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नज़रिया
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नज़रिया: कांग्रेस को चाहिए ममता बनर्जी का नेतृत्व, सोनिया गांधी करें पहल
कांग्रेसी नेताओं की ओर से ममता बनर्जी पर की जा रही पुष्प वर्षा ने यह संभावना पैदा की है कि ममता बनर्जी को कांग्रेस के करीब या उसके भीतर लाने के प्रयास किए जाएंगे।
अरुण कुमार त्रिपाठी
06 May 2021
Sonia and Mamta
फ़ोटो साभार: अमर उजाला

ममता बनर्जी ने जिस दमखम के साथ पश्चिम बंगाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उनकी   भाजपा जैसी अजेय पार्टी को हराकर विजय हासिल की है उससे पूरे देश की निगाहें उन पर लग गई हैं। विशेषकर निरंतर पराभव की ओर जा रही कांग्रेस पार्टी के भीतर से उनके प्रति ललक देखी जा रही है।

कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट कर कहा, ``मैं ममता बनर्जी और बंगाल की जनता को भाजपा को जबरदस्त रूप से हराने के लिए बधाई देता हूं।’’ कांग्रेस की मौजूदा अध्यक्ष सोनिया गांधी ने द्रमुक के नेता एमके स्टालिन और ममता बनर्जी को फोन कर जीत की बधाई दी। इस पर बहुस सारे लोगों ने दोनों नेताओं का मजाक उड़ाते हुए कहा  कि कांग्रेस पार्टी तो बर्बाद हो गई अब बधाई किस बात की। ऐसी चिंता पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और सांसद अधीर रंजन चौधरी ने भी व्यक्त की है। 

दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के असंतुष्ट नेताओं के गुट जी-23 ने ममता बनर्जी की भूरि भूरि प्रशंसा की है। उन लोगों ने ममता बनर्जी को `बंगाल की शेरनी’ कहते हुए सोनिया गांधी को पत्र लिखा है और कांग्रेस पार्टी में सुधार की जरूरत बताई है। अगर गुलाम नबी आजाद ने उन्हें बंगाल की शेरनी कहा है तो कपिल सिब्बल ने उन्हें साहसी जमीनी नेता बताया है और कहा है कि वे `आधुनिक झांसी की रानी’ हैं जिन्होंने साबित किया है कि परिस्थितियां कितनी भी कठिन हों लेकिन अजेय को भी हराया जा सकता है। मनीष तिवारी ने भी उन्हें झांसी की रानी कहा है और आनंद शर्मा ने कहा है कि उनकी विजय ने उन सबके भीतर एक प्रकार की आशा का संचार किया है जो समावेशी और लोकतांत्रिक भारत में विश्वास करते हैं। 

कांग्रेसी नेताओं की ओर से ममता बनर्जी पर की जा रही इस तरह की पुष्प वर्षा ने यह संभावना पैदा की है कि ममता बनर्जी को कांग्रेस के करीब या उसके भीतर लाने के प्रयास किए जाएंगे। ममता बनर्जी 1998 तक कांग्रेस की ही नेता थीं। उनके भीतर कांग्रेस का ही डीएनए है। 1970 से 1998 तक उन्होंने कांग्रेस की सक्रिय राजनीति की। वे अपने 15 वर्ष की उम्र में छात्र जीवन से ही कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गई थीं।

1975 में जब समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण कोलकाता गए तो बीस वर्षीय ममता ने छात्र परिषद की नेता के तौर पर उनका घेराव किया और उनकी कार के बोनट पर कूदी थीं। इस घटना से वे बहुत चर्चित हो गई थीं। वे पहली बार 1984 में कांग्रेस के ही टिकट पर लोकसभा के लिए चुनी गई थीं। इस बीच वे 1991 और 1996 में भी कांग्रेस के टिकट पर सांसद बनीं। ममता बनर्जी 1991 से 1993 तक नरसिंह राव मंत्रिमंडल में मानव संसाधन, खेल और स्त्री और बाल विकास मामलों की राज्य मंत्री थीं । कान्ग्रेस से मतभेदों के चलते उन्होंने 1997 मे पार्टी छोड़ दी और 1998 मे अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस बनाई।

