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कोविड-19
शिक्षा
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रचनात्मकता और कल्पनाशीलता बनाम ‘बहुविकल्पीय प्रश्न’ आधारित परीक्षा 
निष्पक्षता बनाए रखने, परिणाम जल्दी घोषित करने, तकनीकी के उपयोग करने आदि के तर्क दे देकर कुछ वर्ष से लगभग सभी परीक्षाओं का प्रारूप बहुविकल्पीय प्रश्नों का ही कर दिया गया है। एकरूपता के उन्माद में इस देश के नीति निर्धारकों ने न तो विषयों की प्रकृति को ही ध्यान में रखा, ना भिन्न शैक्षणिक स्तरों की भिन्न शैक्षणिक जरूरतों का।
शुभेन्द्र
15 Oct 2021
exam
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: TOI

परीक्षा! विद्यार्थियों के लिए कितना महत्वपर्ण है ये शब्द।परीक्षा का नाम लेते ही अनिश्चितता, भय, आशंका का एक मिला जुला भाव आता है मन में। परीक्षा के पास आते दिनों की घबराहट और तनाव से कौन परिचित नहीं है। कुछ-कुछ अतांकित करने वाला भाव है इसमें। और शायद शिक्षा का सबसे अहम हिस्सा भी है यह। इसीलिए तो पढ़ाई चाहे बंद रहे, परीक्षाएं तो ली ही जानी चाहिए। शिक्षण चाहे समय पर ना हो लेकिन परीक्षाएं समय पर होनी ही चाहिए। डेढ़ साल से शिक्षण लगभग बंद ही है लेकिन परीक्षाएं तो निरंतर ली ही जाती रहीं।इस लेख में मेरा उद्देश्य परीक्षाओं की आलोचना करना नहीं है। बल्कि परीक्षाओं में जो प्रश्न पूछे जा रहे हैं उनकी प्रकृति क्या है, यह देखना है। उसमें भी मैं अपना ध्यान विश्वविद्यालयों की एम.ए., एम.फिल, पी.एचडी. आदि की प्रवेश परीक्षाओं और विश्ववद्यालय अनुदान आयोग द्वारा ली जाने वाली यू.जी.सी. नेट पर केन्द्रित करना चाहूंगा।

इन परीक्षाओं का संबंध शोधार्थियों के चयन और प्राध्यापकों के चयन से है। और अंततः शोध और शिक्षण की गुणवत्ता से। क्या ये परीक्षाएं शोधार्थियों और प्राध्यापकों के मानक के अनुरूप हैं? क्या इन परीक्षाओं से उनकी योग्यता की ठीक परख हो पा रही है? या ये सिर्फ सूचनाओं को याद रखने की क्षमता को जांच रहीं हैं। इस समय ये सारी परीक्षाएं बहुविकल्पीय प्रश्नों (MCQs) के रूप में आयोजित होती हैं। निष्पक्षता बनाए रखने, परिणाम जल्दी घोषित करने, तकनीकी के उपयोग करने आदि के तर्क दे देकर कुछ वर्ष से लगभग सभी परीक्षाओं का प्रारूप बहुविकल्पीय प्रश्नों का ही कर दिया गया है। एकरूपता के उन्माद में इस देश के नीति निर्धारकों ने न तो विषयों की प्रकृति को ही ध्यान में रखा, ना भिन्न शैक्षणिक स्तरों की भिन्न शैक्षणिक जरूरतों का। विषय चाहे इतिहास हो, साहित्य हो, दर्शन हो, गणित हो, सांख्यिकी हो या जैव प्रोद्योगिकी हो। विषयों की प्रकृति चाहे आपस में जितनी भी भिन्न हो उनकी परीक्षा का प्रारूप एक ही है।

