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भूख-जाति से लड़ती सामुदायिक रसोई
वैसे तो कोरोना काल का असर सभी पर पड़ा है पर सफाई समुदाय पर जाति के कारण अधिक ही पड़ा है। ऐसे में कुछ लोगों और संगठनों ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं। इसी तरह सफाई कर्मचारी आंदोलन की पहल पर कई राज्यों में सामुदायिक रसोई शुरू की गई है, ताकि कोई भी सफाई कर्मचारी भूखा न रहे।
राज वाल्मीकि
16 Sep 2020
सामुदायिक रसोई

पिछले हफ्ते देश की राजधानी दिल्ली से ही खबर आई कि दिल्ली नगर निगम (दक्षिण) के सफाई कर्मचारी वीरेंद्र सिंह चुड़ीयाणा ने कई महीनों से वेतन न मिलने और 13 सालों से स्थायी नौकरी की मांग करने के बावजूद स्थायी न करने के कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से परिवार सहित आत्महत्या की मंजूरी मांगी है।  सफाई कर्मचारियों का कई-कई महीने वेतन न मिलना सिर्फ दिल्ली की ही नहीं पूरे देश के सफाई कर्मचारियों के समस्या है। इस कोरोना काल में जब सफाई कर्मचारी अपनी जान जोखिम में डालकर हम सब के स्वस्थ रखने के लिए सफाई कार्य में लगे हैं, ऐसे में जब इन कोरोना वारियर्स को कई-कई महीने वेतन तक नहीं मिले – तो ये अपना घर कैसे चलाएंगे। पूरे परिवार को भुखमरी से मरते नहीं देखने पर आत्महत्या के ही सोचेंगे।

कोरोना काल में जिस तरह के हालात बने हैं उस से आप और हम सभी वाकिफ हैं। देश के आम जन पर इसका बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा है। अर्थव्यवस्था धराशायी हो गई है। महंगाई बढ़ी है। बेरोजगारी बढ़ी है। ऐसे में दलितों में भी दलित कहे जाने वाले सफाई समुदाय की हालत तो बद से बदतर हो गई है। उन पर दोहरी मार पड़ रही है। एक तो वे सामाजिक रूप से अछूतपन, भेदभाव, अन्याय और अत्याचार से पीड़ित हैं दूसरी ओर गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से परेशान हैं। ऐसे में परिवार का भरण-पोषण कैसे हो।

वैसे तो कोरोना काल का असर सभी पर पड़ा है पर सफाई समुदाय पर जाति के कारण अधिक ही पड़ा है। कई सफाई कर्मचारियों का कहना है कि कोरोना काल में उनका काम छूट गया है। उनके और उनके परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।

ऐसे में कुछ लोगों और संगठनो ने मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं। उनमें एक सफाई कर्मचारी आंदोलन भी है। सफाई कर्मचारी आंदोलन एक राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन है जो पिछले तीस सालों से मैला प्रथा उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध है। इसके नेशनल कन्वीनर मैग्सेसे अवार्डी बेजवाड़ा विल्सन मैला प्रथा उन्मूलन के लिए निरंतर संघर्षरत हैं। समाज की ही मदद से सफाई कर्मचारी आंदोलन की पहल पर कई राज्यों में सामुदायिक रसोई खोलने का निर्णय लिया गया जिससे कोई भी सफाई कर्मचारी भूखा न रहे। अपने सीमित साधनों में सामुदायिक रसोईं का प्रबंध और संचालन सफाई कर्मचारी खुद ही कर रहे हैं। वे खुद ही खाना बनाते हैं और मिल बांटकर खाते हैं।

लेखक ने सामुदायिक रसोई से जुड़े पुरुषों और महिलाओं से बात की। उन्होंने अपने अनुभव साझा किए। सामुदायिक रसोई का काम फ़िलहाल चार राज्यों में वहां के स्वयं सहायता समूह के माध्यम से चल रहा है। ये राज्य हैं उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और झारखण्ड। सामुदायिक रसोई चल रही है - उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जिले की बेहटा बस्ती में, मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की रानीगंज बस्ती में, बिहार के रोहतास जिले के डालमिया नगर में और झारखण्ड के धनबाद जिले के कतरसगंज में।

