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भारत
राजनीति
मुद्दा: …तो क्या ख़त्म हो जाएगी कांग्रेस?
ऐसे में कांग्रेस अपनी नए सिरे से खोज भी कर सकती है और इतिहास के क्रूर हाथों में अपना विनाश भी कर सकती है।
अरुण कुमार त्रिपाठी
19 Mar 2022
congress
फाइल फ़ोटो 

गांधी नेहरू परिवार में केंद्रित कांग्रेस के नेतृत्व और जी-23 की ओर से  सामूहिक और समावेशी नेतृत्व की मांग के साथ मिल रही चुनौतियों को देखकर लगता है कि कांग्रेस दोराहे पर खड़ी है। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने इस बात का उदाहरण पेश किया है कि कैसे मुट्ठी में बंद विजय को पराजय के मुंह में झोंक दिया जाता है। उसका नेतृत्व नासमझी और नकारात्मकता से भर गया है। ऐसे में वह अपनी नए सिरे से खोज भी कर सकती है और इतिहास के क्रूर हाथों में अपना विनाश भी कर सकती है।  लेकिन कांग्रेस को कुछ भी करने से पहले इकबाल का वह शेर याद रखना चाहिए--

मुत्तहिद हो तो बदल डालो जमाने का निजाम,

मुंतसिर हो तो मरो शोर मचाते क्यों हो।

इस समय कांग्रेस पार्टी की सच्चाई यह है कि नेहरू गांधी परिवार के बिना वह एक रह नहीं सकती और अगर वह इस परिवार के नेतृत्व में चलती रही तो एक दिन विलुप्त प्राय संगठन बन कर रह जाएगी। गांधी नेहरू परिवार के बलिदान और उसकी साख भारत के कुछ वामपंथी बौद्धिकों और कांग्रेस पार्टी के भीतर बची है लेकिन देश के अवाम में उसके प्रभाव का तेजी से क्षरण हुआ है। जब यह देश महात्मा गांधी के बलिदान को भुलाकर गोडसे को पूजने की तैयारी में है तो आप कल्पना कर सकते हैं कि मोती लाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी के योगदान को कौन महत्त्व देने वाला है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की सक्रियता से उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल जैसे प्रदेशों में यह संदेश तो जाता है कि कांग्रेस नाम की कोई पार्टी है लेकिन कुछ भी पूछने पर लोग कहते हैं कि कांग्रेस का कुछ बचा नहीं है।

इसे भी पढ़ें: कांग्रेस बनाम कांग्रेस : जी-23 की पॉलिटिक्स क्या है!

निश्चित तौर पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में बड़ी मेहनत की। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से एक दो रैलियां ज्यादा ही कीं। उनकी संवाद शैली अपने बड़े भाई और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से ज्यादा प्रभावशाली है लेकिन चुनाव परिणामों में वे भी नाकाम ही दिखीं। कांग्रेस पार्टी के पास 2017 में इस विशाल प्रदेश में 6 प्रतिशत वोट थे और कुल सात सीटें थीं। उस बार कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन भी था। लेकिन इस बार दो ध्रुवीय चुनाव हो जाने के कारण कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटकर महज 2.33% रह गया और उसकी सीटें भी इतिहास के सबसे निचले पायदान पर पहुंच गईं। यह संख्या भी सिर्फ़ 2 ही है। हालांकि प्रियंका गांधी ने एकदम नए विचार के साथ चुनाव प्रचार किया और `लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा देते हुए 40 प्रतिशत महिलाओं को टिकट दिया। यह अपने आप में अभिनव प्रयोग था लेकिन हिंदुत्व और मंडल के बीच विभाजित उत्तर प्रदेश की जनता ने उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। हालांकि इस प्रतिक्रिया से एक बात जाहिर हो गई कि महिलाओं का वोट स्वतंत्र रूप से नहीं जाता बल्कि वह भी जाति और धर्म के आधार पर ही बंटता है।

कांग्रेस के पुनरुद्धार या पुनर्जीवन के लिए जिन तीन मुद्दों पर चर्चा हो रही है और होनी चाहिए वे इस प्रकार हैं। पहला मुद्दा यह है कि कांग्रेस का नेतृत्व कैसे जनता से संवाद कायम करे और कांग्रेस के विचार का भारत के विचार के साथ तादात्म्य स्थापित करे ?  इस सवाल में नेतृत्व परिवर्तन, विचार मंथन और संवाद शैली सभी शामिल हैं।

दूसरा सवाल है कि कांग्रेस पार्टी समाज के किस तबके पर अपना ध्यान केंद्रित करे और किसके साथ भावनात्मक रिश्ता कायम करे?  मंदिर और मंडल के माध्यम से बने विभिन्न पार्टियों के जनाधार के बीच कांग्रेस का जनाधार आखिर समाज के किस हिस्से में बन सकता है ?