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आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, तब मुझे तीन साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में प्रोफ़ेसर अविजित पाठक का लिखा एक लेख(Why MCQ is not an option) याद आता है। उस समय भी लगभग सभी विश्ववद्यालयों की परीक्षाएं बहुवैकल्पिक प्रश्नों की ही होती थीं, सिर्फ जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा ऐसी थी जिसमें निबंधात्मक प्रश्न पूछे जाते थे। 2019 से इस परीक्षा को भी कंप्यूटर आधारित बहुविकल्पीय करने का निर्णय जेएनयू प्रशासन ने लिया था।(अनेक लोगों का तो तर्क था कि चूंकि जेएनयू में सभी अध्यापक वामपंथी हैं, इसलिए वे प्रश्नों के ऐसे उत्तर पसंद करते हैं जो उनकी विचारधारा के अनुकूल हों जब परीक्षा में बहुविकल्पीय प्रश्न पूछे जाएंगे तो इसकी संभावना खत्म हो जाएगी) शिक्षकों और विद्यार्थियों की ओर से जेएनयू प्रशासन के इस निर्णय का व्यापक विरोध हुआ। इसी क्रम में प्रोफ़ेसर अविजित पाठक ने यह लेख लिखा था। उन्हें यह डर था कि वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के इस उन्माद में कल्पनाशीलता और रचनात्मकता की हत्या ही हो जाएगी। मानविकी विषयों की प्रकृति ही ऐसी है कि इसमें स्थापनाओं और निष्कर्षों को तथ्य कथन के रूप में प्रस्तुत करना मुश्किल होता है। "पहले  यांत्रिक मानसिकता (Engeniring Mindset) से संचालित अकादमिक नौकरशाह जो भूल करते हैं उस पर सोचना जरूरी है। एक तो वे अंग्रेजी साहित्य हो या गणित दोनों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। एकरूपता के इस उन्माद में वे सोचते हैं कि समाजशास्त्र और दर्शन को भी वस्तुनिष्ठ तथ्यकथनों तक सीमित किया जा सकता है, या फिर एक पहेली के रूप में पेश किया जा सकता है जिसका केवल एक हल है। दूसरा वे ज्ञान को सिर्फ तथ्यों को याद करने के रूप में देखते हैं। अत: मार्क्स के संबंध में 'ऐतहासिक भौतिकवाद' और 'आर्थिक नियतिवाद' इन दो पदों को ही जान लेना पर्याप्त है और प्रेमचंद के गोदान को स्मरणीय तथ्यों(Bullet points) के रुप में याद किया जा सकता है" वे आगे लिखते हैं " इसी संदर्भ में मैं चाहता हूँ कि हमें मानविकी और समाज विज्ञानो में वस्तुनिष्ठता के इस विचार का त्याग कर देना चाहिए। यह सही है कि इन विषयों में भी तथ्य होते हैं - जैसे मैक्स वेबर ने Protestant Ethnic and the spirit of capitalism नाम की किताब लिखी है, माइकल फूको ने अपनी पुस्तक Discipline and Punish में बेंथम की पनोप्टिकॉन (Panopticon) की अवधारणा पर विचार किया है, टैगोर के उपन्यास गोरा में आनन्दमयी एक चरित्र है और मोहनदास करमचन्द गांधी ने 1946 में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए नोआखली की यात्रा की थी। 

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लेकिन समाजशास्त्र, साहित्य, इतिहास को समझने का यह तरीका नहीं कि हम इन तथ्यों को तोते की तरह याद करते और दोहराते रहें। वास्तव में जरूरी है कि गहराई में जाकर उन तर्कों और दार्शनिक स्थापनाओं को समझें जो इन लेखकों ने अपने साहित्य में विकसित की हैं। इसका अर्थ हुआ यह स्वीकार करना कि सत्य सिर्फ एक नहीं है, और एक पुस्तक को अनेक रीतियों से पढ़ा जा सकता है। उदाहरण के लिए हिन्द स्वराज को पढ़ते समय कुछ विद्यार्थी मान सकते है कि गांधी वस्तुतः क्रांतिकारी थे, जो कृत्रिम आवश्यकताओं और लोभ के आधारों पर टिकी सभ्यता की खामियों को देख सकते थे और कुछ यह भी मान सकते हैं कि वे वास्तव में रूढ़िवादी थे जो अपरिहार्य ऐतिहासिक विकास को स्वीकार ही नहीं कर सके।"

अविजित पाठक की मुख्य चिंता थी कि मानविकी विषय अपनी प्रकृति में वैज्ञानिक विषयों से भिन्न होने के कारण एक अलग दृष्टिकोण की मांग करते हैं। किसी विषय पर विभिन्न विचारों की उपस्थिति एक सकारात्मक संकेत है। इन विषयों में तो कल्पनाशीलता को प्रोत्साहित ही किया जाना चाहिए (हालांकि यह भी आंशिक रूप से ही सत्य है कल्पनाशीलता का विज्ञान में भी उतना ही महत्व है जितना साहित्य में, टैगोर 'गोरा' में कहते भी हैं कल्पनावृत्ति का उपयोग सिर्फ साहित्य में ही नहीं बल्कि इतिहास, पुरातत्व, भौतिकी और गणित में भी है) अतः एक ऐसी परीक्षा प्रणाली जिसमें विद्यार्थियों को सिर्फ दिए गए विकल्पों से चयन करने की आजादी हो खुद एक नया विकल्प प्रस्तुत करने की नहीं, मानविकी के लिए कैसे वरेण्य हो सकती है।

