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दिल्ली-6 : अब भी गहरे हैं लॉकडाउन के ज़ख़्म, तबाह हैं ज़िंदगियां
आपको लिए चलते हैं देश की राजधानी के पुराने इलाके दिल्ली-6 में।  छोटे-बड़े कारोबार का अड्डा रहा दिल्ली-6 का यह इलाका बेहद तकलीफ़ भरे दौर से गुज़रा और अब भी गुज़र रहा है।
सना सुल्तान
20 Mar 2021
दिल्ली-6 : अब भी गहरे हैं लॉकडाउन के ज़ख़्म, तबाह हैं ज़िंदगियां

लॉकडाउन की मार के ज़ख़्म उसके एक साल पूरे होने पर और ज़्यादा गहरे हो गये है। लॉकडाउन के बुरे असर को सिर्फ सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भयानक गिरावट या अर्थव्यवस्था में मंदी में जाने ही नहीं अनगिनत जिंदगियों में तबाह होने में भी देख सकते हैं। आपको मैं ले चलती हूँ देश की राजधानी के पुराने इलाके दिल्ली-6 में।  छोटे बड़े कारोबार का अड्डा रहा दिल्ली-6 का इलाका बेहद तकलीफ़ भरे दौर से गुज़रा और अब भी गुज़र रहा है।

हमने बात की आदिल यूसुफ से जिनकी उम्र 34 साल है जो दिल्ली-6 के फराश खाना, रोद गरान इलाके में अपनी माँ, 3 बहनों और 2 भाइयों के साथ रहते हैं। वे ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से ग्रेजुएट हैं और चाँदनी चौक के कृष्णा मार्किट में कपड़े की दुकान में पिछले 5-6 सालों से काम कर रहे हैं।

उन्होंने बताया कि कोरोना वायरस से फैली महामारी के दौरान जितने महीने लॉकडाउन रहा उन महीनों की न तो उन्हें तनख्वाह मिली जिससे उनकी माली हालत तो बिगड़ी है साथ ही बिना काम और वेतन के इतने बड़े परिवार को चलाना मुश्किल रहा। साथ ही मानसिक तनाव भी बना  रहा। वे कहते हैं, “बिना बताए लगाया गया लॉकडाउन यहां लोगों की ज़िन्दगियों पर बहुत बुरा असर छोड़ के गया। मेरी तरह यहां बहुत लोग हैं जो किसी न किसी तरह से अपनी रोज़ की ज़रूरतों को बिना तनख्वाह, कम खर्च में गुज़ारे। हम मिडिल क्लास लोगों को बिना काम के घर की ज़रूरतों को पूरा करना बहुत मुश्किल हो जाता है। क्लॉथ मार्किट में कई दुकानों पर लॉकडाउन खुलने के बाद भी आधी तनख्वाह दी। यहां दुकानों के किराये भी सरकार के मना करने के बाद भी लिये गए हैं यहां दुकानों के किराये 30 हजार से लेकर 2 लाख तक हैं। बिना काम किराया भरना भी मुश्किल था किसी ने आधा किराया लिया तो किसी ने कुछ परसेंटेज काट कर भरा। लॉकडाउन खुला मैंने दोबारा काम पर जाना शुरू किया। हाथ में कुछ पैसे आये तो थोड़ी राहत मिली। लेकिन काम अभी ठीक से नही हो पा रहा। दीवाली पर थोड़ा ठीक था लेकिन किसान आंदोलन के चलते पुलिस द्वारा बॉर्डर बंद करने के कारण काम फिर से कम हो गया है। इस मार्किट में होल सेल में काम होता है। यहां सब ग्राहक दिल्ली के बाहर के होते हैं जिससे कि दोबारा काम को उबारना थोड़ा कठिन है।  हम सभी यह उम्मीद करते हैं कि मार्किट के हालात जल्दी बेहतर हों।”

आदिल गहरी सांस लेते हुए कहते हैं, “सिर्फ मार्किट ही नहीं पूरे देश के हालात नाज़ुक हैं। अभी कहीं भी काम नही है। इस मार्किट में जहां एक दुकान में 8 कर्मचारी होते थे, अब तीन को ही काम पर बुलाया गया है। कई दुकानों के कर्मचारी लॉकडाउन के दौरान अपने गांव भी चले गए, जिन्हें वापस भी बुलाया जा रहा है।”

आदिल अपना सारा दुख-दर्द उड़ेल देना चाहते हैं। वह कहते हैं, “मुसलमानों के लिए तो जॉब्स पहले ही कम हैं। कुछ यहां मुसलमान विरोधी कट्टर दुकान मालिक भी हैं जो उन्हें काम पर नहीं रखते।  लेकिन आज जान कर भी नहीं रखा जा रहा, क्यूंकि माहौल बहुत ख़राब चल रहा है, लेकिन हर जगह हर किस्म के लोग होते हैं। यहां कई लोग इतने अच्छे भी हैं के एहसास भी नहीं होने देते। मार्किट आज खाली रहती है शादियों में यहां भीड़ लगी रहती थी। कभी दिन की 2 लाख की सेल हुआ करती थी, आज वहीं 50 हज़ार पर खत्म हो जाती है। कई दुकानदार रिटेल में काम नहीं करते थे, आज उन्होंने भी कमाने के लिए रिटेलिंग शुरू कर दी है, जिससे वह अपने काम करने वालो का तो खर्चा निकाल सकें।”

