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भारत और चीन का संपर्क टूटा? ऐप प्रतिबंध और उससे परे बात
क्या हम जानते भी हैं कि हम क्या खोने की कगार पर खड़े हैं?
डेव लेविस
11 Jul 2020
China India Disconnected

भारत ने 29 जून को 59 चीनी ऐप पर प्रतिबंध लगाकर चीन पर डिजिटल स्ट्राइक (यह मेरे नहीं केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के शब्द थे) कर दी। प्रतिबंधित ऐप्स में टिकटॉक और वीचैट भी शामिल थे। टिकटॉक के भारत में 20 करोड़ से भी ज़्यादा यूजर्स थे, वहीं वीचैट भारतीय और चीनी लोगों के बीच बातचीत का एकमात्र माध्यम था। अब जब हम लिख रहे हैं कि टिकटॉक तक भारत में पहुंच नहीं बची है, तब भी वीचैट (लेकिन qq।com लिंक को ब्लॉक कर दिया गया है) जारी है।

मैंने पिछले हफ़्ते लिखा था कि 15 जून का गलवान टकराव चीन में सुर्खियों भी नहीं बटोर पाया। लेकिन ऐप्स पर लगाए गए प्रतिबंधों ने निश्चित ही कुछ लोकप्रिय डि़जिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सुर्खियां बटोरीं। इनमें ‘आत्मनिर्भर भारत’ और उसके आसपास जारी राष्ट्रवादी भाषणबाजी की ओर ध्यान दिया गया था। आखिर आत्मनिर्भरता और ऐप्स पर प्रतिबंध से चीन के लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं।

लेकिन यहां मुद्दा चीन के लोगों की बातचीत नहीं है। भारत से जो बातें बाहरी दुनिया में आ रही हैं, उन्हें पढ़ते और उनका परीक्षण करते हुए, मैं ताजा हालात पर यहां कुछ चीजें साझा करना चाहता हूं। मुझे भारत में एक ऐसी चीनी नीति की आशंका है, जिसमें हासिल से ज़्यादा खोना होगा।

ऐप्स पर लगाया गया प्रतिबंध 15 जून को गलवान में हुए टकराव का जवाब था। इसे भारत सरकार, तार्किक सबूतों के साथ, चीन की सेना का आक्रामक व्यवहार मानती है, जिसका मकसद गलवान घाटी में कब्ज़ा करना है। (मुद्दा #15 देखिए)

हालांकि भारत ने सरकार ने दूसरे तर्कों का इस्तेमाल किया है।अपने प्रेस स्टेटमेंट में सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय सूचना-प्रौद्योगिक कानून की धारा 69A के इस्तेमाल करते हुए भारत की ''सुरक्षा और संप्रुभता'' की बात कही है।

जैसी सूचना उपलब्ध है, उसके मुताबिक यह ऐप भारत की संप्रुभता और अखंडता, राज्य की रक्षा समेत जनव्यवस्था के लिए पूर्वाग्रह रखते हैं। बाद भारतीय सायबर अपराध समन्वय केंद्र ने इस “निजता’’ को बढ़ा दिया। जनता में भारत की संप्रभुता और नागरिकों की निजता को नुकसान पहुंचाने वाले ऐप्स के खिलाफ़ कार्रवाई करने की बड़ी मांग थी।

“भारत से बैर रखने वाले तत्वों का इन आंकड़ों को इकट्ठा करना, उनका खनन और विश्लेषण करना, जिससे बाद में भारत की अखंडता और संप्रुभता प्रभावित होती है, उनका ऐसा करना बेहद चिंताजनक है और उन पर तुरंत कार्रवाई किए जाने की जरूरत है।”

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इसके बाद कई लोग ‘निजता’ की रक्षा करने के लिए कूद पड़े। भारत को अब भी डेटा सुरक्षा कानून को लागू करना बाकी है, जिससे साफ़ तौर पर यह तय हो सके कि भारतीय नागरिकों का डेटा किस तरह और कहां व्यवहार करना है। आखिर यह 59 ऐप्स किन चीजों का पालन नहीं कर रही थीं?ऐसा लगता है कि निजता की लड़ाई तभी लड़ी जाती है, जब इसका ढांचा व्यक्तिगत के बजाए राज्य स्तर पर तैयार किया जाता है। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में निजता अब नया राष्ट्रीय सुरक्षा का मुदा हो गया है, जो कभी भी आ धमक सकता है।