Up Kitchen.jpegउत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद की बेहटा बस्ती में सामुदायिक रसोई के देख-रेख कर रहे संजय लोहट कहते हैं कि सामुदायिक रसोई के माध्यम से हम एक ही समय का खाना दे पाते हैं पर लोगों की हमसे अपेक्षाएं अधिक होती हैं कि दो टाइम खाना मिले पर फिलहाल सीमित साधनों में हम अफोर्ड नहीं कर पाते हैं। पर इस कोरोना काल में लोग इसे भी एक बड़ा सहारा मानते हैं कि कम से कम भूखे तो नहीं सोयेंगे।

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इसी प्रकार मध्य प्रदेश पन्ना के रानीगंज में प्रमुख संचालक रविता डुमार कहती हैं कि सामुदायिक रसोई से ज्यादातर लोग खुश हैं। कभी-कभी दिक्कत भी आती है। हम खाना सीमित लोगों के लिए बनाते हैं पर आस-पास की बस्ती के लोग भी आ जाते हैं। तब स्थिति असमंजस की हो जाती है न उनको मना करते बनता है और न ही भरपेट खाना दे पाते हैं पर फिर भी थोडा-थोडा आपस में साझा कर लेते हैं।

झारखण्ड में धनबाद जिले के कतरसगढ़ बस्ती का काम सन्नी राम की देखरेख में हो रहा है। वे कहते हैं कि हमारी सामुदायिक रसोई ठीक चल रही है। सबलोग मिलकर सब काम निपटा लेते हैं और फिर खाना खाकर अपने घर चले जाते हैं। कई बार लोग कुछ नॉन-वेज खाने की बात कहते हैं जो कि हमारे सीमित संसाधनों में संभव नही है। हम सादा खाना जैसे दाल-रोटी, रोटी-सब्जी इत्यादि ही बना पाते  हैं। इससे ज़्यादा हम हम जुटा नहीं पाते हैं।

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बिहार के रोहतास जिले में डालमिया नगर बस्ती की सामुदायिक रसोई कविता की देख-रेख में चल रही है। कविता कहती हैं कि मेरी सामुदायिक रसोई ठीक चल रही है। महिलाएं सहयोग कर रहीं हैं। पर कभी कभी मैं पुरुषों से परेशान हो जाती हूँ जब वे कहते है एक टाइम की जगह दो टाइम का खाना बनवाओ। जब मैं कहती हूँ कि ये संभव नहीं है वे समझने की कोशिश नहीं करते। नॉन-वेज की भी मांग होती है। वैसे सब ठीक है हम लोग मिलजुल कर खाना बनाते खाते हैं।

संजय (उत्तर प्रदेश), रविता (मध्य प्रदेश), सनीराम (झारखण्ड) और कविता (बिहार) से सरकारी मदद के बारे में पूछने पर उन्होंने असंतोष प्रकट किया। उनका कहना था सरकार बड़े-बड़े वादे करती है पर काम नहीं करती है। जितनी राहत पहुँचाने की बात सरकार करती है उतनी लोगों तक पहुँचती नहीं है। जिनके पास राशन कार्ड हैं उनको सरकार ने राशन दिया है वह भी इतना कम दिया है कि  परिवार के लिए पूरा नही हो पाता। हमारे बहुत से लोगों के पास राशन कार्ड ही नहीं हैं।

सामुदायिक रसोई में खाना बनाते और खाते वक्त बातों-बातों में महिलाएं कहती हैं कि उनके पुरुष राज्य से बाहर कमाने के लिए गए थे पर लॉकडाउन में उनका काम बंद हो गया और वे वापस लौट आए। ऐसे में घर का खर्च कैसे चले। सरकार हमारे बारे में क्यों नहीं सोचती।

सामुदायिक रसोई का एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इस से समुदाय में एकता की भावना और परस्पर सहयोग का भाव भी विकसित हो रहा है। वैसे तो खाना बनाने की कमान महिलाओं ने ही संभाल रखी है पर इसमें पुरुष भी अपना यथासंभव सहयोग करते हैं। सामुदायिक रसोई के समय बस्ती के लोग आपस में मिल कर अपने दुख–सुख भी साझा कर लेते हैं।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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