NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu

सदस्यता लें, समर्थन करें

image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
अंतरराष्ट्रीय
यूरोपीय संघ से सम्मेलन के साथ बदल सकता है भारत का वैश्विक नज़रिया
यूरोप न केवल अपनी सीमाएं जानता है, बल्कि अपनी मौजूदा दुनिया में अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी साफ़गोई रखता है। यही सबसे अहम बात है।
एम. के. भद्रकुमार
14 Jul 2020
यूरोपीय संघ से सम्मेलन के साथ बदल सकता है भारत का वैश्विक नज़रिया

शहरी किस्से-कहानियों में एक कहावत काफी प्रसिद्ध है। कथित तौर पर हेनरी किसिंगर द्वारा कही गई यह कहावत है- 'अगर मैं यूरोप को पुकारना चाहूं, तो मैं उसे क्या बुलाऊं?' हालांकि हेनरी किसिंगर ने यूरोप के गठन को लेकर कही गई इस कहावत के शब्दों की ज़िम्मेदारी कभी नहीं ली। लेकिन यह कहावत-मिथक जारी है। 

यूरोप अब भी 28 देशों के यूरोपीय संघ से इतर अलग-अलग और विविध देशों का समूह है। कोई भी स्वास्थ्य बीमा, जीडीपी, मोबाइल फोन उपयोग या प्रति व्यक्ति टीवी सेट्स जैसे आंकड़ों में यूरोपीय संघ के आंकड़ों की चर्चा नहीं करता। आपको वहां फ्रांस, एस्टोनिया, स्लोवाकिया या पुर्तगाल जैसे देशों के अलग-अलग आंकड़े मिलेंगे।

यह वह सच्चाई है, जिसे 15 जुलाई को यूरोपीय संघ के साथ 'आभासी सम्मेलन' के पहले नरेंद्र मोदी को अच्छे से याद रखना चाहिए। 

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पोलैंड के चुनावों में पिछले रविवार के एग़्जिट पोल के नतीज़े बताते हैं कि निर्वतमान राष्ट्रपति एंद्रज़ेज डूडा 51 फ़ीसदी मतों के साथ दोबारा सत्ता में आ सकते हैं। डूडा यूरोप में लोकप्रिय दक्षिणपंथी नेता हैं। यूरोपीय संघ का भविष्य संतुलन पर टिका है। बुधवार को जब नरेंद्र मोदी यूरोपीय संघ से बात करेंगे, तब तक हमें पता चल जाएगा कि यूरोप में अब तक संतुलन में मौजूद, इन पक्षों का आपसी विलय होगा या फिर उनकी खेमेबंदी स्पष्ट तौर पर सामने आएगी।

बात यह है कि पोलिश समाज यूरोपीय संघ की अवधारणा में बेहद मजबूती से यकीन करता है, लेकिन कुछ अहम यूरोपीय मुद्दों पर समाज आलोनात्मक टिप्पणी करने के अपने अधिकार को बनाए रखता है। अब नाराज़गी के केंद्र में यूरोपीय विलय का विषय है। 

ABC द्वारा प्रकाशित एक इंटरव्यू में रविवार को पोलैंड के विदेश मंत्री जेसेक जापुतोविज़ ने फ्रांस और जर्मनी के साथ अपने देश के टकराव की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा, ''हमारा मानना है कि यूरोपीय संघ को नागरिकों के ज़्यादा करीब होना चाहिए। इसलिए राष्ट्रीय संसदों को मजबूत किया जाना चाहिए। हम एकल बाज़ार और महत्वकांक्षी यूरोपीय संघ बजट का समर्थन करते हैं।''

