NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
कला
रंगमंच
साहित्य-संस्कृति
भारत
राजनीति
प्रेम, सद्भाव और इंसानियत के साथ लोगों में ग़लत के ख़िलाफ़ ग़ुस्से की चेतना भरना भी ज़रूरी 
"ढाई आखर प्रेम के"—आज़ादी के 75वें वर्ष में इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा के बहाने कुछ ज़रूरी बातें   
विनीत तिवारी
21 May 2022
IPTA
गांधी स्मारक, रीगल चौराहा, इंदौर

सन 1943 में जब बंगाल में अकाल पड़ा था तो क़रीब 50 लाख लोगों की भूख से मौत हो गई थी। यह क़ुदरती अकाल नहीं था बल्कि लालची इंसानों और अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने निर्मित किया था। गोदामों में अनाज तो था लेकिन लोगों के पेट खाली रखे गए। 

उसी वक़्त दूसरा विश्वयुद्ध भी जारी था। क़रीब 60 लाख यहूदियों को गैस चैम्बरों और भट्टियों में जलाकर मार डाला गया था, महज़ इसलिए कि वो यहूदी थे। दुनिया पर अपने क़ब्ज़े की होड़ में मासूम लोगों पर जंग थोपने वाले हिटलर और उसके सहयोगी दुनिया के क़रीब ढाई करोड़ मासूम लोगों की ज़िंदगियाँ खोने के ज़िम्मेदार बने। 

उसी वक़्त भारत के कलाकारों ने जिनमें संगीतकार, अभिनेता, फिल्मकार, गायक, नाट्यकर्मी और अनेक लोगों ने दुनिया के शासकों की साज़िशों के ख़िलाफ़ आम जनता को जागरूक करने की ज़िम्मेदारी उठायी। इस तरह 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ (Indian People's Theatre Association) यानी इप्टा का गठन हुआ। यह नाम दिया था भारत के प्रख्यात वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने। इप्टा के पहले सम्मलेन में मुंबई में प्रोफ़ेसर हिरेन मुखर्जी ने अध्यक्षीय उद्बोधन में आह्वान किया - "लेखक  कलाकार आओ, जो अभिनय करते हैं, वो भी, और जो नाटक या फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखते हैं वो भी, जो हाथ से काम करते हैं वो और जो दिमाग़ से काम करते हैं, वो भी, सब आओ और सब मिलकर जुट जाओ आज़ादी और सामाजिक न्याय की एक नयी और बहादुर दुनिया बनाने में।" 

इप्टा ने शुरुआत से ही अपना सम्बन्ध मेहनतकश तबक़े के साथ बनाये रखा। इप्टा के पहले अध्यक्ष बने मुम्बई के प्रसिद्ध श्रमिक नेता एन. एम. जोशी और पहली महासचिव बनीं श्रीलंकाई मूल की अनिल डिसिल्वा  और प्रसिद्ध लेखक और फ़िल्म निर्देशक ख़्वाजा अहमद अब्बास पहले कोषाध्यक्ष बने। अनिल डिसिल्वा प्रखर बौद्धिक मानी जाती थीं और उन्होंने चीन पर काफ़ी शोध किया था और बौद्ध गुफाओं और उस दौर की कलाओं के अन्तर्सम्बन्धों पर पुस्तकें भी लिखीं थीं। वे बच्चों की एक पत्रिका भी निकाला करती थीं। मुंबई में वे कम्युनिस्ट पार्टी की प्रमुख विचारक मानी जाती थीं। आज़ादी के बाद वे पेरिस चली गईं  थीं और 1958 में सिर्फ़ महिला शोधार्थियों का एक दल लेकर वे चीन गईं थीं जिसमें उनकी शोध सहायक के तौर पर आज की विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर भी शामिल थीं। इसी तरह ख़्वाजा अहमद अब्बास न केवल पत्रकार और वाम विचारधारा से गहरे प्रभावित थे बल्कि उस समय वे समाजवादी मूल्यों को कहानियों और फिल्मों के माध्यम से प्रस्तुत करने में अनेक नये प्रयोग करने के लिए जाने जा रहे थे। उनके साथ चेतन आनंद भी सिनेमा की एक नयी इबारत लिख रहे थे। सत्यजीत रे तब  विद्यार्थी हुआ करते थे और कोलकाता में फिल्म क्लब चलाते थे। वे ख़ुद कभी इप्टा में नहीं रहे लेकिन उन्होंने चेतन आनंद को बहुत अनुरोध के साथ अपने फिल्म क्लब में आमंत्रित किया था। हालाँकि अपने संकोची स्वाभाव के कारण चेतन आनंद ने बहुत विनम्रतापूर्वक उनके आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था। ऋत्विक घटक, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी आदि तो सीधे ही इप्टा के सदस्य थे लेकिन बिमल रॉय या अन्य ऐसे फिल्मकार जो बहुत सम्मानित थे लेकिन इप्टा के सदस्य नहीं थे, उनका भी इप्टा के प्रति काफ़ी सम्मान और सहयोग का रिश्ता था। उधर मुम्बई के फ़िल्म जगत में भी गीत-संगीत से लेकर पटकथा लेखन और अभिनय - निर्देशन में शैलेन्द्र, प्रदीप हों या कैफ़ी, साहिर या राज कपूर, ख़्वाजा अहमद अब्बास आदि का विशिष्ट स्थान था। 

