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नोटबंदी: पांच साल में इस 'मास्टर स्ट्रोक’ ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया
नोटबंदी का फ़ैसला भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हर लिहाज से आत्मघाती साबित हुआ। इसीलिए सरकार और उसके ढिंढोरची की भूमिका निभा रहे मीडिया ने भी नोटबंदी के पांच साल पूरे होने पर इस मसले पर पूरी तरह खामोशी बरती है।
अनिल जैन
09 Nov 2021
Demonetisation
Image courtesy : Outlook India

नोटबंदी के पांच साल पूरे हो गए। नोटबंदी यानी देश की अर्थव्यवस्था को तबाह करने वाला फैसला। नोटबंदी यानी छोटे और मझौले स्तर के कारोबारियों का काम-धंधा चौपट करने वाला फैसला। नोटबंदी यानी मेहनतकश लोगों की खून-पसीने की कमाई से की गई छोटी-छोटी घरेलू आर्थिक बचत को बर्बाद करने करने वाला फैसला। नोटबंदी यानी लोगों का बैंकों पर से भरोसा कम करने वाला फैसला। नोटबंदी यानी सैकड़ों लोगों को असमय मौत के मुंह में धकेलने वाला फैसला। उस बहुआयामी विनाशकारी फैसले की आज पांचवी बरसी है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे राष्ट्र को संबोधित करते हुए ऐलान किया था कि जिन लोगों के पास 500 और 1000 के करंसी नोट हैं, वे आज रात 12 बजे के बाद रद्दी हो जाएंगे। यह ऐलान करते हुए मोदी ने दावा किया था और बाद में कई दिनों तक उनके मंत्री भी देश को समझाते रहे कि नोटबंदी के इस फैसले से देश में काला धन खत्म हो जाएगा, नकली नोटों का चलन रुकेगा और आतंकवाद पर लगाम लग जाएगी।

सरकार का कहना था कि उसने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था से बाहर गैर कानूनी ढंग से रखे धन को निशाना बनाया है, क्योंकि इस धन से भ्रष्टाचार और दूसरी गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ती है। टैक्स बचाने के लिए लोग इस पैसे की जानकारी छुपाते हैं। सरकार का मानना था कि जिनके पास बड़ी संख्या में गैरक़ानूनी ढंग से जुटाया गया नकदी है, उनके लिए इसे क़ानूनी तौर पर बदलवा पाना संभव नहीं होगा। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक की अगस्त, 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक बंद किए गए नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया है।

रिजर्व बैंक के मुताबिक नोटबंदी के समय देशभर में 500 और 1000 के कुल 15 लाख 41 हजार करोड़ रुपये के नोट चलन में थे, जिनमें से 15 लाख 31 करोड़ रुपये के नोट सिस्टम में वापस आ गए हैं। यह रिपोर्ट चौंकाने वाली थी और इस बात का संकेत दे रही थी कि लोगों के पास नकदी के रूप में जिस गैर कानूनी या काला धन होने की बात कही जा रही थी, वह सच नहीं थी और अगर सच थी तो यह भी सच है कि लोगों ने अपने काले धन को सफेद यानी क़ानूनी बनाने का रास्ता निकाल लिया था।

जब काला धन खत्म होने के बजाय बढ़ने के संकेत और सबूत मिलने लगे, 500 और 2000 के नए नोटों की शक्ल में नकली नोट बाजार में आने लगे और आतंकवादी वारदात में कोई कमी नहीं आई तो नोटबंदी की आलोचना भी तेज़ हुई। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पैंतरा बदलते हुए कहा कि देश में कैशलेस इकोनॉमी बनाने यानी नकदी व्यवहार कम करने के लिए नोटबंदी प्रधानमंत्री का मास्टर स्ट्रोक है। उस समय के एक अन्य मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि नोटबंदी से देश में देह व्यापार में कमी आई है। कुछ अन्य मंत्रियों ने भी नोटबंदी के फैसले का बचाव करने के लिए इसी तरह के उलजुलूल बयान दिए थे।

