NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
मज़दूर-किसान
भारत
राजनीति
“हम तो मजबूर हैं, मज़दूर हैं मियां, हमसे हरगिज़ न ज़माने से बगावत होगी”
यह त्रासद समय है। हम मज़दूर कोरोना से तो ख़ैर क्या ही जूझ रहे हैं? हम तो जूझ रहे हैं अपने श्रम और शरीर के बीच बलात थोप दिये गए अलगाव से। हम श्रम से कुछ रचते थे अब उस सृजन से बेदखल कर दिये हैं। हम आज भीख मांग रहे हैं। अपने रचे हुए से इज़्ज़त की रोटी खाते थे लेकिन आज एक वक़्त की रोटी के लिए कतारों में नज़र आते हैं। 
सत्यम श्रीवास्तव
02 May 2020
हम तो मजबूर हैं
Image courtesy: Head Topics

“किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!

कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!

सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है

मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है

उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है!”

नागार्जुन की यह कविता सत्ता प्रतिष्ठानों को वैधता देने के लिए मनाए जाने वाले ‘दिवसों’ के बारे में है और जिसमें इस जनकवि ने मज़दूरों से यह कहा कि ‘ये दिन तुम्हारे लिए नहीं हैं’ बल्कि यह तुम्हारे शोषण पर टिकी हुई व्यवस्था और उसका भरपूर दोहन करने वालों के दिन हैं।

तब इन मज़दूरों का दिन कौन–सा है? इसका जबाव 1 मई 1886 को अमेरिका में खुद मज़दूरों ने लिखा। जब मज़दूरों को काम के केवल आठ घंटे निर्धारित करवाने में सफलता मिली। हिंदुस्तान में यह दिन ज़रा देर से आया। यहाँ पहली बार चेन्नई में 1 मई 1928 से यह दिन मज़दूरों की चेतना का दिन बना।

इस दिन में अगर मज़दूरों की निष्ठा है तो उनके मालिकों की निष्ठा जनवरी और अगस्त में है। यही तो नागार्जुन कहना चाहते हैं। लेकिन आज इस कोरोना काल में मज़दूरों की सामूहिक चेतना की निष्ठा बहुत कारुणिक है। आज मज़दूर अपने श्रम की गरिमा को एक अविवेकी सरकार के बेतुके फरमानों के सामने तार-तार करके भिखारी की तरह समाज में खड़ा है। जिसे कोई कभी रोटी दे दे रहा है और कभी वह भी नसीब नहीं हो रही है।

इतना बड़ा दिन कल चुपचाप निकल गया। चुपचाप से मेरा आशय है कि इस दिन को हमेशा की तरह इतिहास में दर्ज़ न किया जा सका। हालांकि सरकार की तरफ से कुछ अप्रवासी मज़दूरों को बड़ी सौगात मिली। उनके लिए पाँच स्पेशल ट्रेन चलाये जाने की खबरें आयीं। इन ट्रेनों को नाम दिया गया श्रमिक एक्सप्रेस। श्रमिकों को इस वक़्त में इससे बड़ी राहत और क्या हो सकती थी? हालांकि ठीक यही काम 40 दिन पहले भी किया जा सकता था। ये ट्रेनें अब चलाई गईं और तब नहीं चलाई गईं दोनों ही परिस्थितियों में सरकार के पास कोई वाजिब तर्क नहीं हैं। आप अटकलें लगाते रहिए।

इस सही लेकिन बहुत देर से लिए गए फ़ैसले से उन अटकलों ने फिर ज़ोर पकड़ा है कि अभी लॉक डाउन 17 मई के बाद भी जारी रहने वाला है। मज़दूरों की वापसी का फैसला राज्य सरकारों की ज़ोर आजमाईश का नतीजा है। बहरहाल। कुछ अप्रवासी मज़दूरों को यह राहत मिली लेकिन बहुत हैं जो इसका इंतज़ार कर रहे हैं।

कल-कारखाने बंद पड़े हैं, काम-धंधे ठप्प। मंडियाँ चुप्पी ओढ़े हैं और रिंच–पाने, छैनी–हथोड़े की आवाज़ें शांत हैं। ऐसे में मज़दूर या कामगार, किसी के श्रम की कोई आवाज़ नहीं आ रही है। श्रम जहां हथकरघों की आवाज़ में बोला करता था वो भी गुमसुम हैं।