 मंत्री ने यह भी कहा कि पोलैंड यूरोपीय संघ पदाधिकारियों से अपेक्षा करता है कि वे जल्द ही एक ''महत्वकांक्षी योजना'' बनाएं, जिससे महामारी से संकट में आए यूरोपीय संघ को दोबारा खड़ा किया जा सके। लेकिन पोलैंड ने साफ़ किया कि ऐसी किसी भी योजना से यूरोपीय संघ की एकजुटता और कृषि नीति को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। पोलैंड के विदेश मंत्री ने कहा कि महामारी से निपटने के क्रम में संघ को अपने सबसे गरीब़ देशों को नहीं भूलना चाहिए, जिनके पास अपनी मौजूदा समस्याओं से लड़ने के लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधन नहीं हैं। उन्होंने इस बात जोर दिया कि पोलैंड कमजोर देशों की कीमत पर संकट से लड़ने के तरीके का समर्थन नहीं करता।

bk.png

सुरक्षा मामलों पर बोलते हुए ज़ापुतोविज़ ने कहा कि पोलैंड यूरोपीय संघ की सुरक्षा, नाटो और डोनाल्ड ट्रंप समेत अमेरिका के साथ संबंधों की परवाह करता है। मंत्री ज़ापुतोविज के मुताबिक़, नाटो को एक ''सैन्य कार्यक्रमों वाला ढांचे'' के तौर पर बरकरार रहना चाहिए और अपने यूरोपीय मित्र देशों की प्रभावी तरीके से सुरक्षा करनी चाहिए। ज़ापुतोविज़ ने उम्मीद जताई कि यूरोपीय मित्र देश सुरक्षा खर्च बढ़ाएंगे।

कुलमिलाकर यूरोपीय संघ का अलगाव आने वाले वक़्त में और स्पष्ट दिखाई देगा। यह वह सबसे अहम बिंदु है, जिसे मोदी को आने वाले वक़्त के लिए याद रखना चाहिए। बड़ा सवाल है कि मोदी की यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉनडर लेयेन के साथ होने वाली बैठक की बातों पर इन चीजों का क्या असर पड़ेगा? 

यहां तीन बातें जरूर समझ लेनी चाहिए। पहली, यह वह वक़्त नहीं है जब भारत-यूरोपीय संघ के एजेंडे को सुरक्षा मुद्दों से दबाव में ला देना होगा। क्योंकि पोलैंड में जैसे पोल के नतीज़े बता रहे हैं, अगर सत्ता पर वैसा असर पड़ता है, तो यूरोपीय संघ को खुद को दोबारा ढालना होगा। कम वक़्त में यह काम पूरा नहीं हो सकता है। क्योंकि अमेरिकी चुनाव से मिलने वाले अहम इशारों के बिना यह काम नहीं हो सकता। अमेरिका के चुनाव नवंबर में होने हैं। इतना कहना पर्याप्त है कि आने वाले कुछ महीनों के लिए यूरोपीय सुरक्षा नीतियां लंबित रहेंगी। शायद अगले एक साल तक ऐसा हो।

चीन के खिलाफ़ भारत-यूरोपीय संघ की भूराजनीतिक मोर्चे की बात दिमाग में लानी भी नहीं चाहिए। इस पर ज़्यादा ध्यान दिलाना जरूरी है, क्योंकि हमारी आबोहवा में आजकल चीन ही चीन है। हम आजकल सांस में भी 'चीन' लेते हैं, मुंह से बोलते भी चीन हैं और साउथ ब्लॉक के सपनों में भी चीन है।

यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोरेल ने एक अहम बात कही है, जिस पर भारतीय रणनीतिक समुदाय को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इकनॉमिक टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में कहा, ''वैश्विक राजनीति में कोई सिर्फ उनके साथ काम नहीं कर सकता, जिसके साथ वो सहमत होता है या उसके मूल्य एक जैसे होते हैं। हमें यह मानना चाहिए कि हम एक प्रतिस्पर्धी, अलग-अलग नज़रिए और रणनीतिक उद्देश्यों वाली दुनिया में रहते हैं। यूरोपीय संघ चीन के बारे में अनुभवहीन नहीं है। लेकिन जरूरी द्विपक्षीय संबंधों के मुद्दों और अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीन के साथ काम करने की जरूरत के बारे में हम गहराई से जानते हैं। हमें अपने मूल्यों पर मजबूती से टिके रहकर अपनी नज़र साफ़ रखकर व्यवहार करना होगा।''

