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दिल्ली दंगे: ज़मानत के आदेश ‘संदिग्ध’ साक्ष्यों, ‘झूठे’ सुबूतों की कहानी बयां करते हैं
हिंसा की जांच शुरू होने के बाद से 3,000 से अधिक जमानतें दी जा चुकी हैं, न्यूज़क्लिक द्वारा इनमें से पिछले एक साल के दौरान दिल्ली में विभिन्न अदालतों द्वारा पारित 120 जमानत आदेशों की समीक्षा की है।
तारिक अनवर
24 Mar 2021
Delhi Riots
संकलित तस्वीर

नई दिल्ली: प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में देरी, अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयानों में कई विसंगतियां (इनमें से कुछ को तो “प्लांटेड” गवाह के तौर पर वर्णित किया गया था), से लेकर इनमें से कईयों ने अपने शुरूआती बयानों में अभियुक्तों को नामित नहीं किया था। लेकिन अचानक से 10 दिन बाद से लेकर एक महीने बाद या यहाँ तक कि 45 दिनों के बाद बिना किसी टेस्ट आइडेंटिटी परेड (टीआईपी) के ही पहचान लेने का दावा किया है। इसके साथ ही साथ वीडियो साक्ष्य और कॉल डिटेल रिकार्ड्स (सीडीआर) में अभियुक्तों का कोई सुराग न पाए जाने पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अदालतों को कुछ भी स्थापित करने के लिए प्रेरित नहीं किया है, जबकि पिछले साल फरवरी में शहर में हुई भयानक सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में जमानत याचिकाओं पर मंजूरी देते हुए दिल्ली पुलिस की जांच की विश्वसनीयता पर गंभीर संदेह जताया है।

अदालतों को तो कई जमानत आदेशों पर विचार करते समय यहाँ तक कहना पड़ा है कि अभियोजन पक्ष द्वारा “गलत” और “तथ्यात्मक तौर पर गलत” दावों को पेश किया गया था। जो जांच चलाई गई थी, वे “उथले” थे और जिन चार्जशीट को दाखिल किया गया, उन्हें “घोर लापरवाही” और “अनमयस्क” तरीके से तैयार किया गया था।

दिल्ली दंगों की जांच शुरू होने के बाद से 3,000 से अधिक जमानतें दी जा चुकी हैं, जिनमें से पिछले एक साल में शहर की विभिन्न अदालतों द्वारा पारित 120 जमानत आदेशों की न्यूज़क्लिक ने पड़ताल की है। पिछले साल दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सौंपे गए इन मामलों की सुनवाई का काम चार विशेष अदालतों द्वारा कड़कड़डूमा अदलात परिसर में (दो मजिस्ट्रेट कोर्ट और दो सेशन कोर्ट) में चल रहा है।

करीब 40 से अधिक मामलों में, जिसमें जांचकर्ताओं ने सीसीटीवी कैमरों और अन्य स्रोतों से हासिल वीडियो फुटेज पर भरोसा किया था, उनमें से 32 मामले प्राथमिक न्यायिक जांच को पास कर पाने में विफल रहे। अदालतों को इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ा कि जमानत मांगने वाले “अभ्यर्थी किसी भी सीसीटीवी फुटेज में नजर नहीं आ रहे हैं।”

कम से कम 13 मामलों में जो वीडियो फुटेज अदालतों के समक्ष पेश की गईं, उनमें या तो कथित आरोपियों को पीछे से दिखाया गया था, जिनके चेहरे ढके हुए थे– जो आरोपियों के अपराध के दृश्यों में विशिष्ट उपस्थिति को दर्शा पाने में विफल हैं। दिलचस्प बात यह है कि आरोपी “सद्भावपूर्ण तमाशबीन” साबित हुए। अपराध की जगह पर आरोपियों की उपस्थिति को साबित करने के लिए पेश किये गए कुछ ऐसे भी वीडियो साक्ष्य प्रस्तुत किये गए जो वास्तविक अपराध के दिन की घटना से एक दिन पहले के थे। कुछ ऐसे मामले भी सामने आये हैं जिनमें पुलिस द्वारा पेश किये गए वीडियो फुटेज अपराध के घटनास्थल के नहीं थे, बल्कि “उस घटनास्थल के आसपास की जगह” के पाए गए।

