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भारत
राजनीति
क्या व्यक्तिगत एक बार फिर से राजनीतिक हो सकता है?
दुनिया को एक राजनैतिक प्रस्थापना की दरकार है, जो अपने आप में रुढ़िवादी न होकर स्वतंत्रता, स्वायत्तता, संवेदना और निहितार्थों को एकजुट करने के काम आ सके।
अजय गुदावर्ती
09 Jun 2020
क्या व्यक्तिगत एक बार फिर से राजनीतिक हो सकता है?

दक्षिणपंथी अधिनायकवाद में जारी मौजूदा उछाल का एक पहलू लम्बे समय से घिसट रहे लैंगिक संबंधों के प्रश्न से भी जुड़ा है। किसी भी परिवार के निजी क्षेत्र में, चाहे भले ही वह अपने अंतरंग रिश्तों के पोषण के प्रति जागरूक हो और इसमें भावनाओं के तीव्र आवेग को अपने में जज्ब करने की ताकत हो, लेकिन वहां भी संघर्ष और असंतोष की जगह बन चुकी है। आज के दिन समूचे जाति, वर्ग, क्षेत्र और ग्रामीण-शहरी विभाजन की सभी बाधाओं के बीच भी अंतरंग और लैंगिक अंतर-संबंध बिना किसी स्पष्टता के तनाव के दौर से गुजर रहे हैं।

एक अर्थ में कहें तो इसे आधुनिकता का अवतार कह सकते हैं, जिसने आज़ादी, अपनी पसंद, विचारों की मान्यता और स्वयं के होने के कहीं व्यापक स्वरूप पेश किए हैं। लेकिन इसी के साथ एक ही झटके इस आधुनिकता ने संवेदनाओं, दावों और अंतरंगता के विचार को भी कहीं गहरे संकट में धकेलने का काम किया है। अपनी आज़ादी हासिल करने का इसके पास अब बस एकमात्र रास्ता यह है कि रिश्ते अब क़ानूनी अनुबंध, कानून और वैयक्तिकता पर टिके हैं। हालांकि सुरक्षा के लिहाज से इन्हें आवश्यक कहा जा सकता है, लेकिन कहीं न कहीं इनसे लैंगिक विभाजन को ही बल मिलता है। आज हमें एक ऐसे पारस्परिकता और सहयोग के लिए नए विचारों की आवश्यकता है जिनमें भावनात्मक तीव्रता का भी समावेश हो। क्या तीव्रतम संवेदनाएं पारस्परिकता और मान्यताओं के दायरे से परे जा सकती हैं?

आधुनिकता के संकट के केंद्र में सामूहिकता या सामुदायिक और अवैयक्तीकरण से व्यापक पैमाने पर अलगाव की भावना काम कर रही है। एक ओर जहाँ इसने स्वायत्तता, निजी पसंद और स्वतंत्रता को बढ़ावा देने का काम किया है, लेकिन वहीं दूसरी ओर इसने किसी व्यक्ति के लिए भावनात्मक संबल की तलाश की संभावना को काफी हद तक खत्म कर दिया है। और इस प्रकार भावनात्मक तौर पर अंतरंगता और वैयक्तिकता और उसकी मान्यता का प्रश्न यहाँ सिरे से गायब हो जाते हैं। जैसा कि सिद्धान्तकार एक्सेल होंनेथ मान्यता की आधुनिक धारणा को संदर्भित करने को लेकर तर्क पेश करते हैं, मानव व्यक्तित्व की सीमा के विस्तार को लेकर स्वीकृति और इसके साथ जो खूबियाँ-कमियां आती हैं उसके प्रति स्वीकृति का भाव। जबकि बेहद अंतरंग संबंधों में इसकी वजह से जो तनाव पैदा होते हैं वे काफी तीव्र होने लगते हैं। ऐसे में हम मांग करते हैं कि इसकी मान्यता के कई अन्य पहलुओं और आयामों को स्वीकार किया जाना चाहिये और इसके बावजूद हमें अपनी आज़ादी और स्वायत्तता का आनंद उठाने के लिए कम निर्भरता की आवश्यकता होती है।

तनाव की शैशवावस्था जो कि लैंगिक संबंधों के केंद्र में देखने को मिलती है, को दूसरे सामाजिक रिश्तों में विभिन्न अनुपात में इसकी तीव्रता को दोहराते देखा जा सकता है। और यह रूढ़िवादी राजनीति में अभूतपूर्व वापसी के अचूक स्रोतों में से एक है, जो कि वैश्विक स्तर पर अपना आकर ग्रहण कर रहा है।

