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प्रवासी का मतलब और पीड़ा समझते हैं आप?
रेल की पटरियों पर कटते, सड़क दुर्घटनाओं में मरते इन प्रवासियों की विभीषिका का चित्रण क्या कोई समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य मीडिया या व्यक्ति व्यक्त कर पायेगा।
सिद्धेश्वर प्रसाद शुक्ल
15 May 2020
प्रवासी मजदूर
Image courtesy: Twitter

प्रवासी शब्द कोविड-19 एवं लॉकडाउन के चलते अकादमिक डिस्कोर्स से उठकर लोक परिचर्चा में शामिल हुआ है। प्रवासी अंतर्देशीय, अंतरप्रांतीय और एक ही प्रांत में हो सकते हैं। आमतौर पर वे लोग जो अपने देश या प्रांत/राज्य को छोड़कर रोज़गार की तलाश में दूसरे मुल्कों/राज्यों/प्रांतों में जाकर रहते हैं उन्हें प्रवासी कहा जाता है। प्रवासी एवं रिफ्यूजी में फर्क इतना है कि प्रवासी जन अपनी इच्छा से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करते हुए दूसरे क्षेत्रों में जाते हैं जबकि रिफ्यूजी युद्ध या किसी विषम परिस्थिति के कारण। हालांकि पिछले वर्षों में इन दोनों के बीच का अंतर काफी कम हुआ है। प्रवासी भी उतनी ही विषम परिस्थितियों में शहरों से जा रहे हैं जितने युद्धों या आंतरिक युद्धों के चलते रिफ्यूजी बनते है। संभवतः यही कारण है कि प्रवासी बदतर जीने के हालात, निम्नतर वेतन, नगण्य सेवा शर्तों, शून्य सामाजिक सुरक्षा के बावजूद काम करने के लिए तैयार हो जाते है।

अमरीकी, कनाडाई कैब ड्राईवर या ढाबा चालक से लेकर अफ़्रीकी रेहड़ी पटरी चालक या अरब मुल्कों के भवन निर्माण से लेकर अन्य कार्य करने वाले प्रवासी हों या भारत के विभिन्न शहरों में गांवों से आने वाले प्रवासी मज़दूर। इनमें से बहुत सारे लोग उन्हीं देशों या शहरों के कच्ची कॉलोनियों, पुनर्वास बस्तियों या झुग्गी पट्टियों में बस जातें है तथा उसी शहर की नागरिकता ग्रहण कर लेते हैं तथा धीरे-धीरे उनका गांवों से रिश्ता ख़त्म होता जाता है। ऐसे लोग क्रमशः प्रवासी की श्रेणी से हटते जाते है। कनाडा में बसे हुए सिक्खों या अमेरिका में बसे हुए प्रोफेशनल समूहों या भारत के विभिन्न हिस्सों से शहरों में बसे प्रोफेशनल अधिकारी समूहों को प्रवासी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है हालांकि उसका उनके ग्रामीण क्षेत्रीय समूहों से सांस्कृतिक लगाव ज़रूर होता है।

मोटे तौर पर प्रवासी मज़दूर को परिभाषित करने में माइग्रेशन स्टडीज के विभेदों एवं परिभाषाओं में नहीं पड़ते हुए प्रवासी उन्हें माना जा सकता है जिनका शहरों में अपना घर न हो एवं उनके पास शहर का राशन कार्ड, नागरिकता, इत्यादि न हो (उच्च मध्यवर्गीय एवं मध्यवर्गीय समूहों को छोड़कर जो किराये के फ्लेटों या कोठियों में रहते हैं।) आम जन या मीडिया; प्रवासी के इसी श्रेणी के अर्थ में प्रवासी शब्द का अर्थ ग्रहण कर पा रहा है।  

हम सब लोग मॉरिशस, फिजी, सूरीनाम, के गिरमिटिया प्रवासी मज़दूरों के बारे में पढ़ते हुए बड़े हुए हैं परंतु  किसी व्यक्ति को एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान में  बसा देने को प्रवासी नहीं माना जा सकता है। यह महज एक फोर्स्ड माइग्रेशन माना जा सकता है। हालांकि अमेरिका में चीनी मूल के वैज्ञानिक पिनलिंग की हत्या के बाद मध्यवर्गीय प्रवासी भी असहज हुए है।

प्रवासी मज़दूर की इस श्रेणी का विकास भारत में जनसंख्या विस्फोटन, कृषि अर्थव्यवस्था के भयानक संकट, कृषि के मात्रिकरण, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामंती एवं जातिवादी शोषण, भूमि सुधार एवं चकबंदी प्रथा के अभाव तथा असमान विकास( विभिन्न क्षेत्रों) के चलते संभव हो पाया  है। 

