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कोरोना लॉकडाउन: कुपोषण, ग़रीबी और रोज़ी-रोटी का संकट
कोरोना के कारण देश में अप्रैल के पहले हफ़्ते में बेरोज़गारी दर 23.4 फीसदी तक पहुंच गई। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक लॉकडाउन के कारण भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोगों के प्रभावित होने की आशंका है।
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
09 Apr 2020
कुपोषण, ग़रीबी
Image Courtesy: BW Businessworld

कोरोना वायरस का असर अब अर्थव्यवस्था और नौकरियों पर नजर आने लगा है। देश में अप्रैल के पहले हफ्ते में बेरोजगारी दर 23.4 फीसदी तक पहुंच गई, जबकि मार्च के मध्य में बेरोजगारी की दर सिर्फ 8.4 फीसदी थी। सबसे ज्यादा चोट शहरों में लगी है। शहरों में बेरोजगारी की दर 30.9 फीसदी पहुंच गई है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के मुताबिक 5 अप्रैल को खत्म हफ्ते के बाद 6 अप्रैल को जारी आंकड़े में बेरोजगारी में यह बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

भारत के पूर्व चीफ स्टैटिस्टिशियन प्रणब सेन का कहना है कि लॉकडाउन के केवल दो हफ्तों में ही तकरीबन पांच करोड़ लोगों ने अपनी नौकरी गंवा दी है। कई लोगों को अभी घर भेज दिया गया है। ऐसे में सही आंकड़े मिल पाना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि बेरोजगारी का दायरा और बढ़ सकता है जो कुछ दिनों के बाद दिख सकता है।

इतना ही नहीं, कोरोना वायरस संकट और उससे निपटने के लिये जारी ‘लॉकडाउन’ (बंद) के कारण भारत में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले 40 करोड़ लोगों के प्रभावित होने की आशंका है। इससे उनकी नौकरियों और कमाई पर असर पड़ सकता है जिससे वे गरीबी के दुष्चक्र में फंस सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (अईएलओ) ने मंगलवार को एक रिपोर्ट में यह कहा है।

आईएलओ के अनुसार भारत उन देशों में से एक है जो स्थिति से निपटने में अपेक्षाकृत कम तैयार है। जिनेवा में जारी आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार, ‘कोरोना वायरस के कारण असंगठित क्षेत्र में काम करनेवाले करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं। भारत, नाइजीरिया और ब्राजील में लॉकडाउन के कारण अंसगठित क्षेत्र में काम करनेवाले कामगारों पर ज्यादा असर पड़ा है।’

रिपोर्ट के अनुसार, ‘भारत में करीब 90 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। ऐसे में करीब 40 करोड़ कामगारों के रोजगार और कमाई प्रभावित होने की आशंका है। इससे वे गरीबी के दुश्चक्र में फंसते चले जाएंगे।’

इस परिस्थिति का सबसे ज्यादा असर भुखमरी के तौर पर होगा। इसके चलते विकासशील दुनिया में खाद्य असुरक्षा, कुपोषण, ग़रीबी बढ़ सकती है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) की एक नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया गया है कि कोरोनोवायरस के तेजी से फैलने के कारण विशेष रूप से विकासशील दुनिया में हाशिये के लोगों के बीच खाद्य असुरक्षा, कुपोषण और गरीबी बढ़ सकती है।

आईएफपीआरआई ने मंगलवार को जारी वर्ष 2020 की ‘ग्लोबल फूड सिस्टम रिपोर्ट’ में कहा है कि नीति निर्माताओं को एक अधिक मजबूत, परिस्थितिकी अनुकूल, समावेशी और स्वस्थ भोजन प्रणाली विकसित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो लोगों को इस प्रकार के झटकों का सामना करने में मदद कर सके।

दरअसल यह निर्विवाद सत्य है कि आपदाएं कोई भी हो, उनसे गरीब और मजदूर वर्ग के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होते है। इसलिए कोरोना जैसी दुर्भाग्यपूर्ण आपदा से निपटने के लिए बनाए जाने वाली रणनीति में इसका खास ध्यान रखना होगा। हालांकि यह रणनीतिकारों के लिए भी चुनौती भरा समय है। लॉकडाउन के चलते आर्थिक वृद्धि पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

