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राजनीति
सालवा जुडूम के कारण मध्य भारत से हज़ारों विस्थापितों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की मांग 
विस्थापितों के संगठन ने केंद्र की सरकार से मिजोरम में हिंसा के कारण पलायन कर त्रिपुरा जाने वाले ब्रू आदिवासियों के लिए ब्रू पुनर्वास योजना की तर्ज पर सालवा जुडूम पीड़ित आदिवासियों के पुनर्वास के लिये सभी राज्यों को साथ लेकर मध्य भारत में भी पुनर्वास योजना बनाने का अनुरोध किया है।
मुकुंद झा
07 Apr 2022
Salwa Judum

एक तरफ़ देश में जहाँ आजकल कश्मीर से हिन्दुओं के विस्थपित होने पर चर्चा हो रही है वहीं मध्य भारत से हज़ारों परिवारों के विस्थापन पर कोई भी चर्चा नहीं हो रही है। इस पूरे विस्थापन को अनदेखा किया जा रहा है। यह विस्थापन की कहानी मध्य भारत से विस्थापित हुए आदिवासियों की है जो पुलिसिया और नक्सली हिंसा से परेशान होकर अपना प्रदेश छोड़ने को मजबूर हुए थे। बुधवार को लगभग 100 से अधिक की संख्या में ये लोग दिल्ली पहुंचे और जंतर मंतर पर सांकेतिक विरोध प्रदर्शन किया। इस दौरान उन्होंने अपनी बात रखी। इसी क्रम में विस्थापित लोगों के एक संगठन वलसा आदिवासूलु समख्या के बैनर तले प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में एक प्रेस वार्ता की जिसमें उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार से हिंसा के कारण मध्य भारत या कहें मूलतः छत्तीसगढ़ से विस्थापित आदिवासियों का राज्यों के साथ मिलकर पुनर्वास करने की मांग की है।

ये विस्थापित अभी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बसे हुए हैं और वहां की सरकार इन्हें वहां से बेदखल करना चाह रही है।

दिल्ली आए लोगों ने बताया कि वर्ष 2004-05 में नक्सलियों और पुलिस की हिंसा की वजह से 55 हज़ार आदिवासियों को अपना राज्य छोड़कर आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश व ओडिशा जाना पड़ा। वहां उन्होंने जंगल किनारे रह कर खेती व पशुपालन कर जीवनयापन शुरू किया। सबसे ज़्यादा विस्थापित सीमावर्ती तेलंगाना के जंगलों में रह रहे हैं। इन आदिवासियों को वहां भी कोई बुनियादी सुविधा नहीं मिलती है। आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाता है, जॉब कार्ड, राशन कार्ड, स्वास्थ्य बीमा कार्ड आदि सुविधाएं नहीं मिलती हैं। ये सब नए-नवेले बने राज्य छत्तीसगढ़ में शुरू हुए सालवा जुडूम आंदोलन की वजह से हुआ।

अब मन में सवाल उठता है कि ये जुडूम आंदोलन था क्या? आपको बता दें ये राज्य में नक्सल के ख़िलाफ़ एक आंदोलन था जिसे सरकारों ने भी शह दिया था। इसने स्थानीय लोगों को ही नक्सल के ख़िलाफ़ कर दिया था। 'सालवा जुडूम' आंदोलन की शुरूआत 2005 में हुई और इसके अगुवा के तौर पर कांग्रेस के नेता महेंद्र कर्मा को माना जाता है जिन्हे 2013 में नक्सलियों ने एक हमले में मार दिया। 'सालवा जुडूम' गोण्डी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है 'शांति का कारवां'। परन्तु ये कहीं से भी शांतिपूर्ण नहीं रहा है बल्कि ये कहें तो सही होगा की सरकारों ने नक्सल फोर्सो की हार देखते हुए ग्रामीणों को उनके सामने खड़ा किया। ग्रामीणों को आधुनिक हथियार दिए गए और उन्हें कहा गया कि वो पुलिस के आदमी है। इसी कारण ग्रामीण भी नक्सल के निशाने पर आ गए और नक्सलियों ने गांवों को निशाना बनाना शुरू किया। जिसके बाद एक अलग ही हिंसा का दौर शुरू हुआ और सैकड़ों की संख्या में गाँवों ने पलायन किया। हालाँकि 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे आंदोलन को असंवैधानिक बताया और कहा कि माओवादियों और नक्सल से निपटने का काम पुलिस और सुरक्षाबलों का है। स्थानीय प्रशासन अपनी कमज़ोरी छिपाने के लिए किसी भी नागरिक को मौत के मुंह में नहीं धकेल सकता। इस तरह साल 2008 में इस अभियान को पूरी तरह से असंवैधानिक करार देते हुए बंद कर दिया गया।

