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कोविड-19:  इस वायरस को जानें, ताकि हम इससे लड़ सकें
कोरोना वायरस (Covid-19) महामारी के ख़िलाफ़ एक कामयाब लड़ाई के लिए ज़रूरी है कि इस बीमारी को समझने के साथ लोगों को एकजुट करके लड़ा जाय। यही वह सबक़ है, जिसे विभाजनकारी मोदी सरकार सीखने से इनकार करती है।
प्रबीर पुरकायस्थ
28 Mar 2020
coronavirus

यदि अपने पास मौजूद नीतिगत विकल्पों को समझना है, तो हमें कोविड-19 महामारी, और जिस रफ़्तार से यह महामारी बढ़ रही है, उसे समझने की ज़रूरत है। ऐसा करके ही हम इस महामारी से लड़ने की नीतियां बना सकते हैं।

आइये, हम उस तेज़ रफ़्तार पर विचार करें,जिसके साथ इस समय यह कोरोना वायरस (Covid-19) फैल रहा है। पूरी दुनिया में 100,000 संक्रमित मामलों तक पहुंचने में 67 दिन लगे;  अगले 11 दिनों में 200,000 तक पहुंचकर ये मामले दोगुने हो गये। केवल 7 दिनों में 400,000 से अधिक तक पहुंचकर फिर ये मामले दोगुना हो गये! इससे पहले, इसके एपिसेंटर में यूरोप, विशेष रूप से मूल यूरोपीय संघ के देश शामिल थे। अब इसमें अमेरिका भी शामिल हो गया है, न्यूयॉर्क राज्य इटली के लोम्बार्डी क्षेत्र की तरह दिखना शुरू हो गया है। जैसे-जैसे यह महामारी बढ़ती जायेगी, नये-नये देश इस महामारी के अन्य एपिसेंटर के रूप में दिखायी देते जायेंगे।

यह हमें इस महामारी की ख़ास प्रकृति से रू-ब-रू कराता है: यह महामारी तेज़ी से फ़ैलती है। ज़्यादातर लोगों के लिए "घातांकीय" ( Exponential) शब्द यदि डरावना नहीं, तो भ्रामक ज़रूर है। आख़िर इसका असली अर्थ होता क्या है? सीधे-सरल शब्दों में कहा जाय तो अगर कोई संख्या, इस मामले में संक्रमण की संख्या, अगर हर कुछ दिनों में दोगुनी हो जाती है, तो यह एक घातांकीय वृद्धि से गुज़र रही है। एक साधारण मानक, जो हमें इस वृद्धि को समझने में मदद करता है, वह है- दिनों की वह संख्या,जिसमें संक्रमित मामले दोगुने हो रहे हैं। जैसा कि हम संख्याओं के लिहाज से देखते आये हैं, हमने अब इसके विकास के उस चरण में प्रवेश कर लिया है, जहां संक्रमित मामले हर 6-7 दिनों में दोगुने हो रहे हैं। यदि इसके फ़ैलने की यही दर जारी रहती है, तो हम एक और सप्ताह में संभवत: पहले मिलियन तक पहुंच जायेंगे; पहले से ही हम आधे मिलियन को पार कर चुके हैं।

चूंकि लोग घातांकीय वृद्धि को अच्छी तरह से नहीं समझ पाते हैं, इसलिए वे मौजूदा वृद्धि को संख्या में प्रोजेक्ट करते हैं, न कि जिस दर से यह महारमारी बढ़ती है। यही कारण है कि यदि हम आंकड़ों पर ग़ौर करें, तो हम पाते हैं कि पिछले एक सप्ताह में 100,000 नये मामले और जुड़ गये हैं, ऐसे में हम सोच सकते हैं हर हफ़्ते इसमें एक और 100,000 मामले जुड़ जायेंगे। इस तरह के एक सपाट गणना के साथ हम सोच सकते हैं कि हम 13 सप्ताह में 1.3 मिलियन तक पहुंच जायेंगे। इसके बजाय, अगर आज हम 100,000 के स्तर पर हैं, और हम इस समय आधे मिलियन पर हैं और हम हर हफ़्ते इस संख्या को दोगुना करते जाते हैं, तो हम साढ़े तीन सप्ताह के भीतर एक मिलियन तक पहुंच जायेंगे। इसका मतलब यह है कि हम उसके बाद के सप्ताह में 2 मिलियन तक पहुंच जायेंगे, फिर उसके बाद के सप्ताह में 4 मिलियन; और पहले एक बिलियन तक पहुंचने के अगले 10 हफ़्ते ही लगेंगे! इसी तरह अगर इस गणना को करते जायें, हम एक अरब संक्रमित मामलों के आंकड़े तक पहुंचने से महज़ 11 सप्ताह ही दूर हैं।

