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भारत
राजनीति
संविधान दिवस विशेष : संविधान पर हमले की लंबी फेहरिस्त
मौजूदा सरकार जिस विचारधारा के तहत काम करती है उस विचारधारा का मौजूदा संविधान में कोई बहुत विश्वास नहीं है। इसलिए मौजूदा सरकार से जुड़े सभी विचार स्वतंत्रता ,समानता और न्याय की बात तो करते हैं लेकिन उनमें हिन्दू वर्चस्व यानी बहुसंख्यकवाद की भावना का भरमार रहती है।
अजय कुमार
26 Nov 2019
constitution of india
Image courtesy: Jansatta

भाजपा के शासन के पक्ष-विपक्ष में बहुत सी बातें हैं। सरकार की कार्यशैली और फ़ैसलों को लेकर कई गंभीर सवाल हैं। लेकिन जब यह कहा जाता है कि सरकार संविधान की हत्या कर रही है तो बहुत अधिक डर लगता है, चिंता होती है। क्या वाकई में ऐसा है?

किसी देश का संविधान उस देश की सबसे ज़रूरी और पवित्र किताब होती है। जिसके सहारे वह देश अपने समाज को वह शक्ल दे पाता है, जिसे जिंदगी जीना कहते हैं। आसान शब्दों में ऐसे समझिये कि अगर किसी देश में नियमों और कानूनों से सजा एक दस्तावेज़ न हो तो उस देश को चलना नामुमकिन हो जाएगा। चूँकि नियम और कानून ऐसे होते हैं, जिससे पूरे देश को नियंत्रित किया जा सके, पूरे देश की जिसपर आम सहमति हो, इसलिए नियम- कानून का स्रोत वैसे मूल्य होते है जो न्यायपूर्ण हों, सदाबहार हों, सनातन हों, सार्वभौमिक हों।

ऐसे मूल्यों का उल्लेख संविधान के प्रस्तावना में दिखता है। भारत की प्रस्तावना सभी व्यक्तियों के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय की बात करती है। और संविधान बनने से लेकर अब तक हर बार इन्हीं मूल्यों के इर्द-गिर्द भारत के संविधान में संशोधन किया गया है। इसी आधार पर नागरिक उम्मीद करते हैं कि सरकार उनपर शासन प्रशासन करेगी। अगर सरकार और लोगों या लोगों के बीच आपस में कोई भी अड़चन आएगी तो न्यायपालिक संविधान को आधार मनाकर न्याय करेगी।

चूँकि राज्य की सम्प्रभुता सरकारों में निहित होती है इसलिए सरकारें उन नियम कानूनों को सबसे अधिक प्रभावित करती हैं जिससे वह नियंत्रित हो सकती हैं, इसलिए सरकार और संविधान की धक्का-मुक्की चलती रहती है। लेकिन जब संख्या की लिहाज से किसी एक दल से बनी हुई मजबूत सरकारें होती हैं तब यह धक्का - मुक्की हर रोज चलती रहती है और कभी कभार तो ऐसा होता है कि सरकारें  संविधान की बिलकुल भी परवाह न करके अपनी मनमानी करती हैं।  

जैसा कि इस समय महाराष्ट्र के मामलें में हुआ। और पहले अरुणाचल प्रदेश, कर्नाटक और गोवा के सरकार बनाते समय हो चुका है। सरकार बनाने के संदर्भ में राज्यपाल अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमे समानता और न्याय की बजाय पक्षपाती मूल्य दिखाई दे रहे हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल के हर एक कदम नियम-कानूनों के तहत भले उचित ठहरा दिए जाए लेकिन संवैधानिक भावनाओं के  अनुरूप नहीं हैं।  सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से भी इस संदर्भ में बहुत कुछ साफ हो जाता है।

मोदी सरकार पर लगातार ये आरोप है कि उसने अपने शासनकाल में संविधान से बहुत अधिक खिलवाड़ किया है। संसद, सुप्रीम कोर्ट, गवर्नेंस सिस्टम, लोकतान्त्रिक चुनाव, निगरानी करने वाली संस्थाएं जैसे कि सीबीआई, चीफ विजलेंस कमिश्नर, चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं सभी की प्रक्रियाओं में इस तरह से हेरफेर किया गया जिससे सत्ता में मौजूद पार्टी को फायदा हो। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह तो है ही कि भाजपा की सरकार संख्या बल में  बहुत अधिक मजबूत है। साथ में यह भी कहा जाता है कि मौजूदा सरकार जिस विचारधारा के तहत काम करती है उस विचारधारा का मौजूदा संविधान में कोई बहुत विश्वास नहीं है। इसलिए मौजूदा सरकार से जुड़े सभी विचार स्वतंत्रता ,समानता और न्याय की बात तो करते हैं लेकिन उनमें हिन्दू वर्चस्व यानी बहुसंख्यकवाद की भावना का भरमार रहती है। इसलिए सभी विचार शाब्दिक रूप से ठीक-ठाक होते हुए भी ऐसे नहीं होते जो पूरे हिन्दुस्तान की आत्मा को शामिल करते हों। जैसे कि नागरिकता संशोधन अधिनियम, जिसमें धर्म के आधार पर अलगाव की बात की जा रही है।  

अभी हाल में गुजरा अयोध्या का मामला। जिसमें मिले न्याय को पढ़कर कोई भी कह सकता है कि न्याय पूरी तरह संविधान की भावना के तहत नहीं हुआ। कहा जा रहा है कि न्यायालय ने  बहुसंख्यकवाद के प्रभाव में आकर न्याय दिया।

