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भारत में ओ'डायरवाद: गांधी और प्रशांत भूषण के साहस और 'अवमानना'
18 अक्टूबर, 1919 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने बतौर यंग इंडिया के संपादक, गांधी से जस्टिस कैनेडी के पत्र के छापे जाने के बारे में पूछा था। उनसे कहा गया था कि उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी क्यों नहीं माना जाये।
स्वराज बीर सिंह
27 Aug 2020
O'Dwyerism in India: The Courage and ‘Contempt’ of Gandhi and Prashant Bhushan

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाने-माने वक़ील-कार्यकर्ता, प्रशांत भूषण को अदालत के अवमानना के दोषी ठहराये जाने के बाद से भारतीय क़ानूनी और बौद्धिक जगत में इसे लेकर इस समय ज़बरदस्त बहस चल रही है। भूषण को इस साल जून में दो ट्विटर पोस्ट के आधार पर दोषी ठहराया गया था।

27 जून के पहले विवादित ट्वीट में उन्होंने कहा था कि भविष्य के इतिहासकार लोकतंत्र की सुरक्षा में शीर्ष अदालत, ख़ास तौर पर भारत के आख़िरी चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका का निम्न मूल्यांकन करेंगे। 29 जून के दूसरे ट्वीट, जो इस समय चर्चा के केन्द्र में है, उसमें उन्होंने भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबडे की तस्वीर पोस्ट की थी, जिसमें वे हार्ले डेविडसन सुपरबाइक पर सवार दिखायी दिये थे। उन्होंने इस बात का जिक्र किया था कि यह सब उस समय आख़िर कैसे हो रहा है, "जिस समय नागरिकों को न्याय तक उनकी पहुंच वाले उनके मौलिक अधिकार से वंचित रखते हुए सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन मोड में रखा हुआ है।"

भूषण को दोषी ठहराते हुए अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “भारतीय न्यायपालिका महज़ न्यायपालिका ही नहीं,अबल्कि वह केंद्रीय स्तंभ है, जिस पर भारतीय लोकतंत्र खड़ा है...संवैधानिक लोकतंत्र की गहरे नींव को हिलाने वाली किसी भी कोशिश के साथ बेहद सख़्ती से निपटा जाना चाहिए। इस ट्वीट से भारतीय लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण स्तंभ की बुनियाद को अस्थिर करने की कोशिश की गयी है।”

आइये, एक ऐसी कहानी का ज़िक़्र किया जाये,जो क़रीब सौ साल पुरानी है, यह कहानी तब की है, जब भारत की आज़ादी की लड़ाई एक नयी अंगड़ाई ले रही थी। जैसा कि आप जानते हैं,पुराने क़िस्से में अक्सर कोई न कोई सीख तो होती है, ऐसी ही सीख इस कहानी में भी है।

13 अप्रैल,1919 को जलियांवाला बाग़ की भीषण त्रासदी हुई थी, जिसमें सैकड़ों पंजाबियों ने शहादत पायी थी। इस जलियांवाला बाग़ में ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर की कमान में गोलीबारी की गयी थी।

उस समय पंजाब के लेफ़्टिनेंट गवर्नर,माइकल ओ डायर थे, जिन्होंने ग़दर पार्टी की घटना और पंजाब में भीतर ही भीतर चल रही क्रान्तिकारी सरगर्मी को देखते हुए पहले भारत की रक्षा अधिनियम और बाद में 1919 में रौलट एक्ट के निर्माण में एक सक्रिय भूमिका निभायी थी।

जलियांवाला बाग़ में हुई हत्याओं के बाद भी 1913 और 1919 के बीच लेफ़्टिनेंट गवर्नर के रूप में अपनी भूमिका निभाने वाले ओ'डायर ने पंजाब के कई ज़िलों में विभिन्न सैनिक और पुलिसिया ज़्यादतियों को अंजाम दिया था, जिसमें नागरिकों पर विमानों से बम गिराना और गुजरांवाला में अशांति को दूर करने के लिए मशीनगन का इस्तेमाल करना तक शामिल था।