तीसरा सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी अपने राजनीतिक प्रयासों को आगामी राज्यों के चुनावों पर केंद्रित करे या वह 2024 के अखिल भारतीय चुनावों पर केंद्रित करे? इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों से होने वाले हित टकरावों को छोड़कर राष्ट्रीय गठजोड़ बनाए या फिर राज्यों के आधार पर अपने को संगठित और व्यवस्थित करे ?

कांग्रेस के नेतृत्व, उसके विचार और संवाद शैली के बारे में कुछ बातें स्पष्ट होती जा रही हैं। कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के रूप में उसका नेतृत्व जो कुछ बोल रहा है या जिस तरह का राजनीतिक हाव भाव दिखा रहा है वह उसका मौलक नहीं है। वह भाजपा और संघ की प्रतिक्रिया में वैसा कर रहा है। इसलिए उसका संवाद और बर्ताव या तो लोगों को भाजपा और उसके नेता मोदी की नकल जैसा लगता है या फिर समझ से परे हो जाता है। राहुल गांधी के मंदिरों में जाने और मोदी के हिंदुत्व से होड़ करने पर आनंद शर्मा ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में आपत्ति जताते हुए कहा भी कि उन्हें गंगा आरती में भागीदारी करके नरम हिंदुत्व ओढ़ने का प्रयास नहीं करना चाहिए था। लेकिन इसी के साथ दूसरा मामला 2 फरवरी को लोकसभा में दिए गए उनके भाषण पर चर्चा होनी चाहिए।

उस भाषण में आर्थिक बदहाली, बढ़ती गैर बराबरी और सहकारी संघवाद पर बहुत सार तथ्य और आक्रामक तर्क  थे। लेकिन राहुल गांधी ने भारत के राष्ट्र होने की अवधारणा को खारिज करके अपनी पार्टी को फिर संदेह के कठघरे में खड़ा कर दिया। भारत राज्यों का संघ है या एक राष्ट्र, इस सवाल पर बहुत सारा विमर्श हो सकता है और इसके भीतर राज्यों को स्वायत्तता देने की बहस छुपी हुई है। इसके भीतर उपराष्ट्रीयताओं की वास्तविकता भी मौजूद है। लेकिन अगर नेशन की अवधारणा को कांग्रेस के नेता खारिज करते होते तो न तो वे अपनी पार्टी का नाम इंडियन नेशनल कांग्रेस रखते और न ही राष्ट्रीय आंदोलन को इतना व्यापक फलक दे पाते। राहुल गांधी का वह भाषण नरेंद्र मोदी की तानाशाही पर हमला करने के प्रयास में कांग्रेस पार्टी की सोच और राष्ट्रीय आंदोलन की व्यापक सोच से ही टकराता दिखता है। जिसने भी उस भाषण को लिखा या उसके सूत्र दिए वह या तो स्वाधीनता संग्राम की राष्ट्रवादी चेतना से अनभिज्ञ है या उससे असहमत है। राष्ट्र में बहुत सारी बुराइयां हैं लेकिन आज मानव सभ्यता की अनिवार्य बुराई और व्यवस्था के रूप में वह मौजूद है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीयता और शांति सद्भाव के विचारों की वाहक सबसे बड़ी संस्था का नाम भी संयुक्त राष्ट्र यानी यूनाइटेड नेशन्स ही है।

कांग्रेस को बहुत दिनों से यह सलाह दी जा रही है कि वह राष्ट्रवाद का झंडा संघ परिवार के हाथों से छीन ले क्योंकि वे फर्जी लोग हैं। लेकिन अपनी समृद्ध विरासत और सोच के बावजूद वह वैसा नहीं कर पा रही है तो निश्चित तौर पर उसके भीतर गांधी, नेहरू, सुभाष, पटेल और मौलाना आजाद जैसे महापुरुषों के विचारों का मंथन नहीं चल रहा है। गांधी ने प्रादेशिक राष्ट्रीयता की अवधारणा पेश की थी। जिसमें उनका कहना था कि जो भी इस देश में पैदा हुआ है वह भारत का नागरिक है और उस पर किसी तरह का संदेह नहीं किया जाना चाहिए। चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान। जबकि जवाहर लाल नेहरू ने कहा था इस देश की जनता ही असली भारत माता है। लेकिन कांग्रेस यह मान कर बैठ गई कि लोग इन विचारों से अवगत हैं। जबकि भाजपा और संघ परिवार अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और धर्म आधारित नागरिकता को निरंतर प्रचारित करते रहते हैं।

