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भारत
राजनीति
भारत में संसदीय लोकतंत्र का लगातार पतन
चूंकि भारत ‘अमृत महोत्सव' के साथ स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का जश्न मना रहा है, ऐसे में एक निष्क्रिय संसद की स्पष्ट विडंबना को अब और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
सौम्यदीप चटर्जी
27 May 2022
Parliament

संसद भवन के गेट से कोई व्यक्ति जैसे ही उसके अहाते में दाखिल होता है, उसे वहां डॉ.बी.आर.आम्बेडकर की प्रतिमा अंडाकार संरचनाओं-संसद का पुस्तकालय भवन, एनेक्सी भवन और मुख्य भवन-संसद भवन-के गलियारों के सामने से देखती मिलती है। संसद की दीवारों पर पोस्टरों एवं फ्लेक्सों की भरमार देखता है, जो संसद भवन आने वाले हरेक से चीखते हुए “आजादी के अमृत महोत्सव” के नारे लगाता मालूम होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष को देश की सर्वोच्च विधायी संस्था संसद में सम्मानपूर्वक मनाया ही जाना चाहिए।

हालांकि, जो लोग पिछले कुछ वर्षों से बिल्कुल करीब से संसद के कामकाज को देख रहे हैं, उनके लिए संसद भवन के भीतर इस गर्वपूर्ण महोत्सव को मनाए जाने की क्रूर विडंबना दिख जाती है। इसलिए कि देश में अगर कोई एक संस्था है, जिसकी हैसियत में हाल के वर्षों में सबसे अधिक कतर-ब्योंत की गई है और उसकी सक्रियता में कटौती की गई है, तो वह हमारी संसद है। हालांकि यह एक ऐसा आरोप है, जिसे विपक्षी राजनीतिक दल के सदस्यों ने सत्ता पक्ष पर अनगिनत बार लगाया है। लेकिन हमें इसकी राजनीति में जाए बिना, संसद के हालिया कामकाज से संबंधित कुछ आंकड़ों पर एक नज़र डालना सार्थक होगा, जिससे कि विपक्ष के उस दावे की सचाई जानी जा सके। इस लेख में इस्तेमाल किए गए सभी आंकड़े, जिसमें कुछ ही बाहर से लिए गए हैं, केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा पिछले महीने ही प्रकाशित सांख्यिकीय हैंडबुक 2021 से लिए गए हैं।

15वीं लोकसभा (2009 -14) में संसदीय समितियों को भेजे गए बिलों का प्रतिशत 71 प्रतिशत से घटकर 16वीं लोकसभा (2014 -19) में 27 प्रतिशत हो गया है, और 2019 के बाद से यह तादाद महज 13 प्रतिशत के आसपास रह गई है।

संसदीय समितियां: ये वे होती हैं, जहां हमारी संसद किसी विधेयक के सदन के पटल पर रखे जाने से पहले उससे जुड़े सभी मुद्दों पर विचार-विमर्श करती है और हितधारकों के साथ उचित सलाह-मशविरा करती है। संसद इन्हीं समितियों के जरिए भी अपना बहुत सारा कामकाज करती है। जब कोई बिल किसी समिति को भेजा जाता है तो वहां उसकी जांच की जाती है, उस पर सभी संबंधित हितधारकों से राय मांगी जाती है और इस तरह के सभी विचारों पर फिर से विचार करते हुए एक उचित रिपोर्ट बनाई जाती है। ज्यादातर मामलों में, हमारी संसदीय समितियों का कामकाज बंद दरवाजे में और सार्वजनिक निगाहों से बचते हुए किया जाता है, जिस वजह से वह पक्षपातरहित और तथ्यात्मक रहा है।

गैर-लाभकारी संगठन पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार, 15वीं लोकसभा (2009 -14) में समितियों को भेजे गए विधेयकों का प्रतिशत जहां 71 प्रतिशत था, वह 16वीं लोकसभा (2014 -19) में घटकर 27 प्रतिशत रह गया। 2019 से अब तक उसकी तदाद केवल 13 प्रतिशत रह गई है।

अध्यादेश को बढ़ावा देना : हमारे संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार किसी मामले अध्यादेश लाने का प्रावधान केवल तभी लागू होता है, जब उसमें "तत्काल कार्रवाई" का तकाजा होती है। कहने की जरूरत नहीं है, इस प्रावधान का अत्यधिक दुरुपयोग किया गया है। 2004 और 2014 के बीच कुल 61 अध्यादेश पारित किए गए थे-औसतन प्रति वर्ष लगभग छह अध्यादेश लाए गए थे। परंतु 2014 के बाद के आठ वर्षों में 80 से अधिक अध्यादेश लाए गए हैं, जो प्रति वर्ष लगभग 10 होते हैं।

