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यूरोपीय संघ से सम्मेलन के साथ बदल सकता है भारत का वैश्विक नज़रिया
यूरोप न केवल अपनी सीमाएं जानता है, बल्कि अपनी मौजूदा दुनिया में अपनी प्राथमिकताओं को लेकर भी साफ़गोई रखता है। यही सबसे अहम बात है।
एम. के. भद्रकुमार
14 Jul 2020
यूरोपीय संघ से सम्मेलन के साथ बदल सकता है भारत का वैश्विक नज़रिया

शहरी किस्से-कहानियों में एक कहावत काफी प्रसिद्ध है। कथित तौर पर हेनरी किसिंगर द्वारा कही गई यह कहावत है- 'अगर मैं यूरोप को पुकारना चाहूं, तो मैं उसे क्या बुलाऊं?' हालांकि हेनरी किसिंगर ने यूरोप के गठन को लेकर कही गई इस कहावत के शब्दों की ज़िम्मेदारी कभी नहीं ली। लेकिन यह कहावत-मिथक जारी है। 

यूरोप अब भी 28 देशों के यूरोपीय संघ से इतर अलग-अलग और विविध देशों का समूह है। कोई भी स्वास्थ्य बीमा, जीडीपी, मोबाइल फोन उपयोग या प्रति व्यक्ति टीवी सेट्स जैसे आंकड़ों में यूरोपीय संघ के आंकड़ों की चर्चा नहीं करता। आपको वहां फ्रांस, एस्टोनिया, स्लोवाकिया या पुर्तगाल जैसे देशों के अलग-अलग आंकड़े मिलेंगे।

यह वह सच्चाई है, जिसे 15 जुलाई को यूरोपीय संघ के साथ 'आभासी सम्मेलन' के पहले नरेंद्र मोदी को अच्छे से याद रखना चाहिए। 

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पोलैंड के चुनावों में पिछले रविवार के एग़्जिट पोल के नतीज़े बताते हैं कि निर्वतमान राष्ट्रपति एंद्रज़ेज डूडा 51 फ़ीसदी मतों के साथ दोबारा सत्ता में आ सकते हैं। डूडा यूरोप में लोकप्रिय दक्षिणपंथी नेता हैं। यूरोपीय संघ का भविष्य संतुलन पर टिका है। बुधवार को जब नरेंद्र मोदी यूरोपीय संघ से बात करेंगे, तब तक हमें पता चल जाएगा कि यूरोप में अब तक संतुलन में मौजूद, इन पक्षों का आपसी विलय होगा या फिर उनकी खेमेबंदी स्पष्ट तौर पर सामने आएगी।

बात यह है कि पोलिश समाज यूरोपीय संघ की अवधारणा में बेहद मजबूती से यकीन करता है, लेकिन कुछ अहम यूरोपीय मुद्दों पर समाज आलोनात्मक टिप्पणी करने के अपने अधिकार को बनाए रखता है। अब नाराज़गी के केंद्र में यूरोपीय विलय का विषय है। 

ABC द्वारा प्रकाशित एक इंटरव्यू में रविवार को पोलैंड के विदेश मंत्री जेसेक जापुतोविज़ ने फ्रांस और जर्मनी के साथ अपने देश के टकराव की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा, ''हमारा मानना है कि यूरोपीय संघ को नागरिकों के ज़्यादा करीब होना चाहिए। इसलिए राष्ट्रीय संसदों को मजबूत किया जाना चाहिए। हम एकल बाज़ार और महत्वकांक्षी यूरोपीय संघ बजट का समर्थन करते हैं।''

 मंत्री ने यह भी कहा कि पोलैंड यूरोपीय संघ पदाधिकारियों से अपेक्षा करता है कि वे जल्द ही एक ''महत्वकांक्षी योजना'' बनाएं, जिससे महामारी से संकट में आए यूरोपीय संघ को दोबारा खड़ा किया जा सके। लेकिन पोलैंड ने साफ़ किया कि ऐसी किसी भी योजना से यूरोपीय संघ की एकजुटता और कृषि नीति को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। पोलैंड के विदेश मंत्री ने कहा कि महामारी से निपटने के क्रम में संघ को अपने सबसे गरीब़ देशों को नहीं भूलना चाहिए, जिनके पास अपनी मौजूदा समस्याओं से लड़ने के लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधन नहीं हैं। उन्होंने इस बात जोर दिया कि पोलैंड कमजोर देशों की कीमत पर संकट से लड़ने के तरीके का समर्थन नहीं करता।