गोल्डमैन सैश ने यह अनुमान व्यक्त किया है कि कोरोना वायरस संक्रमण तथा इसकी रोकथाम के लिए लागू लॉकडाउन के कारण वित्त वर्ष 2020-21 में भारत की आर्थिक वृद्धि दर कई दशक के निचले स्तर 1.6 प्रतिशत पर आ सकती है। कोरोना वायरस संकट से पहले भी नरमी के चलते वित्त वर्ष 2019-20 में देश की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाकर पांच प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया था।

महामारी के बाद आर्थिक हालत और बिगड़ी ही है। कई विश्लेषक कोरोना वायरस को देखते हुए भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटा रहे हैं। कुछ विश्लेषकों ने तो पहली तिमाही में जीडीपी में गिरावट तक की संभावना व्यक्त की हैं।

अभी एसबीआई के अर्थशास्त्रियों ने बुधवार को कहा कि कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए सरकार के 1.75 लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ज्यादातर हिस्सा पहले ही बजट में प्रस्तावित था और उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि महामारी से संबंधित चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए अर्थव्यवस्था को तीन लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता चाहिए।

अर्थशास्त्रियों ने कहा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पिछले महीने घोषित 1.75 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में सिर्फ 73,000 करोड़ रुपये की नई घोषणाएं हैं क्योंकि बाकी का पहले ही बजट में प्रावधान किया जा चुका था। उन्होंने कहा कि इस समय प्रभावित उद्योगों के लिए एक ‘बड़े वित्तीय पैकेज" की जरूरत है।’

कोविड-19 महामारी के कारण पहले ही सुस्त अर्थव्यवस्था में और गिरावट की आशंका है। इस महामारी के चलते 24 मार्च को 21 दिनों के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की गई थी। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि इसके चलते चालू वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर घटकर दो प्रतिशत रह जाएगी।

एसबीआई के अर्थशास्त्रियों ने अपनी टिप्पणी में कहा, ‘लगभग 3.60 करोड़ रुपये के श्रम और पूंजीगत आय के नुकसान को देखते हुए न्यूनतम वित्तीय पैकेज को पहले चरण की सहायता के तहत दी गई 73,000 करोड़ रुपये की धनराशि के अतिरिक्त तीन लाख करोड़ रुपये तक बढ़ाना चाहिए।’

टिप्पणी में कहा गया है कि बैंकिंग प्रणाली का 98 प्रतिशत बकाया कर्ज देश के उन 284 जिलों से हैं, जो कोविड-19 से प्रभावित हैं और इसलिए बैंकिंग क्षेत्र पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। दूसरे टिप्पणीकारों की तरह देश के सबसे बड़े बैंक के अर्थशास्त्रियों ने भी एनबीएफसी क्षेत्र को कुछ राहत देने की सिफारिश की है, जिन्हें किस्तों को तीन महीने तक टालने के लिए प्रस्तावित ऋण स्थगन में शामिल नहीं किया गया है।

उन्होंने चेतावनी दी कि अगर स्थिति बिगड़ती है तो इन संस्थाओं की पूंजी खत्म हो सकती है। इस तरह श्रमसाध्य रोजगार की दृष्टि से होटल, व्यापार, शिक्षा, पेट्रोलियम और कृषि क्षेत्रों पर ध्यान देने की बात भी कही गई है। टिप्पणी में यह भी कहा गया है कि देश की जीडीपी में स्व-रोजगार की 30 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ऐसे में उन्होंने कहा कि एक वित्तीय पैकेज बेहद जरूरी है।

फिलहाल अब सरकार के सामने लॉकडाउन खत्म करने की चुनौती है। अभी तक की खबरों के मुताबिक सरकार लॉकडाउन खत्म करने के मूड में नजर नहीं आ रही है। दुर्भाग्य यह है कि सरकार के पास फैसला लेने के लिए जरूरी आंकड़े भी नहीं हैं। अभी के हालात देखकर यही समझ आ रहा है कि सरकार जो भी फैसला लेगी, उसके नकारात्मक नतीजे ही सामने आएंगें। अगर सरकार सेहत के मोर्चे पर फैसला लेती है तो इसकी कीमत हमारी अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ेगी।

गौरतलब है कि लंबे समय तक लॉकडाउन के भरोसे यह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। ऐसे में सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने के साथ अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए काम करना पड़ेगा। सरकार के लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा है और इसमें नुकसान सिर्फ गरीब आदमी का है। 

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