2004 और 2014 के बीच कुल 61 अध्यादेश पारित किए गए थे-औसतन प्रति वर्ष लगभग छह अध्यादेश लाए गए थे। 2014 के बाद के आठ वर्षों में 80 से अधिक अध्यादेश पारित किए गए हैं, जो प्रति वर्ष औसतन लगभग 10 होते हैं।

उपर्युक्त मुद्दे सरकारी विधेयकों और सरकारी कामकाज से संबंधित हैं, लेकिन संसद का दायरा इससे कहीं अधिक बड़ा है। इसे कार्यपालिका के कामकाज पर निगरानीकर्ता के रूप में काम करना चाहिए। इस जवाबदेही के सही तरीके से पालन सुनिश्चित करने के लिए संसद सदस्यों को कई संसदीय उपकरण दिए गए हैं। आइए देखते हैं कि वर्तमान सरकार इस जवाबदेही को बनाए रखने की अनुमति देने के मामले में कितनी निष्पक्ष है:

अल्पावधि की चर्चा कराना : लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन नियम 193 के तहत और राज्यसभा में नियम 176 के तहत अल्पावधि चर्चाएं होती हैं, जिनमें राष्ट्रीय/सार्वजनिक महत्त्व के तत्कालिक मामले दोनों सदनों में उठाए जाते हैं। इस चर्चा का ज्यादातर उपयोग विपक्षी सदस्यों द्वारा किया जाता है-हालांकि सत्ता पक्ष के लोग भी इस दौरान सरकार से किसी मसले पर अपने प्रश्न पूछ सकते हैं, वे पूछते भी हैं-जो अपने सवालों के जरिए सरकार को बैकफुट पर डाल सकते हैं।

14वीं (2004 -09) और 15वीं लोकसभा (2009 -14) में कुल 113 मसलों पर अल्पावधि में चर्चाएं की गईं। 16वीं (2014-19) और 17वीं (2019 वर्तमान) लोकसभा में इसकी तादाद घटकर 42 रह गई है।

ध्यानाकर्षण: यह एक अन्य महत्त्वपूर्ण संसदीय उपकरण है, जिसके जरिए कोई भी सदस्य सार्वजनिक महत्त्व के तात्कालिक मामलों को उठा सकता है और संबंधित मंत्री का ध्यान उस तरफ आकर्षित कर सकता है और मंत्री को उस सदस्य द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं का जवाब देना होता है। 14वीं और 15वीं लोकसभा में 152 ध्यानाकर्षण नोटिस जारी करने की अनुमति दी गई थी।16वीं और17वीं लोकसभा में यह संख्या घटकर 17 रह गई।

आधे घंटे की चर्चा : लोकसभा संचालन की नियमावली के नियम 55 एवं राज्यसभा नियमावली के नियम 60 के तहत, किसी प्रश्न के दिए गए उत्तर पर एक सदस्य द्वारा आधे घंटे तक चर्चा की जा सकती है, यदि सदस्य को लगता है कि मंत्री द्वारा दिए गए जवाब पर और अधिक स्पष्टीकरण की या चर्चा की आवश्यकता है। 14वीं और 15वीं लोकसभा में इस तरह की 21 चर्चाएं हुईं। 2014 के बाद तो इसके तहत केवल पांच ही चर्चाएं हुईं।

14वीं (2004 -09) और 15वीं लोकसभा (2009 -14) में अल्पावधि की कुल 113 चर्चाएं हुईं।16वीं एवं 17वीं लोकसभा (2009 से जारी) में इसकी संख्या घटकर 42 रह गई।

आश्वासनों पर क्रियान्वयन : सदन के पटल पर किसी सांसद द्वारा उठाए गए मुद्दे पर मंत्री को आश्वासन देना होता है-कि माननीय सदस्य द्वारा उठाई गई समस्या का हल किया जाएगा और इस दिशा में आवश्यक कार्रवाई की जाएगी। इसके तहत, 2004 और 2014 के बीच दिए गए 99.38 प्रतिशत आश्वासन लागू किए गए थे। 2014 के बाद,इसमें 79 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई। 2021 में तो सबसे कम 30 प्रतिशत आश्वासनों को ही पूरा किया गया है,जो रिकार्ड है।

इन सभी युक्तियों-उपकरणों का उपयोग विपक्ष के सदस्यों द्वारा सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने के लिए किया जाता है। लेकिन ये सभी उपकरण उसी रूप में काम नहीं कर रहे हैं, जैसे कि विवेच्य अवधि के पहले करते थे। यह दिखाता है कि विपक्ष की किसी भी आलोचना या खिंचाई के मौके का जानबूझकर दमघोंटा जा रहा है।

