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राजनीति
यूपी-बिहार में दलित-राजनीति की दुर्गति!
यूपी और बिहार के ताजा घटनाक्रम उस इतिहास में नया आयाम जोड़ते नजर आ रहे हैं। बिहार के चुनाव में मायावती जी की बसपा की भूमिका पर स्वयं दलित समाज में सवाल उठाये जा रहे हैं। पर ‘हिन्दुत्व’ की आक्रामक शक्तियों से दलित-राजनीति के रिश्ते सिर्फ बसपा तक आज सीमित नहीं रह गये हैं।
उर्मिलेश
01 Nov 2020
यूपी-बिहार में दलित-राजनीति

उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की दस सीटों के लिए 9 नवम्बर को होने वाले चुनावों के समीकरण में अचानक एक दिलचस्प मोड़ नहीं आता तो भी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की भाजपा से बढ़ती नजदीकियां अब किसी से छिपी नहीं हैं! राष्ट्रीय राजनीति के बड़े सवालों की बात तो दूर रही, यूपी या देश के दूसरे हिस्सों में हाल के दिनों में दलित या व्यापक बहुजन समाज के उत्पीड़न की घटनाओं पर भी मायावती जी या उनकी पार्टी की तरफ से अब कोई ठोस प्रतिक्रिया या पहल नहीं होती। वैसे भी यूपी की राजनीति में बसपा और भाजपा के रिश्ते कोई नये नहीं हैं। बसपा संस्थापक कांशीराम के जीवन काल में ही बसपा और भाजपा के बीच सत्ता के लिए समझौता हुआ था। मई,1995 में मायावती जी भाजपा के समर्थन से ही यूपी की मुख्यमंत्री बनी थीं। तबसे भाजपा के साथ बसपा के बनते-बिगड़ते रिश्तों का दिलचस्प इतिहास है।

इधर, यूपी और बिहार के ताजा घटनाक्रम उस इतिहास में नया आयाम जोड़ते नजर आ रहे हैं। बिहार के चुनाव में मायावती जी की बसपा की भूमिका पर स्वयं दलित समाज में सवाल उठाये जा रहे हैं। पर ‘हिन्दुत्व’ की आक्रामक शक्तियों से दलित-राजनीति के रिश्ते सिर्फ बसपा तक आज सीमित नहीं रह गये हैं। महाराष्ट्र के कथित अम्बेडकरवादी रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी और दिवंगत राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी पहले से ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाले एनडीए-2 का हिस्सा हैं।

बीते साढ़े छह साल में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने दलित-उत्पीड़ित समाजों के अधिकारों पर जितने भी हमले किये या उन अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों या अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरूद्ध जितनी भी निरंकुश कार्रवाई की, ये सारे दलित नेता या इनके दल उन शासकीय कार्रवाइयों पर या तो खामोश रहे या सरकार का समर्थन करते रहे। मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे राम विलास पासवान के निधन के बाद पार्टी की कमान उनके पुत्र चिराग पासवान संभाल रहे हैं। उन्होंने सार्वजनिक मंच से ऐलान कर रखा है कि वह प्रधानमंत्री मोदी के ‘हनुमान’ हैं। सार्वजनिक तौर पर भाजपा या सरकार के किसी शीर्ष नेता के प्रति ऐसी भक्ति तो उनके दिवंगत पिता ने भी नहीं दिखाई! लेकिन चिराग पासवान बिहार का चुनाव भाजपा की अगुवाई वाले राजनीतिक गठबंधन-एनडीए से अलग होकर लड़ रहे हैं। एनडीए से अलग मंच के बावजूद उन्हें भाजपा के सहयोगी के तौर पर ही देखा जा रहा है। बिहार में यह बात अब किसी से छुपी नहीं है कि चिराग की पार्टी के कई उम्मीदवारों का चयन भी भाजपा की सहमति से ही हुआ है।

