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भारत
राजनीति
अगस्त 1975 में वो बाल-बाल बच निकलना 
अब जैसा कि हम 1975 के तानाशाही शासन के दौर के बाद एक बार फिर से आसन्न अधिनायकवादी व्यवस्था के खतरों को महसूस कर रहे हैं, तो आज के दिन भी इस कहानी में कोई बदलाव नजर नहीं आता। निरंकुशता अपने चरम पर है। जबकि जवाबदेही अगर कहीं है भी तो वह सिर्फ एक पवित्र आकांक्षा के तौर पर मौजूद है।
रवि नायर
26 Jun 2020
1975 के तानाशाही शासन

आपातकाल की घोषणा की 45वीं वर्षगांठ को चिह्नित करने वाले हमारे इस विशेषांक के एक हिस्से के तौर पर हम आपके समक्ष उन लोगों की कहानियों को सामने रख रहे हैं जिन्होंने उस अत्याचारी सरकार के खिलाफ अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी थी। इस कहानी के लेखक, जो तब एक छात्र कार्यकर्ता के तौर पर अपनी भूमिका में थे, ने राज्य की ज्यादतियों के दौरान अधिकारियों के हाथों बाल-बाल बचने की बेहद रोमांचक कहानी का उल्लेख किया है। आगे वे बताते हैं कि किस प्रकार से उन्हीं अधिकारियों, जिन्हें उनके द्वारा दी जाने वाली यातनाओं के लिए जाना जाता रहा है, बाद में जाकर आईएनसी के राजनीतिक दिग्गजों द्वारा पुरस्कृत किया जाता रहा है।
                                             ------
यह 1975 में अगस्त की एक बरसाती शाम थी। दो महीने से कुछ ज्यादा का वक्त बीत चुका होगा उस समय आपातकाल की घोषणा किये हुए। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने इस शासनकाल में नागरिक स्वतंत्रता का गला घोंट कर रख दिया था और सारे वरिष्ठ विपक्षी नेतृत्व और कार्यकर्ता जेलों में ठूंसे जा चुके थे।

बारिश की बूंदें चादरों में एक धार के रूप में उतर रही थीं। सारा पानी धीमे-धीमे झुकी हुई सड़क पर टपक रहा था। सड़कों पर छोटे-छोटे पोखर बन चुके थे। उपरी रिज से नीचे की ओर ख़राब-रोशनी वाली सड़क पर जहाँ हम थे, कीचड़ युक्त पानी एक नाले के तौर पर बह रहा था। पश्चिमी दिल्ली के उपनगर ओल्ड राजिंदर नगर और न्यू राजिंदर नगर के बीच के विभाजन को चिह्नित करने वाली मुख्य सड़क शंकर रोड पर जाने वाले मार्ग से ऊपरी सड़क से नीचे की ओर घूमकर गंदे पानी का एक नाला बह रहा था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नाम पर इस इलाके का नामकरण किया गया था जिसके पंजाबीकरण के चक्कर में सब इस इलाके को "राजिंदर" के नाम से जानते हैं।

मैं कुछ देर पहले ही अजय नटराजन के घर ओल्ड राजिंदर नगर आया हुआ था ताकि उसके साथ आपातकाल की खिलाफत के लिए आयोजित छात्र ग्रुपों की एक भूमिगत बैठक में हिस्सा ले सकूं। रमा शंकर सिंह ने जोकि बाद में जाकर 1977 में मध्य प्रदेश में राज्य विधान सभा के सदस्य बने थे, ने इससे पहले मुझे बता रखा था कि छात्रों के एक समूह की समन्वय बैठक होने जा रही है, और उसमें आपातकाल के खिलाफ समूचे विश्वविद्यालय में हड़ताल के आह्वान को लेकर रुपरेखा तैयार की जायेगी। रमा, के नाम से लोगों के बीच जाने जाने वाले रमा शंकर, राज नारायण के करीबी थे और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) से वास्ता रखते थे।