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सुरक्षा मामलों पर बोलते हुए ज़ापुतोविज़ ने कहा कि पोलैंड यूरोपीय संघ की सुरक्षा, नाटो और डोनाल्ड ट्रंप समेत अमेरिका के साथ संबंधों की परवाह करता है। मंत्री ज़ापुतोविज के मुताबिक़, नाटो को एक ''सैन्य कार्यक्रमों वाला ढांचे'' के तौर पर बरकरार रहना चाहिए और अपने यूरोपीय मित्र देशों की प्रभावी तरीके से सुरक्षा करनी चाहिए। ज़ापुतोविज़ ने उम्मीद जताई कि यूरोपीय मित्र देश सुरक्षा खर्च बढ़ाएंगे।

कुलमिलाकर यूरोपीय संघ का अलगाव आने वाले वक़्त में और स्पष्ट दिखाई देगा। यह वह सबसे अहम बिंदु है, जिसे मोदी को आने वाले वक़्त के लिए याद रखना चाहिए। बड़ा सवाल है कि मोदी की यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉनडर लेयेन के साथ होने वाली बैठक की बातों पर इन चीजों का क्या असर पड़ेगा? 

यहां तीन बातें जरूर समझ लेनी चाहिए। पहली, यह वह वक़्त नहीं है जब भारत-यूरोपीय संघ के एजेंडे को सुरक्षा मुद्दों से दबाव में ला देना होगा। क्योंकि पोलैंड में जैसे पोल के नतीज़े बता रहे हैं, अगर सत्ता पर वैसा असर पड़ता है, तो यूरोपीय संघ को खुद को दोबारा ढालना होगा। कम वक़्त में यह काम पूरा नहीं हो सकता है। क्योंकि अमेरिकी चुनाव से मिलने वाले अहम इशारों के बिना यह काम नहीं हो सकता। अमेरिका के चुनाव नवंबर में होने हैं। इतना कहना पर्याप्त है कि आने वाले कुछ महीनों के लिए यूरोपीय सुरक्षा नीतियां लंबित रहेंगी। शायद अगले एक साल तक ऐसा हो।

चीन के खिलाफ़ भारत-यूरोपीय संघ की भूराजनीतिक मोर्चे की बात दिमाग में लानी भी नहीं चाहिए। इस पर ज़्यादा ध्यान दिलाना जरूरी है, क्योंकि हमारी आबोहवा में आजकल चीन ही चीन है। हम आजकल सांस में भी 'चीन' लेते हैं, मुंह से बोलते भी चीन हैं और साउथ ब्लॉक के सपनों में भी चीन है।

यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोरेल ने एक अहम बात कही है, जिस पर भारतीय रणनीतिक समुदाय को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इकनॉमिक टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में कहा, ''वैश्विक राजनीति में कोई सिर्फ उनके साथ काम नहीं कर सकता, जिसके साथ वो सहमत होता है या उसके मूल्य एक जैसे होते हैं। हमें यह मानना चाहिए कि हम एक प्रतिस्पर्धी, अलग-अलग नज़रिए और रणनीतिक उद्देश्यों वाली दुनिया में रहते हैं। यूरोपीय संघ चीन के बारे में अनुभवहीन नहीं है। लेकिन जरूरी द्विपक्षीय संबंधों के मुद्दों और अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीन के साथ काम करने की जरूरत के बारे में हम गहराई से जानते हैं। हमें अपने मूल्यों पर मजबूती से टिके रहकर अपनी नज़र साफ़ रखकर व्यवहार करना होगा।''

यूरोपीय संघ के दिमाग में इससे ज़्यादा साफ़गोई नहीं हो सकती। यूरोप को चीन से डर या चिंता नहीं है, ना ही चीन के साथ उसकी सुरक्षा संबंधी जटिलताएं हैं। यूरोप, चीन को एक ऐसे साझेदार के तौर पर देखता है, जहां का जीवन जीने का तरीका कई मामलों में अलग है। यूरोप अपनी भावनाएं या नज़रिया बीजिंग को बताने में कोई कोताही नहीं बरतेगा, लेकिन अंतिम तौर पर यूरोप को अपनी सीमाएं मालूम हैं। लेकिन इससे ज़्यादा जरूरी बात यह है कि यूरोप मौजूदा दुनिया में अपनी प्राथमिकताएं भी जानता है।