कोई शक नहीं कि संक्रमण दर समय के साथ कम होती जायेगी, क्योंकि संक्रमित लोग फिर से संक्रमित नहीं होंगे। कई विशेषज्ञों का मानना है कि जो लोग ठीक हो गये हैं, उनमें कुछ समय के लिए इम्युनिटी विकसित हो सकती है। अफ़्रीकी लंगूर, मैकाक पर किये गये एक अध्ययन से पता चलता है कि ये वानर दूसरी बार संक्रमित नहीं हुए, हालांकि यह पायलट अध्ययन बहुत छोटे से दायरे का और वह भी अफ़्रीकी लंगूर, मैकाक पर किया गया अध्ययन है।

एक अरब संक्रमित आबादी वाले परिदृश्य में मृत्यु दर क्या होगी ? WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन) ने शुरुआत में वुहान के लिए 3.4% की मृत्यु दर की गणना की थी। नेचर मेडिसिन में प्रकाशित एक चीनी अध्ययन ने बाद में बाताया कि मृत्यु दर (या संक्रमण का मामला-मृत्युदर अनुपात) 1.4% के क़रीब थी, क्योंकि वुहान में लोगों का एक बड़ा हिस्सा संक्रमित था, लेकिन उस लिहाज से उन्हें चिह्नित नहीं किया जा सका था। उनके लक्षण नहीं दिखे थे, या केवल हल्के लक्षण ही दिख पाये थे। जबकि 1.4% मृत्यु वाली निम्न मृत्यु दर पर हम केवल 13 सप्ताह में ही 14 मिलियन मृतकों के होने का अंदाज़ा लगा रहे हैं।

यही कारण है कि प्रतिमान, यहां तक कि सरल मॉडल  भी हमें एक बेहतर और बारीक़ नज़रिया देते हैं कि हम किस तरह से इससे निपटने जा रहे हैं, खासकर तब,जब इस महामारी की बात आती है। ये मॉडल हमें वृद्धि की इस घातांकीय प्रकृति, और संख्याओं की भावना, जिसे हम अन्यथा सहज रूप से समझ नहीं सकते हैं, उसे समझने में मदद करते हैं। यहां हमें एक सावधानी ज़रूर बरतनी चाहिए। जब हम किसी महामारी का मॉडल बनाते हैं, तो हमें यह समझने में सावधानी बरतनी चाहिए कि ये मॉडल आने वाले दिनों की भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमारे नीति विकल्पों का संकेत भर देते हैं। वे हमें प्रत्येक विकल्प से जुड़े आंकड़ों की व्यापक श्रेणी प्रदान करते हैं, जिनका हम चुनाव कर सकते हैं। किसी कठोर भविष्यवाणियों के बजाय, वे विचार प्रयोगों के गणितीय प्रतिरूप होते हैं।

महामारी विज्ञान में प्रयोग किया जाने वाला सबसे मशहूर मॉडल वही है, जिसे SEIR मॉडल के रूप में जाना जाता है। S का मतलब अतिसंवेदनशील लोगों की संख्या से है, E का अर्थ उन लोगों से हैं, जो सामने आते हैं I संक्रमित लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है, और R उन लोगों के लिए है, जो स्वस्थ होकर बच गये (या मृत) हैं। इन चार श्रेणियों- S, E, I, R-के लिए मॉडल के अलग-अलग कक्ष हैं और एक व्यक्ति एक बॉक्स से दूसरे बॉक्स में महामारी क्रम में बढ़ता है। यह मान लिया जाता है कि जो लोग ठीक हो गये हैं, वे अब रोग के प्रति प्रतिरक्षित हैं और वे फिर से संक्रमित नहीं हो सकते हैं। महामारी विज्ञान मॉडलिंग में लगभग सभी समूह इसी मॉडल के किसी न किसी रूप का इस्तेमाल करते हैं।