अजय दक्षिणी दिल्ली के कालेजों में से किसी एक में केंद्रीय पार्षद के तौर पर चुनकर आया था। आज की तरह उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डीयूएसयू) के लिए प्रत्यक्ष चुनाव नहीं हुआ करते थे। डीयू में वही एकमात्र छात्र पार्षद थे जिन्होंने अपनी खुद की पहचान को समाजवादी युवजन सभा (एसवाईएस) के साथ जोड़कर रखा था, जो तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी की युवा विंग के तौर पर अस्तित्व में थी। मैं तब इसके दिल्ली राज्य महासचिव के तौर पर सक्रिय था।

जैसे-जैसे हम बारिश के बीच में आगे बढ़ रहे थे, पता नहीं क्यों मेरे अंदर से आवाज आ रही थी कि कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा। लेकिन मेरे अंदर का तार्किक समाजवादी बार-बार मेरे पेट मेरे कूबड़ या अंतर्ज्ञान ने हमेशा मेरी अच्छी सेवा की। इसके बावजूद मेरा तर्कशील समाजवादी दिमाग पेट में घुमड़ रही इस आशंका को खारिज करने में लगा था। सात से कुछ उपर का समय हो चुका था लेकिन पहले से ही बादलों और लगातार बारिश की वजह से हर तरफ घुप अँधेरा छा चुका था। बैठक का आयोजन श्री पी. एन. लेखी या प्राण नाथ लेखी के घर पर होना तय हुआ था, जो दिल्ली में एक मशहूर वकील के तौर पर जाने जाते थे और सत्ताधारी कांग्रेस के विरोध में मौजूदा राजनीतिक हलकों के करीबी थे।

जैसे ही हम कतार में बने घरों के नजदीक पहुंचे, अजय और मैंने बहते पानी की परत के बीच में से मकानों की संख्या को समझने की कोशिश की। श्री लेखी का घर सड़क के बाईं ओर पाया गया। सबसे पहले अजय ने इस घर को ढूंढ निकाला था और उस ओर इशारा किया। मैं उसकी आस्तीन पकड़े हुए था, और इशारा किया कि हमें उस ओर चलना चाहिए, और जो हमने किया। जैसे ही हम घर के नजदीक पहुंचे तो उसके करीब सौ गज पहले एक राउंडअबाउट बना हुआ था, वहाँ हम कुछ देर रुक गए। मैंने अजय को बताया कि पता नहीं क्यों वहाँ जाने को लेकर मेरे मन में अच्छे ख्याल नहीं आ रहे हैं। उसने मेरी आशंकाओं को खारिज करते हुए कहा कि चूँकि अब हम इतनी दूर तक आ ही चुके हैं तो हमें मुड़कर श्री लेखी के घर के अंदर जाने में अब सोच-विचार की जरूरत नहीं है।

अजय मुझसे एक कदम आगे चल रहा था। अजय ने छोटे से गेट जोकि प्रवेश द्वार की ओर ले जाता था, को धक्का दिया और हम श्री लेखी के सामने वाले दरवाजे की तरफ एक या दो कदम चढ़ चुके थे। अजय ने घंटी बजाई। दरवाजा एकदम से नहीं खुला। कुछ मिनटों के बाद, दरवाजा खुला और एक हट्टा-कट्टा आदमी जो वैसे तो सादे लिबास में था लेकिन हर तरह से वह एक पुलिस वाला नजर आ रहा था, एकाएक जोर से चीख पड़ा, “पकड़ो इन्हें”। उस हट्टे-कट्टे आदमी ने अपनी बाँह का झपट्टा मारते हुए अजय की कलाई दबोच ली थी। बिना ज्यादा सोचे विचारे मैंने अपनी मोड़ कर रखी हुई छतरी को उस आदमी की कलाई पर जोर से दे मारा और चीखते हुए अजय से कहा, "भागो!" हम मुड़े और ओल्ड राजिंदर नगर की ओर निकल भागे, जबकि कुछ लोग हमारे पीछे दौड़ लगा रहे थे।

