NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
क्या आरएसएस भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के बिना काम कर सकती है?
देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां नवउदारवाद की नीतियों की समर्थक हैं, जो आरएसएस के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार करती है और वह सभी पार्टियों और संस्थाओं को अपने अधिपत्य की कल्पना के भीतर लाना चाहती है।
अजय गुदावर्ती
12 Mar 2021
Translated by महेश कुमार
क्या आरएसएस भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के बिना काम कर सकती है?
Image Courtesy : The Hindu

समालोचक, विचारक और एक्टिविस्ट नौम चॉम्स्की ने अमेरिका को एक "कॉर्पोरेट लोकतंत्र" के रूप में संदर्भित किया है, जहां कोई भी पार्टी सत्ता में आए लेकिन नियम के तौर पर वहाँ की नीतियों को  हमेशा कॉर्पोरेट क्षेत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसी खयाल के अनुरूप हमने देखा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में रिपब्लिकन की जगह डेमोक्रेटस का चुनाव होने के बाद भी  अमेरिकी नीतियों में कोई खास बदलाव नहीं आया है। उदाहरण के लिए, अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के सोसियल डेमोक्रेट होने के बावजूद उसने सीरिया पर बमबारी जारी रखी है। 

चॉम्स्की का मानना है कि यूरोप में लोकतन्त्र को सीधे तौर पर और भी अधिक कमज़ोर किया जा रहा है: “सारे निर्णय गैर-चुनी हुई ट्रोइका के हाथों में हैं: जिसमें यूरोपीय आयोग जो कि गैर-चुना हुआ है; आईएमएफ भी बेशक चुना हुआ नहीं है; और यूरोपीयन सेंट्रल बैंक मिलकर सारे के सारे निर्णय लेते हैं।”

इसलिए, विकास का कॉर्पोरेट मॉडल और प्रशासन सभी किस्म के राजनीतिक विचारों में शुमार है। यह कुछ वैसा ही है जो शीत युद्ध के दौरान और बाद में परमाणु हथियारों के साथ हुआ था: पूंजीवादी संयुक्त राज्य अमेरिका और कम्युनिस्ट रूस अपने महान वैचारिक विभाजन के बावजूद परमाणु हथियारों की प्रतियोगिता में थे। 

जब राजनीतिक मतभेद, वैचारिक विभाजन और सांस्कृतिक विविधता कम हो जाती है, तो लोकतंत्र को बनाए रखना मुश्किल हो जाता है, भले ही हमारे पास "स्वतंत्र और निष्पक्ष" चुनाव व्यवस्था क्यों न हों।

भारत में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। यह जर्मनी के फासीवाद के उत्कृष्ट मॉडल को नहीं अपना सकता है, जो एक अधिनायकवादी राज्य का पक्षधर था जो किसी भी तरह के विपक्ष और चुनाव की अनुमति नहीं देता था। भारतीय अधिनायकवाद संविधान, विपक्षी दलों और नियमित चुनावों के बावजूद बेहतर ढंग से काम कर सकता है।

इसका एक प्रारंभिक संकेत कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से मिलता है जिन्होंने हाल ही में एक चौंकाने वाली बात कही कि आईएएस अधिकारी उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ की बात नहीं सुनते थे। राहुल गांधी ने इसे "आरएसएस द्वारा संस्थानों के अधिग्रहण" के रूप में संदर्भित किया था, और उन्होंने पूछा था कि, "कोई इससे कैसे लड़ सकता है?"

भारतीय राजनीति में हाल का घटनाक्रम दर्शाता है कि आरएसएस का सामाजिक और संस्थागत आधिपत्य भाजपा के प्रभाव से परे है। वास्तव में देखा जाए तो आरएसएस भाजपा के बदनाम होने के बाद और यहां तक कि 2024 में उसके द्वारा राष्ट्रीय चुनाव हारने के बावजूद भी मामलों के केंद्र में बने रहने की अपनी जमीन तैयार कर रही है।

