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भारत
राजनीति
दिल्ली चुनाव : भाजपा अपनी ही उलझन में गुम हो गई है
आपसी मतभेद से स्तब्ध, आप को जवाब देने के तरीक़े को तलाशने में परेशान और उचित प्रतिक्रिया के लिए अनुपयुक्त मार्ग का इस्तेमाल करने के साथ दिल्ली की भाजपा इकाई दबाव का सामना कर रही है।
सुबोध वर्मा
22 Jan 2020
दिल्ली चुनाव

जैसे-जैसे दिल्ली का चुनाव नज़दीक आ रहा है वैसे वैसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) अपने खुद की तैयार की गई उलझनों को समाप्त करने के लिए परेशान दिख रही है। यह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आश्वस्त और उत्साही आम आदमी पार्टी (आप) का सामना कर रही है। केजरीवाल अपनी सरकार की योजनाओं के व्यापक संपर्क और लोकप्रियता के साथ काफी आगे हैं। यह अपने आप में हतोत्साहित करने वाली बात है। लेकिन भाजपा भी एक सुसंगत प्रतिक्रिया तैयार करने में असमर्थ है। यह आलोचना करना चाहती है, लेकिन किस आधार पर?

और जैसे मानो कि यह पर्याप्त नहीं है, दिल्ली में इसका संगठन विभिन्न स्थानीय क्षत्रपों और तर्क वितर्क में समूहों के साथ तेज़ लड़ाई, गुटबाजी और प्रतिद्वंद्विता से ग्रस्त है। पार्टी के नेता प्रतिद्वंद्वियों की घृणित ऑडियो क्लिप पोस्ट कर रहे हैं। पिछले ही सितंबर में विभिन्न समूहों के समर्थकों के बीच कई झगड़े सामने आए थे।

और, अभी और भी बहुत कुछ है। भाजपा नरेंद्र मोदी सरकार की विफलताओं का भी बोझ ढ़ो रही है ख़ासकर के बढ़ती कीमतों की आर्थिक गड़बड़ी, बढ़ती बेरोज़गारी और घटती मांग। दिल्ली के मध्यम वर्ग आमतौर पर अधिक ख़र्च करने वालों ने खर्च पर ब्रेक लगा दिया है जिससे दुकानदार, मॉल और बिल्डरों में उदासी है। विभाजनकारी मुद्दों जैसे कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर ने मोदी को छात्रों और युवाओं के तरफ से मिले समर्थन को तहस नहस कर दिया है। एक ख़त्म होती हुई भावना है जो कि मोदी सरकार ने रोज़गार को नहीं बढ़ाया है।

यहां तक कि गठबंधन भी असफल हो रहे हैं

नामांकन दाखिल करने के क़रीब एक दिन पहले 20 जनवरी को बीजेपी और उसके सहयोगी शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) के बीच बातचीत टल गई। यह सीट विवाद के कारण नहीं बल्कि एक राजनीतिक सवाल था। एसएडी ने सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) और प्रस्तावित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स और नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनआरसी-एनपीआर) की वजह से बीजेपी के साथ जाने से इनकार कर दिया जिसे एसएडी भेदभावपूर्ण और धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ मानता है।

एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में आठ लाख सिख मतदाता हैं और निश्चित रूप से ये सभी भाजपा को वोट नहीं देते हैं। दरअसल, 2015 के पिछले चुनावों में सिखों ने ज़्यादातर 'आप' को वोट दिया था। लेकिन फिर भी विभाजन के इस महत्व को कम आंका नहीं किया जा सकता है। देश के हितों से ऊपर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को पूरा करने के लिए बीजेपी के लिए अगर यह गुस्सा नहीं है तो बढ़ते संशयवाद को ज़रुर दर्शाता है। यह एक असंतोष है जो मध्यम वर्ग में सबसे अधिक दृढ़ता से महसूस किया जा रहा है जैसा कि विश्वविद्यालय के लाखों छात्रों द्वारा दिखाया गया है और जो पूरे देश में सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शन में भाग लेते रहे हैं। दिल्ली में सिख अगर उच्च वर्ग नहीं हैं तो आम तौर पर मध्यम वर्ग हैं। उनका मोहभंग उस गुस्से का संकेत है जिसका बीजेपी राजधानी में सामना कर रही है।

इसलिए, भाजपा ने अब जनता दल (यूनाइटेड) (दो सीट) और लोक जनशक्ति पार्टी (एक सीट) के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। यह विचित्र और अपनी ही गिरावट की एक और स्वीकारोक्ति है। इन दलों का दिल्ली में कोई संगठनात्मक उपस्थिति नहीं है। दोनों ही पार्टी इस बात पर यकीन करती है कि वे बिहार से आई बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो दिल्ली में काम करती है। उम्मीद के साथ भाजपा को कुछ वोट जीतने के लिए उन्हें स्थान देना यह दर्शाता है कि इसकी स्थिति कितनी विकट हो गई है।