बलराज साहनी, अण्णा भाऊ साठे, बिनॉय रॉय, पंडित रविशंकर, उत्पल दत्त, भीष्म साहनी, दीना पाठक, ए. के. हंगल, शम्भु मित्रा, तृप्ति मित्रा, प्रसिद्ध नर्तक उदयशंकर, शांति वर्धन,  चित्तोप्रसाद, निरंजन सेन, हबीब तनवीर, वल्लतोल, राजेन्द्र रघुवंशी, सुधि प्रधान, तेरा सिंह चन्न, अमृतलाल नागर, रज़िया सज्जाद ज़हीर, शीला भाटिया, नेमिचन्द्र जैन, रेखा जैन, जोहरा सहगल आदि अनेक कलाकार जनता को समर्पित इस कला आंदोलन के सक्रिय हिस्से बने रहे। इसके पहले उच्चतर मानवीय मूल्यों में विश्वास रखने वाले देश भर के लेखकों को 1936 में प्रेमचंद, सज्जाद ज़हीर, कृश्न चन्दर, फ़ैज़, रशीद जहाँ आदि के प्रयासों से जोड़कर प्रगतिशील लेखक संघ बनाया जा चुका था जिसका समर्थन इप्टा को प्राप्त था ही। 

बंगाल के अकाल पीड़ितों की व्यथा को लेकर लिखी गईं कहानियों को बुन कर नाटक बनाया गया और इप्टा के कलाकारों का एक केंद्रीय जत्था उस नाटक को लेकर देश भर में जगह-जगह घूमा और लोगों को जागृत किया। बंगाल के अकाल को लेकर इप्टा ने 1946 में एक फ़िल्म भी बनायी थी - "धरती के लाल"। यह फ़िल्म ख़्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन की पहली और बलराज साहनी के अभिनय की पहली फ़िल्म थी। इसमें संगीत दिया था पंडित रविशंकर ने और गीत लिखे थे अली सरदार जाफ़री, प्रेम धवन और वामिक जौनपुरी ने।  

इप्टा के बनने से देश में नाटकों की कथावस्तु से लेकर प्रस्तुति तक सब कुछ बदल गया।  कला, कला के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए समर्पित हुई और इप्टा का ध्येय वाक्य बना - "जनता के नाटक की नायक जनता होती है।" कहने का आशय यह है कि जब देश अँग्रेज़ों की ग़ुलामी से त्रस्त था और आम जनता देशी पूँजीपतियों और अँग्रेज़ हुक्मरानों के ज़ुल्मों तले पिस रही थी तो देश के कलाकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी समझकर पूरे देश में सांस्कृतिक चेतना फैलाने का महत्त्वपूर्ण काम किया था। तब से आज तक इप्टा 24 राज्यों में फैलीं अपनी 600 से ज़्यादा इकाइयों के साथ प्रगतिशील सांस्कृतिक चेतना फैलाने के काम में जुटी हुई है। हाल के किसान आंदोलन में भी इप्टा ने अपने गीतों और नाटकों के साथ लगातार एकजुटता बनाये रखी। 

