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भारत
राजनीति
चिंता: ग्लोबल हंगर इंडेक्स को लेकर भी असहिष्णु सरकार
पिछले कुछ समय से सरकार ऐसे हर आकलन को खारिज करती रही है जो उसकी असफलताओं को उजागर करता है।
डॉ. राजू पाण्डेय
29 Oct 2021
hunger crisis
Image courtesy : The Nation

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत के खराब प्रदर्शन और भारत सरकार द्वारा इंडेक्स की विश्वसनीयता पर उठाए गए प्रश्नों पर चर्चा करने से पूर्व यह जानना अधिक आवश्यक लगता है कि सरकार कुपोषण और भूख की समस्या को लेकर कितनी गंभीर रही है।

वर्ष 2021-22 का केंद्र सरकार का बजट शिशु और माता के पोषण से संबंधित योजनाओं के लिए आबंटन में कटौती के कारण चर्चा में रहा था। बजट में महिलाओं और बच्चों से जुड़ी अनेक योजनाओं का समेकन कर दिया गया था और जो एकमुश्त राशि आबंटित की गई थी वह पिछले वर्षों की तुलना में कम थी।

कोविड-19 और लॉकडाउन के कारण जब लोग चिकित्सा सुविधाओं की कमी और खाद्यान्न के संकट से जूझ रहे थे तब सरकार द्वारा यह कटौती चौंकाने वाली भी थी और दुःखद भी।

आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन हेतु उत्तरदायी एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस) का बजट वर्ष 2020-21 में 20532 करोड़ था। वर्ष 2021-22 में आईसीडीएस को  केंद्र की सक्षम योजना, पोषण अभियान और नेशनल क्रेच स्कीम के साथ समेकित कर इसके लिए केवल 20105 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया। उल्लेखनीय है कि विगत वर्ष सक्षम योजना के लिए ही बजट 24557 करोड़ रुपये था।

इसी बजट में मातृत्व विषयक सुविधाओं को प्रदान करने हेतु निर्मित प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना को सामर्थ्य योजना (जिसके अंतर्गत बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना आती है), महिला शक्ति केंद्र तथा सामान्य लैंगिक बजटीय प्रावधानों के साथ संयुक्त कर दिया गया। इसके लिए बजटीय प्रावधान 2522 करोड़ रुपये किया गया जो पिछले वर्ष केवल प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना के लिए किए गए प्रावधान से जरा अधिक और केवल सामर्थ्य योजना हेतु किए गए प्रावधान 2828 करोड़ रुपये  से 306 करोड़ रुपये कम था।

वर्ष 2021-22 के बजट में मिड डे मील के लिए 11500 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया जबकि 2020-21 के संशोधित बजट आकलन के अनुसार इसके लिए 12900 करोड़ की राशि का आबंटन था।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की रैंकिंग्स तो बहुत बाद में आई हैं।  द फ़ूड एंड न्यूट्रिशन सिक्योरिटी एनालिसिस, इंडिया 2019 के अनुसार वर्ष 2022 तक  पांच वर्ष से कम आयु के हर तीन बच्चों में से एक स्टन्टेड होगा। अनुसूचित जन जाति के शिशुओं में स्टन्टिंग की दर सर्वाधिक 43.6 प्रतिशत है जबकि अनुसूचित जाति के शिशुओं के लिए यह 42.5 प्रतिशत है।

इस विश्लेषण के अनुसार पिछले दो दशकों में खाद्यान्न उत्पादन में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन तब भी यह 2030 के खाद्यान्न उत्पादन लक्ष्य की आधी ही है। खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी के बावजूद यह अनाज आम आदमी की पहुंच से दूर है। आर्थिक असमानता की खाई बढ़ी है। बाजार में हर तरह का अनाज मौजूद है लेकिन इसे खरीदने के लिए आवश्यक क्रय शक्ति लोगों के पास नहीं है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे- 5 के आंकड़े तो स्वयं सरकार ने दिसंबर 2020 में जारी किए थे जिनके अनुसार कोविड-19 के प्रारंभ के पूर्व से ही बच्चों में कुपोषण का स्तर बढ़ने लगा था। सर्वेक्षण के 2019-20 के आंकड़े बताते हैं कि चाइल्ड स्टन्टिंग की स्थिति 13 राज्यों में बिगड़ी है, जबकि चाइल्ड वेस्टिंग की समस्या 16 राज्यों में अधिक गंभीर हुई है।

