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श्रम श्रमिकों का, पूंजी पूंजीपतियों की!
हमारे देश में मेहनत की कोई कदर नहीं है क्योंकि घरों में काम करने वाली घरेलू सहायक, फ़ैक्ट्री में काम करने वाला ठेका मज़दूर, खेतों में काम करने वाले किसान जैसा मेहनतकश वर्ग मुश्किल से 5 से 10 हज़ार प्रतिमाह कमा पाता है।
रचना अग्रवाल
07 Jan 2021
श्रम श्रमिकों का, पूंजी पूंजीपतियों की!

देश की गरीब और मेहनतकश जनता को फुसला कर और झूठे वादे करके उनके वोटों द्वारा जीत हासिल कर सत्ता में आने के बाद हमारी सरकार पूंजीपतियों का साथ क्यों देने लगती है? इसका जवाब है क्या आपके पास? हमारी सरकार अधिकतम निर्णय पूंजीपतियों के हित को ध्यान में रखकर लेती है जिसका जीता जागता उदाहरण हाल ही में हुआ किसान आंदोलन है जिसमें पूंजीपति तो आराम से  हीटर चलाकर आलीशान घरों में बैठे हैं और हमारे किसान भाई सर्दी में ठिठुरते हुए अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन इसके अलावा उनके पास चारा भी क्या है सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने का?

हमारी सरकार ने यह भी नहीं सोचा जो किसान दिन रात मेहनत कर के हमारे लिए अन्न की व्यवस्था करते हैं उनके साथ अन्याय करना कहां तक उचित है? पहले तो सरकार ऐसी स्थिति पैदा कर देती है कि श्रमिक वर्ग को मजबूरन आंदोलन करने के लिए और अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए भयंकर सर्दी हो या भीषण गर्मी सड़कों पर उतरना पड़ता है और उसके बाद चालाकी से देश की जनता को अपनी तरफ मिलाने के लिए और अपनी जय जयकार सुनने के लिए थोड़ी नरम पढ़ जाती है और अपने को जनता के हितैषी के रूप में दिखाती है। आखिर सरकार ऐसे निर्णय लेती ही क्यों है जिसमें खाली पूंजीपतियों को लाभ हो? बाकी श्रमिक वर्ग को किन मुसीबतों का सामना करना पड़ता है इससे हमारी सरकार को कोई सरोकार नहीं होता है। क्या वास्तव में भारत को आज "शाइनिंग इंडिया" कहना वाजिब है जहां देश की 31 करोड़ जनता गरीबी की भयानक त्रासदी से गुजर रही है (स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार)? आज जो हमे शहरों में बड़ी-बड़ी बिल्डिंग दिखाई दे रही है उन पर हमारी सरकार गर्व महसूस करती है और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी सीना ठोक कर कहते हैं कि हमने शहर का विकास किया है किंतु मेरे मन में यह सवाल उठता है किस कीमत पर शहर का विकास हुआ है? अमीर दिन प्रतिदिन और अमीर होते जा रहे हैं और गरीबों को अपना गुजारा कर सके इतना ही मिल जाए वही काफी है।

हमारे देश में मेहनत की कोई कदर नहीं है क्योंकि घरों में काम करने वाली घरेलू सहायक, फैक्ट्री में काम करने वाला ठेका मजदूर, खेतों में काम करने वाला किसान जैसा मेहनतकश वर्ग मुश्किल से 5 से 10 हज़ार प्रतिमाह कमा पाते हैं। इसके विपरीत मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले इंजीनियर एक लाख से डेढ़ लाख प्रतिमाह कमा लेते हैं। जहां गरीब परिवार में आठ से दस मेंबर होने के बावजूद एक कमरे में ही गुजारा करना पड़ता है वहीं पर आलीशान कोठियां और बड़े-बड़े अपार्टमेंट मानो इस तरफ इशारा करती है कि कहां है वह समाजवाद जिसका सपना हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने देखा था जिसके अंतर्गत समाज में एक ऐसी व्यवस्था कायम की जाए जिसमें सभी वर्गों को आर्थिक रूप से बराबरी का हक मिले? जहां पर किसी का शोषण ना हो और हर व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने की आजादी मिले... लेकिन आज हमारे देश में शोषण के खिलाफ आवाज उठाने पर पुलिस की लाठियों का सामना करना पड़ता है जो की बहुत ही शर्मनाक है!

भारत ने आज अंग्रेजों से आजादी पाली है पर क्या वास्तव में हम अपने देश पर गर्व कर सकते हैं जहां पर कहने के लिए प्रजातंत्र है पर वास्तव में पूंजीपति ही हमारा देश चला रहे हैं और सरकार उनकी कठपुतली मात्र है? और तो और "शाइनिंग इंडिया" मे गांवों की हालत इतनी बदहाल है कि रोजगार ना मिलने की वजह से वहां के गरीब किसान व खेतिहर मजदूर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरी में शहर आ जाते हैं और बहुत ही कम वेतन पर शहर में नौकरी करने के लिए बाध्य होते हैं व शहर की पूंजीवादी व्यवस्था से तालमेल न बिठा पाने के कारण कई बार अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। यह वास्तव में मेरी कल्पना से परे है कि मात्र दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए इन्हें अपनी पत्नी , बच्चों व गांव को छोड़ना पड़ता है और यह प्रवासी मजदूर अपने गांव की हरियाली और अपने घर से दूर रहकर मजबूरी में शहर में ऐसी जगह कमरा ले लेते हैं , जहां ना साफ पानी की सुविधा होती है, ना बिजली की और ना ही साफ सफाई की समुचित व्यवस्था होती है जो कि स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक है।