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सच्चाई यह है कि भारत वैश्विक इंटरनेट प्रशासन की विवेचना में बुरी तरह असफल रहा है। लेकिन हाल के सालों में भारतीय राज्य डेटा संप्रभुता के विचार के ईर्द-गिर्द चक्कर लगा रहा है। विडंबना है कि यह विचार चीन के इंटरनेट संप्रुभता के विचार से उधार लिया गया है। मैंने पहले लिखा था कि तकनीकी स्तर पर आगे और भी टकराव हो सकते हैं। सरकार ने बमुश्किल ही अपने दृष्टिकोण को विस्तार से सामने रखा है, अगर ऐसा हो तो हम सभी इस पर गौर कर सकें और इसका “आत्मनिर्भर भारत’’ से संबंध स्वाभाविक तौर पर बनता दिख रहा है। यह चीन और ऐप पर प्रतिबंध से परे जाता है।

मैं इस मुद्दे की बारीकियों में जाना पसंद करूंगा, पर अगली बार। फिलहाल ऐप्स पर प्रतिबंध के मुद्दे पर वापस लौटते हैं। गलवान में क्या वस्तुस्थिति है, उसके बारे में सिर्फ़ हमारे सर्वोच्च नेता ही जानते हैं। वही जानते हैं कि आखिर हमने क्यों सैन्य की बजाए आर्थिक क्षेत्र में कार्रवाई की। ऐप्स के मामले पर पिछले हफ्ते विचारों और नज़रियों की भरमार रही। रविश और जेपी ने इस पर चुटकी ली। मैं यहां प्रणय कोटास्थाने का उनके न्यूज़लेटर में अच्छी तरह से कही गई आलोचना को प्रस्तुत करूंगा, जिसमें कुछ कठिन अनुमान लगाए गए थे।

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अब प्रतिक्रिया पर वापस लौटते हैं। भारत ने दरअसल एक सैन्य समस्या का हल निकालने के लिए आर्थिक क्षेत्र में ताकत का इस्तेमाल किया है। इसके तहत वह आर्थिक हथियार इस्तेमाल किया गया, जिससे चीन को बहुत कम दर्द हुआ। इस तरह के उपायों का सीपीसी के फ़ैसलों की गणना पर शायद ही कोई डर बने। हमने एक सधी हुई प्रतिक्रिया देने के बजाए परीक्षण की स्थिति में मौजूद गुब्बारे से जवाब दिया है।आर्थिक क्षेत्र के एक कमज़ोर औज़ार का इस्तेमाल कर भारत ने दरअसल चीन को फायदा दिया है। चीन इस क्षेत्र में काफ़ी मजबूत है, आर्थिक औज़ारों के इस्तेमाल की बड़ी कीमत भारत को ही चुकानी होगी।

ऐप्स पर लगाए प्रतिबंधों को दूर से देखिए

अब यह साफ़ दिख रहा है कि चीन पर आर्थिक निर्भरता कम करने के लिए बड़ी हलचल हो रही है। यह नीति आयात पर कम निर्भर होने की नीतियों के साथ मिल रही है। टिकटॉक 15 सेकंड में वापस आ सकता है। लेकिन ऐप्स पर लगाया गया प्रतिबंध उस मंशा का संकेत है, जो नीति में बदल सकती है।

21 वीं सदी की शुरुआत में भारत-चीन का संतुलन सहयोग और प्रतिस्पर्धा के बीच झूलता था, लेकिन अब यह एकतरफा हो गया है। जैसा मंझे हुए चीनी विशेषज्ञ और पूर्व राजदूत गौतम बंबावले कहते हैं, ‘अब हम चीन और भारत के बचे हुए संबंधों को सामान्य तौर पर नहीं चलने दे सकते। अब यह जैसे चलते थे, वैसे नहीं है। आपको ध्यान देना होगा।

इस बात पर काफ़ी बातें कही जा चुकी हैं कि इस तरह की स्थिति बनाने से भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता, बेहतर सुरक्षा और भारतीय स्टार्टअप्स के लिए बेहतर मौके जैसे फायदे होंगे। यह सब सही साबित हो सकता है। चूंकि मैं लोगों के नुकसान से ज़्यादा, लंबे वक्त में उन्हें होने वाले हासिल में विश्वास रखता हूं, इसलिए आपसी संपर्क के पैरोकार के तौर पर मैं यहां उन चीजों को उभार रहा हूं, जिन्हें हम खो सकते हैं-