रौलट-एक्ट विरोधी आंदोलन अपनी प्रकृति में अखिल भारतीय था। कांग्रेस द्वारा आयोजित सत्याग्रह आंदोलन में भाग लेने वाले लाखों लोगों पर विभिन्न स्थानों पर पुलिस ने गोलीबारी की थी और तोप तक का इस्तेमाल किया था, जिसमें कई लोग मारे गये थे या घायल हुए थे, हज़ारों लोगों को जेलों में ढूंस दिया गया था और उनपर बेइंतहा ज़ुल्म ढाया गया था।

22 अप्रैल 1919 को अहमदाबाद के ज़िला न्यायाधीश,बी.सी. कैनेडी ने बॉम्बे हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार को एक "निजी-आधिकारिक" पत्र लिखकर उन्हें सूचित किया था कि दो वक़ीलों, कालिदास जे.झवेरी और जीवनलाल वी.देसाई ने एक हलफ़नामे पर दस्तख़त किये थे और केनेडी के मुताबिक़, अदालत के प्रति उनकी ज़िम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए इस तरह की कोई भी कार्रवाई ठीक नहीं है।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने 12 जुलाई, 1919 को दोनों को नोटिस जारी किया और कैनेडी के पत्र की एक प्रति सवालों के घेरे में आये इन दो वक़ीलों में से एक,देसाई को भेज दी गयी। देसाई ने इसकी एक प्रति दूसरे प्रतिवादी, कालिदास झावेरी को दे दी।

इसे मुख्य न्यायाधीश,जस्टिस हेटन और जस्टिस काजिजी ने ठीक नहीं माना।उन्होंने 10 नवंबर, 1919 को उस पत्र की प्रति को साझा करने के लिए झावेरी को "ज़बरदस्त फ़टकार" लगायी थी। [संदर्भ: कालिदास जे.झवेरी (1919) 22 बीओएम। एल.आर.31]

इस मुकदमे के दौरान कुछ और भी हुआ था।

वक़ील झावेरी ने जस्टिस केनेडी के उस पत्र की एक प्रति यंग इंडिया के संपादक, महात्मा गांधी को सौंप दी थी, जिसके प्रकाशक महादेव देसाई थे। असल में महादेव देसाई गांधी के सचिव थे और जिन्हें अपने लेखन या स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के चलते कई बार जेल की कोठरी में दालिख होना पड़ा था।

गांधी को कैनेडी के उस पत्र को यंग इंडिया में छापना उचित लगा। उन्होंने 6 अगस्त, 1919 को यंग इंडिया के पहले पन्ने पर बहुत ही उपयुक्त और उत्तेजक शीर्षक, ‘अहमदाबाद में ओ'डायरवाद’ के साथ प्रकाशित कर दिया।

उसी दिन उस पत्र के प्रकाशित करने के साथ-साथ यंग इंडिया के इस संस्करण के पृष्ठ संख्या दो पर गांधी ने "शेकिंग सिविल रेसिस्टर्स" नामक एक विस्तृत संपादकीय टिप्पणी को लिखना भी ठीक समझा। उस लेख में उन्होंने तर्क दिया कि  वह ओ'डायर ही तो थे,जो पंजाब में अमन-चैन को तबाह करने का ज़िम्मेदार थे और उन्होंने यह भी लिखा कि "ओ'डायर की आत्मा" हर तरफ़ भटक रही है।

पंजाबियों को गांधी के अपनाये गये उस तरीक़े पर ध्यान देने की ज़रूरत है, जो उन दिनों  माइकल ओ'डायर जैसे बेरहम शख़्स के ख़िलाफ़ सार्वजनिक आरोप लगा रहे थे; लेकिन,ठीक उसी समय उस अख़बार पर निशाना साधते हुए एक ‘महान कवि’ और पंजाब के लोगों के दिलों में बसने वाला वह शख़्स नीचे गिरते हुए सरकार की तारीफ़ में कसीदे काढ़े जा रहा था और ‘हुजूर वाइसराय साहिब’ का गीत गाते हुए सरकार की चापलूसी कर रहा था।