यूरोपीय संघ के दिमाग में इससे ज़्यादा साफ़गोई नहीं हो सकती। यूरोप को चीन से डर या चिंता नहीं है, ना ही चीन के साथ उसकी सुरक्षा संबंधी जटिलताएं हैं। यूरोप, चीन को एक ऐसे साझेदार के तौर पर देखता है, जहां का जीवन जीने का तरीका कई मामलों में अलग है। यूरोप अपनी भावनाएं या नज़रिया बीजिंग को बताने में कोई कोताही नहीं बरतेगा, लेकिन अंतिम तौर पर यूरोप को अपनी सीमाएं मालूम हैं। लेकिन इससे ज़्यादा जरूरी बात यह है कि यूरोप मौजूदा दुनिया में अपनी प्राथमिकताएं भी जानता है।

साफ़ कहें तो यह यूरोप की भारत के प्रति भी यही स्थिति है। हमारे देश में पिछले 6 साल से जो चल रहा है, उसे देखकर यूरोप को बहुत बुरा लग रहा होगा। हम वैश्विक समुदाय से सच्चाई नहीं छुपा सकते। हॉन्गकॉन्ग और शिनज़ियांग में चीनी नीतियों से यूरोप की जो घृणा है, यूरोप को वैसी ही नफरत कश्मीर में जारी चीजों से हो रही होगी। बल्कि भारतीय नीतियों के प्रति गुस्से की भावना ज़्यादा प्रबल होगी, क्योंकि यूरोप और भारत पुनर्जागरण से एक जैसे मूल्यों को साझा करते हैं।

मोदी को यूरोपीय संघ की सबसे पहली प्राथमिकता को ध्यान में रखना चाहिए। यूरोपीय संघ कोरोना से बाद दुनिया में अपनी आर्थिक स्थिति की मरम्मत करना चाहता है। ऐसा तब और ज़्यादा होगा, जब जर्मनी में अगले 6 महीने में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाले हैं। यह चांसलर एंजेला मार्केल का सार्वजनिक जीवन में रिटायरमेंट के पहले आखिरी मौका है।

भारत अब भी महामारी से जूझ रहा है, बल्कि सबसे बुरी स्थितियां बनना अभी बाकी हैं। जबकि यूरोप भयावह अनुभव से बाहर आ चुका है, वह बुरी तरह घायल और निराश है, लेकिन अब उसमें ज़्यादा बुद्धिमानी भी है। इस कठिन दौर में यूरोप को भारत क्या दे सकता है, जिससे दोनों देशों का भला हो सके? दरअसल यह भूअर्थशास्त्र है! इसके प्रमुख क्षेत्र यह हैं:

- सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाएं

- मौसम परिवर्तन

- यातायात

- ऊर्जा और संसाधन उपलब्धता वाली सतत हरित अर्थव्यवस्था

- डि़जिटल क्षेत्र, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और डेटा सुरक्षा शामिल है, जो न्यायोचित और संतुलित नियंत्रणों से चलता है। यह नवोन्मेष को बढ़ावा देता है और तय करता है कि व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा हो।

- बाज़ार अर्थव्यवस्था, जो प्रतिस्पर्धा के लिए समान मौके देती है। जहां महत्वकांक्षी, संतुलित, न्यायोचित और समग्र व्यापार और निवेश समझौते हों और यह समझौते मजबूत बहुपक्षीय मूल्यों पर आधारित हों।

'आत्मनिर्भर भारत अभियान' की ड्रॉक्ट्रीन के धागों से जुड़ी भारत की अराजक अर्थव्यवस्था के लिए यह काम करने कठिन चुनौती हैं। आत्मनिर्भर भारत अभियान में खूब वायदे हैं, लेकिन जब तक भारत अपने आप को नहीं खोलता, इनका पूरा होना काफ़ी मुश्किल है। यूरोपीय संघ लंबे वक़्त से भारत के दरवाजे पर इंतज़़ार कर रहा है।