मैं पूरी ताकत लगाकर भाग रहा था, और दौड़ने के दौरान मेरी रबर की हवाई चप्पलें पैर से निकल गईं और मैंने उन्हें वहीँ फेंक अपनी दौड़ जारी रखी, जितना कि मेरे नंगे पैर मुझे ले जा सकते थे। मेरी सांस फूल रही थी और मैं सड़क से कुछ सौ गज की दूरी तक गया हूँगा कि मुझे सड़क के बाईं ओर एक छोटी सी गली मुड़ती दिखी, जिसमें मैं मुड़ गया और उसमें भागता चला गया। जैसे ही मैं गली में घुसा, मैंने अजय को लड़खड़ाते हुए पाया और कुछ सेकंड बाद ही मुझे उसे धर दबोचते हुए एक हाथ की झलक नजर आई थी। मैं समझ गया कि अजय पकड़ा जा चुका है।

मैं उस गली में करीब सौ गज भागता चला गया था, कि मुझे गन्दा नाला नजर आया, वही मुख्य खुला सीवर चैनल जोकि न्यू राजिंदर नगर से होकर रिज से नीचे चल रहा था। नाला करीब तीस फीट से उपर गहरा रहा होगा, जैसा कि मुझे बाद में एहसास हुआ और चौड़ाई भी कुछ उतने ही आकार की रही होगी। मैं ढलुआ और फिसलन भरे नाले के किनारे काले पानी को झांकते हुए अचकचाकर पहुँच चुका था। एक भयानक अहसास तारी हो चुका था। मेरे चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ थी और उसकी दुर्गंध मेरे बर्दाश्त से बाहर हो रही थी। मैंने अपनी साँसों को रोक रखा था, या यह कहूँ कि ऐसा करने की कोशिश कर रहा था क्योंकि मेरे दिल की धडकनें किसी धौंकनी की मानिंद चल रही थी।

मैंने किनारे से निकलने की कोशिश में प्राकृतिक लताओं से आच्छादित एक छोटे से कोने में किसी तरह पहुँच गया जहाँ कीकर के कुछ लम्बे पेड़ खड़े थे। जैसे ही मैं पेड़ की लटकती हुई मुरझाई शाखा तक पहुंचा, मैंने कुछ आवाजें सुनीं। "यूं आया, साला"। साला, यहाँ पर एक सदाबहार गाली के तौर पर धडल्ले से इस्तेमाल में लाई जाती है। नाले के गहरे पानी के ऊपर शक्तिशाली फ्लैशलाइटों की रोशनी के चमकने का क्रम जारी था। बारिश का पानी अभी भी चादरों से नीचे उतर रहा था। तभी मुझे गोली दागे जाने की आवाज सुनाई दी, फिर दूसरी गोली। स्पष्ट तौर पर इसने मेरे भय में एक नया आयाम जोड़ने में मदद की। इतने बरस बीत जाने के बावजूद आजतक मैं इसकी थाह नहीं पा सका हूँ कि क्या सच में गोली चलाई गई थी या बिना गोली चलाए ही खाली फायर झोंका गया था ताकि मैं डर के मारे पानी से बाहर निकल आऊं। ऐसा लग रहा था कि नाले के दूर किनारे पर फायरिंग चल रही है। ये शब्द कानों में गूंजे थे "पार कर गया होगा, बे*******द"।

नाले के उस पार की तरफ की झाड़ियों में फ्लैशलाइट्स की रोशनी फैंकी जा रही थी। कुछ मिनट बाद, शायद पाँच मिनट, या शायद 20 मिनट हुए होंगे मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है। इतना भर याद है कि इसे जीवन भर महसूस किया जा सकता था, मुझे बस हल्के से उनके यहाँ से दूर जाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। यह तो स्पष्ट था कि वे वहाँ पर तेज बारिश में खड़े होकर, नाले की बदबूदार वाष्प को अपनी साँसों में घोलते हुए खुश तो नहीं ही थे, क्योंकि शिकार उनकी पहुँच से बाहर जा चुका था। उनके जाने के बाद भी मैं मल और गन्दगी में काफी देर तक जड़वत बना रहा। मैं कोई चांस नहीं लेना चाहता था - क्या पता वे आगे कहीं कोने से झाँक रहे हों? अवश्य ही मैंने कुछ घंटे मल और कीचड़ में सने हुए वहाँ गुजारे होंगे। मैं कभी इस पैर तो कभी उस पैर के बल आसन बदल रहा था लेकिन किसी भी हालत में मैं कीकर के पेड़ की लटकती शाखाओं के सुरक्षा घेरे को छोड़ने को तैयार नहीं था।