इसके बाद का लगभग एक-डेढ़ साल का वक्फा कोविड-19 और उसके कारण लगाए गए लॉकडाउन के कारण कुपोषण की बिगड़ती स्थिति को और गंभीर बनाने वाला रहा है। शिक्षाविदों और चिकित्सकों के एक बड़े वर्ग द्वारा सरकार से स्कूलों और आंगनबाड़ी केंद्रों को खोलने के अनुरोध के बावजूद इन्हें पिछले डेढ़  साल से बंद रखा गया था। छह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए सरकार का पोषण कार्यक्रम आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से ही संचालित होता है। यह बुरी तरह बाधित हुआ। कोविड-19 के कारण स्वास्थ्य तंत्र पर इतना अधिक दबाव पड़ा कि प्रसव और माताओं तथा शिशुओं के स्वास्थ्य से संबंधित सुविधाएं भी ठीक से उपलब्ध न हो सकीं।

जून 2021 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने आरटीआई के तहत पूछे गए एक सवाल के उत्तर में यह बताया कि पिछले साल नवंबर तक देश में छह महीने से छह साल तक के करीब 9,27,606 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की पहचान की गई। यह आंकड़े वास्तविक संख्या से कम भी हो सकते हैं। किंतु सरकार इस भयावह होती स्थिति को अधिक गंभीरता से लेती नहीं दिखती। 

हर तरफ "न्यू इंडिया" का शोर है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार नए भारत को कुपोषित भारत बनाना चाहती है। हम सभी जानते हैं कि कुपोषण के दुष्प्रभाव एक पीढ़ी तक सीमित नहीं रहते। कुपोषित माताएं कुपोषित बच्चों को जन्म देती हैं और यह दुष्चक्र गहराता जाता है। हमें यह चिकित्सकीय सत्य भी ज्ञात है कि प्रथम 1000 दिनों में मिलने वाला पोषण बच्चे के भावी जीवन को निर्धारित करता है।

प्यू रिसर्च सेंटर के आकलन दर्शाते हैं कि भारत में कोविड-19 के कारण गरीबों की संख्या में साढ़े सात करोड़ की वृद्धि हुई है। यह आंकड़ा गरीबी की वैश्विक वृद्धि में 60 प्रतिशत का योगदान करता है। नौकरियां छिन जाने और आय के स्रोत समाप्त हो जाने के बाद लाखों परिवारों के सम्मुख जीवन यापन हेतु मूलभूत सुविधाएं जुटाने का संकट पैदा हो गया है। इन परिस्थितियों में यह आशा नहीं की जा सकती कि वे पोषक आहार लेने के लिए धन जुटा पाएंगे। 

वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम ने जून 2021 में कहा है कि भारत में कोविड-19 के कारण भूख और गरीबी का संकट भयावह रूप ले रहा है। वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम का सुझाव है कि तात्कालिक खाद्य आवश्यकता की पूर्ति और जीवन यापन के अवसर उपलब्ध कराना दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।

कुपोषण और भुखमरी के यह हालात तब हैं जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (2013)  का कवच हमारे पास है जिसके जरिए हम 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को खाद्य और पोषण की सुरक्षा दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त फरवरी 2006 से अस्तित्व में आई मनरेगा जिसका प्रारंभिक उद्देश्य कृषि क्षेत्र की बेरोजगारी से मुकाबला करना था, आज कोविड-19 के कारण शहरों से वापस लौटे प्रवासी मजदूरों को भी रोजगार मुहैया करा रही है। 15 वर्ष पुरानी इस योजना के लाभार्थी शायद आज सर्वाधिक हैं और इसके महत्व को पहले से ज्यादा महसूस किया जा रहा है। यह वही मनरेगा है जिसे प्रधानमंत्री जी ने कभी पिछली सरकारों की विफलता का स्मारक कहा था।

क्या हमारी सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को और अधिक प्रभावी बनाकर इसका दायरा विस्तृत करने की दिशा में कोई कार्य किया है? दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। 