बहरहाल यह प्रचार आज तक हो रहा है कि नोटबंदी के बाद देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ गया है। यह सही है कि तब से अब तक डिजिटल लेन-देन बढ़ा है लेकिन सच यह भी है कि नकदी पर लोगों की निर्भरता भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और बैंकों पर लोगों का भरोसा कम हुआ है। भारत में नोटबंदी के पांच साल बाद नोटबंदी से पहले के मुकाबले करीब 60 फीसदी नकदी ज्यादा हो गई है।

भारतीय रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पांच अक्टूबर 2021 को भारत में कुल नकदी 28.30 लाख करोड़ रुपये है, जो पांच साल पहले आठ नवंबर 2016 को 17.97 करोड़ रुपये थी। पांच साल में नकदी का इस्तेमाल 57 फीसदी बढ़ा है। इन पांच सालों में लोगों के पास पहले के मुकाबले 10.33 लाख करोड़ रुपये की नकदी ज्यादा हो गई है। हर साल औसतन ढाई लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की नकदी चलन में आई है। अगर नोटबंदी के दो महीने बाद की स्थितियों से तुलना के तो यह आंकड़ा बहुत बड़ा हो जाएगा। नोटबंदी के दो महीने बाद जनवरी 2017 में भारत के लोगों पास सिर्फ सात लाख 80 हजार करोड़ रुपये की नकदी बची थी और आज 28.30 लाख करोड़ रुपये है।

रिजर्व बैंक की परिभाषा के मुताबिक जनता के हाथ में नकदी होने का मतलब है कि करंसी इन सरकुलेशन माइनस कैश इन बैंक्स यानी कुल तरलता में से बैंकों की नकदी अलग कर दें तो जो बचता है वह लोगों के हाथ की नकदी है और यह 28 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। माना जा रहा है कि कोरोना वायरस की महामारी से पैदा हुए हालात ने भी नकदी के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ाया है। बहरहाल, भारत में जीडीपी के अनुपात में नकदी की मात्रा हमेशा 10 से 12 फीसदी होती थी, जो अब बढ़ कर 14 फीसदी होने वाली है।

लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है। इस आंकड़े से कैश बबल पर फैलाए गए मोदी सरकार के झूठ की कलई तो खुलती ही है, साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि नोटबंदी के फैसले के बाद देश में हाहाकार मचा। जिन रसूखदार लोगों के पास भारी मात्रा में 500 और 1000 के नोट थे, उन्हें तो बैंकों से अपने नोट बदलवाने में कोई परेशानी नहीं हुई। लेकिन सीमित आमदनी वाले आम लोगों ने अपनी भविष्य की आवश्यकताओं के लिए जो छोटी-छोटी बचत अपने घरों में कर रखी थी, उन्हें अपने नोट बदलवाने के लिए तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक बैंकों पर लाइन में लगना पड़ा। इस सिलसिले में उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़े और बैंक कर्मचारियों से अपमानित भी होना पड़ा। इस सिलसिले में 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई।

जिस समय नोटबंदी के चलते देश भर में हाहाकार मचा हुआ था, उसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेशी दौरों में अपने इस फैसले के लिए अपनी पीठ थपथपाते हुए इसे साहसिक और ऐतिहासिक कदम बताया था। उन्होंने विदेशी धरती पर सार्वजनिक कार्यक्रमों में विद्रूप ठहाका लगाते हुए कहा था, ''घर में मां बीमार है लेकिन इलाज के लिए जेब में पैसे नहीं है...लोगों के घरों में शादी है लेकिन नोटों की गड्डियां बेकार हो चुकी हैं।’’ उनके इस कथन पर वहां मौजूद अनिवासी भारतीयों का समूह जिस तरह तालियां पीट रहा था, वह बड़ा ही वीभत्स दृश्य था।