वास्तव में खेत मजदूरों और किसानों की पलायन की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ने का कारण इनके गांव में रोजगार न मिलने की वजह से है। शहर में आकर भी इनकी मुसीबतें कम नहीं होती क्योंकि जिस फैक्ट्री में यह मजदूर काम करते हैं वहां भी एकता ना हो और आपस में मिलजुल कर काम ना करें इस वजह से इन मजदूरों को चार वर्गों में विभाजित कर दिया गया है। पहला है दिहाड़ी मजदूर ,दूसरा ठेका मजदूर , तीसरा कंपनी का मजदूर और चौथा अल्पसंख्यक स्थाई मजदूर। इस विभाजन की वजह से मजदूरों में आपसी प्रतियोगिता का भाव पनपता है जिसका फायदा कंपनी के मालिक को पहुंचता है।मजदूरों के एकजुट न होने की वजह से मालिक अपनी मनमानी करता है। मजदूरों के बीच अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है और इसका फायदा फैक्ट्री के मालिक को मिलता है। हमारे यह मजदूर भाई-बहिन काम की लालसा में अधिक मेहनत करके कम मजदूरी में भी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है।

आर्थिक तंगी होने की वजह से यह मजदूर सही इलाज भी नहीं करवा पाते  क्योंकि शहरों में अधिकतर प्राइवेट अस्पताल हैं जोकि बहुत महंगे होते हैं और सरकारी अस्पतालों की हालत बहुत ही खस्ता है। मगर इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि सरकार तो शहर में ऊंची ऊंची बिल्डिंग , मॉल व मल्टीप्लेक्स बनाने में व्यस्त है और मिल मालिक बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने व आराम की जिंदगी जीने में खुश है। जहां इन मजदूरों को कड़ी धूप में मेहनत करके दो वक्त का भोजन जुटाने और न्यूनतम सुविधाएं जुटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है वहीं दूसरी तरफ मिल मालिक व उनके बच्चे AC घरों में बैठकर पिज़्ज़ा, बर्गर, कोल्ड ड्रिंक और फ्रेंच फ्राइस के मजे लेते हैं। यानी कि मेहनत किसी की और मजे किसी और के जो मेरी नजर में बहुत ही गलत है।

यह तो आजकल हद ही हो गई कि हमारी सरकार बिल्डरों के साथ मिलकर बहुमंजिला इमारतें बनवाने के लिए शहर के आसपास की जो भी खेती की जमीन है उस पर कब्जा कर रही है। इससे हमारे किसान जो खेती करके अपने परिवार का पेट पालते हैं , वे बेरोजगार हो जाते हैं। जमीन का मालिक मुआवजे के रूप में मोटी रकम मिलने की वजह से काम धंधा छोड़कर अय्याशी में पैसा बर्बाद करने लगता है। इसके विपरीत खेतों पर काम करने वाला श्रमिक रोजगार के लिए दर-दर भटकने लगता है।

मुझे इस बात का काफी अफसोस है महात्मा गांधी जिनको हम बापू कहकर पुकारते हैं , उनके अनुसार गांवों में भारत की आत्मा बसती है , तो उन गांवों की बदहाली पर हमारी सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता ?जबकि वहां हमारे देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या रहती है। लेकिन हमारी सरकार तो पूजीपतियों के साथ मिलकर शहरों के विकास में इतनी व्यस्त है कि भारत के गांव और गावों में रहने परिवारों की आर्थिक हालत पर उसका ध्यान ही नहीं जाता।

मेरे अनुसार हमारी सरकार अगर बड़ी-बड़ी बातें ना बनाकर थोड़ा-सा भी वक्त निकालकर वास्तव में गांवों के विकास पर ध्यान दें तो काफी हद तक गांवों में रोजगार की समस्या हल हो जाएगी और वहां बसने वाले मजदूर व किसान भाइयों को रोजी-रोटी व अन्य जरूरी सुविधाओं के लिए मजबूरी में शहर से आकर बेहद कम वेतन पर दमघोटू नौकरी नहीं करनी पड़ेगी। एक समान नागरिक होने के नाते वे भी खुशहाल जिंदगी व्यतीत कर सकेंगे जिस पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।

इसके अलावा शहरों में भी विकास योजना इस तरह से बनाई जाए जिसका लाभ हर तबके का आदमी उठा सके। शहरों में मॉल और मल्टीप्लेक्स के स्थान पर ऐसे अस्पताल और विद्यालय बनाए जाएं जिनका फायदा हमारे श्रमिक वर्ग को मिले और उन्हें साफ-सफाई के साथ-साथ ऐसी सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जिससे हमारे मेहनतकश वर्ग को अस्वस्थ होने पर उचित चिकित्सा मिले | उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा प्रदान करना हमारी सरकार का प्रथम कर्तव्य है क्योंकि प्राइवेट अस्पताल और प्राइवेट स्कूल तो खाली उन लोगों के लिए हैं जो पैसे वाले हैं। क्या हमारी सरकार इतनी बेशर्म है कि उसके पास समारोह और मनोरंजन के साधनों में खर्च करने के लिए पैसा उपलब्ध हो जाता है? जो वर्ग दिन रात मेहनत करके हमारे देश को चलाता है जिनकी वजह से आज हम आराम की जिंदगी जी रहे हैं उनको अनदेखा करना सरकार की बहुत बड़ी भूल है जिसका एहसास सरकार को जितनी जल्दी हो जाए उतना ही हमारे देश के हित में है।

(रचना अग्रवाल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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