इस हक़ीक़त को बयान करते हुए कि यह बॉम्बे हाईकोर्ट ही था,जिसने रौलट एक्ट और अन्य दमनकारी उपायों के ख़िलाफ़ सत्याग्रह के शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले दो वक़ीलों को नोटिस जारी किया था, महात्मा गांधी ने लिखा कि बॉम्बे (अब मुंबई) के आस-पास उसी ओ'डायर की आत्मा की गूंज सुनाई दे रही है।

अपने उस लेख में गांधी ने कहा था कि संकल्प पर हस्ताक्षर करने वाले न्यायमूर्ति कैनेडी ने न्यायिक मानदंडों का उल्लंघन करते हुए दो वक़ीलों पर अभियोग लगाकर, ख़ुद को किसी ऐसे शख़्स के रूप में छला है,जो पूर्वाग्रह के साथ इस मुद्दे को हल करने का दोषी हैं, और जिन्होंने पहले ही फ़ैसला सुना दिया है। इसे पढ़कर लगता है कि नौजवान महात्मा गांधी कितने सख़्त रहे होंगे, "उनका [केनेडी का] इल्ज़ाम किसी दूसरे के मामले में अभद्र होगा और ख़ुद के मामले में निर्लज्ज।"

बतौर यंग इंडिया के संपादक,18 अक्टूबर,1919 को गांधी से कहा गया कि वे बॉम्बे हाईकोर्ट के उस पत्र के प्रकाशन और उस पर की गयी टिप्पणियों पर अपनी सफ़ाई दें, क्योंकि उस समय मामला न्यायिक प्रक्रिया में था, और इस तरह के कार्यों से न्यायिक कार्यों में बड़ा हस्तक्षेप होता है।उनसे पूछा गया कि उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी क्यों नहीं क़रार दिया जाये।

बाद में हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार ने गांधी को लिखा कि वह हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के सामने उनके चैम्बर (हाई कोर्ट में नहीं) में आकर अपनी सफ़ाई दे सकते हैं।

गांधी ने जवाब देते हुए कहा कि वह पंजाब के रास्ते में हैं और उक्त तारीख़ पर मुख्य न्यायाधीश के सामने पेश होने की हालत में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने कहा कि लिखित में वे अपनी सफ़ाई भेजना पसंद करेंगे। इस उस प्रस्ताव को मुख्य न्यायाधीश ने स्वीकार कर लिया।

यक़ीन मानिए महात्मा गांधी ने इस मौक़े का इस्तेमाल जमकर किया था। 22 अक्टूबर, 1919 को अपनी सफ़ाई में गांधी ने लिखा था, “मेरे विचार में एक पत्रकार के रूप में (जस्टिस केनेडी) के पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना मेरे पत्रकार होने के ज़द के भीतर का अधिकार है। मेरा मानना है कि यह पत्र सार्वजनिक महत्व का है और इस पर सार्वजनिक टिप्पणी की ज़रूरत है।”

जैसा कि मानकर चला जा रहा था, बॉम्बे हाईकोर्ट ने गांधी की अवहेलना के इस रुख़ को पचा नहीं पाया और 31 अक्टूबर, 1919 को गांधी के सामने इस फ़ांस से बाहर निकलने के लिए पेशकश करते हुए कहा कि "बशर्ते वह यंग इंडिया में अपना माफ़ीनामा प्रकाशित कर दें।" इस पेशकश के साथ माफ़ीनामे का एक प्रोफ़ॉर्मा ड्राफ़्ट भी नत्थी कर दी गयी थी।

