यक्तिगत स्तर पर ही बात चल रही है।

इसके तहत नियमित दिनचर्या, अपने शौक का पालन करना और परिवार से जुड़ने जैसी बातें सामाजिक और आर्थिक सहूलियतों के सवाल से वास्ता नहीं रखतीं। इस पृष्ठभूमि में सीताराम भाटिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस एंड रिसर्च, नई दिल्ली में क्लीनिकल सायकियेट्रिस्ट के तौर पर काम करने वाले डॉक्टर आलोक सरीन से दानिया रहमान ने बात की।

दानिया रहमान (DR) : आपके पेशेवर नज़रिये के मुताबिक़ क्या अब मानसिक स्वास्थ्य के ईर्द-गिर्द होने वाली बातचीत को बदलने की जरूरत है? क्या आप इससे निपटने का कोई बेहतर तरीका बता सकते हैं?

आलोक सरीन (AS) : यह समझना जरूरी है कि इस सवाल का कोई तय फॉर्मूला नहीं है, न हो सकता है। कई बार जब हम जवाब खोजने की कोशिश में होते हैं, तब हम किसी जादुई फॉर्मूले जैसे समाधान की खोज करते हैं। यह संभव नहीं है। इसलिए मुझे लगता है कि यह मुद्दा अपने-आप में कई अलग-अलग आयामों वाला है। तो हम सामाजिक अलगाव से बता शुरू करते हैं। यह महामारी को रोकने के लिए जरूरी है, लेकिन यह हर बाकी चीज की एंटीथीसिस है। आईसोलेशन से व्याकुलता-चिंता बदतर होती है। यह किसी भी संभावी डर को बड़ा बनाती है। असुरक्षा बढ़ाती है, यह हर गलती को गहरी और चौढ़ी करती जाती है। इससे उन मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों के शिकार लोगों और तथाकथित सामान्य लोगों (जिन्हें कोई मानसिक स्वास्थ्य समस्या नहीं होती) में अंतर खत्म हो जाता है।

सोशल डिस्टेंसिंग से निपटने के लिए दी जा रही ज़्यादातर सलाह रटे-रटाए तय तरीकों के आधार पर है। कहा जा रहा है नियमित व्यायाम करिये, एक दिनचर्या बनाइये, लोगों से जुड़े रहिये, व्यस्त रहिये और खाना बनाने जैसे शौक अपनाइये। यह सभी तरीके अहम हैं, लेकिन सभी काफ़ी उथले हैं, क्योंकि यह समाधान और निपटने के तरीके सिर्फ सहूलियत प्राप्त लोगों के लिए हैं। 

जबकि एंजॉ़यटी आज की सच्चाई है। महामारी ने सहूलियत प्राप्त लोगों और वंचितों में खाई को बढ़ा दिया है। इसका मतलब यह नहीं है कि सहूलियत प्राप्त लोगों को असुरक्षित महसूस नहीं हो रहा है, यह भी एक अलग विरोधाभास है। आज सभी लोगों को मानसिक तौर पर असुरक्षित महसूस हो रहा है। इसलिए तय तरीकों वाला मैकेनिज़्म बताया जा रहा है। दुनिया को समझने के लिए मैंने कई बातों को एक साथ जोड़ने की कोशिश की है। अगर प्रवासी मज़दूरों द्वारा आजीविका के लिए किए जाने वाले श्रम की तुलना दूसरे लोगों में कसरत की जरूरत से की जाए, तो कोई भी कम साबित नहीं होती। दोनों बराबर तौर पर जरूरी हैं।