शिक्षा व्यवस्था के नीजिकरण के अवसरों की समानता के सिद्धांत को ही नष्ट कर दिया है। संस्कृति स्कूल के छात्रों का बिहार के सरकारी स्कूल से प्रतिस्पर्धा करना उनका मज़ाक बनाने के अलावा कुछ भी नहीं है।  

नई सरकारी शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य साक्षर बनाना एवं मज़दूरों के पुनरुत्पादन  से ज्यादा बनने नहीं दिया गया है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामंती-भूपति, अफसरशाही गठजोड़ एवं उस पर आधारित राजनीति ने दलितों, आदिवासीयों, अति पिछड़ी जातियों, गरीबों को प्रवासी बनने पर मजबूर किया है।

नवउदारवाद एवं बाज़ारवाद ने शहरों को एक खुशहाल वर्चुअल इमेज में तब्दील करने का कार्य  किया है तथा गाँवों को शहरों के समक्ष नीचा प्रस्तुत किया है। भारत सरकार का सौ स्मार्ट सिटी बनाने का लक्ष्य भी उसी वर्चुअल इमेज का ही प्रचार है। सरकार की ग्रामीण विकास की योजनाएं मनरेगा इत्यादि फिसड्डी साबित हुयी है। स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया नारे शापित हुए है। ज्यादातर प्रवासी अनस्किल मज़दूर असंगठित क्षेत्र के विशाल महासमुद्र में शामिल हुए है तथा संगठित एवं सर्विस सेक्टर के हेल्पर की श्रेणी में सम्मिलित है। आम तौर पर ‘रोज कमाओ-रोज खाओ’ जैसी स्थिति है। जाहिर सी बात है कि  50 दिनों का लॉकडाउन एवं सामाजिक दूरी इन प्रवासियों के लिए आफत साबित हुई है। शायद पैदल चलकर जाने वाले प्रवासियों के लिए अब ‘लौ लसानी अब न लसैहों’ जैसी चीज़ ज़हर बन जायेंगे।

भारत में सामंतवाद से पूंजीवादी संक्रमणों पर बहुत ही कम ठोस अध्ययन मौजूद है। आमतौर पर हम मौरिस डाब, वालरस्टीन, बेनर, मार्क्स-एंजेल्स, लेनिन, हिलफर्डिन, हिल्टन रोजा लक्जमबर्ग इत्यादि विद्वानों के अध्ययनों की नक़ल पर आधारित रहे है। राज्य के चरित्र निर्माण में “अर्ध पूंजीवादी-अर्ध सामंती राज्य की सामान्यीकरण से बहुतों ने अपना पिण्ड छुड़ा लिया है। उत्पादन के साधनों एवं उत्पादन के संबंधों की मशीनीकृत व्याख्या होती रही है।

कुल मिलाकर ये सारे सिद्धांत 17वीं एवं 18वी शताब्दी के सामंतवाद से पूंजीवादी संक्रमण में यूरोपीय समाजों का चित्रण करते हैं। क्या समान व्याख्या करने के रूप में बीसवी एवं इक्कीसवी शताब्दी के संक्रमणों के संबंध इस्तेमाल किये जा सकते है? क्या अध्ययनों के नए आयामों को जोड़ना संक्रमणों को समझने के लिए जरूरी नहीं है? यूरोपीय समाज में दासप्रथा से मुक्त हुए प्रवासियों और लोकतांत्रिक समाज के प्रवासियों को एक ही तरह से समझा जा सकता है। प्रवासी बनने की होड़ का आलम यह है कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड के गांवों में किसी को मृत्यु पर कंधा देने वाले नौजवानो का ढूढ़ पाना असंभव है।

प्रवासी मज़दूर शहरों में अनस्किल्ड या सेमी स्किल्ड मज़दूरों के रूप में आते हैं। इन मज़दूरों का प्रवास तीन महीने से लेकर वर्षों तक का हो सकता है। संगठित क्षेत्र की फैक्टरियों के अतिरिक्त असंगठित क्षेत्र के लगभग समूचे मज़दूर प्रवासी ही होते है। सब्जी वाला, रेहडी वाला, ठेला वाला, अखबार बाँटने वाला, भवन निर्माण का कार्य, इलेक्ट्रीशियन, प्लम्बर घरलू कामगार महिला, रिक्शा, ई रिक्शा वाला, लोडिंग-अनलोडिंग का कार्य, साफ़-सफाई वाला, ड्राईवर, दर्जी, हज्जाम, बढ़ई, ढाबा, रेस्तरा मज़दूर, टेंट मज़दूर, कूड़ा चुनने वाला होटलों में काम, दूध पहुँचाने वाले, पंजाब,हरियाणा जम्मू में कृषि के काम, कपास की खेती, गन्ने की खेती में काम करने वाले। इनके अतिरिक्त सर्विस सेक्टर के ज्यादातर कर्मचारी, ई-कॉमर्स के ज्यादातर सप्लाई ब्यॉय।

