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अपने देश में कोरोना से भी बड़ी महामारी है भेदभाव, छुआछूत !
कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए दुनियाभर में सोशल डिस्टेंसिंग (Social distancing) यानी सामाजिक दूरी का फार्मूला सुझाया गया है, लेकिन हमारे समाज में जिस तरह का सामाजिक भेदभाव (Social discrimination) व्याप्त है, वह किसी बीमारी को रोकने की बजाय खुद में एक ला-इलाज मर्ज़ बन गया है। सुभाषिनी अली क्रमवार विस्तार से इसे ही रेखांकित करती हैं।
सुभाषिनी अली
09 Apr 2020
Social discrimination
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : sarassalil

हमारा देश कोरोना की चपेट मे है। एक ऐसे देश में जहां आबादी की बहुत बड़ी संख्या ग़रीब है, पेट भरने के लिए लाखों लोगों को अपना घर-द्वार छोड़कर दूर-दूर दर-दर की ठोकर खाकर दो जून की रोटी जुटानी पड़ती है, ऐसे देश मे इस महामारी की ख़बर मिलते ही, उसकी पहली दस्तक पाते ही, सरकार को उससे अपने नागरिकों को सुरक्षित रखने के बारे में तत्परता से काम करना चाहिए और सबसे ज़्यादा ग़रीब और मुश्किल परिस्थितियों मे रहने वाले लोगों को तमाम ख़तरों से बचाने के लिए कदम उठाने की सोचनी चाहिए।

30 जनवरी को भारत मे कोरोना वायरस के पहले मरीज़ का पता लगा।  वह चीन के वुहान से केरल लौटा था और केरल की सरकार ने युद्ध-स्तर पर बीमारी का सामना करने की तयारी की। 3 फरवरी तक ऐसे मरीजों की संख्या 3 तक पहुँच गयी और केरल में 3400 लोग जो इन तीन लोगों के संपर्क मे आ चुके थे, उन्हे क्वारंटाइन कर दिया गया। 

दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी लेकिन केंद्र सरकार चलाने वाले लोगों की प्राथमिकताएँ बीमारी का सामना करने की न होकर कुछ और ही थीं। ट्रम्प का भव्य स्वागत करना था, दिल्ली के चुनाव को किसी भी तरह जीतना था, लोगों को उनके कपड़ों से पहचानकर, देश-द्रोही साबित करना था, दिल्ली चुनाव की हार का बदला लेना था, मध्यप्रदेश की सरकार को गिराकर, भाजपा की सरकार बनानी थी – तमाम प्राथमिकताएँ थी जिनमें बीमारी से लोगों को बचाने और गरीबों की सुरक्षा करने के लिए जगह ही नहीं थी।

सरकार की प्राथमिकताओं ने उसका चेहरा तो स्पष्ट किया ही, 30 जनवरी के बाद के घटनाक्रम ने हमारे समाज का असली चेहरा भी उजागर करने का काम किया। 

ट्रम्प का भव्य स्वागत 24 फरवरी को अहमदाबाद में होना था। इसकी तैयारी गुजरात और केंद्र सरकार ने किस तरह से की उसके एक उदाहरण से उसका और हमारे समाज का चेहरा साफ-साफ दिखाई देता है। अहमदाबाद के हवाई अड्डे से शहर को जाने वाला रास्ता एक बस्ती से होता हुआ जाता है। इस बस्ती मे 5000 ग़रीब लोग रहते हैं। वे ग़रीब ही नहीं, सारणीया नामक आदिवासी भी हैं। इस बस्ती मे कोई स्कूल नहीं है और यहाँ के लोगों को शहरी लोग हिकारत की नज़र से देखते हैं इसलिए इनके बच्चे बाहर पढ़ने नहीं जाते। वे बेइज़्ज़ती से डरते हैं।  बस्ती के पुरुष लोगों के चाकू-छुरों को धारदार बनाने का काम करते हैं, औरतें पड़ोस मे रहने वाले रईसों के यहाँ चौका-बर्तन करती हैं।

बस्ती के दो-चार नलों मे सिर्फ एक घंटे के लिए पाने आता है; शौचालय बने हैं लेकिन सीवर लाइन नहीं है। तो ‘बड़े लोगों’ के मुताबिक बस्ती ‘गंदी’ है। बस्ती मे रहने वाले लोग भी ‘गंदे’ हैं। इसलिए उनको ट्रम्प और उनके साथ आए अन्य मेहमानों से छिपाना ज़रूरी था। इसलिए, जब कोरोना के बारे मे सोचना शुरू कर देना चाहिए था, बस्ती के चारों ओर 6 फुट ऊंची दीवार खड़ी कर दी गयी। दीवार को रंग लगाकर चमकाया भी गया। पूरा प्रयास इसका किया गया कि एक नए, चमचमाती सुंदर दीवार के पीछे उन ‘गंदे’ लोगों की ‘गंदी बस्ती’ की असलियत दुनिया से छुपाई जाए। ठीक उसी तरह जैसे हम समानता और बराबरी जैसे सुंदर शब्दों के जाल के पीछे हमारे देश की अनोखी और ला-इलाज महामारी, छुआछूत की प्रथा की गंदगी को अपने आप से छुपाते हैं।

