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जैव विविधता के निरादर का नतीजा तो नहीं कोविड-19
आज विश्व पर्यावरण दिवस है और इस बार की थीम है- सेलिब्रेट बायोडायवर्सिटी। आज जब लगभग 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने की ओर अग्रसर हैं तब विश्व समुदाय को जैव विविधता के संरक्षण के लिए प्रेरित करने की महती आवश्यकता है।
डॉ. राजू पाण्डेय
05 Jun 2020
पर्यावरण दिवस

इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस की थीम है- सेलिब्रेट बायोडायवर्सिटी। आज जब लगभग 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने की ओर अग्रसर हैं तब विश्व समुदाय को जैव विविधता के संरक्षण के लिए प्रेरित करने की महती आवश्यकता है। 1974 से आयोजित हो रहे विश्व पर्यावरण दिवस को पीपुल्स डे भी कहा जाता है और विश्व के 143 से भी अधिक देश इस अवसर पर होने वाले आयोजनों में हिस्सा लेते हैं। इस वर्ष के विश्व पर्यावरण दिवस की मेजबानी कोलंबिया द्वारा जर्मनी के साथ मिल कर की जा रही है। अमेज़न वर्षा वन का हिस्सा होने के कारण कोलंबिया विश्व की 10 प्रतिशत जैव विविधता को धारण करता है।

भूमि, स्वच्छ जल और समुद्री जल में पाए जाने वाले जीव जंतुओं एवं पादपों तथा उनके आवासों में देखी जाने वाली असाधारण विभिन्नता ही जैव विविधता कहलाती है। जैव विविधता दरअसल विकसित होती प्रजातियों द्वारा अर्जित वह ज्ञान है जो इन्हें पृथ्वी के निरन्तर बदलते पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने और अपना अस्तित्व बचाए रखने में सहायता देता है।

अभी तक जंतुओं, पौधों और कवकों की लगभग 17 लाख प्रजातियां अंकित की गई हैं किंतु यह अनुमान लगाया जाता है कि इनकी संख्या कई गुना अधिक हो सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह संख्या 80-90 लाख से लेकर 10 करोड़ तक हो सकती हैं। जैसे जैसे जेनेटिक संरचना का अध्ययन बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे किसी एक प्रजाति के दर्जनों उपभेद निकल कर सामने आ रहे हैं। इस संख्या में यदि वायरस और बैक्टीरिया की संख्या को भी जोड़ दिया जाए तो आंकड़ा अरबों में पहुंचेगा। जबसे मनुष्य का आगमन पृथ्वी पर हुआ है तब से प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में 1000 गुना इजाफा हुआ है। आज 25 प्रतिशत स्तनपायी, 41 प्रतिशत उभयचर और 13 प्रतिशत पक्षी प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में है।

अभी तक बायोडायवर्सिटी का अध्ययन देशज और स्थानीय प्रजातियों तक सीमित रहा था। देशज (नेटिव) प्रजातियां वे प्रजातियां होती हैं जो बिना मानवीय प्रयत्न के किसी क्षेत्र विशेष में पाई जाती हैं। किंतु मनुष्य ने पूरी दुनिया की यात्रा की है और वह अपने साथ अनेक प्रजातियों को लेकर गया है। यह प्रजातियां अपने नए आवासों में पनपी और विकसित हुई हैं। इनका प्रभाव वहां के पारिस्थितिक तंत्र पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार से पड़ा है। इसलिए अब गैर देशज प्रजातियों को जैव विविधता का एक भाग माना जाने लगा है।

जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन को सुरक्षित और सतत बनाए रखने हेतु उत्तरदायी होती है। जैव विविधता हमें भोजन और जल की प्राप्ति में सहायक होती है। यह पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देती है और बाढ़ नियंत्रण, परागण, पोषक तत्वों के चक्रीकरण तथा जलवायु नियंत्रण में इसकी निर्णायक भूमिका होती है। किसी भी पारिस्थितिक तंत्र के अस्तित्व और स्थायित्व के लिए उसका हर घटक महत्वपूर्ण होता है। चाहे वह सूक्ष्मतम बैक्टीरिया हो अथवा  अति विकसित विशाल कशेरुकी प्राणी (वर्टिब्रल एनिमल) हो। विभिन्न खाद्य श्रृंखलाओं की किसी एक कड़ी को यदि विलोपित कर दिया जाए तो पूरा संतुलन बिगड़ जाता है। किसी इकोसिस्टम का हर घटक आवश्यक होता है, भले ही उसके महत्व का अंदाजा हमें न हो लेकिन उसकी कोई न कोई भूमिका अवश्य होती है। बायोडायवर्सिटी को हम जेनेटिक डाइवर्सिटी, एनिमल डाइवर्सिटी और इकोसिस्टम डाइवर्सिटी जैसे उपांगों में विभाजित करते हैं।

अनेक विशेषज्ञ कोविड-19  को जैव विविधता के साथ गलत व्यवहार के कारण उत्पन्न वैश्विक महामारी मान रहे हैं। मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण को बड़ी तेजी से विनष्ट कर रहा है। 1980 से सन 2000 के बीच 100 मिलियन हेक्टेयर ट्रॉपिकल वन काट डाले गए। औद्योगिक युग के प्रारंभ के बाद से 85 प्रतिशत वेटलैंड्स नष्ट कर दिए गए हैं। वनों की कटाई का परिणाम यह हुआ है कि मानव जाति नए पैथोजनों (रोगाणुओं) के संपर्क में आने का खतरा झेल रही है। घने वनों में रहने वाले वन्य जीव कितने ही भयंकर रोगाणुओं को अपने शरीर में आश्रय देते हैं। किन्तु यह जंगली जीव घने वनों से बाहर नहीं आते और इन घने वनों में मनुष्य की आवाजाही नहीं होती। इसलिए इन रोगाणुओं को प्रसार का मौका नहीं मिलता। घने वनों में रहने वाली आदिम जनजातियां भी शेष विश्व से कटी रहती हैं। इन वनों की कटाई का परिणाम यह हुआ है कि ग्रामों के लोग कटे हुए वन्य क्षेत्र में निवास करने लगे हैं और घने वनों में पाए जाने वाले वन्य पशुओं का आखेट कर संक्रमित मांस को शहरों में भेज रहे हैं।

अफ्रीका के सवाना जंगलों में पाए जाने वाले वन्य जीवों के मांस की दीवानगी ने इबोला वायरस संक्रमण के फैलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अन्य देशों में पाए जाने दुर्लभ जंतुओं के मांस के भक्षण को गौरव का विषय मानने की प्रवृत्ति हर देश के लोगों में रही है। यह मिथ्या धारणा भी रही है कि इन  दुर्लभ विलुप्तप्राय वन्य जीवों का मांस औषधीय गुणों से युक्त और कामशक्ति वर्धक होता है। इस कारण भी इसकी अंतराष्ट्रीय बाजार में बहुत अधिक मांग होती है। सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) भी चमगादड़ों, मांसभक्षी जंतुओं और नासमझ मनुष्यों के परस्पर संपर्क के कारण फैला था। अमेरिकन सोसाइटी फ़ॉर माइक्रोबायोलॉजी द्वारा क्लीनिकल माइक्रोबायोलॉजी रिव्युज के अंतर्गत 2007 में प्रकाशित एक शोधपत्र यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि घरेलू चमगादड़ों में सार्स-कोविड जैसे वायरस की बड़े पैमाने पर उपस्थिति और लोगों की  दुर्लभ जीवों को खाने की लालसा एक टाइम बम की तरह है।