यह त्रासद समय है। हम मज़दूर कोरोना से तो खैर क्या ही जूझ रहे हैं? हम तो जूझ रहे हैं अपने श्रम और शरीर के बीच बलात थोप दिये गए अलगाव से। हम श्रम से कुछ रचते थे अब उस सृजन से बेदखल कर दिये हैं। हम आज भीख मांग रहे हैं। अपने रचे हुए से इज़्ज़त की रोटी खाते थे लेकिन आज एक वक़्त की रोटी के लिए कतारों में नज़र आते हैं। 

यह सवाल मौजूदा दौर में पहले से कहीं ज़्यादा मौज़ूँ है कि जिन मज़दूरों ने इस दुनिया को रचा, गढ़ा और संवारा उनके साथ उन्होंने क्या किया जो उस बनाई गयी, गढ़ी गयी और सँवारी गयी दुनिया का सुख भोग रहे हैं?

आज जो सरकारी मुलाज़िम हैं और रोज़ आठ घंटे का श्रम करके बाकी समय अपने परिवार के साथ, अपनी शौक और मनोरंजन में मुब्तिला हैं और अपने श्रम का पुनरुत्पादन कर रहे हैं क्या उनके मन में इस दिन के लिए थोड़ी भी कृतज्ञता है? वो लोग जो व्हाइट कॉलर जॉब्स में हैं और काम के सीमित घंटों का लाभ ले रहे हैं क्या उनके ज़हन में इस दिन के लिए कोई आभार है? या जिनकी कुर्बानियों से उन्हें ये सहूलियतें मिलीं उन्हें आज इस अवस्था में देखकर उनके दिलों की धड़कनों की थोड़ी भी गति बढ़ती है, उँगलियाँ मुट्ठियों में बंधने के लिए जुंबिश करती हैं।

हर समय ट्रेड यूनियनों की विफलताओं को गिना गिना कर तो इन परिस्थितियों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता न? तब कैसे इस दिन को स्मृतियों में दर्ज़ किया जाये? 1886 से 2020 तक 134 सालों में जब तकनीकी से जीवन और शारीरिक श्रम की तकलीफ़ों को कम होते जाना था और गरिमामय जीवन जीने के तमाम बुनियादी संरचनाएं मुकम्मल हो जानी थीं, हम देख रहे हैं कि एक महीने में ही स्थिति बद से बदतर हो चुकी है। एक दिशाहीन दुनिया जो किसी तरह चल रही थी। आज अपनी धुरी पर किसी लट्टू की तरह घूम रही है। इन 134 सालों में हुई प्रगति की पड़ताल केवल मज़दूरों के अंदर बना दी गयी भिन्न भिन्न श्रेणियों के अलावा कुछ नहीं है। आज केवल मज़दूर कहने से कुछ काम नहीं बनता, वह घरेलू कामगार, निर्माण मज़दूर, असंगठित क्षेत्र का मज़दूर, ठेका मज़दूर, झल्ली मज़दूर, त्रिशंकु मज़दूर (फुटलूज़ लेबर), अप्रवासी मज़दूर आदि-आदि।

इस विभाजन के अलावा भी इस बीच ऐसी कितनी ही पहचानें बीच में आ गईं जिनसे उसकी एकता की सारी सभवनाएं लंबे समय के लिए ख़त्म हो गईं। ये मज़दूर कट्टर हिन्दू भी हैं, कट्टर मुस्लिम भी हैं, कहीं ये उतने ही कट्टर बुंदेलखंडी भी हैं या बिहारी हैं या छत्तीसगढ़िया हैं। और कहीं किसी जात से ऊपर भी हैं जिनका इस्तेमाल राजनीति में खुल्लम खुल्ला ढंग से किया जाता रहा है। आगे भी किया जाता रहेगा। पहचानों को जितने ज़्यादा टुकड़ों में छिन्न–भिन्न किया जाता रहेगा, सत्ता प्रतिष्ठान उतने ही सुरक्षित बने रहेंगे।