28 फरवरी 2021 को समाचार पत्रों में जो खबरें सामने आई थीं उनके अनुसार नीति आयोग ने सरकार को खाद्य सुरक्षा कानून के तहत ग्रामीण इलाकों की 75 प्रतिशत और शहरी इलाकों की 50 प्रतिशत कवरेज को घटाकर क्रमशः 60 प्रतिशत और 40 प्रतिशत करने का सुझाव दिया है। नीति आयोग के अनुसार गरीबों का निवाला छीनकर सरकार 47229 करोड़ रुपये की वार्षिक बचत कर सकती है। 

सरकार के कृषि कानून  खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालने वाले हैं। देश में कृषि भूमि सीमित है, फसलों की उत्पादन वृद्धि में सहायक सिंचाई आदि सुविधाओं तथा कृषि तकनीकों में सुधार की भी एक सीमा है। इस अल्प और सीमित भूमि में ग्लोबल नार्थ के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए खाद्यान्नों के स्थान पर उन फसलों का उत्पादन किया जाएगा जो इन देशों में पैदा नहीं होतीं। जब तक पीडीएस सिस्टम जारी है तब तक सरकार के लिए आवश्यक खाद्यान्न का स्टॉक बनाए रखने के लिए अनाजों की खरीद जरूरी होगी। किंतु परिवर्तन  यह होगा कि वर्तमान में जो भी अनाज बिकने के लिए आता है उसे खरीदने की अब जो बाध्यता है, वह तब नहीं रहेगी। सरकार पीडीएस को जारी रखने के लिए आवश्यक अनाज के अलावा अधिक अनाज खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगी। इसका परिणाम यह होगा कि कृषि भूमि का प्रयोग अब विकसित देशों की जरूरतों के अनुसार फसलें पैदा करने हेतु होने लगेगा। विश्व व्यापार संगठन की दोहा में हुई बैठक से ही भारत पर यह दबाव बना हुआ है कि सरकार खाद्यान्न की सरकारी खरीद में कमी लाए किंतु किसानों और उपभोक्ताओं पर इसके विनाशक प्रभावों का अनुमान लगाकर हमारी सरकारें इसे अस्वीकार करती रही हैं। 1960 के दशक के मध्य में बिहार के दुर्भिक्ष के समय हमने अमेरिका के दबाव का अनुभव किया है और खाद्य उपनिवेशवाद के खतरों से हम वाकिफ हैं। 

यह तर्क कि नया भारत अब किसी देश से नहीं डरता, केवल सुनने में अच्छा लगता है। वास्तविकता यह है कि अनाज के बदले में जो फसलें लगाई जाएंगी उनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव दर्शाती हैं, इसी प्रकार के बदलाव विदेशी मुद्रा में भी देखे जाते हैं और इस बात की आशंका बनी रहेगी कि किसी आपात परिस्थिति में हमारे पास विदेशों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी। आज हमारे पास विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार हैं किंतु आवश्यक नहीं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। विदेशों से अनाज खरीदने की रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार के अभाव में कारगर नहीं होगी और विषम परिस्थितियों में करोड़ों देशवासियों पर भुखमरी का संकट आ सकता है। 

भारत जैसा विशाल देश जब अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने लगेगा तो स्वाभाविक रूप से कीमतों में उछाल आएगा। जब कमजोर मानसून जैसे कारकों के प्रभाव से देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा तब हमें ज्यादा कीमत चुका कर विदेशों से अनाज लेना होगा। इसी प्रकार जब भारत में अनाज के बदले लगाई गई वैकल्पिक फसलों की कीमत विश्व बाजार में गिर जाएगी तब लोगों की आमदनी इतनी कम हो सकती है कि उनके पास अनाज खरीदने के लिए धन न हो। 

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खाद्यान्न के बदले में लगाई जाने वाली निर्यात की फसलें कम लोगों को रोजगार देती हैं। जब लोगों का रोजगार छिनेगा तो उनकी आमदनी कम होगी और क्रय शक्ति के अभाव में वे भुखमरी की ओर अग्रसर होंगे। भारत जैसे देश में भूमि के उपयोग पर सामाजिक नियंत्रण होना ही चाहिए। भूमि को बाजार की जरूरतों के हवाले करना विनाशकारी सिद्ध होगा। 

सरकार और सरकार समर्थक मीडिया किसान आंदोलन को जनविरोधी सिद्ध करने में लगे हैं जबकि सच्चाई यह है कि किसान देश को भूख, कुपोषण,गरीबी और बेरोजगारी से बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