मैं कई तरीक़ों से अपनी दुनिया में, अपनी असुरक्षा और निर्बलता की पहचान करने की कोशिश कर रहा हूं। एक तरफ मैं अपने लिए खाना बनाने और दिनचर्या का पालन करने जैसे उपाय अपना रहा हूं, तो दूसरी तरफ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रहा हूं। मैं अपना वक़्त दे रहा हूं। पैसे-निजी प्रयास से मदद करने की कोशिश कर रहा हूं। यहां एक और पहलू है। इस तरह का संकट हमें छोटा सोचने पर मजबूर करता है। हम हमारे आसपास की चीजों के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं, पहले खुद के परिवार, फिर समुदाय और देश के बारे में सोचने लगते हैं। मैं अपनी सीमाओं को बंद कर देता हूं, ताकि संक्रमण भीतर न आ सके। जबकि मैं दूसरों के पार जाने में नाकाम रहता हूं। जरूरी चीजों की तरफ देखते हुए, छोटा सोचने का विरोधभास लोगों की अपने और दूसरों में फर्क़ को बढ़ाता है।

ज़्यादातर लोगों के लिए यह अजनबी वक़्त है। पहली बार किसी अच्छे काम के लिए दुनिया को बंद कर दिया है। यह कोई पहली बार नहीं है, जब दुनिया किसी महामारी का का सामना कर रही हो। दुनिया बड़ी हो चुकी है, यहां घनी आबादी है। दुनिया अब तकनीकी तौर पर ज़्यादा विकसित और छोटी हो चुकी है। पूरी धरती का कोई कोना ऐसा नहीं है, जो अब तक अनछुआ रहा हो। यही अगला विरोधाभास है।

यह इन आयामों की एक श्रंखला है, जो बड़े ही दिलचस्प ढंग से मानवीय स्थितियों को दिखाती है। दरअसल हम अपनी रोज़ाना की जिंदगी में इन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इसलिए अब हमें इंसानी वजूद के इन भीतरी आयामों के पहचान करने की जरूरत है, कैसे इंसान दुनिया, दूसरे इंसानों और पर्यावरण के साथ जुड़ा रहता है। कई लोग पूछेंगे कि यह आपस में कैसे जुड़े हो सकते हैं। जैसे ग्लोबल वार्मिंग या पर्यावरण से? यह बिलकुल जुड़े हैं। 

यह जटिल तरीके से जुड़े हैं। बहुत लंबे वक़्त तक हमने छोटी सोच रखी, जब तक हम बड़ा नहीं सोचेंगे, इनमें बदलाव भी नहीं ला सकते। उदाहरण के लिए, मैं और मेरे एक साथी प्लेग और कोलेरा पर पेपर लिख रहे हैं। इस दौरान हमारा पाला कुछ ऐसे पुराने दस्तावेज़ों से पड़ा जिनमें साफ-सफाई का जिक्र है। यह बातें हमेशा से हो रही हैं, अब इनकी अहमियत और ज़रूरत ज़्यादा हो चली है। जब किन्ही वजहों से ऐसा संकटकाल खत्म हो जाता है, तो हम इनके बारे में भूल जाते हैं।

यह मानवीय इतिहास और उसके वजूद का चक्र है। आशा है कि हम इन बातों और अवधारणाओं को सामने लाने की कोशिशों से कुछ सीख सकेंगे। अगर हम इस मौके का फायदा नहीं उठाते हैं और जाति, धर्म या वर्ग से परे नहीं सोच पाते हैं, तो हम बस किसी बलि के बकरे को खोजते रह जाएँगे। मैं यह नहीं कहता कि यह हमारा आखिरी मौका है, आखिर प्लेग या स्पेनिश फ्लू ने कोरोना से कहीं ज़्यादा जानें ली थीं। हमारे पास हमेशा एक आशा की किरण मौजूद है।

DR: क्या लोग लॉकडाउन के दौरान मदद के लिए सामने आ रहे हैं?