दिल्ली पुलिस ने जिन 120 मामलों में से 56 की विवेचना की है, उनमें से दूसरे सबसे “महत्वपूर्ण” सुबूत में सीडीआर (काल डिटेल्स रिकॉर्ड) है, जिसे आरोपियों के खिलाफ आरोप तय करने में इस्तेमाल किया गया था। लेकिन अदालतों ने अभियोजन पक्ष के साथ-साथ बचाव पक्ष को भी सुनने और मामले में शामिल तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद पाया कि “घटना की तारीख और समय पर आरोपियों की सीडीआर लोकेशन वो नहीं पाई गई जो घटनास्थल/एसओसी (अपराध की जगह) की है। कई मामलों में अभियोजन पक्ष ने इसे रिकॉर्ड पर नहीं रखा था।

उदाहरण के लिए राशिद उर्फ़ मोनू (राज्य बनाम राशिद उर्फ़ मोनू; एफआईआर संख्या: 134/2020, पुलिस चौकी दयालपुर) को जमानत देते वक्त, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने कहा कि “रिकॉर्ड में यह स्वीकार्य स्थिति है कि आवेदक न तो जाँच एजेंसी द्वारा एकत्र किये गए किसी भी सीसीटीवी फुटेज में नजर आ रहा है और न ही उस घटना के दिन और समय पर घटनास्थल/एसओसी पर ही उसकी सीडीआर लोकेशन मिली है।”

उन्होंने आगे कहा “इस चरण में आकर विशेष पीपी (सरकारी वकील) द्वारा कमोबेश इस तथ्य को स्वीकार किया है कि 26 सितम्बर, 2020 के दिन आदेश पारित करते वक्त (जब इस अदालत द्वारा आवेदनकर्ता की पूर्व की जमानत याचिका ख़ारिज कर दी गई थी) उस दौरान अभियोजन पक्ष द्वारा अनजाने में गलत दावा पेश कर दिया गया था कि आवेदक सीसीटीवी फुटेज में दिख रहा है और उसकी पहचान पीडब्ल्यू (सार्वजनिक गवाह) अनिल कुमार और पीडब्ल्यू हिमांशु कुमार द्वारा कर ली गई थी। लेकिन यह वास्तव में गलत साबित हुआ क्योंकि मामले में दायर अंतिम चार्जशीट को तैयार करते समय वैसे तथ्य निकले ही नहीं हैं।”

दंगों के दौरान एक व्यक्ति की हत्या के आरोपी अनवर हुसैन की जमानत याचिका पर मंजूरी देते हुए अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किया गया सीसीटीवी फुटेज दरअसल पिछले साल 24 फरवरी को हुई वास्तविक घटना से एक दिन पहले का था।

हालाँकि पुलिस का दावा है कि उसने सभी वैज्ञानिक उपकरणों जैसे कि प्रोद्योगिकी आधारित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर, सीडीआर, जिओ-लोकेशन सेवाएं, फोन कॉल्स और सीसीटीवी एवं वीडियो फुटेज में डम्प पड़े डेटा (तमाम लोगों और मीडिया द्वारा रिकॉर्ड) से “निष्पक्ष जांच” को सुनिश्चित करने के लिए इकट्ठा किये गये हैं। इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने तीन आरोपियों को जमानत देते हुए अपनी टिप्पणी में कहा है कि अभियोजन पक्ष का केस ‘अटकलबाजी’ प्रतीत होता है और “वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं था।”

अभियोजन पक्ष ने कम से कम 50 मामलों में आरोपियों के खिलाफ “फंसाने वाले सबूत” के तौर पर प्रत्यक्षदर्शियों-सार्वजनिक गवाहों या पुलिसकर्मियों के बयानों का हवाला दिया है। लेकिन इन खुलासों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 161 के तहत रिकॉर्ड किया गया है, जो कानून की अदालत में स्वीकार्य नहीं हैं। इन 50 मामलों में अदालतों ने फैसला सुनाया है कि ये बयान “असंगत” हैं क्योंकि या तो इनमें लगातार बदलाव आता रहा है या इनके बयानों को अपराध के 10 से 45 दिनों के अन्तराल के बाद दर्ज किया गया था। अभियोजन पक्ष “गवाहों के बयानों को दर्ज करने में भारी देरी” की व्याख्या कर पाने में विफल रहा।”

