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दलित आंदोलन और जाति : आत्ममुग्धता से परे यथार्थ दृष्टि
"बिना क्रांति के दलितों की मुक्ति नहीं होगी और बिना दलितों की भागीदारी से क्रांति नहीं होगी।”
श्याम कुलपत
02 Sep 2020
दलित आंदोलन और जाति : आत्ममुग्धता से परे यथार्थ दृष्टि
प्रतीकात्मक तस्वीर। पेंटिंग साभार : डॉ. मंजु प्रसाद

हमारे एक कामरेड मित्र अपनी बड़ी बेटी की शादी का निमंत्रण पत्र लेकर आए। नेवता-पाती का मजमून पढ़ कर मैं चकित हो, खिल गया, लिखा था, "विवाह का सम्पूर्ण कार्यक्रम 'बौद्ध रीति' द्वारा सम्पन्न होगा।" हम सभी साथी अपनी बहस-बातचीत में चाहते थे कि शादी-विवाह आडम्बर और कर्मकाण्ड से हटकर कोर्ट में हो या सहज लोकाचार रीति के अन्तरगत दोनों पक्षों के वरिष्ठ व सम्मानीय जनों, मां-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी मामा-मामी सहित सभी निकटस्थ रिश्तेदारों के आशीर्वाद एवं भाई-बन्थु, मित्र-दोस्तों की शुभकामनाओं तथा उनकी खुशगवार उपस्थिति में सम्पन्न हो।

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में जो दलित आंदोलन आरंभ हुआ उसके मुख्य नीति विषय थे अछूत उद्धार, जाति उन्मूलन, स्त्री शिक्षा एवं वर्ण-आश्रम विरोध, पुनर्जन्म, कर्म फल, भाग्य विधान, ईश्वर शक्ति, 'आत्मा-परमात्मा' का नकार व निषेध।*1935 में अनीश्वरवादी, अनात्मवादी बौद्ध धम्म को अंगीकारना। इसके पहले  ही 9 मार्च 1924 को मुंबई में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना हुई। सभा का उद्देश्य घोष (घोष वाक्य) निर्धारित किया गया, शिक्षित करो, आंदोलित करो,संगठित करो।

फिलहाल कामरेड को बेटी के विवाह की शुभकामनाएं दे कर विदा किया और स्वयं शादी में शरीक होने की तैयारी में व्यस्त हो गया।

रात्रि आठ बजे मैं विवाह मण्डप पर पहुंच चुका था। कासाय वस्त्र धारण किए एक महानुभाव मण्डप में बैठै विवाह संबंधी तैयारी में व्यस्त थे। उत्सुकता वश मैं उनके पास गया और 'नमो बुद्धाय' कह कर बैठ गया। मैंने उनसे पूछा, 'आप भिक्षु हैं' । वे बड़ी विनम्रता से बोले , 'नहीं मैं उपासक हूं।' वे विवाह की विभिन्न सामग्रियों को व्यवस्थित कर रहे थे। बुद्ध की छवि (फोटो), पुष्पमाला, दीपबत्ती,  अगरबत्ती आदि। मैंने उनसे पूछा,  'तथागत'  का ईश्वर,  आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग,पुनर्जन्म भाग्य आदि के बारे में कहना था यह सब कुछ कहीं नहीं है, जो कुछ है वह 'कर्म' है और है उससे उपजा हुआ दुख।

तब पूजा, आरती, माल्यार्पण, दीपांजलि, पुष्पांजलि अर्पण करना बुद्ध को भगवान मानना नहीं है तो क्या है?