मोदी को भूराजनीति की अफवाहों पर वक़्त खराब नहीं करना चाहिए। चीन को सबक सिखाने के लिए सिर्फ बनावटी बातों पर यकीन नहीं करना चाहिए। आभासी बैठक एक मौका है, जिसमें मोदी चीन द्वारा खोदे गए गड्ढों से विदेश नीति को आजाद करवा सकते हैं। भूअर्थशास्त्र पर ध्यान केंद्रित करें और अपनी प्राथमिकताओं को तय करें। वैक्सीन, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, मौसम परिवर्तन और हरित अर्थव्यवस्था, वे मुद्दे हैं, जिनके ज़रिये एक अच्छी शुरूआत की जा सकती है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

EU Summit to Reboot India’s World Outlook

China
India
EU
Poland
Narendra modi
India-EU virtual summit
Poland President Andrzej Duda
Ursula von der Leyen
European Commission

Related Stories

तिरछी नज़र: सरकार जी के आठ वर्ष

कटाक्ष: मोदी जी का राज और कश्मीरी पंडित

ग्राउंड रिपोर्टः पीएम मोदी का ‘क्योटो’, जहां कब्रिस्तान में सिसक रहीं कई फटेहाल ज़िंदगियां

भारत में धार्मिक असहिष्णुता और पूजा-स्थलों पर हमले को लेकर अमेरिकी रिपोर्ट में फिर उठे सवाल

भारत के निर्यात प्रतिबंध को लेकर चल रही राजनीति

गैर-लोकतांत्रिक शिक्षानीति का बढ़ता विरोध: कर्नाटक के बुद्धिजीवियों ने रास्ता दिखाया

बॉलीवुड को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है बीजेपी !

भारत में तंबाकू से जुड़ी बीमारियों से हर साल 1.3 मिलियन लोगों की मौत

PM की इतनी बेअदबी क्यों कर रहे हैं CM? आख़िर कौन है ज़िम्मेदार?

छात्र संसद: "नई शिक्षा नीति आधुनिक युग में एकलव्य बनाने वाला दस्तावेज़"


बाकी खबरें

  • संदीपन तालुकदार
    वैज्ञानिकों ने कहा- धरती के 44% हिस्से को बायोडायवर्सिटी और इकोसिस्टम के की सुरक्षा के लिए संरक्षण की आवश्यकता है
    04 Jun 2022
    यह अध्ययन अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि दुनिया भर की सरकारें जैव विविधता संरक्षण के लिए अपने  लक्ष्य निर्धारित करना शुरू कर चुकी हैं, जो विशेषज्ञों को लगता है कि अगले दशक के लिए एजेंडा बनाएगा।
  • सोनिया यादव
    हैदराबाद : मर्सिडीज़ गैंगरेप को क्या राजनीतिक कारणों से दबाया जा रहा है?
    04 Jun 2022
    17 साल की नाबालिग़ से कथित गैंगरेप का मामला हाई-प्रोफ़ाइल होने की वजह से प्रदेश में एक राजनीतिक विवाद का कारण बन गया है।
  • न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    छत्तीसगढ़ : दो सूत्रीय मांगों को लेकर बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दिया
    04 Jun 2022
    राज्य में बड़ी संख्या में मनरेगा कर्मियों ने इस्तीफ़ा दे दिया है। दो दिन पहले इन कर्मियों के महासंघ की ओर से मांग न मानने पर सामूहिक इस्तीफ़े का ऐलान किया गया था।
  • bulldozer politics
    न्यूज़क्लिक टीम
    वे डरते हैं...तमाम गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज और बुलडोज़र के बावजूद!
    04 Jun 2022
    बुलडोज़र क्या है? सत्ता का यंत्र… ताक़त का नशा, जो कुचल देता है ग़रीबों के आशियाने... और यह कोई यह ऐरा-गैरा बुलडोज़र नहीं यह हिंदुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र है, इस्लामोफ़ोबिया के मंत्र से यह चलता है……
  • आज का कार्टून
    कार्टून क्लिक: उनकी ‘शाखा’, उनके ‘पौधे’
    04 Jun 2022
    यूं तो आरएसएस पौधे नहीं ‘शाखा’ लगाता है, लेकिन उसके छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने एक करोड़ पौधे लगाने का ऐलान किया है।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें

CC BY-NC-ND This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivatives 4.0 International License