उन मामलों में जिसमें पुलिस वालों ने कथित अपराध की घटना की रिपोर्ट की थी और दावा किया था कि वे खुद इसके चश्मदीद गवाह थे, लेकिन उक्त कथित आपराधिक घटना के काफी समय बाद एफआईआर दर्ज की गई थी। इस बारे में अदालत ने सवाल उठाया कि आखिर वो कौन सी चीज थी, जिसने उन्हें उस दिन पीसीआर पर सूचना दर्ज करने और अविलंब रिपोर्टिंग करने से रोक दिया था। इनमें से कई मामलों में अभियोजन पक्ष की ओर से प्रस्तुत साक्ष्य असल में पुलिसकर्मी हैं, जिन्होंने घटना के कई दिन बाद जाकर इसकी रिपोर्टिंग की थी।

कई ऐसे भी मामले हैं जिनमें साक्ष्यों ने अपराध की सूचना दी थी, उसमें पुलिस के सामने अपने पहले दो बयानों में किसी को भी आरोपी के नाम का जिक्र नहीं किया गया था (एक मामले में तो सीआरपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट तक के सामने), लेकिन अपने बाद के बयानों में आरोपी को नामित किया गया था। ऐसे कम से कम पांच मामले हैं जिनमें अदलात ने पाया कि गवाहों ने पिछली एफआईआर में आरोपियों के नाम का उल्लेख नहीं किया था, लेकिन “अचानक से वर्तमान मामले में उसकी पहचान कर ली है”, जो कि प्रथम दृष्टया “काल्पनिक” या संदिग्ध मालुम होती है। 

संदेहास्पद मामले 

राज्य बनाम गुरमीत सिंह मामले में, अदालत ने पाया कि एक गवाह (रफ़ीक) ने पहली बार हिंसा में लिप्त आरोपी व्यक्तियों को नामित करने में “करीब 46 दिनों” की देरी की थी। उसकी गवाही पर संदेह व्यक्त करते हुए अदालत ने 19 नवंबर, 2020 को सिंह की जमानत याचिका पर मंजूरी देते हुए यह सवाल खड़ा किया कि उक्त गवाह द्वारा कैसे उस आरोपी की पहचान दंगाई के तौर पर कर ली गई जब कथित अपराध के लगभग दो महीने बाद उसका बयान दर्ज किया गया था।  

नासिर अहमद जो कि पिछले 15 वर्षों से फल बेचने का काम करता है, और दिल्ली के विक्टर पब्लिक स्कूल के पास टी-200, मेन रोड, भोजपुर में एक गोदाम मालिक है। उसकी ओर से पुलिस के समक्ष एक शिकायत दर्ज की गई थी, जिसमें कहा गया था कि 25 फरवरी, 2020 के दिन 11 बजे उनके गोदाम पर 100 से अधिक की संख्या में लोगों का झुण्ड आया था, जिन्होंने 2 लाख रूपये मूल्य के फलों की लूट की और गोदाम में दो रेहड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया था। उसकी शिकायत पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 147, 148, 149, 427, 380, 436 और 34 के तहत जाफराबाद पुलिस स्टेशन में (एफआईआर संख्या 132/2020) दर्ज कर दी गई थी।

चार्जशीट के मुताबिक ओसामा, गुलफाम उर्फ़ चिकना और आतिर नाम के तीन व्यक्तियों ने, जिन्हें इसी पुलिस स्टेशन में दर्ज एक अन्य एफआईआर (संख्या 107/2020) के तहत गिरफ्तार किया गया था, ने वर्तमान मामले में “अपनी आपराधिक भूमिका की स्वीकारोक्ति का खुलासा किया था”। तदनुसार इनमें से दो (गुलफाम और आतिर) को 28 अप्रैल, 2020 को मंडोली से और ओसामा को 10 अप्रैल, 2020 को तिहाड़ जेल से गिरफ्तार किया गया। 