बौद्ध उपासक उसी शांत विनम्र स्वर में बोले, 'तथागत हमारे शिक्षक हैं, उनकी शिक्षाएं हमारी पथ प्रदर्शक हैं। तथागत हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमारी पुष्पांजलि, दीपांजली तथागत की शिक्षाओं के प्रति हमारी नमन भावाभिव्यक्ति है। उनके मार्ग दर्शन के प्रति  श्रद्धेय प्रणाम है हमारा। बुद्ध स्पष्टतः कहते हैं,  'मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकता, तुमको जो कुछ मिलेगा अपने कर्म से, श्रम से ही'। मनुष्य का फल उसका कर्म है आरती नहीं। मेरा बेटा कहता है हमारे तथागत ऐसे हैं जिनसे मैं कुछ मांग नहीं सकता हूं ।

सन् 1935 में येवला परिषद में, 'बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म, जिसका स्वयं बाबा साहेब के शब्दों में वास्तविक नाम "ब्राह्मण धर्म" है को त्यागने की ऐतिहासिक प्रतिज्ञा की थी। उसके बाद डाक्टर अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन आन्दोलन की अपनी वृहत योजना को निश्चित दिशा एवं स्वरूप देना आरम्भ कर दिया जिसकी अंतिम परिणति 14 अक्तूबर 1956 को दीक्षा भूमि मैदान, नागपुर में लाखों लोगों के साथ बौद्ध- धम्म ग्रहण किए जाने के रूप में हुई थी। धम्म दीक्षा के दूसरे दिन 15 अक्तूबर 1956 को डाक्टर अम्बेडकर ने "हम बौद्ध क्यों बने" पर काफी सारगर्भित भाषण दिया था। जो अत्यधिक बहुप्रचारित-बहुप्रसारित भाषण असरदार साबित हुआ। (अनुवादकीय: रामगोपाल आजाद—डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर के महत्वपूर्ण भाषण एवम् लेख) डॉ. अम्बेडकर द्वारा अपने लाखों अनुयाइयों के संग हिन्दू धर्म त्याग कर, बौद्ध धम्म ग्रहण करने के पश्चात दलित जागृति का एक सोपान पूरा हुआ।

डॉ. आनंद तेलतुमड़े एक सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अत्यधिक ख्याति अर्जित कर चुके हैं। आनंद तेलतुमड़े अंग्रेजी में लिखते हैं। अंग्रेजी में लिखने के बारे में उनका प्रभावी तर्क है कि 'मैं अंग्रेजी में इसलिए लिखता हूं कि इसका अनुवाद देश की अन्य भाषाओं में हो सके। वैसे भी दलित जनसाधारण की वस्तुगत स्थितियों को देखते हुए यदि उनकी अपनी भाषा में लिखा जाए तो भी यह असंभव है कि वे इसे सीधे पढ़ पायेंगे। अधिकतर दलित अभी भी अशिक्षित हैं। यदि वे सरकारी भाषा के अनुसार साक्षर हैं तो भी वे विश्लेषणात्मक लेखन सही अर्थों में नहीं पढ़ सकते। इसलिए मैं एक्टिविस्टों के लिए लिखता हूँ जो संवाद के अंतिम चरण को पूरा करते हैं। मेरे लेखों का अनुवाद दक्षिण की सभी भाषाओं में, मराठी एवं गुजराती में होता रहा है। हिन्दी में 'ग्रन्थ शिल्पी' द्वारा चार पुस्तकों का अनुवाद करके इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान किया गया है।'

आनंद तेलतुमड़े अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं 'सामाजिक आंदोलन जीवित लोगों की भांति जड़ता विकसित करते हैं, वे पहले की तरह कार्यकलाप करने के आदि रहते हैं या बस मुरझा जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में लक्ष्य एक तरफ छूट जाता है और आंदोलन जारी रहता है । दलित आंदोलन भी इसका अपवाद नहीं है।

बाबा साहेब अम्बेडकर से संकेत लेते हुए दलित आंदोलन के लक्ष्य की परिकल्पना जातियों के समूल नाश में की जा सकती है। दलित आंदोलन का दुर्भाग्य है कि इसके नायकों में अधिकतर इस लक्ष्य से सहमत ही नहीं होंगे। कई लोगों को तर्क देते हैं कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने कभी भी जातियों के समूल नाश के बारे में नहीं बोला या फिर जातियों का समूल नाश असंभव है।

यह बात दलित आंदोलन की स्थिति को चित्रित करने के लिए पर्याप्त है। इसके जन्म के लगभग एक शताब्दी के बाद दलित आंदोलन यह नहीं जानता कि इसका लक्ष्य क्या है।