वर्ष 2022 देश की आज़ादी का 75वाँ वर्ष है। आज देश और दुनिया के सामने फिर से बड़ी चुनौतियाँ अपना फन फैलाये खड़ी हैं। एक तरफ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े हुए युद्ध ने भय का वातावरण खड़ा किया हुआ है और दूसरी तरफ़ फ़िलिस्तीनियों पर इज़राइल के ज़ुल्मो-सितम बढ़ते ही जा रहे हैं। तीसरी दुनिया के देशों का नये सिरे से आर्थिक उपनिवेशीकरण हो रहा है। देश के भीतर भी हम देख रहे हैं कि 75 वर्षों के बाद आज जहाँ हम खड़े हैं, ये वो जगह तो नहीं जिसकी ख़ातिर हज़ारों लोगों ने अपनी जानें क़ुर्बान की थीं। इन 75 वर्षों में हमें और बेहतर इंसान बनना था, हमारे समाज के भीतर औरतों का सम्मान ज़्यादा बढ़ना चाहिए था, दलितों और आदिवासियों को बेहतर और सम्मानजनक जीवन हासिल होना था, साहिर लुधियानवी के इस गाने को पूरे देश के लोगों के दिलों में अपना मज़बूत घर बना लेना था कि " तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।" 

बेशक ये सब नहीं हुआ लेकिन इतना तो हुआ है कि हम आज तक लोकतंत्र में हैं। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इस लोकतंत्र की रक्षा करें और उसे लगातार बढ़ाते जाएँ। आज़ादी के 75 वर्ष के मौक़े पर हमारी आज़ादी के आंदोलन की ताक़त को याद करते हुए लोगों के दिलों में गहराई तक रचे-बसे प्रेम और इंसानियत के जज़्बे को जगाने के लिए इप्टा ने 9 अप्रैल 2022 से पाँच हिंदी राज्यों की एक सांस्कृतिक यात्रा शुरू की है जिसे नाम दिया है - ढाई आखर प्रेम के। छत्तीसगढ़ से शुरू होकर झारखण्ड, बिहार, और उत्तर प्रदेश होते हुए यह यात्रा क़रीब 250 प्रदर्शनों में अपनी प्रस्तुतियाँ देते हुए क़रीब डेढ़ महीने के सफ़र के बाद मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में समाप्त हो रही है।

इंदौर में भी 1949-50 के दौर में इप्टा की इकाई सक्रिय थी और उसमें मायारानी मेहरोत्रा, डॉ. साजन मेहरोत्रा, केकी दाजी, प्रोफ़ेसर मिश्राराज, आनंद मोहन माथुर, नरहरि पटेल आदि लोग सक्रिय थे। उस वक़्त उन्होंने उस वक़्त प्रेमचंद की कहानियों पर भी नाटक किये और युद्ध के ख़िलाफ़ शांति के लिए भी। ये इसलिए भी याद करना चाहिए कि इप्टा ने अपनी स्थापना के वक़्त भी बंगाल के अकाल के मजलूमों के हालात को केन्द्र में रखकर लोगों में परस्पर सहानुभूति, ग़लत के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा और हालात बदलने के लिए लोगों में हौसला भरने का काम किया था।