राहुल गांधी की दूसरी दिक्कत यह है कि वे हिंदी में असरदार संवाद नहीं कायम कर पाते। वे जो भी खास बातें करते हैं अंग्रेजी में करते हैं। उनकी बात को अंग्रेजी के बुद्धिजीवी सुनते और उस पर अंग्रेजी में ही टिप्पणी करते हैं। वह जनता तक पहुंचते पहुंचते और भी दुरूह हो जाती है। उनकी तुलना में संघ परिवार और भाजपा के नेता सीधे जनता की भाषा में संवाद करते हैं। वे निर्गुण प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि सगुण रूपकों का प्रयोग करते हैं। उधर कांग्रेस पार्टी की निर्विवाद नेता और उसे जोड़कर रखने में प्रमुख भूमिका निभाने वाली सोनिया गांधी तो हिंदी बोलती ही नहीं। उन सब की तुलना में प्रियंका गांधी का संवाद ज्यादा समझ में आने वाला है। इसलिए कांग्रेस को नरेंद्र मोदी की संवाद शैली का मुकाबला करने के लिए किसी एक नेता को आगे करने की बजाय नेताओं के एक मंडल को आगे करना चाहिए। यहीं पर सामूहिक नेतृत्व की ज्यादा उपयोगिता होगी। नरेंद्र मोदी के उभरने से पहले भाजपा भी सामूहिक नेतृत्व के आधार पर ही चल रही थी।

दूसरा बड़ा सवाल यह है कि आखिर कांग्रेस को वोट कौन देगा?  वह कौन सा तबका है जिससे कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का भावनात्मक रिश्ता कायम होगा ? कांग्रेस का जनाधार सवर्ण, अल्पसंख्यक और दलितों के बीच मजबूत रहा है। इसके बावजूद कांग्रेस को समाज के सभी लोग वोट देते रहे हैं। उसकी एक अखिल भारतीय भावनात्मक अपील रही है। नेहरू के कांग्रेस की तो बात ही अलग थी क्योंकि वह स्वाधीनता संग्राम से निकली थी, उसे महात्मा गांधी का आशीर्वाद था और गांधी की हत्या के बाद लंबे समय तक उससे उपजी सहानुभूति भी कांग्रेस के साथ रही। इसके अलावा पंडित नेहरू स्वयं देश के नायक थे। इंदिरा गांधी ने 1971 का चुनाव गरीबी हटाओ के नारे के साथ जीता, तो 1980 का चुनाव `जात पर न पांत पर मुहर लगेगी हाथ पर’ वाले नारे के साथ जीता। उसके बाद कांग्रेस ने अगला चुनाव उनकी हत्या से उपजी सहानुभूति और `जब तक सूरज चांद रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा’ के नारे पर जीता। 1991 के चुनाव में कांग्रेस जब सत्ता में आई तब उसके साथ राजीव गांधी की हत्या की सहानुभूति थी जिसे दक्षिण भारत ने वोटों के रूप में प्रदर्शित किया।

लेकिन तब तक मंडल और मंदिर आंदोलन की लकीरें भारतीय राजनीति में खिंच चुकी थीं। इन दोनों आंदोलनों और इन्हीं की पृष्ठभूमि में हुए कांशीराम के बहुजन आंदोलन ने कांग्रेस के जनाधार को तेजी से खिसका दिया। अब कांग्रेस के पास सिर्फ बिल्लियों के झगड़े में बंदर की भूमिका बची थी। उसने जनता को यह संदेश दिया कि मंडल और मंदिर का आंदोलन करने वाले झगड़ा करके देश की अर्थव्यवस्था को डुबो देंगे। इसलिए अगर लोगों को तरक्की करना है तो कांग्रेस की ओर देखना होगा। इस तरह कांग्रेस ने मध्यवर्ग और शांति चाहने वाले समाज के विभिन्न हिस्सों में अपना आधार ढूंढा और उससे न सिर्फ 1991 से 1996 तक सरकार चलाई बल्कि 2004 से 2014 तक भी उसी के भरोसे दस साल तक देश पर शासन किया।