उनकी नाराजगी की वजह यह थी कि कांग्रेस उन्हें पश्चिम बंगाल में कांग्रेस पार्टी को खड़ा करने के लिए काम नहीं करने देती। बल्कि वहां कांग्रेस पार्टी माकपा के सहायक दल के रूप में काम करती है। 1998 से 2021 तक ममता बनर्जी ने लंबा सफर तय किया है और उसी तरह बंगाल की राजनीति ने भी भारी उथल पुथल देखी है। आज पश्चिम बंगाल में न सिर्फ कांग्रेस सिमट गई है बल्कि वह माकपा भी हाशिए पर चली है, जिसकी कभी कांग्रेस से निकटता थी और जिसके नाते ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़ी थी और उनके दोबारा कांग्रेस में लौटने में दिक्कत थी। 

अब पश्चिम बंगाल में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी दल के रूप में भाजपा उभर आई है और कांग्रेस, माकपा व दूसरे वामपंथी दलों का प्रमुख लक्ष्य भाजपा को ही हराना है। हालांकि अभी भी बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषक ऐसी रेडिकल बात कहने से झिझक रहे हैं क्योंकि उन्हें यकीन नहीं है कि कांग्रेस किसी क्षेत्रीय दल के नेता को अपनी कमान देगी। 

कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी के युवा समर्थकों और फिर बूढ़े नेताओं के बीच अपनी खींचतान है और संभवतः बूढ़े नेताओं का गुट अपने को महत्व दिलाने की खातिर राहुल गांधी पर दबाव बनाने के लिए ऐसा कह रहा है। इसीलिए बहुत सारे लोगों का सुझाव इसी सीमा तक आ रहा है कि ममता बनर्जी को यूपीए की चेयरपर्सन बना देना चाहिए। यह सुझाव भी भाजपा के अखिल भारतीय विकल्प की दिशा में ही दिया गया एक सुझाव है। लेकिन यह सुझाव तभी कारगर हो सकता है जब कांग्रेस पार्टी जिसका अखिल भारतीय ढांचा है वह आईसीयू से बाहर आए। उसका कायाकल्प हो और उसका नेतृत्व जुझारू हो। 

अगर कांग्रेस पार्टी स्वस्थ नहीं होती तो समय समय पर होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा का क्षेत्रीय विकल्प भले ही खड़ा हो जाए लेकिन 2024 में अखिल भारतीय विकल्प खड़ा हो पाना आकाश कुसुम ही रहेगा।

नब्बे के दशक में कांग्रेस की ओर चंद्रशेखर ललचाई नजरों से देखते थे। उन्हें लगता था कि कांग्रेस नेतृत्वविहीन है और वे पार्टीविहीन। ऐसे में उनके और कांग्रेस के बीच ऐसी संधि हो सकती है कि उनके हाथ में नेतृत्व दे दिया जाए और वे उभरती भाजपा का विकल्प बन जाएं। लेकिन ऐसा हो न सका। कांग्रेस पार्टी ने पहले पीवी नरसिंह राव के माध्यम से अपना काम चलाया और बाद में उसने डा मनमोहन सिंह के सहारे दस साल तक शासन किया और भाजपा को सत्ता में आने से रोककर रखा। इसी दौरान कांग्रेस उदारीकरण की नीतियों की प्रणेता बनी। डा मनमोहन सिंह ने पहले वित्त मंत्री के रूप में और बाद में प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें लागू किया और भारतीय मध्यवर्ग ने उन्हें काफी सराहा भी। 

जब 2009 में यूपीए ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में आई तो उन्हें `सिंह इज किंग’ भी कहा गया। लेकिन डा मनमोहन सिंह कांग्रेस की राजनीतिक नीतियों को सामाजिक आधार नहीं दे सके और जो आधार आर्थिक नीतियों के कारण बना था वह भ्रष्टाचार की बाढ़ में बह गया। 

हालांकि उसी दौरान उदारीकरण के समर्थक मेघनाथ देसाई सुझाव दिया करते थे कि कांग्रेस और भाजपा को मिलकर एक राष्ट्रीय सरकार बनानी चाहिए ताकि देश में आर्थिक सुधार जारी रह सके। वह बहुत रेडिकल सुझाव था और कहने वाले कह सकते हैं कि ममता बनर्जी को कांग्रेस की कमान देने का सुझाव भी वैसा ही है। लेकिन तब और अब की स्थितियों में अंतर है। तब लगता था कि सोनिया गांधी पार्टी संभालेंगी और उनके बाद राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगा लेंगे। पर वैसा हो न सका। आज भाजपा और संघ परिवार की चुनौती जिस रूप में देश के सामने खड़ी है वैसी आजाद भारत में कभी भी नहीं रही। 