कोविड-19 के समय देश की जनता को भुखमरी से बचाने में हमारे विपुल खाद्यान्न भंडार ही सहायक रहे। प्रधानमंत्री जी ने  अपने स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन में गर्वोक्ति की-  "महामारी के समय भारत जिस तरह से 80 करोड़ देशवासियों को महीनों तक लगातार मुफ्त अनाज देकर के उनके गरीब के घर के चूल्‍हे को जलते रखा है और यह भी दुनिया के लिए अचरज भी है।" प्रधानमंत्री जी से यह कहा जाना चाहिए था कि सौभाग्य से आपके पूर्ववर्तियों की नीति आप जैसी नहीं थी और उन्होंने कृषि को निजी हाथों में नहीं सौंपा। अन्यथा कोविड काल में भुखमरी की स्थिति और भयंकर होती। यदि सरकार दो जून की रोटी को तरसते 80 करोड़ लोगों को (जिनकी आय का कोई जरिया नहीं है न ही जिनके पास कोई रोजगार है) अनाज उपलब्ध कराती है तो यह उन पर कोई उपकार नहीं है बल्कि अपनी असफलताओं का प्रायश्चित है।

ओलंपिक खिलाड़ियों से अपनी मुलाकात के दौरान आदरणीय प्रधानमंत्री जी आश्चर्यजनक रूप से खिलाड़ियों को यह बताते पाए गए कि देश में पौष्टिक खाने की कोई कमी नहीं है। बस लोगों को इस बात का पता नहीं है कि क्या खाया जाए? यदि प्रधानमंत्री जी कुपोषण को महज गलत खाद्य आदतों का परिणाम मानते हैं और इसका समाधान सिर्फ जनशिक्षण में देखते हैं तो इसका अर्थ सिर्फ यही है कि आत्ममुग्ध होने के कारण वे देश में भुखमरी और कुपोषण की स्याह हकीकत को देख नहीं पा रहे हैं।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की मेथडॉलोजी को लेकर सरकार ने सवाल उठाए हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने इसे ओपिनियन पोल पर आधारित बताया है। यह सही है कि सूचना एकत्र करने के लिए गैलप वर्ल्ड पोल की टेलीफोनिक सर्वे पद्धति का उपयोग किया गया है। किंतु जो प्रश्न पूछे गए हैं, वह ओपिनियन जानने के लिए तैयार नहीं किए गए थे। यह वस्तुनिष्ठ प्रश्न थे और इनके वैसे ही उत्तर मिले। विशेषज्ञ अपर्याप्त पोषित जनसंख्या के आकलन की इंडेक्स निर्माताओं  की पद्धति पर सवाल उठाते रहे हैं और शायद भविष्य में हम इसमें परिवर्तन होता देखें।

कोई भी इंडेक्स शत प्रतिशत सही नहीं होता। कितनी ही वैज्ञानिक पद्धति क्यों न अपनाई जाए त्रुटि की गुंजाइश हमेशा रहती है। लेकिन इससे समूचे परिदृश्य की इतनी स्पष्ट तस्वीर मिल जाती है कि हम अपनी भावी नीतियों एवं कार्यक्रमों में सुधार कर सकें। महत्वपूर्ण है देश की परिस्थितियों और सरकार के कामकाज के किसी भी निष्पक्ष आकलन पर सरकार की प्रतिक्रिया। पिछले कुछ समय से सरकार ऐसे हर आकलन को खारिज करती रही है जो उसकी असफलताओं को उजागर करता है। इससे एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की भांति चित्रित किया जाता है जो देश की छवि बिगाड़ने हेतु रचा गया है। असहमति के प्रति असहिष्णुता का रोग इतना बढ़ चुका है कि सरकार को निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और एजेंसियों पर भी शंका होने लगी है। अगस्त 2021 में अपुष्ट सूत्रों के हवाले से कुछ समाचार पत्रों में यह खबर छपी थी कि सरकार इस तरह की रैंकिंग जारी करने वाली एजेंसियों से संपर्क करने की योजना बना रही है ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि अच्छी बनी रहे। यदि ऐसा है तो यह बहुत दुःखद है। सरकार को अपने कामकाज में सुधार करना चाहिए न कि रैंकिंग्स को प्रभावित करने की कोशिश करनी चाहिए।

(डॉ. राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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