ललित, जो कि एक तीसरे मामले में शिकायतकर्ता हैं (एफआईआर संख्या 113/2020, जाफराबाद पुलिस स्टेशन) को वर्तमान मामले के पास के परिसर से संबंधित होने के कारण इस मामले में एक चश्मदीद गवाह के तौर पर उद्धृत किया गया है। इसके अलावा चार्जशीट में कहा गया है कि दो और प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों को भी सीआरपसी की धारा 161 के तहत दर्ज किया गया है, और इसे पूरक चार्जशीट में दर्ज किया जाएगा।

इस वर्ष 4 जनवरी को तीन आरोपियों को जमानत देते वक्त अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अमिताभ रावत ने अपने आदेश में कहा था “जमानत याचिकाओं, उनके जवाब और विशेषकर चार्जशीट की जांच करने के बाद मैंने पाया कि कितनी लापरवाही के साथ चार्जशीट तैयार और दर्ज की गई है, वह बेहद शोचनीय है। बेहद अन्म्यस्क ढंग से जांच का काम किया गया है। गवाहों की सूची में कुछ गवाहों का जिक्र है। हालाँकि सीआरपीसी की धारा 161 के तहत किसी भी प्रत्यक्षदर्शी के बयानों को दर्ज नहीं किया गया है। 22 मई, 2020 को दाखिल की गई चार्जशीट को बेहद लापरवाही के साथ दायर किया गया था।”

25 फरवरी, 2020 के दिन मेन मौजपुर रोड, यमुना विहार, नई दिल्ली में प्रेम सिंह की कथित तौर पर हत्या करने के अपराध में मोहम्मद शहजाद और मोहम्मद शारिक पर 21 मार्च, 2020 को वेलकम थाने में दायर एफआईआर संख्या 139/2020 पर जमानत दे दी गई है। इस एफआईआर में आरोपियों के नाम का जिक्र नहीं किया गया है। उसकी पहचान कथित तौर पर तीन प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा सीएएफ फॉर्म के जरिये की गई थी, और एफआईआर दर्ज होने के आठ महीनों के अंतराल के बाद जाकर उन्हें 2 नवंबर, 2020 को गिरफ्तार किया गया था।

हालाँकि प्रत्यक्षदर्शियों की वहां पर मौजूदगी थी, लेकिन इसके बावजूद न्यायिक परीक्षण पहचान परेड आयोजित करने के बजाय “सीएएफ फॉर्म्स पर अस्पष्ट ब्लैक एंड व्हाईट फोटो के आधार पर आरोपियों की कथित पहचान कराई गई।”

यहाँ तक कि जिन पुलिसकर्मियों को अभियोजन पक्ष के गवाहों के तौर पर दर्ज किया गया था, उन्होंने भी अपने शुरूआती बयानों में किसी भी आरोपी का नाम नहीं लिया था। लेकिन उनके बाद की गवाही (पूरक बयानों में) में कथित तौर पर आरोपियों के नामों को काफी समय बाद आरोपियों की सूची में शामिल कर लिया गया।

ऐसे कम से कम 26 मामले हैं जिसमें अदालत ने पाया है कि आरोपियों के नामों का न तो एफआईआर में कोई उल्लेख है और न ही सार्वजनिक गवाहों की गवाही में ही इसका कोई जिक्र है। इसके अलावा उनके खिलाफ कोई “विशिष्ट आरोप नहीं” पाए गए हैं।

एक अन्य रोचक मामले में (एफआईआर संख्या 145/2020, वेलकम पुलिस थाना) में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, अमिताभ रावत ने पिछले वर्ष 26 मार्च और 8 अप्रैल को दर्ज एक बीट कांस्टेबल की गवाही के आधार पर पाया कि इमरान उर्फ़ तेली और बाबू के खिलाफ 25 फरवरी, 2020 को मौजपुर लाल बत्ती पर कथित तौर पर दंगों में हिस्सा लेने के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया था। लेकिन जब उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि क्या यह वही मामला है जो उनके सामने विचाराधीन है, तो अभियोजन पक्ष ने इससे इंकार कर दिया।

अभियोजन पक्ष का जवाब था कि “अपराध मजिस्ट्रेट की तहकीकात के लायक हैं, लेकिन आरोपी व्यक्तियों ने राहुल को मौत के घाट उतारने के इरादे या संज्ञान के साथ एक कार्यवाही को अंजाम दिया था, जिसमें उसे बंदूक की गोली लगी थी।”