प्रतिरूपण और तार्किकीकरण के साथ-साथ धर्म और ब्रह्मांड की लौकिक एकता के विचार को पीछे धकेलने की वजह से संवेंदनाओं और शब्दों के निहितार्थ को समझ पाने का काम मुश्किल हो चला है। भावनाएँ और उनके अर्थ आपस में गहराई से जुड़े होते हैं। आधुनिकता इन दोनों को अलग कर देती है, लेकिन ऐसा नहीं है कि हमने उन्हें साथ लाने का कोई बेहतर तरीका ढूंढ निकाला है। आधुनिकता अपने आप में कहीं ज्यादा नौकरशाहाना तौर-तरीकों को अपनाने और आजादी, स्वतंत्रता को कहीं अधिक अवैयक्तीक बनाने के बारे में है। पूर्व-आधुनिकता का संबंध समुदाय को उसके पदानुक्रम में रखने और भावनाओं और निकटतम पारस्परिक संबंधों को एक दूसरे से जोड़ने से संबंधित था।

दक्षिणपंथ जहाँ एक ओर निकटतम सामुदायिक सम्बंधों को प्रकाशिकी (optics) मुहैया कराता है वहीं अनिवार्य तौर पर यह पदानुक्रम की व्यवस्था को और मजबूत करता चलता है और साथ ही नौकरशाहाना शिकंजा भी बढ़ता जाता है, लेकिन यह निर्वेयक्तिक स्वतंत्रता और वैयक्तिकता की आलोचना की प्रकाशिकी को उत्पन्न करता है।

कोई चाहे तो दक्षिणपंथ को समुदाय और व्यवस्थित क्रम के नाम पर इसके द्वारा रूढ़िवादी नियंत्रण की आलोचना कर सकता है, लेकिन असल में समस्या यह है कि जो लोग इसके प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाए हुए हैं उनके खुद के पास इसका विकल्प नहीं है। इस अनुपस्थिति के संकट को सबसे अधिक तीव्रता के साथ लैंगिक संबंधों और निजी और पारिवारिक जीवन की अंतरंगता में महसूस किया जा सकता है। इसलिए भारत के साथ अन्य जगहों पर दक्षिणपंथ की ओर से परिवार को लेकर एक संरचनात्मक वैचारिकी को और पुष्ट किया जाता है, क्योंकि इनके पास जाति, वर्ग और अन्य सामाजिक पहचानों के लिए सुगठित विचार पहले से मौजूद हैं।

इसके साथ ही दक्षिणपंथ संवेदनाओं से उत्पन्न होने वाली अनिश्चितताओं से मुक्ति की राह को सुझाने का भी दावा करता है, जिसमें पहले से कहीं अधिक व्यवस्थित और आत्म-तुष्ट सामुदायिक एवं पारिवारिक जीवन मुहैया कराने की गारण्टी की जाती है। निश्चितता का भाव पदानुक्रम के साथ आता चला जाता है और शायद यही कारण है कि हम झुण्ड के झुण्ड रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य देखने के लिए चल पड़ते हैं, या फिर कबीर सिंह जैसी फिल्म को चमत्कारिक सफलता मिल जाती है। कहने को तो यह भी कह सकते हैं कि कबीर सिंह का चरित्र अपने व्यक्तित्व की मर्दानगी में विषाक्त नजर आता है, लेकिन इससे जो उभर कर आता है वह है पितृसत्ता के प्रति कोई मामूली विचार नहीं, बल्कि इसमें संवेदनाओं की अनिश्चितता के साथ-साथ भावनाओं और ताकत का विषाक्त मिश्रण की मौजूदगी। यह जो अंतर्निहित अनिश्चितता इसमें मौजूद है, वह आंशिक तौर पर सार्वजनिक जीवन में कभी सड़कों पर हिंसा में, मॉब लिंचिंग, जातीय हत्याकांड और सांप्रदायिक दंगों एवं अन्य रूपों में नजर आती हैं।

रूढ़िवादिता की ओर वापसी को बेहतर तौर से समझने के लिए इसे निरंकुश स्वायत्तता के प्रति ग्रहणशील होने के बतौर समझा जा सकता है, जिसे सामाजिक तौर पर कुलीन वर्गों के बीच में सबसे बेहतर तरीके से देखा जा सकता है। दिल्ली के लुटियन इलाके के कुलीन वर्ग शायद इस प्लास्टिसिटी की विशिष्टता के सबसे नायब नमूनों के तौर पर देखे जा सकते हैं। इसके साथ ही यह दिखावटी संस्कृति अकादमिक हलकों और पत्रकारों, नौकरशाहों और पेज थ्री टाइप रईसों में देखी जा सकती है। अपनी इस सहूलियत वाले बिंदु से, जो बेरीढ़ की है से खड़े होकर ये लोग सामुदायिक हिंसा या यहाँ तक कि राज्य हिंसा तक की सामाजिक आलोचना पेश करने की हिमाकत बिना किसी परेशानी के कर लेते हैं।