कहीं दीवार के पीछे, कहीं ख़्याली जाल के पीछे, हमारे देश की यह बहुत पुरानी और बहुत जानलेवा महामारी बड़ी क्रूरता के साथ, हिंसा के नए प्रयोगों के साथ, शिकार करती ही रहती है। उसे कुछ रोक नहीं पाता है। हैजा, तपेदिक, प्लेग जैसी महामारियों को वह अपने आगे कुछ नहीं समझती है। कोरोना को देखकर वह अनदेखा कर देती है और अपना काम, बिना थमे, वह अंजाम देती रहती है। विशेष लोगों को चिह्नित करके उन पर नए तरीको के हिंसात्मक हमले, उनके साथ नए तरीके का अपमानजनक व्यवहार, पूरे के पूरे समूह के साथ अकल्पनीय बर्बरता का आक्रमण, यह इस महामारी के लक्षण हैं।

जैसा कि अभी बताया, कोरोना का इस पर तनिक असर नहीं पड़ता है।  सोशल डिस्टेन्सिंग, एक दूसरे के प्रति हमदर्दी और भाईचारा, बढ़ा हुआ देशप्रेम, बीमार पड़ने की दर, इन सबका इस महामारी के न थमने वाली, चारों तरफ आतंक फैलाने वाली कार्य प्रणाली पर कोई असर नहीं पड़ता है।

30 जनवरी को कोरोना का प्रवेश पहले मरीज के रूप मे हमारे देश मे हुआ और फरवरी के पहले दो सप्ताह मे करोड़ों रुपये और सैकड़ों मज़दूरों को अहमदाबाद में सारणीया आदिवासियों की बस्ती को छिपाने वाली दीवार को बनाने मे लगा दिये गए।

16 फरवरी को मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले मे 15 वन विभाग के अधिकारियों पर एक दलित व्यक्ति को गोली मारकर उसकी हत्या करने का आरोप लगाया गया। मृतक की पत्नी, सरोज वाल्मीकि, ने बताया की उसकी दो बेटियाँ हैंडपंप से पानी भर रही थी जब वहाँ एक वन रेंजर अपनी पानी की बोतल भरने पहुंचे। उन पर इन लड़कियों के हाथ से पानी चला गया और उन्होंने लड़कियों को गरियाना शुरू किया। फिर एक दूसरा अधिकारी वहाँ पहुंचा जिसने दोनों लड़कियों को पीटना शुरू कर दिया। लड़कियों का बाप, मदन, अपने भाई पंकज के साथ वहाँ आया और उन दोनों की भी पिटाई कर दी गयी। जब उन्होंने भागने की कोशिश की तो रेंजरों ने गोली चलाई (उनमे से एक महिला भी थी)।  मदन अस्पताल के रास्ते मे ही मर गया, पंकज घायल है। रेंजर फरार हो गए।

26 फरवरी को तामिलनाडु के तिरुवनामालय ज़िले मे खेल-कूद के आयोजन के बीच, कुछ ऊंची जाति के लड़कों ने दलित लड़कियों के साथ छेड़खानी की जिस पर दलित लड़को ने आपत्ति की। उनके ऊपर बुरी तरह से हमला कर दिया गया और उनमे से एक, कालायरासन, मार डाला गया।

27 मार्च को तामिलनाडु के उसी तिरुवनामले ज़िले मे एक अति-पिछड़े युवक, सुधाकर, की हत्या कर दी गयी। उसकी शादी एक उससे थोड़ी ऊंची जाति की OBC लड़की से 6 महीने पहले हुई थी। लड़की की जाति पंचायत ने विवाह को अवैध घोषित कर दिया और सुधाकर कि पिटाई करके उसे गाँव से भगा दिया गया। वह चेन्नई चला गया। लॉकडाउन के बाद उसका काम बंद हो गया और उसके लिए गुज़ारा करना मुश्किल हो गया। वह अपने गाँव लौट आया। उसने अपनी पत्नी से मिलने का प्रयास भी किया। उसकी पत्नी के बाप और रिश्तेदार ने उसे लोहे के सरियों से पीटकर मार डाला।

बिहार के आरा ज़िले के मुसहर टोले का 11 वर्षीय बच्चा 27 मार्च को भूख से मर गया। उसका बाप दहाड़ी पर काम करने वाला मज़दूर है जिसे लॉकडाउन के बाद से काम नहीं मिला था। ज़िला प्रशासन का कहना है कि लड़के की मौत बीमारी से हुई थी। क्या भूख से बढ़कर भी कोई बीमारी होती है?