ये तो बाद में जाकर, कई घंटों के बाद जब मैं न्यू राजिंदर नगर में अजय के घर में जाकर पहुंचा तब जाकर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि मैंने पांच घंटे से अधिक समय तक नाले में बिताये थे। अजय के भाई बड़े थे, और आज इतने सालों के बाद जब पीछे लौटकर देखता हूँ तो इस बात का अहसास होता है कि वे अपनी उम्र के लिहाज से भी काफी समझदार और परिपक्व इंसान थे। उन्होंने एक नजर मेरी तरफ डाली और मेरा अनुमान है कि उन्होंने मेरे शरीर से आ रही बदबू को भी सूँघ लिया होगा, जो मेरे भीगे कपड़ों से बदबू के तौर पर आ रही थी। मेरे शरीर और कपड़ों से लगा काफी कीचड़ बारिश में मेरे पैदल चलकर आने से धुल चुका था, लेकिन दुर्गन्ध तो निश्चित तौर पर आ रही होगी।

मैंने उन्हें बताया कि मुझे डर है कि उनका भाई गिरफ्तार कर लिया गया है। उन्होंने मुझे बदलने के लिए कपड़े दिए और जल्दी से खुद को साफ़ करने के लिए कहा। उन्होंने मुझसे शॉवर के इस्तेमाल करने की पेशकश की, लेकिन मैं वहां से जल्द ही निकल भागने की फ़िराक में था। मैं शर्मिंदा था, मैं बुरी खबर लेकर आया था, उनके भाई की गिरफ्तारी की खबर। लेकिन इस सबके बावजूद न वे मुझ पर आगबबूला हुए और ना ही उनके भाई को पुलिस के हाथों सौंपकर भाग जाने को लेकर उन्होंने मुझपर कोई दोषारोपण करना शुरू किया था। उन्होंने मुझे पहनने के लिए एक पुरानी जोड़ी रबर की चप्पल दी जिसे पहनकर मैं वहाँ से बाहर निकल गया। मैं किसी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में था जोकि मेरी नजर में किशनगंज के पास रेलवे मजदूरों की कालोनी वाला घर हो सकता था। यह कमरा तेजा सिंह का था, जो कि एक ऑटोरिक्शा चालक थे और सोशलिस्टों के कब्जे वाली ऑटोरिक्शा यूनियन के मेम्बर थे, जोकि 1970 के दशक की शुरुआत और मध्य में दिल्ली में काफी मजबूत हुआ करती थी।

मैं ओल्ड राजिंदर नगर से गंगाराम अस्पताल होते हुए पूसा रोड की ओर चल पड़ा। पूसा रोड और अजमल खान रोड की क्रॉसिंग पर मुझे एक ऑटोरिक्शा चालक अपने वाहन पर सोते हुए दिख गया था। मैंने उसे झकझोर कर जगाया। जगाए जाने से वह खुश नहीं लग रहा था। बरसात भी अबतक जो पहले मूसलाधार हो रही थी अब लगातार बूंदाबांदी में तब्दील हो चुकी थी। यहाँ से उस सुरक्षित घर की दूरी भी मात्र दो किलोमीटर ही थी। इतनी सी दूरी के लिए मैंने उसके सामने बीस रुपये का प्रस्ताव रख दिया था। इतने छोटे से सफर के लिए उन दिनों यह काफी बड़ी रकम हुआ करती थी। “बीस रूपये” की आवाज जैसे ही उसके कानों में पड़ी वह उठ खड़ा हुआ और जल्द ही हम वहाँ से निकल पड़े थे।