नौकरशाही, जिसे "स्थायी सरकार" के रूप में माना जाता है, अब लेटरल एंट्री के माध्यम से "डोमेन विशेषज्ञों" से भरी जा रही है। बड़ा मुद्दा यह है कि लेटरल एंट्री की नीति के माध्यम से सरकारी संस्थानों में प्रवेश करने वाले लोगों की सामाजिक और वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है? ऐसी शिकायतें मिल रही हैं कि ऐसी नियुक्तियों के माध्यम से ओबीसी या पिछड़े वर्गों के आरक्षण का उल्लंघन किया जा रहा है।

सभी राजनीतिक संरचनाओं के भीतर, आरएसएस और उसका एजेंडा राजनीतिक रूप से केंद्र में आ गया है। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों के दौरान, कांग्रेस पार्टी ने गौशालाओं या पशु आश्रय बनाने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दावा किया और अपना रास्ता छोड़ दिया, यहां तक कि इस वादे को उसने अपने घोषणा पत्र में भी डाल दिया। अभी हाल ही में, नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया (कांग्रेस की स्टूडेंट विंग) अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए धन इकट्ठा करने का अभियान चलाती नज़र आई थी। 

हिंदू धार्मिक पहचान को स्वीकार करते हुए, अल्पसंख्यकों के धार्मिक प्रतीकों को दूर रखना और यहां तक कि उनकी उपेक्षा करना भारत में नई और सामान्य बात बन गई हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने न केवल उस जगह का दौरा करने से इनकार कर दिया, जहां 2019-20 में शाहीन बाग में महीनों तक प्रदर्शनकारी अपना विरोध दर्ज़ करते रहे बल्कि विधानसभा चुनाव से एक दिन पहले हनुमान चालीसा का पाठ कर डाला। 

आज के वक़्त में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से एक कदम आगे बढ़ कर बात की। यह अलग बात है कि आरएसएस उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अन्य सभी संभावित उम्मीदवारों से अधिक पसंद करती है। योगी आदित्यनाथ एक हिंदू राज्य की उस धार्मिक/प्राचीन कल्पना के लिए बिलकुल फिट बैठते है जिसका प्रचार आरएसएस-भाजपा करती हैं- एक हिंदू योगी के नेतृत्व वाला राज्य जो क्षत्रिय जाति से संबंधित है।

इसके अलावा, कांग्रेस के बड़े हिस्से के साथ कई क्षेत्रीय दलों का भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुख्य कल्पना से कोई सीधा टकराव नहीं है। 

इस मॉडल में, राजनीतिक दलों के बीच मतभेद शून्य हो जाएंगे, जैसे कि आर्थिक विकास के मॉडल पर मतभेद गायब हो गए हैं। अधिकांश राजनीतिक दल कल्याण की मात्रा और कुछ अन्य विवरणों में मामूली अंतर के बावजूद विकास के नवउदारवादी मॉडल को मानते हैं।

इसी तरह, सभी दलों के कामकाज में एक आम सहमति होगी कि कैसे एक हिंदू हुकूमत/राष्ट्र को चलाया जाना चाहिए- धार्मिक प्रतीकवाद और उच्च हिंदु जातियों के वर्चस्व से इस व्यवस्था को चलाया जाएगा। अंतर केवल आपकी विश्वास की प्रणाली में होगा कि व्यक्तिगत तौर पर आप क्या मानते हैं।

आज की हुकूमत अपने इस एजेंडे के अनुसार जमीन तैयार कर रही है। उदाहरण के लिए, भीमा कोरेगांव मामले में इसने कई ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तार किया है जो विभिन्न राजनीतिक संबद्धता से परे हैं। यह आरएसएस की उस समझ को दर्शाता है कि अंततः आरएसएस के एकीकरण और अखंड भारत की कल्पना का विरोध करने वाले व्यक्ति का हश्र ठीक नहीं होगा। 

यह इतिहासकार रोमिला थापर के मामले में फिट बैठता है जब उन्होने इतिहास में "स्वशासी व्यक्तियों" के रूप में वर्णित किया था जो आलोचना करने के लिए स्वतंत्र थे। इस तरह के कुछ व्यक्तियों को "बर्दाश्त" किया जा सकता है, लेकिन अधिकांश लोगों की नकेल कसी जाएगी। वास्तव में, विपक्षी दलों के चुने हुए प्रतिनिधियों को भी इस कल्पना से बख्शा नहीं जा सकता है, जिनको अभी इस बात का एहसास होना बाकी है।