नई तकनीक साझेदारी पर रोक, यह वह क्षेत्र था जहां भारत और चीन का आपसी लेन-देन और सीख मजबूत हो सकती थी

टकराव का माहौल निश्चित ही तकनीक साझेदारी के मौकों पर विराम लगा देगा। जैसा मैंने पहले भी कहा है कि इससे दोनों देशों के संबंध काफ़ी बेहतर हो जाते। मेरी बात इस तर्क पर आधारित थी कि 1962 की जंग के बाद पहली बार विचारों, पूंजी और लोगों का बिना बाधा चक्रीय प्रवाह हो रहा था, यह प्रवाह कठोर द्विपक्षीय राज्य-राज्य व्यवहार से परे था। इसमें सबसे अहम भूमिका जिन चीजों की थी, उनमें से तकनीक एक थी। बल्कि यह केंद्र में थी।

चीनी कंपनियां ‘भारत’ के लिए बनी हैं। मतलब छोटे शहरों में रहने वाले लाखों युवा भारतीयों के लिए। इन लोगों के लिए सिलिकॉन घाटी की कंपनियां नहीं हैं। डिजिटल दानार्थी पायल अरोड़ा अपनी किताब ‘द नेक्सट बिलियन यूजर्स’ में लिखती हैं, ‘चीन की ऐप्स इंटरनेट को उन लोगों के हिसाब से मोड़ रही हैं, जो नए-नए मोबाइल यूजर्स हैं, जो सामान्यत: छोटी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

द केन ने इस हफ़्ते अपनी रिपोर्ट में कहा,

गुप्ता के मुताबिक़, ‘चाइनीज़ ऐप्स इस नए बाज़ार उपभोक्ता वर्ग के प्रति ज़्यादा सहानुभूति रखती हैं।’ ऐसा इसलिए है क्योंकि खुद चीन में एंड्रॉयड यूजर्स का बड़ा हिस्सा है, जो निम्न आय वर्ग से आता है। इन लोगों की समस्याओं का समाधान इन ऐप्स के लिए बेहद अहम है। इसलिए यह ऐप्स भारत जैसे देश में अपना बाज़ार बना पाईं। SHAREIt और यूसी ब्रॉउज़र जैसी ऐप्स ने धीमी इंटरनेट स्पीड, कम डेटा उपलब्धता, निम्न क्रय शक्ति और नए यूजर्स के लिए कंटेंट की खोज जैसी समस्याओं का समाधान करवाया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वे भारत का बाज़ार समझते थे।

चीनी निवेश से भारतीय स्टार्टअप्स को भारतीय माहौल में ही विकास करने का मौका मिला, वह भी तब, जब ना ही भारतीय और ना ही सिलिकॉन घाटी के निवेशक ऐसा हिस्सा बनाने के लिए तैयार थे, जिसमें कम राजस्व हो, पर बड़ी संख्या में ग्राहक हों।

चीनी कंपनियां और वेंचर कैपिटलिस्ट भारत में 2015 से 18 के बीच दर्जनों भारतीय उद्यमियों और टेक कंपनियों के लिए करीब़ 6 से 8 बिलियन डॉलर का निवेश लेकर आईं। इनमें पेटीएम, मेक मॉय ट्रिप, ओला, हाइक, ज़ोमेटो, क्रेजीबी, शेयरचैट आदि शामिल हैं। यह वह पैसा था, जो भारतीय उद्यमियों के हाथ में पहुंचा और जिससे भारतीयों के लिए भारतीय कंपनियां खड़ी हो पाईं।

दरअसल ऐप्स पर लगाए प्रतिबंध ने चीन के निवेश को निशाना नहीं बनाया, लेकिन मौजूदा तनाव के पहले अप्रैल में जो नियामक अनुमतियों को जोड़ा गया था, उन्होंने जरूर इसे प्रभावित किया।