एक देश से दूसरे देश में दुर्लभ वन्य जीवों के मांस का आयात-निर्यात अनेक प्रकार के खतरों को जन्म देता है। यह दुनिया के हर भाग के मनुष्यों को दुर्लभ संक्रमणकारी कारकों के संपर्क में लाकर वैश्विक महामारी उत्पन्न करने की परिस्थिति निर्मित करता है। यद्यपि इनमें से बहुत से वायरस किसी विशेष प्रजाति को ही संक्रमित कर सकते हैं और हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को भेद नहीं पाते। किन्तु कुछ हमारी कोशिकाओं में प्रवेश कर उनका उपयोग करने में सफल हो जाते हैं। विभिन्न प्रकार के वन्य जीवों को एक साथ रखकर मांस हेतु एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया जाता है। इस प्रकार संक्रमणकारी विषाणुओं को एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में फैलने का अवसर मिलता है। वे रीकॉम्बिनेशन और म्युटेशन आदि की प्रक्रियाओं द्वारा किसी प्रजाति विशेष को ही संक्रमित करने की अपनी सीमा पर विजय पा लेते हैं और एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति को संक्रमित करने की क्षमता अर्जित कर लेते हैं। कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि सार्स और कोविड-19 के प्रसार हेतु यही परिघटना उत्तरदायी है।

नेचर पत्रिका में 2008 में प्रकाशित केट ई जोंस और निकिता ई पटेल के शोधपत्र के अनुसार यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि विश्व में जितनी नई बीमारियां सामने आ रही हैं उनमें से दो तिहाई के लिए जूनोस उत्तरदायी हैं। यह ऐसे रोगाणु होते हैं जो पशुओं से मनुष्य में पहुंचकर उसे संक्रमित कर सकते हैं। इनमें से बहुसंख्यक जूनोस दुर्लभ वन्य जीवों के शरीर में संक्रमण फैलाते हैं। साउथ चाइना एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ वेटिनरी मेडिसिन के शोधकर्ताओं का कहना है कि कोविड-19 के लिए उत्तरदायी कोरोना वायरस की उत्पत्ति चमगादड़ और पैंगोलिन के कोरोना वायरसों के रीकॉम्बिनेशन से हुई है। पैंगोलिन एक दुर्लभ वन्य जीव है जो विलुप्ति की ओर अग्रसर है। इसके शिकार पर प्रतिबंध है। इसकी सभी 8 प्रजातियां संरक्षित हैं। इसके बावजूद अफ्रीका और एशिया दोनों स्थानों पर मांस और स्केल्स के लिए इसका बड़े पैमाने पर शिकार होता है। हर वर्ष कस्टम द्वारा 20 टन पैंगोलिन का मांस पकड़ा जाता है जिससे अनुमान लगता है कि वर्ष में 2 लाख पैंगोलिन मारे जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मच्छरों द्वारा फैलने वाली बीमारियों के संबंध में जानकारी देते हुए यह स्पष्ट किया है कि जीका और डेंगू, जैसी बीमारियां एक्सोटिक मॉसक्विटोस द्वारा फैलाई जाती हैं जिनका परिवहन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दौरान मनुष्यों द्वारा किया जाता है।

कोविड-19 के लिए उत्तरदायी वायरस की उत्पत्ति का एक अन्य अल्पचर्चित सिद्धांत जेनेटिक डाइवर्सिटी के साथ मनुष्य द्वारा की जा रही छेड़छाड़ को इस कोरोना वायरस की पैदाइश के लिए जिम्मेदार मानता है। स्क्रिप्प्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं के अनुसार कोविड-19  के म्यूटेशन की विधि और इस वायरस की जेनेटिक संरचना यह दर्शाती हैं कि इसकी उत्पत्ति ऐसे स्थान पर हुई है जहां पर पशुओं का उच्च जनसंख्या घनत्व मौजूद है। शोध के अनुसार सूअर और मनुष्य का प्रतिरक्षा तंत्र बहुत अधिक समानता रखता है और यह संभव है कि यह वायरस सूअर से मनुष्य में आया हो। सुअर का व्यावसायिक उत्पादन उसी प्रकार होता है जिस प्रकार हम कारखानों में अजीवित वस्तुओं का उत्पादन करते हैं। जेनेटिक इंजीनियरिंग, हार्मोन्स के इंजेक्शन तथा एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग द्वारा इन सूअरों को इस प्रकार तैयार किया जाता है कि इनकी वृद्धि बहुत जल्दी हो, इनके अंग समान आकार के हों और वजन भी एक समान हो ताकि तौलने और काटने में सरलता हो।