कुल मिलाकर शहर के पूंजीपति, अमीर, उच्च मध्यवर्ग एवं मध्यवर्ग को हर प्रकार सुविधा एवं सम्पन्नता का एहसास कराने वाले प्रवासी मज़दूर ही होते है। सस्ता वेतन कमर तोड़ काम यही है प्रवासी की पहचान और ऊपर से शून्य सम्मान। देश में स्थापित पूंजीपति-सामंती अफसरशाही के गठजोड़ ने प्रवासी मज़दूरों के श्रम का दोहन तो किया ही है उन्हें सम्मान की जिंदगी भी शहरों में नसीब होने नहीं दिया है। भारत में जाति एवं धर्म-सुधारकों की एक लम्बी फेहरिस्त है परन्तु दुर्भाग्यजनक रूप से प्रवासियों का कोई मार्टिन लूथर किंग भी अभी पैदा नहीं हुआ है।

स्टेट ऑफ़ वर्ल्ड पोपुलेशन रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की आधी आबादी शहरों में रहने लगी है। भारत की जनगणना सन् 2011 के अनुसार भारत में आन्तरिक प्रवासी मज़दूरों की संख्या एक सौ उनतालीस मिलियन है। जिसमें ज्यादर प्रवासी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बंगाल, झारखण्ड, उत्तराखंड, से आते है एवं दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश  तमिलनाडु, गुजरात एवं केरल को जाते हैं। 

सन् 2011 के पश्चात शहरों की तरफ पलायन कृषि अर्थव्यवस्था के भयावह संकटों के चलते तेजी से बढ़ा है। श्रम कानूनों को लगातार केंद्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा कमजोर किये जाने के बावजूद भी बदतर स्थितियों में प्रवासी मज़दूर काम करने को विवश हुए है। ऐसे आकड़े प्रचुरता में उपलब्ध है जो दर्शातें है कि शहरों में ये प्रवासी पेट पालने के अतिरिक्त कुछ ज्यादा नहीं  कर पा रहें हैं। शहर के मुख्य फीडर बने रहने के बावजूद उनके वहां बने रहने से कोई ज्यादा आर्थिक लाभ नहीं है।

सन् 2011 की जनगणना के आकड़ों में सीजनल माइग्रेशन, छात्रों के आव्रजन एवं अन्य प्रकार के शहरों में आव्रजन के आकड़े मौजूद नहीं है। अब ऐसा माना जाने लगा है कि ऐसे प्रवासियों की संख्या भी करोड़ों में है। हाल ही  में  कोटा के छात्रों को लेकर हुए विवाद सर्विदित है। कोविड-19 से लड़ने के लिए सरकारें पानी की तरह पैसा बहा रहीं हैं अगर उसी पैसे के एक हिस्से का इस्तेमाल देश के सभी ब्लॉकों में अस्पताल, स्कूल एवं सड़के बनवाने का कार्य किया जाता तो भवन निर्माण क्षेत्र में संलग्न 5 करोड़ मज़दूरों को रोज़गार मिल जाता।

उच्च तकनीकीय उद्योग में लगे कर्मियों को सामाजिक दूरी का ध्यान रखते हुए कार्य में संलग्न किया रहता तो भी लॉकडाउन पर कोई असर नहीं पड़ता। औद्योगिक क्षेत्रों के इर्द-गिर्द बहुमंजली इमारतें हमारी योजना का हिस्सा होते तो उद्योग भी चल रहे होते और कोरोना से लड़ाई भी लड़ते और उत्पादन भी होता लेकिन स्थिति यह है कि पैदल चल रहे श्रमिक वर्ग महिलाओं एवं बच्चों समेत भूख और प्यास से त्रस्त पगार से वंचित पुलिस की लाठियों के लिए अभिशप्त प्रवासियों के पैरों के छालों को देख कर ऐसा लगता है कि मालिकों ने उन्हें मज़दूर की बजाय इस्तेमाल की वस्तु तो समझा ही है इसके साथ ही सरकार ने बुरी तरह इनका शोषण भी किया है। जब तक बेइंतिहा शोषण से जंजीरे टूटे न वह वापस नहीं आयें, यही बेहतर होगा।  रेल की पटरियों पर कटते, सड़क दुर्घटनाओं में मरते इन प्रवासियों की विभीषिका का चित्रण क्या कोई समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य मीडिया या व्यक्ति व्यक्त कर पायेगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक हैं। आपसे  sidheshwarprasadshukla@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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