उसी दिन, उत्तर प्रदेश के वाराणसी से, जो कि प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र भी है, ख़बर आई कि बारगांव ब्लाक, कोइरीपुर गाँव मे मुसहर बच्चे घास खाने के लिए मजबूर थे। इसकी तस्वीर भी अख़बार मे छपी। इस पर वाराणसी के ज़िलाधीश महोदय ने उत्तर दिया कि वह घास खाई जाती है और उसे वह स्वयं भी खाते हैं।

देखा जा सकता है कि लॉकडाउन का कोरोना के नियंत्रण पर जो भी असर पड़ता हो, उससे बड़ी महामारी, छूआछूत पर उसका कोई असर नहीं है। लॉकडाउन के बीचोबीच, 2 अप्रैल को इस बड़ी महामारी ने अपना खूब करतब दिखाया। उस दिन, तामिलनाडु के उसी तिरुवनामले ज़िले मे, कुप्पनाथम बस अड्डे पर एक पुलिस वाले, ईश्वरन, ने अपने बेल्ट से एक दलित लड़के को केबल का तार लेकर बुरी तरह से इसलिए पीटा कि वह एक गैर-दलित लड़की से बात कर रहा था। पुलिस वाला फरार है।

उसी दिन, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले के दलित युवक रोशनलाल ने आत्महत्या कर ली। वह गुरुग्राम मे दहाड़ी पर काम करता था और लॉकडाउन के छठे दिन अपने घर लौटा था। उसे गाँव के स्कूल में क्वारंटाइन मे रखा गया था। 2 तारीख़ को उसे पुलिस ने पकड़ कर खूब मारा, उसका हाथ भी तोड़ दिया। अपनी जान लेने से पहले, रोशन कुमार ने अपने बयान की रिकार्डिंग कर दी। उसने कहा: मुझे कोरोना नहीं हुआ है। मेरे पास टेस्ट की रिपोर्ट है। लेकिन मुझे सिपाही अनूप कुमार सिंह ने बहुत मारा। विश्वास न हो, तो मेरे कपड़े उतार कर देख लो। मेरी पीठ मार के निशानो से भरी है। मेरा हाथ भी तोड़ दिया गया है। तो अब मैं क्या कर सकता हूँ? इसलिए मैं अपनी जान ले रहा हूँ।’ रोशनलाल के परिवार कि पुलिस के खिलाफ शिकायत की रिपोर्ट नहीं लिखी गयी है।

उसी 2 अप्रैल को, उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के अभिषेक को ज़िंदा जलाकर मार डाला गया। 6 साल पहले वह एक ऊंची जाति की महिला के साथ भाग गया था। महिला को ज़बरदस्ती वापस लाया गया। उस दिन वह उस महिला के साथ पकड़ा गया और उसे ज़िंदा जला दिया गया। इसके बाद, उसकी माँ का देहांत दिल का दौरा पड़ने से हो गया। 

5 अप्रैल को, गुजरात के अहमदाबाद के एक थाने मे जिग्नेश सोलंकी नामक दलित युवक ने आत्महत्या कर ली। उसके घर वालों का कहना है कि उसे झूठे आरोप मे पकड़ कर पुलिस और अन्य लोगों ने बहुत पीटा।

5 अप्रैल को ही, पंजाब के जालंधर ज़िले मे एक दलित महिला के साथ बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी।

6 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के हमीरपुर ज़िले मे एक नाबालिग दलित बच्चे के साथ बलात्कार करके उसकी हत्या कर दी गयी।

6 अप्रैल की सुबह, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रदेश वासियों को 5 की रात को दीया और मोमबत्ती जलाकर सद्भावना और एकता का परिचय देने की बधाई दी। उसी दिन, उनके गृह जनपद, गोरखपुर, से सटे बस्ती ज़िले मे एक गाँव के स्कूल मे क्वारंटाइन बिता रहे मज़दूरों के समूह ने दलित महिला द्वारा पकाए गए खाने को खाने से इंकार कर दिया।  उनको दूसरी जगह भेज दिया गया है।

बड़ा पुराना रोग है। बड़ी पुरानी महामारी है। 1857 के संग्राम के दौरान, कानपुर के पास, उन्नाव ज़िले के बशीरतगंज मे अंग्रेजों और बागियों के बीच घमासान हुआ। अंग्रेज़ हिन्दुस्तानी सैनिकों की बहादुरी और चतुराई देख आश्चर्य चकित रह गए। बड़ी मुश्किल से मैदान जीत पाये। उसके बाद उनमें से एक ने लिखा, बहुत सारे हिंदुस्तानी सैनिक युद्ध में मारे गए और बहुत सारे मैदान मे घायल पड़े थे। बहुत गर्मी थी और वे अपने घावों से कम, प्यास से अधिक व्याकुल थे। लेकिन जब गाँव के लोग उनके लिए पानी लेकर आए तो उन्होंने उसे पीने से इंकार कर दिया। दूसरी जाति के प्राणी के हाथ से पानी स्वीकार करने से बेहतर उनके लिए मर जाना था। और बहुत से मर भी गए।

यह महामारी न जाने कितनों को लीलती आई है। कारोना तो चला ही जाएगा लेकिन यह बड़ी महामारी अभी न जाने वाली।

(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) की अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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