देश में ऐसा कोई क्षेत्रीय नेता नहीं है जो सभी क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर सके और न ही राहुल गांधी उस स्थिति में हैं कि वे कदम कदम पर भाजपा से लड़कर कांग्रेस को खड़ा कर सकें। राहुल गांधी सेक्यूलर हैं, उन्हें जनसमर्थक नीतियां अच्छी लगती हैं और उसकी पैरवी भी करते हैं। लेकिन ममता बनर्जी के पोल मैनेजर प्रशांत किशोर ने उनकी राजनीतिक शैली पर उचित टिप्पणी की है कि वे अपनी विफलताओं का दोष दूसरों पर देते हैं। न कि ममता बनर्जी की तरह गड्ढे में उतर कर लड़ते हैं। इसीलिए वे अपना करिश्मा भी नहीं बना पाए हैं।

ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में जिस तरह की राजनीतिक लड़ाई लड़ी है उसे देखकर कोई भी विस्मित हो सकता है। उनके इसी विस्मयकारी रूप को देखकर वरिष्ठ पत्रकार और लेखिका मृणाल पांडे ने उनकी तुलना महिषासुर मर्दनी से की है। मृणाल पांडे ने तो मार्कंडेय पुराण के एक एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए भाजपा से ममता की लड़ाई को मिथकीय बता दिया है। सचमुच इतने शक्तिशाली लोगों से लड़ना ही काफी था जीतने की तो उम्मीद की ही नहीं जा रही थी। ममता बनर्जी में बहुत सारी कमियां हैं और उनकी एक कमी यह भी है कि उन्होंने कभी एनडीए के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। लेकिन एक बात साफ है कि ममता बनर्जी नीतीश कुमार नहीं हैं। उन्होंने 2021 की इस लड़ाई से हिंदू मुस्लिम एकता का नया आख्यान रचा है। जिस तरह हिंदुत्व का ब्लूप्रिंट योगी आदित्यनाथ तमाम भाजपा शासित राज्यों को प्रदान कर रहे हैं उसी तरह ममता बनर्जी राष्ट्रीय एकता का एक नया आख्यान सभी क्षेत्रीय दलों को दे सकती हैं। लेकिन सिर्फ इतने से ही 2024 की लड़ाई नहीं जीती जा सकती।

योगेंद्र यादव जैसे कई राजनीतिक शास्त्री कांग्रेस पार्टी को विखंडित करने का सुझाव देते हैं। इसी के साथ कई समाजवादी, गांधीवादी और संघी विचारक हैं जो महात्मा गांधी की आखिरी वसीयत का हवाला देते हुए कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी को बहुत पहले ही भंग कर देना चाहिए था। लेकिन अब तो बहुत अनुकूल समय है। इन्हीं बातों को और क्रूर तरीके से पेश करते हुए भाजपा के चाणक्य और देश के गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं कि हम कांग्रेस मुक्त भारत बनाएंगे। लेकिन हम अगर जनवरी 1948 के अंतिम सप्ताह में कांग्रेस के कायाकल्प संबंधी गांधी के सुझाव को देखें तो पाएंगे कि गांधी का इरादा कुछ और था। वे भारतीय समाज से जातिवाद, सांप्रदायिकता और आर्थिक पिछड़ापन मिटाने के लिए कांग्रेस को सेवा का काम सौंपना चाहते थे। 

गांधी प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार और  `लीड काइन्डली लाइट’ जैसी उत्कृष्ट पुस्तक के लेखक विन्सेंट शीन से चर्चा कर रहे थे और अहिंसक लोकशक्ति के निर्माण की बात कर रहे थे। उसी समय उन्होंने कहा था कि सत्ता की राजनीति से अलग रह कर ही कांग्रेस भ्रष्टाचार और बल प्रयोग की राजनीति से बच सकती है। इस पर विन्सेंट शीन ने प्रश्न किया, `` जो लोग अहिंसा को मानते हैं वे अगर सरकार से अलग रहे तो सरकार बल प्रयोग से चलती रहेगी। तब वर्तमान शासन प्रणाली का कायापलट कैसे किया जाएगा? ’’  गांधी जी ने कहा,  `` इसीलिए मैंने कहा है कि जो आदमी हर हालत में अच्छा रहना और अच्छा काम करना चाहता है, उसे सत्तारूढ़ नहीं होना चाहिए। ’’ इस पर उनसे पूछा गया, `` तो क्या सरकार का सारा काम ही ठप हो जाए? ’’ 