मेरे सहकर्मी बप्पा सिन्हा ने लॉकडाउन के बाद के संभावित परिदृश्यों को देखने के लिए प्रोफ़ेसर रिचर्ड नेहर के नेतृत्व में एक शोध समूह द्वारा बेसेल विश्वविद्यालय में विकसित किये गये एक मॉडल का उपयोग किया है। यह काफ़ी परिष्कृत मॉडल है और हमें विभिन्न वैकल्पिक परिदृश्यों के साथ प्रयोग करने की अनुमति देता है। यह हमें संक्रमित की समय सीमा और संभावित संख्या उपलब्ध कराता है। इन संख्या के भीतर, यह उन गंभीर और संकटग्रस्त रूप से संक्रमित लोगों और इन संख्या से निपटने के लिए अस्पताल प्रणाली की क्षमता की तरफ़ भी इशारा करता है। इसके बाद हम विभिन्न रणनीतियों का मॉडल बना सकते हैं कि हमें उठाये गये क़दमों को और कितना मज़बूत करने की ज़रूरत है, जब विभिन्न रणनीतियों को समय के विभिन्न बिंदुओं पर इस्तेमला किया जा सकता है, तो प्रत्येक चरण के लिए रणनीतियां बनायी जाती हैं। यह मॉडल इस बात को भी ध्यान में रखता है कि एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरण की दर ठंडे देशों की तुलना में उष्णकटिबंधीय (tropics) देशों में कम होती है।

इस समय, हमारे पास व्यापक परीक्षण या संपर्क का सख़्ती से पता लगाने की क्षमता नहीं है। हमारे पास एक ही तरीक़ा है कि हम अपने अस्पतालों पर महामारी का भारी बोझ डालने से बचें और हमारा नागरिक बुनियादी ढांचा यही लॉकडाउन है। लॉकडाउन संक्रमण के ज़्यादातर जुड़ाव को कुछ समय के लिए काट देगा। कोई शक नहीं कि इससे अगले 3-4 महीनों के लिए संक्रमण और मौतों की संख्या में कमी आयेगी। लेकिन, यह मॉडल इस बात को भी दर्शाता है कि अगर हम अगले चरण में नहीं जाते हैं-व्यापक परीक्षण और संपर्क का सख़्ती से पता लगा लेते हैं या जिसे चीन ने केंद्रीकृत क्वारंटाइन व्यवस्था कहा है, उसे लागू कर लेते हैं, तो हम इस महामारी की तीव्रता को महज टाल भर रहे हैं। दूसरे शब्दों में, सिर्फ़ 21 दिन का यह लॉकडाउन, महामारी को समाप्त नहीं कर सकेगा, बल्कि इसके फैलेने के समय को थोड़ा और बढ़ा देगा, और बाद में अपनी चोटी पर पहुंच जायेगा। इससे होने वाली मौतों की संख्या में भी काफ़ी कमी नहीं आयेगी। यहां तक कि इस कुछ समय के लिए लागू लॉकडाउन का भी उतना प्रभाव नहीं होगा, जितना कि किसी और उपाय का हो सकता है।

हालांकि, विज्ञान और मॉडलिंग अकेले किसी नीति को तय नहीं कर सकते हैं। कोई भी नीति इस पर आधारित नहीं हो सकती कि कौन सा मॉडल बेहतर है, या किस वैज्ञानिक के पास राजनीतिक नेतृत्व की समझ है। किसी भी नीति को उस सर्वोत्तम सलाह से अवगत होना चाहिए, जो विज्ञान और महामारी विज्ञान मॉडल प्रदान कर सकते हैं; लेकिन, आख़िरकार, निर्णय तो तब भी उसी नेतृत्व द्वारा लिया जाता है, जिसे लोगों ने चुना है।