हो सकता है कि शायद चीन के हिस्से की भरपाई दूसरे स्त्रोतों के निवेश से कर ली जाएगी। हो सकता है कि अब बाज़ार इतना परिपक्व हो चुका हो कि अब ज़्यादा भारतीय स्टार्टअप्स और निवेशक इस हिस्से की भरपाई की गुंजाइश रखते हों। पर यह तो बड़ा हिस्सा पहले से ही था, फिर इन लोगों ने उसकी भरपाई करने के लिए चीनी कंपनियों के जाने का इंतज़ार क्यों किया? बड़ी कंपनियों से इतर (जिनमें पहले से ही चीनी कंपनियों ने निवेश कर रखा है), छोटी कंपनियों को नए निवेश खोजने में दिक्कत जाएगी। प्रतिस्पर्धा कम कर हम जियो जैसे बड़े खिलाड़ियों को कई स्तर पर एकाधिकार करने का मौका दे रहे हैं, इससे भारतीय माहौल खराब ही होगा।

प्रतिबंध भारतीयों पर कलंक

टिक टॉक एक चीनी ऐप से कहीं ज़्यादा था। इसके यूजर्स पूरी दुनिया में हैं। टिक टॉक पर प्रतिबंध लगाकर हमने 20 करोड़ भारतीय उपभोक्ताओं को वैश्विक मीडिया सूचना क्षेत्र में भागीदार बनने से रोक दिया। इस प्रतिबंध ने फॉलोवर्स और कंटेंट का भी ‘राष्ट्रीयकरण’ कर दिया, जबकि इसे बनाने में कई लोगों की मेहनत लगी थी, कई लोग की इससे कमाई भी जुड़ी थी। मित्रों और रोपोसो जैसे ऐप्स, जो टिक टॉक का विकल्प कही जा रही हैं, उनकी वैश्विक मांग नहीं है। ना ही वे इस आय की भरपाई करने में कामयाब रहेंगी।

वीचैट पर प्रतिबंध लगाने से चीन और भारत के लोगों में एकमात्र संचार के साधन पर रोक लगा दी गई। भारतीय उद्योग के बहुत सारे व्यापारी चीन में अपने साथियों से इसी ऐप के ज़रिए मेलजोल रखते थे। इससे हजारों भारतीय छात्रों, अकादमिक जगत से जुड़े लोगों और कोई भी ऐसा आदमी, जो सीमापार संबंध रखता हो, उन सभी पर प्रभाव पड़ेगा।

यह एक और उदाहरण है, जब राज्य, लोगों के लिए यह तय कर रहा है कि उनके लिए क्या बेहतर है। क्या हम ब्लॉकिंग और सेंसरशिप की परंपरा चालू कर रहे हैं, जो भविष्य में गैर-चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगाने के लिए भी इस्तेमाल की जाएंगी?

फिर से लोगों के बीच मेल-जोल शुरू हो

पैसे के परे जाकर देखें, तो तकनीकी व्यवहार से दसों हजार चीनी और भारतीय लोग एक दूसरे के साथ संपर्क में आए। भारत में बहुत सारे चीनी यात्रा करते हैं और यहां काम करते हैं। इससे लोगों और संस्कृति के साथ संबंध स्थापित होता है। अर्थशास्त्र में हमारे पास एक अवधारणा होती है, जिसके तहत किसी अर्थव्यवस्था में पैसा लगाने पर पैसे का कई गुना असर होता है। ऐसा ही उन लोगों के साथ होता है, जो भारत यात्रा कर जाते हैं। मैं कई ऐसे युवा चीनी लोगों से मिला हूं, जो भारत यात्रा कर लौटे हैं, जिनके पास यहां का शानदार अनुभव है और उन्होंने अपने दोस्तों और परिवार के बीच भारत की जमकर पैरवी की है। एशियावाद की बात अब खत्म हो चुकी है, लेकिन चीन के राज्य मीडिया के प्रोपगेंडा को कमजोर करने का सबसे अच्छा तरीका लोगों का लोगों से संबंध ही है। नहीं तो भारत हमेशा चीन का एक लोकतांत्रित पड़ोसी रहेगा, जो कमज़ोर, गरीब़, गंदा है, जिसका चीनी नेतृत्व कभी भी फायदा उठा सकता है।

चीन की सेना से अपना हिसाब बराबर करने के लिए भारत ने चीनी कंपनियों और लोगों को निशाना बना लिया। हम पार्टी, राज्य और लोगों को एक मानने की गलती कर बैठते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि चीन की कंपनियों और राज्य के बीच संबंध जटिल है और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था से काफ़ी अलग है। लेकिन हमें अपने सोचने में ज़्यादा बुद्धिमानी दिखान है।