पुरानी दिल्ली में सालों से घरेलू महिलायें और लड़कियां घर के काम के साथ साथ अपने घर को चलाने के लिए छोटे-छोटे कारोबार से जुडी रही हैं। चाहे इसमें कपड़े सिलना हो, कढ़ाई का काम हो या कढ़ाई के बाद उसकी फिनिशिंग का। क्योंकि माना जाता रहा है महिलाओं-लड़कियों को सिलाई-कढ़ाई आनी चाहिए, शायद यह भी एक कारण है कि महिलाओं को कुछ नहीं तो सिलाई-कढ़ाई सिखाई जाती है। लेकिन लॉकडाउन के दौरान क्या यह फार्मूला कारगर रहा। उन महिलाओं के लिए जो पढ़ाई से ज़्यादा घरों में सिलाई-कढ़ाई सीखती रही हैं। 

ऐसे ही हमने बात की परवीन बेगम जी से जो पुरानी दिल्ली के नियारियाँ मोहल्ले में रहती हैं। ये मोहल्ला लाल कुआँ काज़ी हौज़ के साथ जुड़ा है। परवीन जी भी इसी मुस्लिम बहुल इलाज़ की रहने वाली हैं जो अपने परिवार के साथ यहाँ रह रही हैं। परिवार में पति बीमार है, जो बिस्तर से उठ नहीं सकते। 

परवीन बताती हैं, “घर चलाने के लिए मैंने घर में रहकर कपड़ों और दुपट्टों में नग (स्टोन) चिपकाने का काम करना शुरू किया। इन पैसों से बहुत सहारा हो रहा था। अचानक इस बीमारी (कोरोना वायरस) की वजह से लॉकडाउन लगा। लॉकडाउन के कारण ज़िन्दगी तो रुकी ही, साथ में कमाई का जरिया भी बंद हो गया। हर तरफ परेशानी का आलम रहा जो आज भी ख़तम नहीं हो हुआ।”

वह आगे कहती हैं, “लॉकडाउन हटा तो हमने भी यही सोचा अब सब ठीक हो जायेगा। मैंने अपने कारख़ानादार से काम के लिए राब्ता किया तो उन्होंने बिना देर करे मुझे मना कर दिया। लॉकडाउन में अच्छे अच्छे कारोबार बंद हो गए तो मैं जिनका काम करती थी वो तो बहुत छोटा कारोबार था। मौजूदा हालत सबकी ही ख़राब है, चाहे वो मालिक हो या कारीगर।”

आज जो स्थिति है इसकी कहीं न कहीं सरकार ही ज़िम्मेदार है। परवीन की तरह यहां 5 महिलाएं हैं, जिनसे बात करने पर भी यही पता चला कि वह भी इसी का शिकार हैं। वह लोग भी दुपट्टों में नग (स्टोन) लगाने का ही काम कर रहीं थीं। उन का दाना-पानी इसी से चलता था। यह औरतें काम करना चाहती हैं। अपने आपको भी व्यस्त रखना चाहती हैं, लेकिन काम कहाँ है। कौन है इनकी सुनने वाला। यह तो वह औरतें हैं जो घरों में काम करती हैं, जो रोज़ाना काम के लिए निकलते हैं क्या उन्हें काम मिल पाया है?

पुरानी दिल्ली के लोग छोटे छोटे कारोबार कर के आगे बढ़ने की कोशिश में लगे हैं। यहां कई ऐसे कारोबारी लोग हैं जो छोटे कारोबार में ज़रूर हैं लेकिन उनका पुश्तैनी कारोबार है। वह कारोबारी लोग अपने काम मे खुश भी हैं। कम कमाते हैं लेकिन उसी में खुश रहते हैं। या यह भी हो सकता है आगे बढ़ने का या काम को आगे बढ़ाने का हौसला नही कर पाते। ऐसे ही एक शख्स है जो नियारियाँ मोहल्ले के ही रहने वाले हैं। इसी मोहल्ले में छोटी सी दुकान में लकड़ी की पेटियां बनाने का काम करते हैं। इन पेटियों का इस्तेमाल किसी भी तरह के पार्सल को सुरक्षित एक जगह से दूसरी जगह ले जाने में किया जाता है। अतीक, पिछले 40 साल से इस काम मे हैं और लकड़ी की पतली पतली पट्टियों से कील और हथोड़ी की मदद से पेटियां तैयार करते हैं। ये हाथ से बनाई गई पेटियां काफी सस्ते में बिकती हैं। उम्रदराज़ अतीक, अपने काम को ज़िंदा रखने के लिए लॉकडाउन के बाद भी उतनी ही मेहनत से काम कर रहे हैं जैसे पहले करते थे। बहुत कम शब्दों में उन्होंने अपनी बात कही कि लॉकडाउन एक मुश्किल वक़्त था। सब बंद रहा। लोग घरों में बंद थे। लेकिन हमें काम करते रहना चाहिए। परेशानियों से निकलने का रास्ता ढूंढना चाहिए।