अब हमें देखना होगा कि जो परीक्षाएं इस समय आयोजित की जा रहीं हैं उनमें विचार और कल्पनाशीलता की परख के लिए भी कोई स्थान है या अपने विषय का बहुत कुछ याद कर लेना ही अपेक्षित है। चूंकि मेरा खुद का विषय हिंदी साहित्य है अतः अपनी बात इसी के संदर्भ में रखूंगा। लेकिन अन्य विषयों की स्तिथि भी कमोबेश ऐसी ही है।

हिंदी के पिछले कुछ वर्षों के प्रश्नपत्रों को देखने पर यही पता चलता है कि परीक्षार्थियों को हिंदी से संबंधित सभी तथ्यों और सूचनाओं की जानकारी होनी चाहिए। उसे सैकड़ों उपन्यासों और लेखकों के नाम याद होना चाहिए, उपन्यासों के प्रकाशन वर्षों का पता होना चाहिए, नाटकों, कहानी संग्रहों, कविता संग्रहों के नाम पता होना चाहिए, किस इतिहासकार ने किस कालखंड को क्या नाम दिया है इसकी जानकारी होनी चाहिए, इतिहासकारों के कवियों और लेखकों के बारे में क्या क्या कथन हैं इसका पता होना चाहिए, कौन सी पत्रिका कब प्रकाशित हुई और उसका संपादक कौन-कौन रहा है यह याद होना चाहिए आदि। कुछ उदाहरण हैं- 

गोदान में होरी के गांव का नाम क्या है? (नेट 2020),

अंधा युग के दूसरे अंक का क्या नाम है? (नेट 2020),

संसद और सड़क कविता में धूमिल ने कितने आदमियों की बात की है?( नेट 2020),

कालीचरण किस उपन्यास का पात्र है?

किस कहानी पर पहेली नामक फिल्म बनी है? (जेएनयू एम.ए.2019),

आगरा स्कूल बुक सोसायटी की स्थापना कब हुई ?(डी.यू.2019)

विश्वविद्यालयों की एम.ए.,पी.एचडी. की प्रवेश परीक्षाओं और यूजीसी नेट के हिंदी प्रश्नपत्र ऐसे ही सूचना संबंधी बेतुके प्रश्नों से भरे पड़े हैं।कुछ प्रश्नों में किसी लेखक की चार पुस्तकों के नाम देकर उन्हें प्रकाशन वर्ष के अनुसार व्यवस्थित करने को कहा जाता है और कुछ में लेखकों के नाम देकर उन्हें ही कालक्रमानुसार लगाने को कहा जाता है। कुछ प्रश्न कौन से उपन्यास में कौन से पात्र हैं यह पूछते हैं, और कुछ यह कि कौन सा गांव किस उपन्यास में आया है। ऐसे सवालों को देखकर यही लगता है कि उपन्यास पढ़कर हम और कुछ समझें या ना समझें हमें इतना पता होना चाहिए कि बेलारी किस उपन्यास में है, मेरीगंज किसमें, किसमें शिवपालगंज और किसमें गंगौली। लगता है कि सरलता और कठिनता की भी एक अजीब सी धारणा परीक्षकों ने बना रखी है जो प्रश्न जितनी अधिक और जितनी दुर्लभ सूचनाओं की मांग करता है वह प्रश्न उतना ही कठिन समझा जाता है। मसलन प्रेमचंद के किसी उपन्यास का नाम - यह सरल प्रश्न है। गिरिराज किशोर के किसी उपन्यास का नाम - यह अपेक्षाकृत कठिन प्रश्न है। गिरिराज किशोर के उपन्यासों को उनके कालक्रमानुसार व्यवस्थित करना - यह अधिक कठिन प्रश्न है। अंत में चार समकालीन उपन्यासकारों के उपन्यासों, जिनके प्रकाशन वर्ष में कभी-कभी एक, दो वर्ष का ही अंतर होता है; को कालक्रमानुसार व्यवस्थित करना-यह सबसे कठिन प्रश्न माना जाता है।

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कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे प्रश्न सूचनाओं का आशातीत बोझ हमारे मस्तिष्क पर डालते हैं, किसी भी किताब को पढ़ते वक्त हमारा सारा ध्यान बस तथ्यों को एकत्रित कर याद करने पर होता है क्यूंकि परीक्षा तो इसी की होनी है, और पुस्तक पढ़ने का सारा आनंद जाता रहता है, खेद है कि अविजित पाठक की बात सच हुई है अब प्रेमचंद के गोदान को भी हम स्मरणीय तथ्यों (Bullet points) की तरह याद करते हैं। और इस दिमागी कसरत की उपयोगिता कितनी है, प्रोफ़ेसर यशपाल के शब्द लेकर कहें तो "सिर्फ थोड़े वक्त के लिए उस बाधा दौड़ के पहले जिसे हम इम्तिहान कहते हैं।"

