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आखिरकार 15 लोगों में से तीन लोगों को जमानत मिली। अभी 12 लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। सवाल सिर्फ जमानत मिलने का नहीं , बल्कि जिस तरह से इन तमाम लोगों को गिरफ्तार किया गया , उनके जीवन के 365 से अधिक दिन काल-कोठरी में ढकेले गये , और किसके इशारे पर भेजे गये —सवाल इसका है।
अगर आज दिल्ली हाईकोर्ट को लगा कि जिस खौफनाक कानून में इन तीनों- नताशा नरवाल , देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को गिरफ्तार किया गया था , उसका कोई आधार नहीं —तो सबसे बड़ा सवाल यह उठना चाहिए कि इन लोगों (और इनके जैसे अनगिनत लोगों को) को इस तरह से फंसाने वालों को सज़ा कब मिलेगी , कब उनकी जिम्मेदारी , जवाबदेही तय होगी।
यह सवाल इसी समय उठाना ज़रूरी है , क्योंकि अभी तक न्याय प्रणाली ने इस ओर तव्वजो नहीं दी है। वैसे भी केस अभी चलेगा , सिर्फ जमानत मिली है और जवाहर लाल नेहरू के छात्र उमर खालिद , एक्टिविस्ट खालिद सैफी सहित 12 लोग सलाखों के पीछे हैं।
इन सारे लोगों पर 2020 में देश की राजधानी दिल्ली में हुए दंगों को भड़काने , उसकी साजिश करने , साजिश में मदद करने आदि के गंभीर आरोप लगाए गये , खौफनाक कानून UAPA { गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम )} कानून लगाया गया। जिस तरह से दिल्ली में नागरिकता संशोधन कानून ( CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रिजिस्टर ( NRC ) के खिलाफ आंदोलन करने वाले एक्टिविस्टों को दिल्ली दंगों को भड़काने के मामले से जोड़ा गया , बेहद गंभीर मामले लगाकर , खौफनाक कानून के तहत गिरफ्तारियां की गईं , उससे साफ हो गया था कि दिक्कत कहीं और है —एजेंसियां कुछ बड़ा रच रही हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने आज यानी 15 जून , 2021 को इस मामले में गिरफ्तार तीन आरोपियों- नताशा नरवाल , देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देते हुए भी साफ-साफ कहा कि यह असहमति को दबाने के मकसद से किया गया है। साथ ही यह भी कहा , “ लोकतंत्र के लिए काला दिन होगा अगर असहमति की आवाज़ और आतंकवाद के बीच फर्क धुंधला हो जाएगा ”।
यहां इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दिल्ली हाईकोर्ट ने इन तीनों को जमानत देते हुए धाराओं तक का उल्लेख किया है कि जो आरोप इन तीनों पर लगाया गया , उसके लिए कोई ठोस साक्ष्य तक नहीं प्रस्तुत किये गये। मिसाल के तौर पर , नताशा नरवाल के मामले में अदालत ने कहा “प्रथम दृष्या ( prima-facie) यूएपीए (गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम ) कानून) की 15 ,17 और 18 धारा में उनके खिलाफ कोई मामला नहीं दिखता है , लिहाजा जो यूएपीए की 43डी (5) में जो सख्त प्रावधान है , वह इस मामले में लागू नहीं होते। नताशा के खिलाफ आरोपों की गहन पड़ताल के बाद सामने आया कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों में शामिल रहने अलावा , उनके द्वारा कोई विशिष्ट या निश्चित काम नहीं किया गया , जिससे उन पर इस तरह से आरोप लगें। ”
अदालत ने जो कहा , उसे सरल शब्दों में यूं समझा जा सकता है , कि इन लोगों के खिलाफ जो आरोप लगाए गये हैं , जैसे चक्काजाम करना , महिलाओं को विरोध करने के लिए भड़काना , भड़काऊ भाषण देना...आदि ये सारे आरोप किसी साजिश नहीं बल्कि विरोध को आयोजित करने , उसमें शिरकत करने के हैं। इनसे हिंसा भड़काना या आतंकी गतिविधि को अंजाम देना या उसकी साजिश करना कहीं से साबित नहीं होता।
याद रहे कि नताशा नरवाल ने कैद में रहते हुए अपने पिता- महावीर नरवाल को खो दिया। नताशा के पिता , महावीर खुद नताशा की सक्रियता के बड़े हिमायती थे और उन्हें अपनी बेटी के एक्टिविज्म पर बहुत फख्र था। उन्होंने एक इंटरव्यू में इस बात की आशंका जताई थी कि वह कहीं अपनी प्यारी बेटी से मिले बिना ही रुखसत न हो जाएं। पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए नताशा को जमानत मिली थी और उस दौरान भी उनके हौसले पूरे बुलंद थे। नताशा और देवांगना —दोनों पितृसत्ता से टकराने वाली संस्था पिंजरा तोड़ की सदस्य है और पढ़ाई कर रही हैं। वहीं आसिफ इकबाल तन्हा , जामिया मिल्लिया इस्लामिया में बीए फाइनल ईयर के छात्र हैं और उनके जमानती आदेश में अदालत ने कहा , “हालांकि मुकदमे के दौरान राज्य निस्संदेह साक्ष्य को मार्शल करने का प्रयास करेगा और अपीलकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोपों को सही करेगा. जैसा कि हमने अभी कहा ये सिर्फ आरोप हैं और जैसा ही हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं , हम प्रथमदृष्टया इस प्रकार लगाए गए आरोपों की सत्यता के बारे में आश्वस्त नहीं हैं। ”
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इन तीनों की गिरफ्तारी जिस आधार पर पुलिस ने की , जो गंभीर धाराएं उन पर लगाई गईं , उन पर अदालत ने विश्वास नहीं किया। अगर दिल्ली उच्च न्यायालय के जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जे भांभानी के आज के जनामत देने वाले फैसले को सुप्रीम कोर्ट के विनोद दुआ के राजद्रोह के मामले को खारिज करने वाले फैसले से जोड़कर पढ़ा जाए तो साफ होता है कि किस तरह से असहमति को अपराध में मोदी सरकार ने तब्दील कर दिया है। विनोद दुआ वाले केस को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि सरकार की तीखी-से-तीखी आलोचना को राजद्रोह नहीं माना जा सकता। दिल्ली उच्च न्यायालय का स्वर है असहमति को दबाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है —उसकी मौत की घंटी है।
दुख इस बात का है कि सब कुछ अदालतें कह देती हैं , लेकिन इस तरह के केस बनाने वाले तंत्र , उनके हुक्मरानों को छोड़े रहती हैं और लोकतंत्र की मौत की घंटी बजाता रहता है तंत्र। भारतीय नागरिक सालों-साल सलाखों के पीछे अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित होते रहते हैं। आखिर नताशा , देवांगना , आसिफ इकबाल को 365 दिनों से अधिक कालकोठरी में बिताने पड़े—क्यों ?
(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)