गांधी जी ने उत्तर दिया,  `` नहीं। वह(अहिंसक मनुष्य)उन लोगों को सरकार में भेज सकता है, जो उनकी इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हों। यदि वह खुद सरकार में चला जाता है तो वह अपने को सत्ता के दूषित प्रभाव का शिकार बना लेता है। ’’ गांधी जी की यह बातें जटिल थीं और इसका अर्थ लोगों ने यही लगाया कि वे कांग्रेस को भंग करना चाहते हैं।


लेकिन उसी दिन गांधीजी ने हरिजन में लिखा, `` भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ..............जिसने कई अहिंसक लड़ाइयों  के बाद आजादी प्राप्त की है, मरने नहीं दिया जा सकता। वह केवल राष्ट्र के साथ ही मर सकती है।...कांग्रेस ने राजनीतिक आजादी तो प्राप्त कर ली है लेकिन उसे अभी आर्थिक आजादी, सामाजिक आजादी और नैतिक आजादी प्राप्त करनी है।’’ 

अपने आखिरी वसीयतनामा की भूमिका के अंतिम अंश में गांधी ने असैनिक और सैनिक सत्ता के बीच होने वाली वर्चस्व की लड़ाई का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है, `` लोकतांत्रिक लक्ष्य की ओर भारत की प्रगति में सैनिक सत्ता पर असैनिक सत्ता का वर्चस्व स्थापित होने की लड़ाई होना अनिवार्य है। इसलिए उसे(कांग्रेस को) राजनीतिक दलों और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ हानिकारक प्रतिस्पर्धा से बचना ही चाहिए।’’ 

गांधी के इस वसीयतनामे को उनकी प्रार्थना सभाओं में दिए गए सांप्रदायिक सद्भाव वाले भाषणों के साथ मिलाकर पढ़ा जाना चाहिए और उस पर बहस होनी चाहिए। कांग्रेस को यह देखना चाहिए कि उसका मौजूदा नेतृत्व और सांगठनिक ढांचा कौन सा काम करता है और कौन से काम के लिए उसे बाहर से लोगों को आमंत्रित करना चाहिए। 

गांधी को कांग्रेस की सदस्यता छोड़कर भी उसकी परवरिश की चिंता थी। वे संविधान बनाने के लिए कांग्रेस को लगातार कोसने वाले डा भीमराव आंबेडकर को भी आमंत्रित कर सकते थे। उनकी इस रचनात्मक दृष्टि से आज के कांग्रेस नेतृत्व को सीख लेनी चाहिए। आज कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने युवक कांग्रेस को कोराना काल में सेवा के काम में लगाया है। युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बी.वी श्रीनिवास जनता की सेवा में इस कदर मशगूल हैं कि उनसे इस देश के विदेश मंत्रालय के ईर्ष्या होने लगती है। 

जब वे आक्सीजन सिलेंडर की मदद देने न्यूजीलैंड के उच्चायोग और फिलीपींस के दूतावास पहुंच जाते हैं तो सरकारें इसे राजनयिक मुद्दा बना लेती हैं। लेकिन इससे यही प्रमाणित होता है कि राहुल गांधी सेवा का काम अच्छी तरह से करवा सकते हैं लेकिन राजनीतिक विकल्प देने में उनका डीएनए कमजोर है। उन्हें सत्ता में बैठने से ज्यादा संतोष लोगों के बीच में जाने से मिलता है। 

ऐसे में कांग्रेस समाज परिवर्तन और सेवा के साथ सत्ता की राजनीति के काम में विभाजन कर सकती है। वह सत्ता की राजनीति का जिम्मा ममता बनर्जी को देकर न सिर्फ अपना कायाकल्प कर सकती है बल्कि देश को बड़े खतरे से बचा सकती है। ऐसा करते हुए कांग्रेस परिवारवाद की राजनीति के कलंक से अपने को मुक्त भी कर सकती है और बड़ा काम भी कर सकती है। लेकिन इस दौरान अभी ममता बनर्जी को भी देशहित में अपने अहम और कार्यशैली में बड़ा बदलाव करना होगा। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। कांग्रेस को एक बार इस संभावना को आजमाना चाहिए।  

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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