अयोध्या मामले पर आया फैसला भाजपा सरकार में संविधान की बजाय बहुसंख्यकवाद से संचालित होने के प्रभाव को दिखाता है। इस तरह जब न्यायालय पर भी बहुसंख्यकवाद के प्रभाव में आने का आरोप लग जाए तो इसका मतलब है कि देश के माहौल को बहुत अधिक बदला जा चुका है।  इसमें सबसे बड़ी भूमिका सरकार ने निभाई है। जैसे कि भीड़ हिंसा, गौ हत्या, हिन्दू राष्ट्र की धमक। इन सबको सुलटाने की बजाय सरकार के प्रशासनिक विभाग ने लापरवाही रवैया अपनाया। ऐसे में भले पता न चलता हो लेकिन संविधान पर हर रोज हमला होता रहता है। क्योंकि सरकारें कानून के नियम की बजाय बहुसंख्यक जनता को ध्यान में रखकर काम करती रहती हैं।  

साल 2018 में संसद के सदन में बिना किसी प्रभावी बहस के बहुत सारे बिलों को कानून में तब्दील कर दिया गया। साल 2018 में चीफ जस्टिस के ख़िलाफ़ महाभियोग का मामला आया। लेकिन बिना किसी उचित सुनवाई के राज्यसभा के सभापति ने यह मामला खारिज कर दिया। मनमानी काम करने के लिए अध्यादेश पर अध्यादेश लाये गए। साल 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन के लिए भी अध्यादेश लाया गया लेकिन किसानों के दबाव की वजह से सरकार ने इसे  वापस ले लिया। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में राज्यसभा सीट के बंटवारे के लिए अध्यादेश लाया गया। कोयले की फिर से नीलामी के लिए अध्यादेश लाया गया। ये सब ऐसे मामले थे जिसमें संसद में प्रभावी बहस होने की जरूरत थी। लेकिन नहीं हुई।  इसमें सबसे बड़ा मामला कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने से जुड़ा मामला है। यह मामला तो संसद के आधारभूत नियमों पर हमला करता है।  इतने बड़े परिवर्तन के लिए अचानक से बिल आता है और अचानक से सब कुछ बदल दिया जाता है। 

भाजपा के शासन काल में ही भारत के संवैधानिक इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर न्यापालिका पर कई तरह के ख़तरों से आगाह किया। जजों ने कहा कि कोर्ट में केसों के बंटवारा सही ढंग से नहीं हो रहा है। इसमें पक्षपाती रवैया अपनाया जा रहा है। कॉलेजियम से जजों की नियुक्ति में ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिसमें सरकार मनमाना रवैया अपना रही है। जबकि नियम यह होता है कि कोलेजियम जिस जज की नियुक्ति की सलाह देता है उसे एक बार मनाही के बाद दूसरे बार मानना पड़ता है। न्यूज़क्लिक के इंटरव्यू में वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप छिब्बर यह बताते हैं कि किस तरह से जजों की नियुक्ति में सरकारी मनमानी रवैया काम करता है।  

आरबीआई और सरकार के बीच का विवाद तो जगजाहिर है। कैसे आरबीआई से बिना पूछे नोटबंदी जैसा भयानक कदम उठाया गया? कैसे आरबीआई के दो अध्यक्षों रघुराम राजन और उर्जित पटेल को आरबीआई में सरकार की दखलअंदाजी की वजह से इस्तीफ़ा देना पड़ा? सीबीआई के दो निदेशकों आलोक वर्मा और अस्थाना के मामलें में सरकार ने संविधान को ताक पर रखकर हस्तक्षेप किया।  कई ऐसे मामले हैं जहां पर सरकार ने प्रवर्तन निदेशालय से लेकर रेवेन्यू इंटेलिजेंस का इस तरह से इस्तेमाल किया जहां पर उसका फायदा हो। रफ़ाल और अडानी का कोयला आयात का मामला जगजाहिर है। इसके अलावा सूचना के अधिकार कानून को सरकार ने कमजोर बना दिया है ताकि उसकी कारगुजारियां सामने न आएं।

इसके बाद अभी हाल-फिलाहल में चुनावी बॉन्ड पर छपी नितिन सेठी की रिपोर्ट बताती है कि किस तरह से सरकार ने किसी भी संवैधानिक संस्था की राय को नहीं माना। इलेक्टोरल बॉन्ड को लागू करवाने के लिए आरबीआई से लेकर चुनाव आयोग की किसी भी तरह के विरोधों को नहीं माना। हर संस्था के मुखर विरोध को नकार दिया। केवल इसलिए कि पारदर्शिता के नाम पर एक ऐसा नियम बन जाए, जिससे केवल भाजपा की कमाई हो। केवल उसकी कमाई हो जो सत्ता में मौजूद है। नितिन सेठी की रिपोर्ट बताती है कि मौजूदा सरकार को अपनी सत्ता के सिवाय किसी भी बात की चिंता नहीं है। चाहें संविधान के साथ कुछ भी क्यों न हो ?

चुनावी पारदर्शिता के मामले पर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफार्म के अध्यक्ष जगदीप छोकर कहते हैं कि इस सरकार ने बजट में प्रस्तुत किये जाने वाले मनी बिल का चोर दरवाजे के लिए उपयोग किया है। इसी का उपयोग कर यह सरकार आधार बिल लेकर आयी थी।  इस सरकार ने मनी बिल का बहुत अधिक गलत तरह से इस्तेमाल किया।  

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