उचित राजनीतिक मुद्दा

शायद दिल्ली में आज बीजेपी पर सबसे बड़ा हमला राजनीतिक मुद्दों पर निर्णय लेने में असमर्थता है कि लोगों से कैसे संपर्क करें। वे आप पर हमला करना चाहते हैं। इसके बिना कोई रास्ता नहीं है कि वे भाजपा को विकल्प के रूप में पेश कर सकें। इसलिए, उन्हें विफलताओं को बताना होगा। लेकिन इस प्रक्रिया में एक बड़ी समस्या है कि विफलताएं क्या हैं?

उदाहरण स्वरूप वे दिल्ली में आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम को लागू करने में इसकी विफलता पर आप सरकार की आलोचना करने की योजना बना रहे हैं। ऐसा रिपोर्टों से पता चलता है। इससे उन्हें मोहल्ला क्लीनिकों की आलोचना करने का मौका मिलता है। 600 से अधिक दिल्ली के ग़रीब इलाकों में चल रहे हैं। लेकिन क्या यह काम करता है? यहां तक कि भाजपा भी संदिग्ध है।

यह भी रिपोर्ट किया गया है कि बीजेपी यह कहने जा रही है कि आप द्वारा लाई गई लोकप्रिय व्यवस्था के बजाय बिजली उपभोक्ताओं से एक प्रतीकात्मक शुल्क के तौर पर एक रुपये वसूला जाना चाहिए जिसमें 200 यूनिट तक के इस्तेमाल तक कोई शुल्क नहीं है जिससे लाखों लोगों को राहत मिलती है। बीजेपी के ऐसे बेतुके प्रस्ताव को लोगों द्वारा स्वीकार करने की बहुत कम संभावना है और यह केवल लोगों के सामने मुद्दों की संपूर्ण कमी की पुष्टि करता है। उधर कांग्रेस ने यह कहते हुए उलटा रास्ता अपनाया है कि वह आप द्वारा मुफ्त किए गए बिजली के यूनिट को बढ़ाकर 600 यूनिट कर देगी! वह भी उतना ही बेतुका नजर आ रहा है।

इस ऊहापोह के मद्देनज़र बीजेपी के कैडर हतोत्साहित हो रहे हैं और तेजी से एकमात्र व्यवहार्य दिशा यानी खुद मोदी की ओर देख रहे हैं। मोदी शायद व्यक्तिगत तौर पर चुनाव प्रचार करने में कुछ दिनों से ज्यादा का समय नहीं दे पाएंगे। इसलिए, भाजपा उनकी छवि और उपलब्धियों को ही बेचेगी। यही उनके प्रचार का हिसाब किताब है। यह काम करने की संभावना नहीं है, जैसा कि हालिया राज्य विधानसभा चुनावों से स्पष्ट था।

इसी तरह की नियति अतिराष्ट्रवादी या विभाजनकारी मुद्दों जैसे "पाकिस्तान के लिए सशक्त नीति" (जो भी मतलब हो) और सीएए के प्रचार का इंतजार करती है। ये मुद्दे झारखंड में और इससे पहले महाराष्ट्र में भी विफल हो गए, जहां इसके सहयोगी ने बीजेपी को छोड़ दिया या यहां तक कि हरियाणा में भी उसने बहुमत खो दिया और सत्ता में बने रहने के लिए स्थानीय संगठन के साथ गठजोड़ किया।

किसी भी मामले में दिल्ली में सीएए और प्रस्तावित एनआरसी-एनपीआर के खिलाफ व्यापक विरोध देखा जा रहा है। इसके विरोध में आंदोलन खासकर छात्रों के बीच है। जामिया मिलिया इस्लामिया और सीलमपुर में प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस की चौंकाने वाली क्रूरता को भी देखा गया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाजपा समर्थक गुंडों द्वारा हिंसा को भी देखा गया है। इसे अर्थव्यवस्था की आम उथल पुथल, शिक्षा और स्वास्थ्य की बढ़ते ख़र्च और भाजपा के प्रति मध्यम वर्ग की उदासीनता के कारणों के साथ मिला दें।

इसलिए, बिना स्पष्ट राजनीतिक संदेश के साथ बिखरे हुए संगठन और केंद्र सरकार से बढ़ती मायूसी के कारण अपने ’मोदी मैजिक’ संदेश को ले जाने के लिए कोई मशीनरी नहीं है। इस तरह भाजपा दिल्ली में एक चुनावी दुःस्वप्न को देख रही है।

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