सच है कि बाबा साहेब अम्बेडकर ने 'ऐनीहिलेशन ऑफ कास्ट' में अपना निदान प्रस्तुत किया था कि जातियों का स्रोत हिंदू धर्म और उसमें भी इसके धर्म शास्त्र थे। उन्होंने तार्किक निष्कर्ष निकाला कि जब तक इन धर्म शास्त्र का विध्वंस नहीं किया जाता, जातियों का समूल नाश नहीं होगा।

दलित आंदोलन सदैव डॉ. अम्बेडकर में अपने सैद्धांतिक आधार का दावा करता है। लेकिन विहंगम दृष्टि डालने पर भी डॉ. अम्बेडकर का सैद्धांतिक आधार सक्रिय नहीं दिखता है। डॉ. आनंद उदाहरण देते हैं कि, 'अम्बेडकर हमारे समय के सबसे बड़े मूर्ति भंजक थे, दलित आंदोलन ने उन्हें एक गतिहीन मूर्ति, एक अक्रिय आइकॉन बनाकर छोड़ा है। श्री आनंद के अनुसार, 'अंबेडकर आइकॉन का विकास अंबेडकर के सिद्धांतों विचारधारा के प्रति नहीं हुआ है। बल्कि दलितों के साथ-साथ गैर दलितों द्वारा अपने निहित स्वार्थों के लिए परिवर्तनकारी अंबेडकर को एक निरूपद्रवी निष्क्रिय बनाने की कोशिश से हुआ है।'

डॉ. राम बापट ने 'अंबेडकर और दलित आंदोलन' की  भूमिका में लिखा है 'डॉ. तेलतुमड़े अंबेडकर के कार्य की यहाँ समीक्षा नहीं कर रहे हैं किंतु उनके उन आइकॉन (प्रतिरूपों) की समीक्षा  आवश्य कर रहे हैं। जिन्होंने अम्बेडकर के बाद दलित आंदोलन को किसी- न किसी रूप में नियंत्रित और प्रभावित किया है। यह संदर्भ बहुत ही पीड़ादायक, स्पष्ट और प्रासंगिक है।'

वैश्विकता की प्रक्रिया में उभरती दुनिया की परिवर्तित हो रही व्यवस्था में दलित लोगों के संघर्ष का पूरा व्याकरण सारे परिदृश्य को बदलने के लिए बाध्य है।

श्री आनंद अपने विश्लेषण में इस निष्कर्ष को प्राप्त करते हैं, "दलितों को अब और भविष्य में एक ही समय में एक साथ जाति और वर्ग के दोनों मोर्चों पर क्रांतिकारी संघर्ष शुरू करना  पड़ेगा। जाति का केंद्रीय चरित्र 'अमीबा' की तरह है। वह केवल विभाजित होना जानती हैं। जातियां वास्तव में पदानुक्रम (ऊंच-नीच ) का क्रम चाहती हैं ऊंच नीच रहित जमीन पर वह जीवित नहीं रह सकतीं, बाबा साहेब अंबेडकर ने सभी अछूतों को एक ही वर्ग में संगठित करते हुए अपने जाति विरोधी आंदोलन को 'वर्ग के आधार पर' स्पष्ट करने की कोशिश की। उनका रुख जातियों के बजाय वर्ग के इस्तेमाल की ओर था। अम्बेडकर ने जातियों की विशेषता के बारे में बहुत गहराई से विचार किया था।" उनकी वर्ग की अवधारणा मार्क्सवादी नहीं थी बल्कि वेबेरियन (वेबेरवादी) थी।" अंबेडकर की वैचारिकी में मौजूद किन्तु नजरअंदाज, दृष्टि से ओझल रहे इस 'वर्ग तथ्य' का तर्क सम्मत अन्वेषण बहुत ही महत्वपूर्ण है। भारत में वर्ग संघर्ष व सामाजिक अस्मिता की लड़ाई लड़ रही शक्तियों के बीच संवाद एवं साझा संघर्ष की पहलकदमी लेने, एकजुट होने के आसार और अवसर बढ़ सकते हैं।"