उत्पादन में होने वाले खर्च को कम करने के लिए इन्हें इस प्रकार के सघन समूहों में रखा जाता है कि ये हिल तक नहीं सकते। इस प्रकार उत्पादित होने वाले सूअर एक कृत्रिम वातावरण में ही जीवित रह सकते हैं। इनमें प्रतिरोध क्षमता बिल्कुल नहीं होती। इसलिए इन पर आक्रमण करने वाले वायरस को किसी तरह के प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ता और उन्हें म्यूटेशन के लिए हजारों पशु भी एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं। इन मांस उद्योगों में काम करने वाले मज़दूर भी इन वायरसों के संक्रमण के लिए सहज उपलब्ध होते हैं। बिग फॉर्म्स मेक बिग फ्लू नामक बहुचर्चित पुस्तक के लेखक रॉब वालेस के अनुसार मीट उद्योग नए वायरसों के उत्पादन की नर्सरी बन गए हैं। जेनेटिक डाइवर्सिटी का निरादर और व्यावसायिक लाभ के लिए जेनेटिक संरचना से मनमाना खिलवाड़ मानव जाति को कभी भी संकट में डाल सकता है।

चीन में यूरोप और अमेरिका की लगभग सभी मांस उत्पादक कंपनियों की शाखाएं हैं। यथा अमेरिकी कंपनी स्मिथ फील्ड फ़ूड कंपनी, डेनमार्क की डेनिस क्राउन तथा जर्मनी की टोनी आदि। इनसे प्रतिस्पर्धा करने के लिए चीन की मांस उत्पादक कंपनियां भी हैं जो अंतरराष्ट्रीय बाजार पर कब्जा करने की होड़ में शामिल हैं। गोल्डमैन साश ने 2008 की महामंदी के बाद चीन के पोल्ट्री उद्योग में 300 मिलियन डॉलर का और पिग मीट उद्योग में 200 मिलियन डॉलर का निवेश किया था। मैकडोनाल्ड और केएफसी जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी चीन से मांस की खरीद और सप्लाई से जुड़ी हैं। 945 बिलियन डॉलर के मीट उद्योग में चीन अमेरिका और यूरोप का प्रमुख साझेदार है। अनेक विशेषज्ञ यह मानते हैं  कि जिस प्रकार स्वाइन फ्लू की उत्पत्ति मेक्सिको के सूअर मांस उद्योग से हुई थी उसी प्रकार कोविड-19 की उत्पत्ति भी पिग मीट उद्योग के जरिए ही हुई हो सकती है। ग्रेन जैसी बायोडायवर्सिटी बेस्ड फ़ूड सिस्टम्स पर कार्य करने वाली नामचीन संस्था का मानना है कि मांस के अरबों डॉलर के व्यापार को बचाने के लिए सी फ़ूड और वेट मार्केट को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। ग्रेन के अनुसार मीट इंडस्ट्री में जेनेटिक बायोडायवर्सिटी से मुनाफा कमाने हेतु मनमानी छेड़छाड़ की जाती है और संभव है कि कोविड-19 के लिए जिम्मेदार वायरस इन मांस उद्योगों की पैदाइश हो।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मानव तथा पर्यावरणीय स्वास्थ्य एवं जैव विविधता तीनों को सुरक्षित रखने के लिए एक साझा रणनीति बनाई है जिसके तीन उद्देश्य हैं- जूनोस का मुकाबला करना, खाद्य सुरक्षा प्रदान करना और एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस का सामना करना। यह सभी उद्देश्य किसी न किसी रूप से जैव विविधता से संबंधित हैं। हमें ऐसे खाद्य व्यवहार को अपनाने से बचना होगा जो प्राकृतिक संतुलन को भंग करता है और जैव विविधता को  नष्ट करता है। दुर्लभ जंगली जीवों का मांस खाने की हमारी लालसा हमें कोविड-19 जैसी महामारी के चंगुल में फंसा सकती है। हमें संधारणीय विकास के लक्ष्यों की ओर यदि बढ़ना है तो हमारी खाद्य आदतें प्रकृति से सामंजस्य बैठाने वाली होनी चाहिए।