भारत को चीन के प्लेटफॉर्म और उनके निवेश के अपने यहां होने से बहुत फायदा होगा। रणनीतिक तौर पर देखें, तो लंबे वक्त में चीन, जितना ज़्यादा भारत पर आर्थिक तौर पर निर्भर होगा, उतना ही उसे झुकाने के लिए भारत दबाव बना सकेगा। टिक टॉक को निशाना बनाने का शायद ही सीसीपी पर कोई प्रभाव पड़ा हो। तुरंत फौरी तौर पर लगाए गए प्रतिबंधों के बजाए हमें बुद्धिमानी से लगाए गए नियंत्रण की जरूरत है।  हमें ऐसे कानूनों की जरूरत है, जो भारत की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के हित में हों और दूसरे देशों के साथ साझेदारी बढ़ाते हों, ताकि हमसे आक्रामक व्यवहार की ऊंची कीमत हो जाए।  

मैं हमेशा चीन, अमेरिका और जापान के बीच के बड़े आर्थिक लेन-देन को देखता हूं। जापान और अमेरिका, चीन के प्रतिद्वंदी हैं। इससे कई तरह के मौके भी बने हैं। इस लेन-देन से इन देशों में एक ऐसा मानव संसाधन का विकास हुआ है, जो एक दूसरे को बेहतर तरीके से समझता है। इसलिए दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने से डरते हैं। इसके बिना अमेरिका और चीन के संबंध बहुत भयावह दिखाई देते।

सीमा पर चीन के आक्रामक व्यवहार को जवाब देने की जरूरत है। लेकिन मुझे डर है कि इसके लिए जो आर्थिक तरीका अपनाया गया है, क्या भारतीय नेताओं ने चीन के साथ आर्थिक तनातनी के खिलवाड़ का अंत सोचा है? हार्डवेयर आपूर्ति श्रंखला पर तकनीकी निर्भरता बहुत महीन है और अगर भारत एक अच्छा विकास चाहता है, तो उसे चीन से चीजें खरीदनी होंगी। यह सोचना गलत है कि चीन की कंपनियों पर प्रतिबंध लगाकर या उनसे उत्पाद न खरीदकर भारतीय कंपनियां मजबूत हो जाएंगी।  हम चीन से इसलिए खरीद करते हैं कि यह हमारे हित में है।

चीन का आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इसलिए बेहतर होने में कामयाब रहा, क्योंकि वहां शिक्षा, कौशल विकास में योजनागत् निवेश हुआ और पूंजी को स्टार्टअप्स के लिए आसानी से उपलब्ध कराया गया। आज जीडीपी के हिस्से के तौर पर चीनी कंपनियां, भारतीय कंपनियों से शोध में तीन गुना ज़्यादा खर्च करती हैं। भारत को चीन से सीखने की जरूरत है कि उन्होंने कैसे एक लंबी नीति और निवेश के ज़रिए अपनी घरेलू औद्योगिक क्षमता विकसित करने के दौरान अपने पर्यावरण को विकसित किया (क्या कोई भी यहाँ रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए खर्च करने के लिए तैयार है)। आज ऐप बैन जैसे कदमों की जबरदस्ती बुद्धिमानी भरी नहीं है और इससे भारत के हित ही प्रभावित होंगे।

अच्छी विदेश नीति आखिर में वही होती है, जिससे घरेलू विकास के लिए बेहतर स्थितियों का निर्माण होता है। अब हमें एक रास्ता बनाने की जरूरत है, जिसमें भारतीयों के लिए कम आर्थिक परेशानी हो। मुझे नहीं लगता कि आपसी संपर्क के शुरुआती पड़ावों को रौंदने से कुछ भला होने वाला है। अगर किसी और को ऐसा लगता है, तो मुझे लिखकर बताए? हमें अब ज़्यादा लोगों के एक साथ मिलकर काम करने की जरूरत है, ताकि बुरी स्थितियों को बनने से रोका जा सके।

‘ChinaIndia Networked’ डेव लेविस द्वारा बनाया जाने वाला न्यूज़लेटर है, जिसमें दोनों क्षेत्रों के बीच तकनीक, समाज और राजनीति के प्रतिच्छेदन (intersection ) पर बात होती है। मैं (डेव लेविस) डिजिटल एशिया हब में फैलो हूं और बीजिंग यूनिवर्सिटी में येनचिंग स्कॉलर हूं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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