बहरहाल, आज हमारे सामने इतनी श्रेणियों के लेकिन उनमें वो लोग शामिल नहीं हैं जिन्होंने इस दिन के बदौलत कम के आठ घंटे, पेंशन, भत्ते जैसी  तमाम सुविधाएं हासिल कीं। इस मामले में हम फिर भाषा पर गौर करें जिसमें मज़दूरों के चित्र खींचे गए। मज़दूरों की हड़तालों के चित्र और उनके विवरण देखिये और इनकी तुलना में पेशेवरों की खबरें से कीजिये। आप पाएंगे कि ट्रेड और पेशे ने कैसे अपने उन मज़दूरों का साथ हमेशा के लिए छोड़ दिया है जिनसे सारी क्रांति की उम्मीदें लगाए बैठे हैं।

कभी बैंक कर्मियों की हड़तालें हैं, कभी रेल कर्मियों कीं, शिक्षकों कीं, डाक्टरों कीं, ट्रांसपोर्टरों की, इंजीनियरों की और ये सब मज़दूर नहीं कहलाते। यही अंतर इन विभिन्न श्रेणियों के मज़दूरों की एकता की राह का सबसे बड़ा रोड़ा हैं। सामान्य समझ यह कहती है कि जो भी किसी के द्वारा निर्धारित सेवा शर्तों के तहत काम करेगा वो मज़दूर है। लेकिन मासिक आमदनी और काम की प्रकृति ने मूल रूप से एक ही वर्ग के अंदर इतनी गहरी खाई पैदा कर दी है कि इसकी एकजुटता एक असंभव सी कल्पना लगती है।

आज इन कई श्रेणियों के मज़दूरों को हम न्यूज़ चैनलों या सोशल मीडिया में देख रहे हैं वो बहुत थके हुए हैं। अपने कंधों पर अपने सलीब लेकर चल रहे हैं। ये अपने देस जाने की जद्दोजहद कर रहे हैं और इतिहास में इनके बूते हुए संघर्ष का लाभ लेकर बैठे लोग इन्हें ज़िंदा बम या कोरोना वाहक कह रहे हैं।

इस मज़दूर से किसी आमूल बदलाव की उम्मीद बेमानी है। ये कर्ज़ में दबे हैं, इनके पास कोई संबल नहीं है, इनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, ये कुपोषित हैं। जो नारे और गीत कभी इनके हौसले बयान करते थे वो आज गुम हैं। ये गुमनाम जनसंख्या है। ये सच्चे झूठे आंकड़े हैं। इनके नाम नहीं हैं। संख्या हैं। ऐसी संख्या जिसमें बल नहीं हैं। हाइडेगर से उधार लिए शब्दों में ये फेंके गए लोग हैं, इन्होंने कुछ चुना नहीं है।

आज मज़दूर दिवस भी इनका नहीं रहा। जिनका है या जिनका होना चाहिए वो अपना वर्ग बदल लिए हैं। वो अब मध्य वर्ग हो गए हैं।

आज किसी नामालूम शायर का शेर बेतहाशा याद आ रहा है- “हम तो मजबूर हैं, मज़दूर हैं मियां, हमसे हरगिज़ न ज़माने से बगावत होगी”

(लेखक सत्यम श्रीवास्तव पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Coronavirus
Lockdown
Lockdown crisis
Workers and Labors
Labour
International Workers Day
daily wages

Related Stories

उनके बारे में सोचिये जो इस झुलसा देने वाली गर्मी में चारदीवारी के बाहर काम करने के लिए अभिशप्त हैं

दिन-तारीख़ कई, लेकिन सबसे ख़ास एक मई

चिली की नई संविधान सभा में मज़दूरों और मज़दूरों के हक़ों को प्राथमिकता..

सार्वजनिक संपदा को बचाने के लिए पूर्वांचल में दूसरे दिन भी सड़क पर उतरे श्रमिक और बैंक-बीमा कर्मचारी

झारखंड: केंद्र सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों और निजीकरण के ख़िलाफ़ मज़दूर-कर्मचारी सड़कों पर उतरे!

दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल को मिला व्यापक जनसमर्थन, मज़दूरों के साथ किसान-छात्र-महिलाओं ने भी किया प्रदर्शन

देशव्यापी हड़ताल का दूसरा दिन, जगह-जगह धरना-प्रदर्शन

यूपी: महामारी ने बुनकरों किया तबाह, छिने रोज़गार, सरकार से नहीं मिली कोई मदद! 

यूपी चुनावों को लेकर चूड़ी बनाने वालों में क्यों नहीं है उत्साह!

यूपीः योगी सरकार में मनरेगा मज़दूर रहे बेहाल


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License