उम्मीद है कि आज़ादी के 75वें वर्ष में यह यात्रा फिर से लोगों में आज़ादी के उन मूल्यों को स्थापित करने की सार्थक कोशिश साबित होगी जिन्हें भुलाने की कोशिश आज़ाद भारत का मौजूदा सत्तापक्ष कर रहा है। जब गांधी की जगह नाथूराम गोडसे की जय के नारे लगाए जाने लगें और सत्ता न्याय के बजाय फैसले करने और मनवाने लगे तो यह इप्टा और इप्टा जैसे अन्य सभी प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों की साझा ज़िम्मेदारी है कि वे लोगों में अमन, शांति, सद्भाव आदि के साथ ही यह भावना भी पैदा करने का काम करें कि यह आज़ादी और लोकतंत्र हमें कितने संघर्षों के बाद हासिल हुए है और इसे अगली पीढ़ी के लिए और भी बेहतर बनाकर छोड़ना हमारी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है। 

(लेखक प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से सम्बद्ध हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़े : इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा यूपी में: कबीर और भारतेंदु से लेकर बिस्मिल्लाह तक के आंगन से इकट्ठा की मिट्टी

IPTA
dhai aakhar prem ke
75 years of Independence

Related Stories

इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा यूपी में: कबीर और भारतेंदु से लेकर बिस्मिल्लाह तक के आंगन से इकट्ठा की मिट्टी

समाज में सौहार्द की नई अलख जगा रही है इप्टा की सांस्कृतिक यात्रा

नफ़रत के बीच इप्टा के ‘’ढाई आखर प्रेम के’’


बाकी खबरें

  • श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन मामले को सुनियोजित रूप से ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर के विवाद में बदला गयाः सीपीएम
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    श्रृंगार गौरी के दर्शन-पूजन मामले को सुनियोजित रूप से ज्ञानवापी मस्जिद-मंदिर के विवाद में बदला गयाः सीपीएम
    18 May 2022
    उत्तर प्रदेश सीपीआई-एम का कहना है कि सभी सेकुलर ताकतों को ऐसी परिस्थिति में खुलकर आरएसएस, भाजपा, विहिप आदि के इस एजेंडे के खिलाफ तथा साथ ही योगी-मोदी सरकार की विफलताओं एवं जन समस्याओं जैसे महंगाई, …
  • buld
    काशिफ़ काकवी
    मध्य प्रदेश : खरगोन हिंसा के एक महीने बाद नीमच में दो समुदायों के बीच टकराव
    18 May 2022
    टकराव की यह घटना तब हुई, जब एक भीड़ ने एक मस्जिद को आग लगा दी, और इससे कुछ घंटे पहले ही कई शताब्दी पुरानी दरगाह की दीवार पर हनुमान की मूर्ति स्थापित कर दी गई थी।
  • russia
    शारिब अहमद खान
    उथल-पुथल: राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता से जूझता विश्व  
    18 May 2022
    चाहे वह रूस-यूक्रेन के बीच चल रहा युद्ध हो या श्रीलंका में चल रहा संकट, पाकिस्तान में चल रही राजनीतिक अस्थिरता हो या फिर अफ्रीकी देशों में हो रहा सैन्य तख़्तापलट, वैश्विक स्तर पर हर ओर अस्थिरता बढ़ती…
  • Aisa
    असद रिज़वी
    लखनऊ: प्रोफ़ेसर और दलित चिंतक रविकांत के साथ आए कई छात्र संगठन, विवि गेट पर प्रदर्शन
    18 May 2022
    छात्रों ने मांग की है कि प्रोफ़ेसर रविकांत चंदन पर लिखी गई एफ़आईआर को रद्द किया जाये और आरोपी छात्र संगठन एबीवीपी पर क़ानूनी और अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाये।
  • food
    रश्मि सहगल
    अगर फ़्लाइट, कैब और ट्रेन का किराया डायनामिक हो सकता है, तो फिर खेती की एमएसपी डायनामिक क्यों नहीं हो सकती?
    18 May 2022
    कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा का कहना है कि आज पहले की तरह ही कमोडिटी ट्रेडिंग, बड़े पैमाने पर सट्टेबाज़ी और व्यापार की अनुचित शर्तें ही खाद्य पदार्थों की बढ़ती क़ीमतों के पीछे की वजह हैं।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License