क्रिटिकल इकोसिस्टम पार्टनरशिप फण्ड के ओलिवियर लैनग्रैंड के अनुसार- विश्व समुदाय आज जिन बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है उनमें से अधिकांश जैव विविधता से गहन रूप से संबंधित हैं। जैव विविधता पृथ्वी पर जीवन का पर्याय है। और किसी भी प्रजाति का विलोपन जीवन की निरन्तरता पर विपरीत प्रभाव डालता है तथा पृथ्वी के स्थायित्व के लिए संकट उत्पन्न करता है। प्रसिद्ध पर्यावरणविद ब्रोंसन ग्रिसकाम एवं उनके साथियों ने 2017 के एक ऐतिहासिक अध्ययन में यह बताया कि जैव विविधता का संरक्षण 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 30 प्रतिशत कमी लाने के लक्ष्य को प्राप्त करने  में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। कंज़र्वेशन इंटरनेशनल के अनुसार मनुष्य द्वारा वनों का विनष्टीकरण ग्रीन हाउस गैसों के वैश्विक उत्सर्जन के 11 प्रतिशत के लिए उत्तरदायी है।

इंटर गवर्नमेंटल साइंस-पालिसी प्लेटफार्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेस की हाल की एक प्रेस विज्ञप्ति दर्शाती है कि विश्व की 75 प्रतिशत खाद्य फसलें परागण के लिए कीटों और पशुओं पर निर्भर करती हैं। किन्तु परागण में सहायक इन पशुओं और कीटों की संख्या में तेजी से कमी आ रही है। इस कारण 235 बिलियन यूएस डॉलर के कृषि उत्पाद खतरे में हैं। जैव विविधता के ह्रास का यूरोप की अर्थव्यवस्था पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा है और यह यूरोप की जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर है।  द इकोनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम्स एंड बायोडायवर्सिटी नामक संस्था के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों में निवेश द्वारा उत्पन्न होने वाले वैश्विक व्यापार अवसरों का परिकलन सन 2050 तक 2 से 6 ट्रिलियन डॉलर के बीच बैठता है। क्रिटिकल इकोसिस्टम पार्टनरशिप फण्ड की जूली शॉ के अनुसार सभी धर्म प्राकृतिक प्रतीकों का उपयोग करते हैं। विश्व की 231 प्रजातियां दुनिया के 142 देशों द्वारा औपचारिक रूप से राष्ट्रीय प्रतीकों के रूप में प्रयुक्त होती हैं। अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ बायोसाइंसेज में प्रकाशित एक शोधपत्र के अनुसार दुर्भाग्यवश इनमें से एक तिहाई प्रजातियों का अस्तित्व आज ख़तरे में है।

जैव विविधता की अनदेखी हमारे लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकती है। कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी की उत्पत्ति भी किसी न किसी रूप में जैव विविधता के निरादर से जुड़ी हुई है। जब तक हम प्रकृति को भोग की वस्तु समझना बंद नहीं करेंगे तब तक जैव विविधता के संरक्षण का कोई भी प्रयास कामयाब नहीं होगा। कई बार ऐसा भी लगता है कि जब तक मनुष्य और प्रकृति में द्वैत बना रहेगा तब तक प्रकृति का संरक्षण कठिन बना रहेगा। मनुष्य दरअसल प्रकृति का एक भाग है और इसे क्षति पहुंचाना उसके लिए आत्मघाती है।

(रायगढ़, छत्तीसगढ़ में रहने वाले डॉ. राजू पाण्डेय वरिष्ठ लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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