मगर, गांधी ने सुझाये गये उस माफ़ीनामे को प्रकाशित करने से इनकार कर दिया, और कहा कि उन्होंने इस मामले को अपने वक़ील को सौंप दिया है। 11 दिसंबर से एक और पत्र में गांधी ने फिर कहा कि वह किसी भी माफ़ीनामे को प्रकाशित नहीं करेंगे और कि सही मायने में "ऐसे समय में (जस्टिस कैनेडी का वह पत्र प्रकाशित करके) उन्होंने एक उपयोगी सार्वजनिक कर्तव्य निभाया है,जिस समय चारों तरफ़ व्यापक तनाव है और जब न्यायपालिका भी लोकप्रिय पूर्वाग्रह से प्रभावित हो रही है।”

कहीं ऐसा न हो कि ब्रिटिश राज के मन में कोई शक-सुबहा रह गया हो,इसलिए गांधी ने सोचा कि इस समय यह रेखांकित करना मुनासिब होगा कि भविष्य में भी "ऐसी परिस्थितियों में वे अलग तरह से पेश नहीं आयेंगे, और यह भी कि वे होश-ओ-हवास में कोई माफी नहीं मांग सकते।"

यह मामला 27 फ़रवरी, 1920 को फिर से सुनवाई के लिए अदालत के सामने पेश किया गया, और गांधी ने फिर  अपनी बात उसी स्पष्टता के साथ रखी, “मैं (मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गयी) सलाह  को मंज़ूर कर पाने में असमर्थ रहा हूं, क्योंकि मैं यह नहीं मानता कि मैंने श्री कैनेडी के पत्र को प्रकाशित करके या उसके बाद उस पर टिप्पणी करके किसी तरह के क़ानून या नैतिकता का उल्लंघन किया है।” उन्होंने यह भी साफ़ कर दिया कि सही मायने में प्रकाशन ने तो उनके अनुरोध पर उस पत्र को प्रकाशित किया था। इस तरह, उन्होंने इसकी सीधी-सीधी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और प्रकाशक, देसाई की तरफ़ से उस आरोप को अपनी तरफ़ मोड़ दिया।

महादेव देसाई ने भी अपनी ओर से माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया, और कहा कि अदालत चाहे,तो उन्हें दंडित कर सकती है।

महात्मा गांधी और महादेव देसाई ने इस दर्जे की हद तक नैतिक साहस को प्रदर्शित किया था। जस्टिस मार्टन, हेवर्ड और काजीजी की पीठ द्वारा प्रस्तावित फ़ैसले को पढ़ने से यह बात प्रतिबिंबित होती है कि गांधी और देसाई के मज़बूत नैतिक रुख़ और अदालत से माफी मांगने से इंकार के सामने न्यायपालिका अशक्त हो गयी थी और समझ नहीं पा रही थी कि आख़िर अब क्या किया जाये।

उस औपनिवेशिक-युग के न्यायाधीश अपने बुरे से बुरे सपनों में भी नहीं सोच सकता था कि भारतीय अदालत के सामने कोई ग़ुलाम इतनी निष्ठुरता से इस तरह के रवैये से पेश आ आयेगा और हाईकोर्ट के दिये गये सीधे आदेशों के बावजूद एक मामूली माफ़ीनामे से भी इनकार कर देगा।

अदालत ने 1746 में ब्रिटिश अदालत के कई दिये गये फ़ैसलों का ज़िक़्र किया, और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जबकि मामला अभी भी बॉम्बे हाईकोर्ट में सुनवाई के तहत है,उस दौरान कैनेडी के उस पत्र को प्रकाशित करके गांधी और देसाई ने अदालती सुनवाई में हस्तक्षेप किया है और इस तरह, अदालत की अवमानना हुई है। गांधी और देसाई,दोनों को उस आरोप का दोषी ठहराया गया था।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें दोषी तो ठहरा दिया, लेकिन,अब उन्हें सज़ा सुनाए जाने के मामले में उसकी स्थिति सांप-छुंछुंदर वाली थी।

जलियांवाला बाग़ हत्याकांड के बाद पूरे भारत में ग़ुस्से की लहर दौड़ रही थी। ब्रिटिश संसद ने जनरल डायर के ख़िलाफ़ एक प्रस्ताव पारित कर दिया था और उस दुखद प्रकरण की जांच के लिए 14 अक्टूबर 1919 को लॉर्ड विलियम हंटर के नेतृत्व में एक आयोग का गठन कर दिया गया था। रवींद्रनाथ टैगोर ने उस नरसंहार के विरोध में अपने नाइटहुड का त्याग करते हुए, 'सर' की उपाधि लौटा दी थी। कांग्रेस ने उसी साल अमृतसर में अपना वार्षिक सत्र का आयोजन किया था।