ऐसी परीक्षाएं हमारी भाषा की स्तिथि भी बयां करती हैं। अच्छे रचनात्मक प्रश्न, जिनसे विद्यार्थियों की विषय की समझ का पता चल सके; कितना मुश्किल है, इसे अध्यापक और शिक्षाविद जानते हैं। आज से लगभग डेढ़ दशक पहले जब राष्ट्रीय पाठ्‌यचर्या की रूपरेखा का निर्माण किया गया तब शिक्षा संबंधी विभिन्न मुद्दों पर सुझाव देने के लिए फोकस समूह बनाए गए। परीक्षा को शिक्षा का अभिन्न अंग मानते हुए परीक्षा सुधार के लिए भी एक फोकस समूह बनाया गया, जिसने परीक्षाओं में सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए(ये सुझाव हालांकि स्कूली शिक्षा के लिए थे, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए भी उनका महत्व है) अपने आधार पत्र में इस समूह ने माना था कि परीक्षा के लिए प्रश्नों का निर्माण एक रचनात्मक और मुश्किल काम है जो विशेष प्रशिक्षण की अपेक्षा रखता है, प्रश्नों के निर्माण की यह प्रक्रिया वर्ष भर चलनी चाहिए, जिसमें योग्य शिक्षक विचार विमर्श के कुछ प्रश्नों पर सहमत होंगे। मुख्य ध्यान प्रश्नों के निर्माण पर होना चाहिए प्रश्नपत्रों के निर्माण पर नहीं। परीक्षा के लिए प्रश्न निर्माताओं को पुरस्कृत भी किया जाना चाहिए। प्रश्न ऐसे हों जिसमें विषय की सूझ बूझ की ठीक परख हो सके और रचनात्मक जवाबों के लिए पूरी जगह हो। कहने की जरूरत नहीं है कि ये एक श्रमसाध्य तरीका है, इसके बरक्स किसी भी पुस्तक या कुंजी से कहां, कब, क्या, कौन आदि लगाकर सूचना हासिल करना दिमागी आलस को दर्शाता है। कैसी विडम्बना है!अभी कुछ रोज पहले ही तो हिंदी को विश्व भाषा बनाने के दावे किए का रहे थे, लेकिन जिस भाषा में ठीक से प्रश्नपत्र ना तैयार किए जा सकते हों उसके भविष्य के बारे में और कहना ही क्या?

मेरे कई मित्र मुझसे कहा करते हैं कि सिर्फ थोड़े ही दिनों के लिए तो यह सब। परीक्षाओं के बाद तो आप जैसे चाहें वैसे पढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं ही राष्ट्रीय फोकस समूह (2005) की एक रिपोर्ट में उनकी इस बात का कितना सार्थक उत्तर है "हम क्या पढ़ेंगे यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि हमसे परीक्षा में क्या पूछा जाएगा। "बचपन से ही तो कितने इम्तिहान देते हैं हम, कुछ महीनों के अंतराल में एक।परीक्षाओं का यह चक्र, हम क्या पढ़ेंगे यह तो निर्धारित करता ही है, क्या नहीं पढ़ेंगे इसका भी निर्धारण कर देता है। हम अक्सर बहुत कुछ पढ़ना इसलिए टालते रहते है कि अभी हमारे इम्तिहान हैं, इन्हें बाद में पढ़ेंगे। विद्यालय में प्रवेश से लेकर शोध में प्रवेश होने तक हम इम्तिहान की जरूरतों के मुताबिक ही तो पढ़ते हैं। फिर शिकायत होती है कि शोध का स्तर गिरता जा रहा है, हिंदी के शोधार्थी पिष्टपेशण अधिक करते हैं, इन्हे किसी अन्य विषय का तो ज्ञान ही नहीं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती हैं, शोधार्थियों का निर्माण ही कुछ दूसरे ढंग से हुआ होता है।

अब जब मैं इस लेख को अंतिम रूप देने की कोशिश कर रहा हूं, मेरी परीक्षा की तारीख भी नजदीक आती जा रही है। नज़दीक आतीं परीक्षाओं के तनाव से जूझते हुए, हिंदी साहित्य के ढेरों तथ्यों को रोज अभ्यास कर करके याद करते हुए, ताकि कम से कम परीक्षा तक वे स्मृति में सुरक्षित रह सकें;- मुझे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) की भूमिका के रूप में लिखी गई यशपाल की ये कलजयी पंक्तियां बार बार याद आतीं हैं, " बच्चों के स्मृति कोश पर उन जानकारियों को लादना व्यर्थ है जिन्हे दरअसल पन्नों पर स्याह निशानों या कंप्यूटर पर 'बिट्स' की तरह ही रहने देना चाहिए।"

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के एमए हिन्दी के छात्र हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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