अब वापस लौटते हैं अभी के मुद्दे पर यानी विस्थापितों के पुनर्वास पर, जैसा की ज्ञात है कि ये सभी विस्थापित बड़ी तादाद में तेलंगाना के दंडकारण्य जंगलों में रह रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता शुभ्रांशु चौधरी विस्थापितों के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्होंने न्यूज़क्लिक से विस्तृत बातचीत की और बताया कैसे सरकार ने कोरोना की आपदा में अवसर देखा और इन विस्थापितों को प्रताड़ित किया। दरअसल छत्तीसगढ़ से विस्थापित होकर लोग आंध्रप्रदेश चले गये थे। राज्य के बंटवारे के बाद अधिकांश विस्थापित फिलहाल तेलंगाना राज्य में हैं।

शुभ्रांशु कहते हैं, "बीते 2 सालों में जब कोरोना महामारी चल रही थी, तेलंगाना सरकार ने कोरोनाकाल में सलवा जुडूम पीड़ित आदिवासियों की ज़मीनों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। कोरोना काल में मीडिया और बाकि समाज के लोगों ने भी इस ओर बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। ऐसे में कोरोना काल में सरकार ने लगभग इनकी आधी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर लिया। इनके घरों को तोड़ दिया गया। हालाँकि इन ज़मीनो का इनके पास कोई लिखित मालिकाना हक़ नहीं है लेकिन ये लोग इसी से अपना जीवनयापन कर रहे थे।"

दंडकारण्य जंगल 4-5 राज्यों में फैला हुआ है। जब छत्तीसगढ़ में इन आदिवासियों को मारा गया तो ये लोग दंडकारण्य जंगल में ही 40-50 किलोमीटर अंदर आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में चले गये।

शुभ्रांशु बताते हैं, "अब आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की सरकारें इन्हें अपने क्षेत्र से भगा रही हैं। वो पहले भी इन्हें वापस भेजना चाहती थीं लेकिन बीच में कोर्ट के के आदेशों की वजह से ऐसा नहीं कर पा रहे थे। पिछले तीन महीने से फिर से जो इनकी बची ज़मीन थी सरकार ने उस पर भी क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया है। वन विभाग के अधिकारियों ने विस्थापितों की आधी से अधिक ज़मीन पर कब्ज़ा कर उस पर पौधारोपण कर दिया है। विस्थापितों को लगातार छत्तीसगढ़ वापस जाने के लिए कहा जा रहा है, पर अधिकतर विस्‍थापित अब भी अपने गांवों में वापस नहीं जाना चाहते हैं क्योंकि वहां अब भी उनके अधिकतर गांवों में नक्सल का प्रभाव है और अभी वहां हिंसा जारी है। उन्हें अभी वहां सुरक्षा का माहौल नहीं लगता है।"

शुभ्रांशु कहते हैं कि देश में कश्मीर फाइल्स पर बहुत चर्चा हो गई है, अब ज़रा केन्द्र सरकार इन आदिवासियों की फाइल्स भी देख ले तो इनके जीवन में भी सुधार हो।

अपने एक बयान में आदिवासियों के संगठन ने वनाधिकार क़ानून का हवाला देते हुए कहा, "वनाधिकार का अदला-बदली कानून यह नहीं कहता कि बदले में दी गई ज़मीन उसी राज्य में होनी चाहिए इसलिए कानूनत: विस्थापितों को उनकी छत्तीसगढ़ में छोड़ी गई वन भूमि के बदले उनके द्वारा पिछले 15 सालों में आंध्र और तेलंगाना में जंगल काटकर बनाई ज़मीनों का मालिकाना हक़ दिया जा सकता है। आंध्र और तेलंगाना में भी आदिवासी उसी दंडकारण्य के जंगल में हैं और उन्हें अक्सर समझ नहीं आता कि थोड़े-थोड़े दिन बाद सरकार जगह का नाम बदल देती है और उसके साथ नियम भी बदल जाते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में वे मुरिया गोंड आदिवासी कहलाते हैं पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में उनको आदिवासी नहीं माना जाता है।"