साफ़ कहें तो यह यूरोप की भारत के प्रति भी यही स्थिति है। हमारे देश में पिछले 6 साल से जो चल रहा है, उसे देखकर यूरोप को बहुत बुरा लग रहा होगा। हम वैश्विक समुदाय से सच्चाई नहीं छुपा सकते। हॉन्गकॉन्ग और शिनज़ियांग में चीनी नीतियों से यूरोप की जो घृणा है, यूरोप को वैसी ही नफरत कश्मीर में जारी चीजों से हो रही होगी। बल्कि भारतीय नीतियों के प्रति गुस्से की भावना ज़्यादा प्रबल होगी, क्योंकि यूरोप और भारत पुनर्जागरण से एक जैसे मूल्यों को साझा करते हैं।

मोदी को यूरोपीय संघ की सबसे पहली प्राथमिकता को ध्यान में रखना चाहिए। यूरोपीय संघ कोरोना से बाद दुनिया में अपनी आर्थिक स्थिति की मरम्मत करना चाहता है। ऐसा तब और ज़्यादा होगा, जब जर्मनी में अगले 6 महीने में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने वाले हैं। यह चांसलर एंजेला मार्केल का सार्वजनिक जीवन में रिटायरमेंट के पहले आखिरी मौका है।

भारत अब भी महामारी से जूझ रहा है, बल्कि सबसे बुरी स्थितियां बनना अभी बाकी हैं। जबकि यूरोप भयावह अनुभव से बाहर आ चुका है, वह बुरी तरह घायल और निराश है, लेकिन अब उसमें ज़्यादा बुद्धिमानी भी है। इस कठिन दौर में यूरोप को भारत क्या दे सकता है, जिससे दोनों देशों का भला हो सके? दरअसल यह भूअर्थशास्त्र है! इसके प्रमुख क्षेत्र यह हैं:

- सार्वजनिक स्वास्थ्य योजनाएं

- मौसम परिवर्तन

- यातायात

- ऊर्जा और संसाधन उपलब्धता वाली सतत हरित अर्थव्यवस्था

- डि़जिटल क्षेत्र, जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और डेटा सुरक्षा शामिल है, जो न्यायोचित और संतुलित नियंत्रणों से चलता है। यह नवोन्मेष को बढ़ावा देता है और तय करता है कि व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा हो।

- बाज़ार अर्थव्यवस्था, जो प्रतिस्पर्धा के लिए समान मौके देती है। जहां महत्वकांक्षी, संतुलित, न्यायोचित और समग्र व्यापार और निवेश समझौते हों और यह समझौते मजबूत बहुपक्षीय मूल्यों पर आधारित हों।

'आत्मनिर्भर भारत अभियान' की ड्रॉक्ट्रीन के धागों से जुड़ी भारत की अराजक अर्थव्यवस्था के लिए यह काम करने कठिन चुनौती हैं। आत्मनिर्भर भारत अभियान में खूब वायदे हैं, लेकिन जब तक भारत अपने आप को नहीं खोलता, इनका पूरा होना काफ़ी मुश्किल है। यूरोपीय संघ लंबे वक़्त से भारत के दरवाजे पर इंतज़़ार कर रहा है।

मोदी को भूराजनीति की अफवाहों पर वक़्त खराब नहीं करना चाहिए। चीन को सबक सिखाने के लिए सिर्फ बनावटी बातों पर यकीन नहीं करना चाहिए। आभासी बैठक एक मौका है, जिसमें मोदी चीन द्वारा खोदे गए गड्ढों से विदेश नीति को आजाद करवा सकते हैं। भूअर्थशास्त्र पर ध्यान केंद्रित करें और अपनी प्राथमिकताओं को तय करें। वैक्सीन, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, मौसम परिवर्तन और हरित अर्थव्यवस्था, वे मुद्दे हैं, जिनके ज़रिये एक अच्छी शुरूआत की जा सकती है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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