अब मंडल और मंदिर दोनों प्रभावों को भाजपा अपने भीतर समेट चुकी है। भले ही मंडल और पूर्व मंडल के आधार पर खड़ी हुई और उप राष्ट्रीयता के आधार पर उभरी कुछ पार्टियां और शक्तियां देश के अलग अलग हिस्सों में भाजपा के मार्ग  में अवरोधक बन कर खड़ी हुई हैं लेकिन भाजपा ने कर्नाटक से लेकर उत्तर भारत के व्यापक हिस्से को अपने प्रभाव में ले लिया है। छत्तीसगढ़ से लेकर मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भले ही कांग्रेस अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हो लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे विशाल राज्यों में कांग्रेस का सामाजिक आधार छीज गया है। भले ही उत्तर प्रदेश में सवर्ण समाज के लोग प्रियंका गांधी को देखकर कहते थे कि आने वाला कल कांग्रेस का है लेकिन यह खयाल कैसे जमीन पर उतरेगा इस बारे में किसी के पास कोई सूत्र नहीं है।

सामाजिक न्याय की पार्टियां और हिंदुत्व वाली भाजपा ने अपना जो भी आधार बनाया है उसके लिए पिछले तीस सालों में आंदोलन चलाए हैं। उसके विपरीत कांग्रेस पार्टी ने आजादी के बाद कोई आंदोलन चलाया ही नहीं। वह आंदोलनों में पिछलग्गू भले रही हो लेकिन उसके खाते में चुनाव जीतना और सरकार चलाने के अलावा कोई बड़ी राजनीतिक गतिविधि नहीं रही है। बल्कि उस पर आरोप भी यही है कि वह चुनाव के समय ही सक्रिय होती है। इसलिए अगर कांग्रेस को अपने को पुनर्जीवित करना है तो सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए अखिल भारतीय आंदोलन चलाना ही होगा। वह किसानों के एमएसपी का मुद्दा भी एक राजनीतिक दल के रूप में उठाकर आंदोलन कर सकती है।

यहीं पर यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस गुजरात और हिमाचल जैसे प्रदेशों में चुनाव जीतकर अपने को पुनर्जीवित कर सकती है ?  संभव है कि इससे कांग्रेस के भीतर एक आत्मविश्वास पैदा हो और वह आगे ज्यादा सकारात्मक नजरिए से काम करे। उससे कांग्रेस को कहीं पैर टिकाने का मौका मिल सकता है और संसाधन भी उपलब्ध हो सकते हैं। लेकिन इसी के साथ वह निश्चिंत भी हो सकती है और उसकी वही दशा हो सकती है जो 2018 में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव जीतने के बाद 2019 के आम चुनावो में हुई थी। इसलिए कांग्रेस को जो भी करना चाहिए वह राष्ट्रीय स्तर का लक्ष्य रखकर ही करना चाहिए।

आज भारतीय राजनीति नब्बे के दशक की तरह राज्यों की ओर केंद्रित नहीं है। वह राज्यों से केंद्र की ओर आ चुकी है। यह सही है कि कांग्रेस और भाजपा में अगर लोकसभा की सीटों का छह गुने का फर्क है तो वोटों और वोट प्रतिशत में दो गुने का अंतर है। आज भाजपा के पास 303 सीटें हैं तो कांग्रेस के पास महज 52 सीटें हैं। लेकिन वोटों के लिहाज से देखें तो अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस के पास करीब 11 करोड़ वोट हैं जबकि भाजपा के पास तकरीबन 22 करोड़। कांग्रेस का वोट प्रतिशत 19.5 है तो भाजपा का 37.4

यह जानना रोचक है कि उत्तर प्रदेश का दलित और मुस्लिम मतदाता आज कांग्रेस के प्रति वैसी नाराजगी नहीं रखता जैसी नब्बे के दशक में रखता था। बहुजन समाज पार्टी के कमजोर पड़ने के साथ दलित मतदाता राष्ट्रीय स्तर पर भले भाजपा के पास जा रहा हो लेकिन उसे वह अपनी स्वाभाविक जगह नहीं मानता। कांग्रेस चाहे तो मल्लिकार्जुन खडगे जैसे दलित नेता को आगे करके उन मतदाताओं को अपने पाले में ला सकती है। वह अपने आख्यान में गांधी के साथ आंबेडकर को भी शामिल करके उनके मध्यवर्ग को भी आकर्षित कर सकती है। जहां तक अल्पसंख्यकों यानी मुस्लिम समुदाय का सवाल है तो भले ही उसने राज्य के स्तर पर समाजवादी पार्टी को वोट दिया है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में देखता है। वह अपने घरों पर सपा के झंडे की बजाय कांग्रेस का झंडा लगाने में ज्यादा सहज महसूस करता है।

फिलहाल कांग्रेस का रास्ता आसान नहीं है। लेकिन कांग्रेस अगर अपने अहंकार को छोड़कर तमाम विपक्षी दलों को महत्व दे और व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन के साथ सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त करने की तैयारी करे तो वह लोकतंत्र और भारत के विचार को को बचाने की ऐतिहासिक भूमिका निभा सकती है।    

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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