लेकिन, जब राजनीतिक नेतृत्व सुनने के लिए तैयार ही नहीं हो, जैसा कि ट्रम्प और मोदी जैसे लोकलुभावन, सत्तावादी नेता हमेशा करते हैं, तो ऐसे में प्रभावी रूप से सरकारी प्रशासन में वैज्ञानिक नज़रिये वाले लोगों को दरकिनार कर दिया जाता है। अमेरिका में रोग नियंत्रण केंद्र ट्रम्प प्रशासन में दिखायी नहीं देता है, उपराष्ट्रपति पेंस के नेतृत्व में बनी व्हाइट हाउस की टीम ने इसकी भूमिका को हड़प लिया है। इसी तरह, हमें अभी तक यह नहीं पता है कि कौन लोग प्रधानमंत्री को महामारी विज्ञान पर या लॉकडाउन नीति को लेकर सलाह दे रहे हैं।

हार्वर्ड में स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ, महामारी विज्ञान के प्रोफ़ेसर, मार्क लिप्सिच ने कहा है कि एक बार लॉकडाउन हटा लेने के बाद हमें क्या कुछ करने की ज़रूरत है और हमें एक नहीं टाले जाने वाली दूसरी लहर का सामना तो करना ही होगा। चीन और कोरिया के उदाहरण से ज़ाहिर है कि इसका जवाब व्यापक परीक्षण, संपर्क का सख़्ती से पता लगाना और एक निगरानी प्रणाली ही है, जो नये मामलों की चौकसी कर सकते हैं। यदि इस प्रणाली को व्यवहार में नहीं लाया जाता है, तो लॉकडाउन केवल इसके फैलने को तो टाल देगा, इसे समाप्त नहीं कर पायेगा।

भारत में हमारे पास पहले से ही एक इन्फ्लूएंजा निगरानी प्रणाली है,जो इन्फ्लुएंजा जैसी बीमारी (ILI) और गंभीर तीव्र श्वसन रोग (SARI) की सूचना देती है। यह प्रणाली एक विशिष्ट निमोनिया की सीमा को दर्शाती है, जो संभावित कोविड -19 मामले हो सकते हैं और कम्युनिटी परीक्षण शुरू करने के लिए यह एक आधार प्रदान कर सकती है। यदि इस तरह के कई मामले किसी समुदाय के भीतर उत्पन्न होते हैं, तो हम जो कुछ देख रहे हैं, वह एक सामुदायिक फ़ैलाव ही है।

यदि हम इस निगरानी कार्यक्रम के डेटा को जोड़ते हैं, और इसके साथ-साथ व्यापक अनियमित परीक्षण करते हैं, जो कि सरल सांख्यिकीय परीक्षण विधियां हैं, जिनका उपयोग किया जा सकता है, तो हमें भारत में महामारी की सीमा के साथ-साथ इसके स्थान का भी स्पष्ट अनुमान मिल सकेगा। लेकिन, यहां भी मोदी सरकार ने एक समस्या खड़ी कर दी है। आंकड़ों को कड़ाई से एकत्र करने और वैज्ञानिक रूप से विश्लेषित किये जाने के बजाय, मोदी सरकार ने आर्थिक आंकड़ों की तोड़-मरोड़ करने और इसे बेहतर बनाने के लिए अपने सांख्यिकीय विभाग को परेशान कर रखा है। क्या वही सांख्यिकीय प्रणाली अब वास्तविक आंकड़ों का आकलन दे सकेगी, क्या उससे काल्पनिक आंकड़े सामने नहीं आयेंगे ?