दिलचस्प बात यह है कि जब न्यायाधीश ने पूछा कि वो व्यक्ति कहाँ है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह घायल हुआ था। उसके बयान दर्ज नहीं हैं। लंबी छानबीन के बाद पुलिस ने निष्कर्ष निकाला कि जिस राहुल को दंगाई भीड़ द्वारा गोली मारी थी, जिसमें कथित तौर पर दो आरोपी शामिल थे, उस राहुल ने अपने मेडिको लीगल केस (एमएलसी) में गलत पता देने के साथ-साथ गलत मोबाइल नंबर भी दिया हुआ था। जब तक पुलिस अस्पताल पहुंची, तब तक कथित पीड़ित वहां से गायब हो चुका था। यहाँ तक कि पुलिस ने भी उसे कभी नहीं देखा।

अदालत के अनुसार “मामला यह है कि, कौन इस बात को बताने जा रहा है कि किसने किसको कहाँ पर गोली मारी थी। कथित पीड़ित को पुलिस द्वारा कभी नहीं देखा गया। उसने गोली मारे जाने या किसी भी भीड़/दंगाइयों के बारे में गोली से घायल किये जाने के बारे में बयान दर्ज नहीं कराया। ऐसे में, जब पुलिस की जांच में पीड़ित गायब है तो आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ आईपीसी की धारा 307 (हत्या की कोशिश) का मामला कैसे बना दिया गया? बंदूक की गोली से घायल होने की बात को कैसे सत्यापित कर लिया गया? इस बारे में कोई कुछ नहीं कह रहा है।” इसके साथ ही इसमें कहा गया है कि आरोपियों के पास से कोई हथियार, असलहा या कारतूस की बरामदगी नहीं हुई है। इसलिए आरोपियों के खिलाफ शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत कोई मामला नहीं बनता है। और इस प्रकार दोनों आरोपियों को आईपीसी की धारा 307 और शस्त्र अधिनियम की धारा 27 के तहत अपराध से मुक्त कर दिया गया था। 

राज्य के इस तर्क पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कि इसे निश्चित तौर पर “मान लेना” चाहिए कि उन्होंने आईपीसी की धारा 307 के तहत अपराध किया है, क्योंकि आरोपी व्यक्ति दंगाई भीड़ का हिस्सा थे, पर एएसजे ने पुलिस पर फटकार लगते हुए कहा “पूर्वानुमानों को प्रमाण/सुबूत का आकार देने तक नहीं खींचा जा सकता है” क्योंकि “आपराधिक न्यायशास्त्र के अनुसार किसी आरोपी पर आरोप मढ़ते वक्त कुछ तथ्यात्मक सामग्री अवश्य होनी चाहिए।”

इस बात को मानने के लिए कि आरोपी व्यक्तियों ने गैर-क़ानूनी तौर पर इकट्ठा होकर आईपीसी की धारा 143, 144, 147, 148 एवं 149 के तहत आपराधिक कृत्य किया है, अदलात ने मामले को संबंधित मजिस्ट्रेट की अदालत में स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि यह मामला सत्र न्यायालय में ट्रायल के लायक नहीं था।

एक और मुद्दा जो अदालतों के सामने आया है वह यह है कि पुलिस ने कई संदिग्धों को “इकबालिया बयानों” के आधार पर गिरफ्तार किया है, जो कि सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज दंगों में अपनी भूमिका को कथित रूप से स्वीकार कर रहे थे। न्यूज़क्लिक द्वारा जिन सभी मामलों का विश्लेषण किया गया, उनमें ऐसे 10 मामले पाए गए हैं। ऐसे ही एक मामले में अदालत ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि कथित दंगे की घटना का कोई सार्वजनिक चश्मदीद गवाह की अनुपस्थिति में खुलासे के अलावा “यह अपनेआप में कोई मायने नहीं रखता है”। 