फराश खाने लाल कुआं के रहने वाले वसीम अंसारी मौजपुर में किराये के कारखाने में एक छोटे पैमाने पर मैन्युअल प्रिंटिंग का काम करते हैं। वैसे तो ज़माना आज डिजिटल हो चुका है लेकिन जो काम करना चाहता है उसके लिए कहीं न कहीं से शुरुआत तो ज़रूरी है। वसीम ने बताया वह दो भाई मिल कर यह काम कर रहे हैं। रोज़ाना पुरानी दिल्ली से वह मौजपुर जाते हैं। 4 से 5 महीने लगे लॉकडाउन ने 12 साल की कमरतोड़ मेहनत को खत्म कर दिया है। किराये की जगह में काम करना मुश्किल नहीं लगता जब आपके पास काम हो लेकिन सरकार की तरफ से आये बयान के बाद भी आधा किराया देना पड़ा। हर कोई कमाने के लिए बैठा है। अपना  घर चलाने के लिए निकला है।

वसीम कहते हैं, “लॉकडाउन के पहले उत्तरी दिल्ली में हुए कम्युनल वायलेंस (सांप्रदायिक हिंसा) से लगे कर्फ्यू से खराब स्थिति के चलते कुछ दिन आना जाना बंद था। आने जाने में परेशानी, काम का नुकसान। थोड़ा माहौल ठीक होना शुरू हुआ तो लॉकडाउन लग गया। कारोबारी आदमी के लिए काम ही सब कुछ होता है। हमारा काम घर के पास भी नहीं था। जो हम देख सकते। परेशानी बनी रही। घर को देखना, किराया देना मुश्किल हो गया। लॉकडाउन के बाद भी हालात अच्छे नहीं कह सकते। चार महीनों से लगातार कोशिशों के बाद भी हम उस स्तर तक नहीं पहुँच पा रहे जो लॉकडाउन के पहले था।”

वे बताते हैं कि “प्रिंटिंग का काम ही जब होता है जब सामने वाले का बिज़नेस अच्छा हो या फिर शादिया हो रही हों। लॉकडाउन की वजह से शादियों में ही सिर्फ 50 लोगों की इजाज़त है। अब शादी कार्ड का भी काम नहीं हो पा रहा। लेकिन हमने अपना काम करना बंद नहीं किया। आज हर मार्किट में 10 में से 2 दुकाने बंद ही दिखेंगी क्योंकि काम नहीं था, तो लोग क्यों किराया देते। उन्होंने अपना काम ही बंद कर दिया। आज हम सब लोग जितने भी मार्किट में बैठे हैं सब इसी उम्मीद में है कि जल्दी हालात ठीक हो जाएंगे फिर से वही पहले वाली ज़िन्दगी जीना शुरू कर देंगे। लॉकडाउन में कितने लोगों को काम न होने की वजह से पलायन करना पड़ा। लेकिन सरकार उन लोगों के लिए ही कुछ नहीं कर पाई तो हम सरकार से और क्या मांग करें। वैसे ही यह सरकार मुसलमानों को दबाना चाहती है। अब तो शायद सरकार का एक यही काम है कि रोज़ कमाने वाले लोगों के बारे में सोचना नहीं है। उसे तो बस यही सोचना है कि सरकारी चीज़े कैसे अम्बानी अडानी को बेचनी हैं। हिन्दू-मुसलमान कैसे करना है। काम सिर्फ अमीरो को देना है। गरीबो का सोचना भी नहीं है। यही है सरकार यही है इस सरकार के काम। झगड़े करवा कर अपने आपको निर्दोष बताना कुछ काम न कर के भी अपना नाम दिखाना।”

यह है पुरानी दिल्ली के लोगो की ज़िंदगी का हाल। जो अपना काम करता है वो भी परेशान है और वो भी जो सैलरी पर काम करने जाता है। इतना ही नहीं घरों में वे औरतें-लड़कियां भी मजबूर हैं जो कुछ काम करके अपना घर चलाना चाहती हैं। आज सब काम मांग रहे हैं, लेकिन मार्किट के हालात ठीक नहीं हैं। हालांकि इनमें से कोई भी हार मानने वाला नहीं है। इनमें से किसी ने भी काम बंद करने का या जॉब बदलने का नहीं सोचा। हम भी यही उम्मीद करते है कि हालात जल्दी ठीक होंगे और सबको उचित काम और उचित दाम मिलेगा।

(सना सुल्तान एक समाजसेवी और स्वतंत्र लेखिका हैं।)

सभी फोटो सौजन्य- सना सुल्तान

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