चेग्वारा, कास्त्रो, नेरूदा, शावेज जैसे वेबेरियन सदैव कम्युनिस्ट छात्र-युवाओं के प्रेरक व पसंदीदा आइकॉन रहे हैं। पूर्व सोवियत संघ एवं फिदेल कास्त्रो के क्यूबा के मध्य मजबूत राजनयिक, आर्थिक वाणिज्यिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं। शीतयुद्ध के दौर की वह कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट के बीच की शुद्धतावादी बहस,  मतीय कड़वाहट और वैचारिक हठधर्मिता का कट्टर आग्रह व तीक्ष्ण व्यवहार आज के दौर में निस्पंद निष्प्रभावी, निष्प्रयोज्य हो गया है।

'सुनना कितना भी अरुचिकर लगता हो', यदि हम सामाजिक बदलाव के बारे में सोचते हैं, सचेष्ट हैं तो हमें सुनाई पड़ रहे विचार के प्रति सचेतन रुप से ग्रहणशील होना चाहिए।

दलित शब्द जिसने डॉक्टर अंबेडकर के आंदोलन के जरिये आकार ग्रहण किया था व्यवहार रूप में सामने आया था, जिसमें सभी उपजातियाँ एक संपूर्ण शब्द में आकर समा गई।

आज साठ साल बाद उपजातियों के उभार से यह अपने विनाश के खतरे का सामना कर रहा है। आनंद के अनुसार, "दलितों के लिए इस तर्कसंगत परिणाम को समझना जरूरी है, जातियां रेडिकल बदलाव के किसी संघर्ष की सुस्पष्टता के लिए आधार नहीं हो सकती हैं।"

आनंद स्पष्ट करते हैं कि 'इसका मतलब है कि उन्हें जाति के मुहावरों से परहेज करना होगा और वर्ग की ओर बढ़ना होगा।' वर्तमान समय हर जाति में वर्ग की एक सतह बनती जा रही है। यह सुखकर है कि आनंद तेलतुमड़े ने दलित आंदोलन में उपजातियों के उभार से उठ रहे विनाश के खतरे को भांप लिया है। उन्होंने सचेत  करते हुए उनको सूचित किया, "बाबा साहेब अंबेडकर ने उन्हें जाति के उन्मूलन की एक दृष्टि दी है। उनके अनुसरण करने के लिए वह एक बेहतर पर्याप्त सपना है। प्रत्येक चीज जो इसके (जाति उन्मूलन) रास्ते में आती है उसे अम्बेडकर विरोधी के रूप में खारिज करना चाहिए। सामान्य तथ्य है कि दलितों ने जाति निर्मित नहीं की इसलिये अकेले दलितों द्वारा जातियों का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है। बकौल श्री आनंद "अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान, दलितों को प्रमाण-पत्र के आधार पर नहीं बल्कि जीवन स्थिति में उनके स्थान यानी वर्ग के आधार पर करने के लिए उन्हें प्रवृत्त करना चाहिए।"

वामपंथ को अपने पूर्वाग्रह और शुद्धतावादी जोर को त्याग देना चाहिए। श्री आनंद ने वामपंथ को सलाह देते हुए लिखा, "जातियों को क्रांति की राह में प्रमुख बाधा के रूप में देखना-समझना चाहिए और इसे अपने व्यवहार में प्रदर्शित करना चाहिए। यह जुबानी जमा खर्च नहीं है कि वे बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण बोलें लेकिन फिर भी उन्हीं घिसी-पिटी उपमाओं में फंसे रहें। उनके सिद्धांत के साथ-साथ उनके व्यवहार में भी यह धारणा दिखनी चाहिए कि वे वास्तव में बदल गये हैं।"

इन दोनों आंदोलनों, न कि वादों (इजम्स) के उत्तरोत्तर सम्मिलन से नया क्रांतिकारी आंदोलन जन्म लेगा और भारतीय क्रांतिकारी परिस्थितियों को तेजी से उर्वर बनाएगा। इस तर्क और चेतावनी को दोनों पक्षों के लिए दोहराते हुए, "बिना क्रांति के दलितों की मुक्ति नहीं होगी और बिना दलितों की भागीदारी से क्रांति नहीं होगी।”

(श्याम कुलपत एक कवि-लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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