उदहारण के लिए, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश विनोद यादव ने खजुरी खास (अपराध शाखा) में दर्ज एफआईआर संख्या 101/2020 में खालिद सैफी की जमानत को मंजूरी इस बात को देखते हुए दी कि अभियोजन पक्ष ने मामले में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं किया है कि मामले के दिन आवेदक की अपराध स्थल पर सशरीर मौजूदगी पाई गई थी। घटना के दिन आरोपी किसी भी सीसीटीवी फुटेज/वायरल वीडियो में अपराध के दृश्य से संबंधित नहीं दिख रहा है। आवेदक की कोई पहचान किसी भी स्वतंत्र सार्वजनिक गवाह के जरिये या घटना के दिन घटनास्थल पर उसके मौजूद रहने का कोई पुलिस गवाह नहीं है। आवेदक के मोबाइल फोन की सीडीआर लोकेशन भी अपराध स्थल पर नहीं पाई गई है। आवेदक को इस मामले में मात्र उसके खुलासे और सह-अभियुक्त ताहिर हुसैन के इकबालिया बयान के आधार पर इस मामले में घुसेड़ दिया गया है।

अदालत के विचार में “यहाँ तक कि आवेदक के पास से किसी भी प्रकार की कोई भी वसूली उसके इकबालिया बयान के समर्थन में बरामद नहीं की गई है। यह तर्क कि आवेदक, सह-आरोपी ताहिर हुसैन और उमर खालिद के साथ मोबाइल फोन के जरिये नियमित संपर्क/टच में था, और यही उनकी 8 जनवरी, 2020 की सीडीआर लोकेशन से भी स्पष्ट हो रहा है जो कि शाहीन बाग़ की पाई गई है, लेकिन इससे शायद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है। क्योंकि प्रथम दृष्टया इस मामले में आवेदक के खिलाफ आरोपित आपराधिक षड्यंत्र को स्थापित करने के लिए किसी भी तरह का आधार नहीं बनाया जा सकता है।

इसमें आगे कहा गया है “यहाँ तक कि इस मामले में सार्वजनिक गवाह राहुल कसाना का बयान भी सीआरपीसी की धारा 161 के तहत दर्ज किया गया था, जो सिर्फ आवेदक और सह-आरोपी ताहिर हुसैन और उमर खालिद के बीच 8 जनवरी, 2020 को हुई बैठक के बारे में बात करता है। हालाँकि, इससे इस प्रकार की बैठक की विषय-वस्तु के बारे में कोई खुलासा नहीं होता है।” 

यहाँ पर इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि सार्वजनिक गवाह कसाना, विशेष सेल द्वारा जांच की जा रही दंगों की एक बड़ी साजिश (आतंकवाद विरोधी कानून यूएपीए जैसे कठोरतम धाराओं के तहत दर्ज एफआईआर संख्या 59/2020) के मामले में भी एक गवाह है। 21 मई, 2020 को सीआरपीसी की धरा 161 के तहत दर्ज किये गए अपने बयान में उक्त गवाह ने “आवेदक के खिलाफ ‘आपराधिक षड्यंत्र’ को लेकर एक शब्द नहीं कहा था, और अब अचानक से उसने 27 सितम्बर, 2020 को सीआरपीसी की धारा 161 के तहत अपना बयान दर्ज करवाया है, जो कि आवेदक के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के बिगुल फूंकने के समान है। यह प्रथम दृष्टया वाली बात गले से नीचे नहीं उतरती।”

यहाँ तक कि पिंजरा तोड़ कर्यकर्ता देवांगना कलिटा  वाले मामले में भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्राथमिक तौर पर हत्या और दंगों के मामले में इस आधार पर जमानत दी थी कि उनके खिलाफ जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गए थे, वे इस मामले में सह-आरोपी शाहरुख़ के “खुलासे वाले बयान” में बड़ी साजिश और अपराध के स्थान पर उनकी उपस्थिति के कारण लगाये गए थे। 

25 से अधिक मामलों में “साम्यता” के आधार पर जमानत दे दी गई थी, जब यह देखने में आया कि “आरोपियों को सौंपी गई भूमिका और जिस सामग्री पर भरोसा किया जा रहा था, वे एक ही हैं” जैसा कि एक अन्य आरोपी व्यक्ति के मामले में देखने को मिला था, जिसे पहले ही एक पिछले मामले में जमानत दी जा चुकी है।

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