इस तरह की नीति का दूसरा हिस्सा अस्पताल की क्षमता,यानी बेड, मास्क और अन्य सुरक्षात्मक उपकरण, दवाओं की आपूर्ति, ऑक्सीजन सहायक उपकरण और वेंटिलेटर को बढ़ाने के लिए होना चाहिए। सुरक्षात्मक उपकरण, या व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (PPE) न केवल डॉक्टरों और नर्सों के लिए, बल्कि अस्पताल को साफ़ रखने और कीटाणुरहित करने के लिए जिम्मेदार सभी अस्पताल के कर्मचारियों के लिए महत्वपूर्ण है; जिन पर भारत के इस जाति आधारित समाज का ध्यान नहीं जाता है। हमें छात्रावास, होटल, स्टेडियम और कॉन्फ़्रेंस केंद्रों को लेकर अस्थायी अस्पताल और क्वारंटाइन सुविधा केन्द्र बनाने की भी ज़रूरत है।

भारत में विशाल कपड़ा और इंजीनियरिंग उद्योग हैं। क्या उन्हें सुरक्षात्मक उपकरण-मास्क, गोगल्स, दस्ताने, बॉडी सूट (masks, googles, gloves, body suits) उपलब्ध कराये जाने के लिए तैयार नहीं किया जा सकता है ? हमें वेंटिलेटर की भी ज़रूरत है। हम कितनी जल्दी इसके उत्पादन को बढ़ा सकते हैं ? हमें चीन से भी इन उपकरणों को लेकर बात करनी चाहिए, क्योंकि यही एकमात्र ऐसा देश है,जिसे इस समय अतिरिक्त वेंटिलेटर की सख़्त ज़रूरत नहीं है। अब जबकि चीन अपने कारखानों को फिर से चालू कर चुका है, ऐसे में हमें एपीआई (सक्रिय दवा तुल्य या जिसे बल्क ड्रग्स भी कहा जाता है) का आयात करने के लिए चीन के साथ काम करने की आवश्यकता है, जिसकी ज़रूरत हमारे दवा उद्योग को सबसे अधिक है। इससे भारत को शेष दुनिया में आपूर्ति को फिर से शुरू करने में भी मदद मिलेगी। यह विकासशील दुनिया के लिए विशेष रूप से हक़ीक़त है, जो अपनी जीवन रक्षक दवाओं के लिए भारत पर निर्भर है।

अब लॉकडाउन की मौजूदा हालात पर आते हैं: ऐसा लगता है कि पीएम मोदी का भाषण मध्यम वर्ग के नौकरशाहों और भाषण लेखकों द्वारा तैयार किया गया है, जिसमें केवल मध्य वर्ग को ही संबोधित किया गया है। लॉकडाउन के तहत भोजन और अन्य आपूर्ति के लिए पूरी आपूर्ति श्रृंखला किस तरह काम करेगी, इसके बारे में उस भाषण में बहुत कम कहा गया था। एक ज़रूरी सेवा के रूप में खाद्य और नागरिक आपूर्ति का उसमें कोई ज़िक्र तक नहीं था। इसे अब दुरुस्त किया जा रहा है। इसके अलावा, इस भाषण में उस सबसे ग़रीब भारतीयों के जीवित रहने के समर्थन में कुछ भी नहीं कहा गया, जो कुल आबादी का लगभग एक-चौथाई भाग हैं।

लॉकडाउन को एक सुसंगत और ऐसी नीति संरचना से सुसज्जित होने की ज़रूरत है, जो जन सामान्य के अनुकूल हो। महज प्रशासनिक मशीनरी और उसकी पुलिस शक्तियों के इस्तेमाल से इस महामारी से पार पाने में मदद नहीं मिलेगी। भारत में ब्रिटिश शासन ने 1918 के उस स्पेनिश फ़्लू महामारी के बाद अपनी वैधता खो दी थी, जिसमें माना जाता है कि 18 मिलियन भारतीयों की मृत्यु हो गयी थी। कोई भी सरकार, जो इस वायरस के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई में अपने लोगों को साथ नहीं लेती है, वह असफल होने के लिए अभिशप्त होती है। लेकिन,यह वह सबक है,जिसे मोदी सरकार अपने विभाजनकारी एजेंडे के साथ सीखने से इंकार करती है।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

Covid-19: Know It So That We Can Fight It

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