हालाँकि इस बीच सोमवार 4 अप्रैल 2022 को ये छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से मिले। उन्होंने सकारात्मक रुख दिखाया और कहा जिन आदिवासियों को अपने घर-गांव छोड़ने पड़े और अगर वो लौटना चाहते हैं तो सरकार उनकी सुरक्षा और रहने का बंदोबस्त करेगी। दैनिक भास्कर में छपी खबर के मुताबिक मुख्यमंत्री से मुलाकात के दौरान प्रतिनिधि मंडल ने उनसे किसी उपयुक्त स्थान में बसने और कृषि के लिए ज़मीन उपलब्ध कराने का आग्रह किया। मुख्यमंत्री ने उनकी मांग पर कहा कि छत्तीसगढ़ वापस आने के इच्छुक लोगों को जमीन देने के साथ उन्हें राशन दुकान, स्कूल, रोज़गार सहित मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। उन्होंने इसके लिए गृह विभाग के अपर मुख्य सचिव सुब्रत साहू और पुलिस महानिदेशक अशोक जुनेजा को भी उचित कदम उठाने को कहा है।

विस्थापितों के संगठन ने केंद्र की सरकार से मिजोरम में हिंसा के कारण पलायन कर त्रिपुरा जाने वाले ब्रू आदिवासियों के लिए ब्रू पुनर्वास योजना की तर्ज पर सलवा जुडूम पीड़ित आदिवासियों के पुनर्वास के लिये सभी राज्यों को साथ लेकर मध्य भारत में भी पुनर्वास योजना बनाने का अनुरोध किया। क्योंकि छत्तीसगढ़ में अभी भी पुलिस और नकस्ल आमने-सामने हैं। दूसरा सरकार इन्हे CRPF कैंपो के आस पास ज़मीन देना चाहती है जबकि उन कैंपो पर नकस्ल कभी भी हमला कर सकते हैं। दूसरा यहां आने के बाद रोज़गार का कोई साधन नहीं होगा। ऐसे में सरकार उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन दे।

विस्थापितों का कहना है कि सरकार 2019-20 में मिजोरम से त्रिपुरा गए ब्रू आदिवासियों के अपनाई गई पुनर्वास नीति की तरह ही नीति बनाएं और जो आदिवासी जहां हैं वहां उन्हें रहने का अधिकार दे। वनाधिकार नियम 2006 के धारा 3.1.एम के प्रावधानों के तहत आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में वनभूमि पर जहां जिसका कब्ज़ा है उन्हें उसका अधिकार दें जिससे उनके भरण-पोषण की दिक्कत न आए।

ये मामला अभी संसद में भी उठा था। बस्तर से कांग्रेस सांसद दीपक बैज ने कुछ दिनों पहले लोकसभा में इस मुद्दे को उठाया है। उन्होंने लोकसभा में कहा कि मेरे क्षेत्र बस्तर दंतेवाड़ा, बीजापुर, सुकमा आदि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सैंकड़ों गांवों से हज़ारों आदिवासी अपने घर व गांव को छोड़कर अपने सीमावर्ती गांव आंध्रप्रदेश व तेलंगाना में पलायन कर गये थे। लगभग 15-16 वर्ष पूर्व पलायन करके वे आंध्रप्रदेश व तेलंगाना में बसे जहां आदिवासियों को यहां की सरकारें ज़बरन निकाल रही हैं। उनके घर तोड़े जा रहे हैं। ये आदिवासी भय के साये में जीने के लिए विवश हैं। इन आदिवासियों को फिर पलायन के लिये विवश किया जा रहा है।

उनका कहना है कि यह मामला तीन राज्य तेलंगाना, आंध्रप्रदेश व छत्तीसगढ़ का है इसलिए केंद्र सरकार को इस गंभीर मामले में तत्काल हस्तक्षेप कर विस्थापित आदिवासियों को न्याय दिलाना चाहिए।

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