आख़िरकार, बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक आसान रास्ता अपनाया और गांधी और देसाई से इस तरह के आचरण नहीं दुहराने की ताकीद करते हुए "सख़्त फटकार" लगायी।

इस समय जिस मामले पर पूरे देश की नज़र है, उस मामले में प्रशांत भूषण ने भी उन्हीं शब्दों को दोहराया है, जिन्हें 1919 की सर्दियों में एक युवा गांधी ने कहा था, “मैं दया नहीं मांगता। मैं दरियादिली की अपील नहीं करता। इसलिए,मैं यहां प्रसन्नतापूर्वक उस किसी भी सज़ा के के लिए तैयार हूं, जो कि क़ानूनन मेरे किसी अपराध के लिए निर्धारित किया गया है, और जिसका पालन करना मुझे एक नागरिक का सर्वोच्च कर्तव्य प्रतीत होता है।”

बिहार में हुए चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी ने अदालत के सामने कहा था कि उन्होंने किसानों के अधिकारों के लिए आंदोलन छेड़कर कुछ भी ग़लत नहीं किया है, और चाहे जो कुछ भी हो,वह इसके लिए ज़मानत नहीं मांगेंगे। आज हम जिस गांधी को जानते हैं,वह गांधी की उसी तरह की प्रतिबद्धता का नतीजा है। पंजाब में कई कमअक़्ल लोग बिना समझे-बूझे अक्सर गांधी के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा करते हैं। पंजाब के कुछ लोग भूल जाते हैं कि भगत सिंह ने गांधी के बारे में क्या लिखा था,

“एक तरह से गांधीवाद अपने नज़रिये में घातक होते हुए भी कुछ हद तक क्रांतिकारी विचारों तक पहुंचने की कोशिश करता है,ख़ास तौर पर इसलिए,क्योंकि यह सार्वजनिक कार्रवाई पर निर्भर है, भले ही यह जनता के लिए न हो। कामगारों को आन्दोलन में लाकर उन्होंने (गांधी ने) उन मज़दूरों को ऐसे रास्ते पर खड़ा कर दिया है, जो मज़दूरों की क्रांति की ओर ले जायेगा...क्रांतिकारियों को इस 'शांति दूत' को उनके यथोचित सम्मान को क़ुबूल करना चाहिए।"

गांधी, सोहन सिंह भकना, भगत सिंह, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस और कई अन्य राजनीतिक महापुरुष अपने-अपने तरीक़े से स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व कर रहे थे।

उनमें से हर एक की अपनी राजनीति थी, लेकिन उन्होंने सार्वजनिक जीवन के लिए जो आदर्श निर्धारित किये थे और नैतिक साहस के लिए उन्होंने जो सीमा तय की थी, वह सीमा इस समय और आज तक हमारे काम आ रही है। उन्होंने कठिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में शानदार साहस का प्रदर्शन किया था। यह सब उनके संकल्प के प्रति एक गहरी प्रतिबद्धता के बिना मुमकिन नहीं था।

इस समय हम इतिहास के एक कठिन दौर से गुज़र रहे हैं। हमें गांधी की तरह उन नेताओं और पत्रकारों की ज़रूरत है, जो हमारे समय के "ओ’डायरवाद" की धौंस की हवा निकाल सके। अगर महात्मा आज ज़िंदा होते, तो वह साहस के साथ गुंजायमान स्वर में कह रहे होते कि इस पूरे देश में ओ'डायरवाद की भावना ने अपने पैर पसार लिये हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह ओ'डायरवाद की भावना का ही अनुयायी था,जिसने गांधी की हत्या कर दी थी।

लेखक साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत और पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक हैं।

 

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