कट्टर दक्षिणपंथ के लामबंद हो जाने से नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों और नागरिकता और आजादी की माँग करने वालों के भीतर पहले से मौजूद बेरीढ़ वाले लचीले और वैयक्तिक तत्वों को बेपर्दा कर डाला है। इसने अब न सिर्फ सामाजिक कुलीन वर्ग की ओर से पारंपरिक तौर पर उसकी आवाज उठाने की क्षमता को अक्षम कर डाला है बल्कि जो स्वयं पीड़ित हैं, वे तक अपने लिए आवाज नहीं उठा पा रहे हैं। जो मुस्लिम महिलाएं सीएए के विरोध में उठ खड़ी हुईं हैं, वे उदार-प्रगतिशील तबकों के सामाजिक दृष्टिकोण को साझा नहीं करती हैं, लेकिन वे चाहती हैं कि वे उनके नागरिक होने के अधिकार को अपना समर्थन दें। अपनेआप में यह एक बेहद अल्पकालिक रिश्ता है जिससे कोई दीर्घकालिक सम्बंध स्थापित नहीं होने जा रहा, यदि एक बार यह मुद्दा खत्म हो जाता है तो। दक्षिणपंथ को इस अल्पकालिक रिश्ते की समझ है, और यही कारण है कि वह इस “बाहर” से समर्थन को वह मोटीवेटेड बताकर प्रचारित कर रहा है। जबकि यह समर्थन सैद्धांतिक और संज्ञानात्मक तौर पर दिया जा रहा है और इसमें अनुभवात्मक और भावनात्मक तत्व कम हैं। इनके बीच में साझा जीवन-संसार नहीं है, लेकिन इसके बावजूद लिबरल-संवैधानिक दृष्टि या संवैधानिक नैतिकता ऐसे "बाहरी" समर्थन को निश्चित तौर पर स्वीकार्यता प्रदान करती है, और इसे नागरिक समाज और स्वतंत्रता के दायरे के भीतर चिह्नित करती है।

क्या कोई वैकल्पिक प्रस्थापना हो सकती है जिसमें स्वतंत्रता, स्वायत्तता, संवेदनाओं और आशयों को एकसाथ रखा जा सकता है? इस अति-आवश्यक प्रयोग को नवीनतम लैंगिक-आधार पर यदि प्रयोग में लाया जाए तो शायद इस क्षेत्र में यह प्रयोग सर्वथा उचित होगा, क्योंकि यहाँ पर गहन संवेदनाएं और पारस्परिकता और आपसी आदान-प्रदान बिना किसी वैर-भाव के सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। एक बार जब हम व्यक्तिगत और निजी डोमेन में इसकी जड़ों की तलाश कर लेते हैं, तो संभव है कि जिन भावनाओं की प्लास्टिसिटी को रुढ़िवादी दक्षिणपंथ अपने पक्ष में जुटा ले जाता है, उसे उलटा जा सकता है।

आज के दिन जहाँ प्रगतिशील तत्व दक्षिणपंथी नेताओं की खोखली संवेदनाओं की आलोचना में व्यस्त है, वहीं वे खुद भी अनिश्चित संवेदनाओं के क्षेत्र में खुद को खड़ा पाते हैं। विरोध की राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को देखते हुए, जिसमें सीएए के खिलाफ चले आन्दोलन, कश्मीर में महिलाओं के विरोध प्रदर्शन में भागीदारी से लेकर महिला छात्र नेताओं की हालिया गिरफ्तारी को यदि लें तो यह वैयक्तिक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के साथ तीव्र भावनाओं के क्षेत्र में बातचीत की प्रक्रिया के अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिये। यह समाज कैसा दिखेगा, की कल्पना करना अभी कठिन है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी के साथ कहीं ज़्यादा पारदर्शी बातचीत हो, जिसमें निजी-पारिवारिक डोमेन में क्या चल रहा है के साथ-साथ कैसे उसे सार्वजनिक कार्यकलापों से गुंथा जा सकता है।

रूढ़िवादी दक्षिणपंथ जहाँ पदानुक्रमित और पूर्वाग्रहित निजी दायरे के राजनीतिकरण की अनुमति दे रहा है और खुद इसे सार्वजनिक डोमेन में ला रहा है, ऐसे में विकल्प की शक्तियों से दरकार है कि वे निजी और सार्वजनिक जीवन के लिए पूर्व निर्धारित अलग-अलग रजिस्टर के समीकरण को ही उलटने के काम को हाथ में लेने की पहल करें।

लेखक सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर  हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Can the Personal Be Political Again?

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