हम विपक्षी नेताओं, फिल्मी सितारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और पत्रकारों के खिलाफ दर्ज किए गए केसों के ज़रीए भविष्य के ऐसे संकेत देख रहे हैं।

इस अखंड कल्पना के अनुरूप ही आर्थिक मॉडल का पारिस्थितिकी तंत्र भी उकेरा जा रहा है। एकाधिकारवादी पूंजी को क्रोनी पूंजीपतियों के माध्यम से संरक्षण दिया जाएगा, बाकी सभी को छोड़ दिया जाएगा। आखिरकार, कई पूँजीपतियों के मुक़ाबले कुछ को नियंत्रित करना आसान है, खासकर उनके चहेतों और अन्यों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहेगी। यहां, सांस्कृतिक मॉडल की अनिवार्यता के भीतर आर्थिक अनिवार्यता को समाया गया है।

भारत में एक कमजोर अर्थव्यवस्था हो सकती है लेकिन यह एक मजबूत सांस्कृतिक एकीकरण की व्यवस्था बन सकती है जब तक तब तक सबसे मजबूत कॉर्पोरेट घराने हिंदू राज्य की सत्तारूढ़ कल्पना का समर्थन करते हैं। वास्तव में, एक कमजोर अर्थव्यवस्था इस विश्वदृष्टि में सहायक हो सकती है, क्योंकि यह आबादी के अधिकांश लोगों को बेरोजगार और कमजोर बनाए रखती है। 

आरएसएस बार-बार खाली-पीली का राष्ट्रवादी शोर मचाती है, जबकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को कॉर्पोरेट क्षेत्र को बेचने या सुधारों के नाम कृषि में पूरी तरह से बदलाव करने के खिलाफ कोई वास्तविक प्रतिरोध प्रदान नहीं करती है। जो भी प्रतिरोध दिखाई देता है वह ज्यादातर सार्वजनिक रूप से दिखाने के लिए होता है— ताकि वह अपनी विश्वसनीयता को बनाए रख सके। 

अमरीका में जो भी पार्टी सत्ता में आए लेकिन नीति को नियंत्रित करने वाले कॉरपोरेट के “हाथ छिपे" रहते हैं, उसी तरह भारत में सरकार किसी कि भी हो संगठनात्मक रूप से भारत में आरएसएस अग्रणी रहेगी। यह केवल आगे बढ़कर मजबूती से अपने एजेंडे को लागू करने के लिए काम करेगी, फिर चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में आए।

प्राचीन हिंदू कल्पना के हिस्से के तौर पर आरएसएस सीधे सत्ता में आए बिना अग्रणी भूमिका निभाएगी और प्राचीन भारत के ब्राह्मणों की तरह एक "सांस्कृतिक संगठन" बनी रहेगी या आधुनिक भारत की "स्थायी सरकार" के रूप में काम करेगी।  

सभी अर्थों में, पार्टियां, नीतियां, प्रक्रियाएं और संस्थान सभी एक ही कल्पना और एक संगठन के भीतर काम करेंगे। इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अपरिहार्य नहीं हैं- यह परियोजना इनसे बहुत बड़ी है। वास्तव में, यह बात तब प्रामाणित हो जाती है जब यह उनके और चुनावों से परे चली जाती है।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Can the RSS Manage Without BJP and Prime Minister Modi?

Narendra modi
RSS
Hegemony
Noam Chomsky
Joe Biden
capitalism
Congress
BJP
Kamal Nath
Bhima Koregaon
OBC Reservation

Related Stories

भाजपा के इस्लामोफ़ोबिया ने भारत को कहां पहुंचा दिया?

कश्मीर में हिंसा का दौर: कुछ ज़रूरी सवाल

सम्राट पृथ्वीराज: संघ द्वारा इतिहास के साथ खिलवाड़ की एक और कोशिश

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

धारा 370 को हटाना : केंद्र की रणनीति हर बार उल्टी पड़ती रहती है

मोहन भागवत का बयान, कश्मीर में जारी हमले और आर्यन खान को क्लीनचिट

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License