उपाध्यक्ष का पद खाली: स्वतंत्रता के बाद से ऐसा पहली बार है जब लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद लगभग तीन साल से खाली पड़ा है। परम्परा के मुताबिक लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद विपक्ष के सदस्य को दिया जाता है। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि आंध्र प्रदेश की युवाजना श्रमिका रायतू कांग्रेस पार्टी को इस पद की पेशकश की गई थी, लेकिन उसने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने की उसकी मांग पूरी होने तक इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। अन्य खबरों में दावा किया गया कि बीजू जनता दल को इस पद की पेशकश की गई थी, लेकिन ओडिशा विधानसभा में इसके और भारतीय जनता पार्टी के बीच बढ़ते वैमनस्य के बीच उसे यह पद नहीं दिया गया। अधिकांश अन्य विपक्षी दल (इन दो दलों और अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम एक सांसद वाली पार्टी को छोड़कर) सरकार का अधिक आक्रामकता से आलोचना कर रहे हैं। इससे यह सवाल उठता है:  कि क्या सदन के कामकाज के संचालन पर अधिक अनुकूल पकड़ रखने के लिए सरकार जानबूझकर इस पद को खाली रखी हुई है?

14वीं और 15वीं लोकसभा में 152 ध्यानाकर्षण नोटिस जारी करने की अनुमति दी गई थी। 16वीं और 17वीं लोकसभा में यह संख्या घटकर 17 रह गई।

प्रेस को दाखिल होने देने से इनकार : यदि कोई संसद भवन की पहली मंजिल पर बनी अंडाकार बालकनी में घूमते हुए, लॉन पर इसके सामने लगी महात्मा गांधी की प्रसिद्ध प्रतिमा का देखते आगे बढ़ता है तो वह संसद में बने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के दफ्तर के कमरे के सामने अपने को खड़ा पाएगा। एक बार फिर विडंबना यही है कि सत्र के दौरान संसद परिसर में पत्रकारों को दाखिल होने देने से इनकार किया जा रहा है। कई लोगों ने मीडिया पर इस तरह के प्रतिबंध का विरोध किया है। डॉ. आम्बेडकर की तरह महात्मा गांधी की प्रतिमा भी यह सब देख रही है।

14वीं और 15वीं लोकसभा में इस तरह की 21 चर्चाएं हुईं। 2014 के बाद तो इसके तहत केवल पांच ही चर्चाएं हुईं।

हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिनका आजकल हर मामले में उपहास और तिरस्कार का एक रिवाज हो गया है, खुद वे अनुकरण करने योग्य उत्कृष्ट सांसद थे, जिन्होंने लोकतांत्रिक संस्था को उचित सम्मान दिया। वे नियमित रूप से संसद के सत्रों में भाग लेते और प्रश्नकाल के दौरान भी मौजूद रहते थे, तब भी जब उनके मंत्रालयों से संबंधित सवाल नहीं पूछे जाते थे या उस पर चर्चा नहीं हो रही होती थी। संविधान सभा में नेहरू ने कहा था, “…हम विश्व मंच पर काम कर रहे हैं, और हम पर विश्व की नजर है, और हमारे पूरे अतीत की नजर हम पर है। हमारा अतीत इस बात का चश्मदीद है कि हम यहां क्या कर रहे हैं और यद्यपि भविष्य अभी भी अजन्मा है, फिर भी वह हमारी तरफ किसी न किसी तरह देखता है।”

2004 और 2014 के बीच दिए गए 99.38 प्रतिशत आश्वासनों को पूरा किया गया था। 2014 के बाद, इसमें 79 प्रतिशत तक की गिरावट आई है। 2021 में तो सबसे कम 30 प्रतिशत आश्वासनों को ही पूरा किया गया है, जो कि एक रिकार्ड है।

नेहरू जिस भविष्य की बात कर रहे हैं, दरअसल हमहीं वह भविष्य हैं, और यह समय हम सभी के लिए, अपने देश की बुनियाद की तरफ एक बार फिर से देखने और इसके संस्थापक पिता द्वारा दिखाए गए मार्ग पर लौटने का है। स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में, हमें एक स्वस्थ और कामकाजी संसद चाहिए, जो बहस और चर्चा की अनुमति देती हो, यही आजादी का सार्थक महोत्सव है-एक महोत्सव जिसे लोकतंत्र कहा जाता है।

सौम्यदीप चटर्जी एक पॉलिसी रिसर्चर हैं। वे लैंप (एसएएमपी) फेलो भी रहे हैं।

सौजन्य: दि लीफ्लेट

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

The Continuing Decline of Parliamentary Democracy in India

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