AS: कई लोग मदद के लिए सामने आ रहे हैं। जैसा मैंने बताया, मैं खुद वीडियो कंस्लटेशन के लिए हफ़्ते में तीन दिन अस्पताल जाता हूं। बड़ी संख्या में लोग सिर्फ बात करने और चिंताओं का निवारण करने के लिए सामने आ रहे हैं। कई लोग टूट रहे हैं, यह हर किसी के लिए काफ़ी चिंताजनक वक़्त है। जैसा हर कठिन परिस्थिति में होता है, कुछ लोग इससे निपटने में कामयाब हो रहे हैं और कुछ नहीं।

जो लोग कोरोना वायरस का शिकार नहीं हैं, उनमें आत्महत्या की दर बढ़ रही है। शराब की उपलब्धता न होने से कई लोगों को दिक़्क़त हो रही है, यह भी एक वास्तविक और बढ़ती चिंता की बात है। यह कहना मुश्किल है कि क्या शराब इसका समाधान है या नहीं। लेकिन इस पर कोई संशय नहीं है कि शराब पर निर्भरता एक सच्चाई है। इस समस्या का कोई आसान जवाब नहीं है। एक तरफ महामारी को रोकने और दूसरी तरफ खुद को संवेदनशील कैसे बनाए रखें, यह एक बड़ा विरोधाभास है।

DR: कोविड-19 के दौर में स्वास्थ्यकर्मी सिर्फ अपना जीवन ही दांव पर नहीं लगा रहे हैं, बल्कि उनमें संक्रमण के शक से कई लोग स्वास्थ्यकर्मियों से दूरी भी बनाए हुए हैं। उनके लिए स्थिति फिलहाल काफ़ी खराब है। क्या उनके लिए मानसिक स्वास्थ्य का कोई सपोर्ट सिस्टम मौजूद है?

AS: निष्कपट और सीधे ढंग से एक डॉक्टर के तौर पर बताऊं, तो ऐसा नहीं है मुझे अपने कर्तव्य के चलते ऐसा करना ही पड़े। दरअसल यह ऐसी चीज है, जिसे खुद अपने और अपने समाज के लिए करने की जरूरत है, क्योंकि मैं समाज का अहम हिस्सा हूं। मैं जिस अस्पताल में काम करता हूं, हमने वहां एक सिस्टम चालू किया है, जिसमें हम हर हफ़्ते बैठकर उनसे बात करते हैं, वहां अपनी चिंताओं और एऩ्जॉटी की बात की जाती है। यह चिंताएं असली होती हैं, ''मुझे कोरोना वायरस हो जाएगा, तो मेरा क्या होगा'' या ''इस महीने के अंत तक मेरी तनख्वाह नहीं आएगी?'' या ''मेरे माता-पिता का क्या होगा'' या ''क्या मैं इस बीमारी को घर लेकर जा रहा हूं'' जैसी बातें शामिल नहीं होंती। इन चिंताओं को दूर करना जरूरी है। मैं जानता हूं कि हर जगह का स्वास्थ्य ढांचा इन्हें दूर करने की कोशिश कर रहा है। क्या यह पर्याप्त है? हम इससे दूर हैं, लेकिन क्या इनकी कोशिशें की जा रही हैं? हां, यह जारी हैं, इसलिए हमें आशा भी है।

DR: क्या आप इस महामारी का मानसिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालीन प्रभाव बता सकते हैं। एक समाज के तौर पर हम इससे कैसे निपटें?

AS: इसका कोई सीधा जवाब नहीं है। केवल वक़्त ही बताएगा। संकट के समय में बहुत बुरी और बहुत अच्छी चीजें होती हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो स्वास्थ्यकर्मियों को पत्थर मार रहे हैं और ऐसे लोग भी हैं जो प्रवासी मज़दूरों की मदद भी कर रहे हैं। यह निर्भर करता है कि मैं कौन सी तस्वीर पर नज़र बनाता हूं। यह भी मानव स्वभाव का विरोधाभास है। यहां नफ़रतों की कहानियां भी होगीं, करूणा की कहानियां भी। हमें इन कहानियों को इस आशा के साथ सुनाना होगा कि उनसे हमें कुछ सीख मिलेगी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें-

COVID-19: A Crisis of Multiple Paradoxes

COVID-19
Coronavirus Pandemic
Health Issues
Dr. Alok Sarin
lockdowns
Social Distancing

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