चिराग खुलेआम ऐलान कर रहे हैं कि उनका मकसद नीतीश कुमार के उम्मीदवारों को हराना और बिहार में भाजपा की अगुवाई में एनडीए की सरकार बनाना है। यानी ‘एनडीए-माइनस नीतीश कुमार!’  बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान और नीतीश कुमार के रिश्ते लंबे समय तक कटु रहे। अंत तक दोनों नेताओं के सियासी रिश्ते सुधरे नहीं। पासवान और उऩके समर्थकों का मानना रहा है कि सिर्फ नीतीश के चलते रामविलास बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन सके। ऐसे में पासवान के ‘उत्तराधिकारी’ के तौर पर चिराग अब नीतीश से अपने पिता की उपेक्षा का बदला लेने पर आमादा हैं। इस तरह उनकी पार्टी-एलजेपी, भाजपा-जद(यू) सत्ताधारी गठबंधन का बिहार में भले हिस्सा नहीं है पर भाजपा से उनका केंद्रीय राजनीति में  गठबंधन कायम है। बिहार स्तर पर भी भाजपा से उनके रिश्ते बेहद मधुर हैं। चुनावी माहौल में भाजपा के किसी भी नेता ने अब तक उनके अलग होकर चुनाव लड़ने को औपचारिक तौर पर खारिज नहीं किया। यह सब पर्दे के पीछे की कहानी नहीं है। भाजपा के कई नेताओं ने तो उनकी सार्वजनिक मंचों से तारीफ की है।

बिहार के चुनावी-इतिहास में पहली बार किसी सत्ताधारी दल ने अलग-अलग ढंग से ‘कई-कई गठबंधन’ बनाये हैं। भाजपा का जद(यू) से आधिकारिक और औपचारिक गठबंधन है तो एलजेपी के साथ ‘परस्पर समझदारी का अनौपचारिक गठबंधन’ है। यह महज संयोग नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से सम्बद्ध कई प्रमुख नेता एलजेपी के चिह्न पर विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं। इनमें राजेंद्र सिंह (दिनारा) रामेश्वर चौरसिया (नोखा) और उषा विद्यार्थी (पालीगंज) जैसे बड़े नाम शामिल हैं। राजेंद्र सिंह संघ प्रशिक्षित भाजपा नेता हैं और संगठन में प्रमुख पदाधिकारी रहे हैं। चौरसिया तो भाजपा के विधाय़क और प्रवक्ता तक रह चुके हैं। एलजेपी के अलग चुनाव लड़ने को बिहार में भाजपा की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। इसका मुख्य मकसद है-नीतीश कुमार की हैसियत कम करना और महागठबंधन के दलित-समर्थन में भी कुछ मत-विभाजन करना! चुनाव के बाद एलजेपी के सारे चुने विधायक भाजपा के साथ रहेंगे। यह बात आईने की तरह साफ है। स्वयं चिराग ने भी यह बात कही है कि भाजपा के साथ उनकी सरकार बनी तो नीतीश-राज के कार्यकलापों की जांच कराई जायेगी!

इससे काफी मिलती-जुलती स्थिति बहुजन समाज पार्टी की है। बिहार में उसने भाजपा के पूर्व सहयोगी रहे उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी-रालोसपा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी-आल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लिमीन(एमआईएम) से गठबंधन किया है। कुशवाहा मोदी सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री रहे हैं। बसपा 90 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि कुशवाहा की पार्टी और कुछ अन्य छोटी-छोटी पार्टियां मिलकर 153 सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं। बिहार की राजनीति में इस मोर्चे को भी भाजपा की भावी रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है। अगर भाजपा के गठबंधन को अपने बल पर बहुमत नहीं मिला तो माया-कुशवाहा गठबंधन के जीते सदस्यों का उपयोग किये जाने की संभावना प्रबल रहेगी। बिहार में इस तरह की चर्चा आम है।

बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी सूबे की राजनीति में समाजवादी धारा से जुड़े बड़े दलित चेहरा माने जाते हैं। उन्होंने बसपा-रालोसपा-ओवैसी गठबंधन के बारे में पूछे जाने पर इन पंक्तियों के लेखक से कहाः ‘सिर्फ मायावती जी-कुशवाहा जी का गठबंधन ही नहीं, जितने भी ये छोटे-छोटे समूह इस चुनाव में उतरे हैं, इन सबका इस्तेमाल भाजपा कर रही है या भविष्य में करेगी। ये भाजपा की मदद के लिए ही सामने आये हैं। इन दलों को अगर संयोगवश कोई चुनावी-सफलता मिली तो उन सदस्यों की प्रतिबद्धताविहीन राजनीति उन्हें कहां ले जायेगी, इसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है। अन्य़ राज्यों के उदाहरण भी सामने हैं। अब तो मायावती जी ने स्वयं ही कह दिया है कि यूपी में वह भाजपा से हाथ मिला सकती हैं। फिर बचा ही क्या है?’