नोटबंदी के चलते छोटे-मझौले स्तर के कारोबारियों के काम-धंधे ठप हो गए, जो अब भी पूरी तरह से पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। लाखों लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ी हैं। आज बेरोजगारी आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा है तो इसकी बड़ी वजह नोटबंदी भी है। जिनके पास रोजगार बचा हुआ है, उनकी आमदनी कम हुई है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला तो बहुत पहले से ही चला आ रहा है, लेकिन नोटबंदी के बाद कई छोटे कारोबारियों और बेरोजगार हुए लोगों ने भी असमय मौत को गले लगाया है और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरने का सिलसिला भी नोटबंदी के बाद ही तेज हुआ है। देश से होने वाले निर्यात लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आई है। नोटबंदी के कारण पहली बार यह शर्मनाक नौबत आई है कि भारत सरकार को अपना खर्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष से एक बार नहीं, दो-दो बार पैसा लेना पड़ा है और मुनाफे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्रों को बेचना पड़ रहा है। इन्हीं हालात के चलते नोटबंदी के बाद जीडीपी ग्रोथ पूरी तरह बैठ गई है। वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी की जो ग्रोथ रेट 8 फीसदी के आसपास थी वह पिछले साल 2020-21 में माइनस में 7.3 दर्ज की गई है।

संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी तमाम आंकड़ों के आधार पर बता रही है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियां बताती हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 101वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के प्रसन्नता सूचकांक भारत के स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2021’ में भारत को 139वां स्थान मिला है। 149 देशों में भारत का स्थान इतने नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। हैरान करने वाली बात यह है कि इस सूचकांक में चीन जैसा बड़ी आबादी वाला देश ही नहीं बल्कि पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी खुशहाली के मामले में भारत से ऊपर है।

पिछले दिनों जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे जरूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। भारत इस पैमाने पर सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है।

सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह सच भी है लेकिन सच यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के पहले ही रसातल में जा चुकी थी और इसकी शुरुआत नोटबंदी के बाद ही शुरू हो गई थी।

नोटबंदी के शुरुआती दौर में जब इस फैसले की देश-दुनिया में व्यापक आलोचना हो रही थी और विशेषज्ञों द्वारा उस सवाल उठाते हुए उसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसक फैसला बताया जाने लगा था तो मोदी ने गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान भावुक और नाटकीय अंदाज में कहा था, ''मैंने गरीबी देखी है और मैं गरीब लोगों को हो रही परेशानी को समझ सकता हूं। मैंने देश के लिए अपना घर-परिवार छोड़ा है और अपना जीवन के नाम कर दिया है। मैंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए नोटबंदी का कदम उठाया है। मैं जानता हूं कि मैंने कैसी-कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है। मैं जानता हूं कि कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे, वे मुझे बर्बाद कर देंगे, मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा। आप ईमानदारी को बढ़ावा देने के काम में मेरी मदद कीजिए और सिर्फ 50 दिन का समय मुझे दीजिए।’’

मोदी ने यह भाषण नोटबंदी लागू होने के पांचवें दिन बाद यानी 13 नवंबर 2016 को दिया था। उन्होंने कहा था, ''मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं। मुझे 30 दिसंबर तक का वक्त दीजिए। उसके बाद अगर मेरी कोई गलती निकल जाए, कोई कमी रह जाए, मेरे इरादे गलत निकल जाए तो देश जिस चौराहे पर खड़ा करके जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं।’’

प्रधानमंत्री मोदी के उस भाषण के बाद कई ‘50 दिन’ ही नहीं, पूरे 1825 दिन बीत गए हैं, लेकिन वे भूल से भी अब नोटबंदी का जिक्र तक नहीं करते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के एक साल बाद 7 नवंबर को संसद में कहा था कि नोटबंदी एक आर्गनाइज्ड (संगठित) लूट और लीगलाइज्ड प्लंडर (कानूनी डाका) है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के शब्दों में नोटबंदी एक पूरी रफ्तार से चल रही कार के टायरों पर गोली मार देने जैसे कार्य है। आज नोटबंदी के पांच साल बाद उनका कहा सच साबित हो रहा है। इसीलिए सरकार और उसके ढिंढोरची की भूमिका निभा रहे मीडिया ने भी नोटबंदी के पांच साल पूरे होने पर इस मसले पर पूरी तरह खामोशी बरती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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