श्री चौधरी के मुताबिक ‘हिंदी भाषी क्षेत्र या संपूर्ण भारत में अब स्थापित दलित-पार्टियों या बड़े नेताओं से दलित राजनीति का भविष्य नहीं तय होने वाला है। युवा पीढ़ी के समझदार और ईमानदार अंबेडकरवादी ही भविष्य की रूपरेखा तय करेंगे। दलित-पार्टी के स्थापित नेता तो मनुवादियों के सहायक बन चुके हैं।’ ओवैसी की पार्टी की बिहार मे चुनावी महत्वाकांक्षा को भी उन्होंने संदिग्ध बताया-‘उन्हें सीमांचल में आम लोगों के बीच यूं ही ‘वोटकटवा’ नहीं कहा जा रहा है!’

पूर्व सांसद और यूपी के युवा दलित नेता चंद्रशेखर रावण ने भी बिहार चुनाव में एक नया गठबंधन बनाया है और कई स्थानों पर उम्मीदवार दिये हैं। इस गठबंधन के नेता बिहार के विवादास्पद पूर्व सांसद पप्पू यादव हैं। लंबे समय तक उनका नाम बिहार के कोशी क्षेत्र में अपराध और बाहुबल की राजनीति से जुड़ा रहा है। मध्य बिहार के जाने-माने दलित नेता और पूर्व विधायक नंदकिशोर राम कहते हैं: ‘मायावती जी और रावण जी, ये दोनों ही दलित-राजनीति के पूंजीवादी चेहरे हैं। ये लोग गरीब-गुरबा की राजनीति नहीं करते। ये भाजपा से मोल-तोल करके अपने बिखरे जनाधार को किसी तरह संभालने की असफल कोशिश कर रहे हैं। पर दलित समाज इन्हें अब समझने लगा है। बहुत कम दिनों में ही चंद्रशेखर रावण ने दलित-राजनीति को बहुत बुरी तरह निराश किया है। उनके पास क्या जवाब है-किसी आधार और काम के बगैर वह बिहार के चुनावी-राजनीति में आज किसके लिए खेल रहे हैं? ’

बिहार की चुनावी-राजनीति में यूपी के ये दोनों दलित नेता-मायावती और चंद्रशेखर आजाद रावण ने अपनी जिस तरह की भूमिका तय की है, उससे उनकी समग्र सोच, खासकर उनकी बहुजन राजनीति के परिप्रेक्ष्य पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं। ये सवाल सबसे अधिक दलित-समाज से उठ रहे हैं। मजे की बात है कि ये दोनों नेता या इनके दल बिहार में अपने चुनाव-प्रचार अभियान में सिर्फ महागठबंधन या फिर नीतीश कुमार पर ही राजनीतिक हमले कर रहे हैं, भाजपा की राजनीति या दलित-बहुजन समाज के प्रति केंद्र सरकार के रवैये की  भूलकर भी कभी चर्चा नहीं करते! महाराष्ट्र में ‘रिपब्लिकन गुटों’ के नाम पर चुनावी-राजनीति करने वाले नेताओं का पर्दाफाश तो बहुत पहले हो गया था पर दलित-बहुजन के नाम पर यूपी-बिहार में चुनावी-राजनीति करने वाले नेताओं और दलों की ऐसी दुर्गति पहले कभी नहीं देखी गयी! देखना होगा, यूपी के राज्यसभा चुनाव और बिहार के विधानसभा चुनाव के बाद मायावती जी की बहुजन समाज पार्टी भारतीय जनता पार्टी से अपने राजनीतिक रिश्तों को भविष्य में कैसे परिभाषित करती है!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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