मैं अभी ऑटो ठीक से बैठ भी नहीं पाया था और इस जुगत में था कि बारिश और ऑटो के पहियों से निकल रहे छींटों से किसी तरह खुद को बचा सकूं कि बाहर का नजारा देखते ही मेरा दिल डूबने लगा था। हम अजमल खान रोड और आर्य समाज रोड की क्रासिंग पर थे। मैंने देखा कि कुछ ऑटोरिक्शा वाले क्रॉसिंग के किनारे पर इंतजार कर रहे थे, जबकि तीन खाकी धारी पुरुष चारों ओर मंडरा रहे थे। मेरा कलेजा अब मेरे मुँह में आने को हो रहा था। नाले में गिरकर मल मूत्र के बीच में से लेकर अजय के घर पर कपड़े बदलने तक के इस सफर में आपातकाल के खिलाफ लिखे गए पर्चों के उस गीले बंडल को मैं किसी तरह पकड़ कर रखने में कामयाब रहा था। इसे पहले से ही श्री लेखी के घर पर होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण बैठक में मौजूद लोगों के बीच वितरण के लिए रखा गया था।

मुझे पहले से ही इससे अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिए था। मैं अब खुद को कोस रहा था। अब जाकर उस बंडल को ऑटो रिक्शा से बाहर फेंकने का कोई मतलब नहीं था। इससे तो सबका ध्यान मुझी पर चला जाता। जैसे ही एक खाकी-धारी व्यक्ति ऑटोरिक्शा के नजदीक पहुंचा उसने गुर्राते हुए मुझसे सवाल किया कि मैं कहां से आ रहा था और कहां जा रहा हूँ। मैंने उसे बताया कि मैं अपने एक दोस्त के घर से पढ़ाई करके अपने घर की ओर जा रहा था जहाँ हम लोग परीक्षा की तैयारी के लिए पढ़ रहे थे। उस अंधेरे में, वे पर्चे अवश्य ही किसी पुस्तक की तरह नजर आ रहे होंगे, क्योंकि मैंने उन्हें अपने बाएं हाथ में कसकर पकड़ रखा था।

मैंने महसूस किया कि वह खाकीधारी व्यक्ति वास्तव में कोई पुलिसवाला नहीं, बल्कि होमगार्ड था। 1974 की रेलवे की हड़ताल के बाद से उनमें से कई को गश्त लगाने और पहरेदारी की ड्यूटी में तैनात किया जाने लगा था। उनमें से कई प्रवासी मजदूर थे, जो मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे, लेकिन बिहार से भी थे, जो कि खाकी पहनकर मद में चूर अपनी शक्तियों के बेजा इस्तेमाल के लिए बेताब रहते थे। उनमें से अधिकांश लोग इस नौकरी के लिए लालायित रहते थे, क्योंकि इसमें वसूली से जितनी कमाई हो जाया करती थी वो अभी भी पश्चिमी दिल्ली में मौजूद बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलों में स्थायी नौकरी से अर्जित कमाई की तुलना में काफी अधिक हुआ करता था।

सौभाग्यवश साए में खड़े एक पुलिस वाले ने चिल्लाकर कहा “जाने दो!"। जैसे ही हम वहाँ से फुर्र हुए, मेरी तरह ही ऑटो रिक्शा चालक ने भी राहत की साँस ली। मेरी वजह तो स्पष्ट थी, लेकिन वह इसलिए क्योंकि उसे डर था कि कहीं जो 20 रूपये किराये के उसे मिलने की उम्मीद थी, उसपर होमगार्ड डाका न डाल दे। कुछ ही मिनटों में हम तेजा सिंह के घर के पास पहुँच चुके थे। मैंने ऑटोरिक्शा को सौ गज पहले ही रुकवा दिया था, और तब तक इंतजार किया जबतक वह वहां से ओझल नहीं हो गया और उसके बाद जाकर दरवाजे पर खटखट की। आख़िरकार अभयारण्य तक पहुँचने में मुझे सफलता मिल चुकी थी, और भरपूर नींद के लिए मैंने काफी मेहनत भी की थी।

इस घटना के दो महीनों के उपरान्त मैं डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स के तहत 6 अक्टूबर 1975 को नई दिल्ली की तिहाड़ जेल में था। मुझे बताया गया कि अजय कुछ दिन पहले ही जमानत पर जेल से छूटा था। यह कि उसे बुरी तरह से यातनाएं दी गईं थी। यह कि न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद भी कई हफ़्तों तक वह अपनी पीठ के बल नहीं सो सका था। मुझे इस तथ्य से अवगत कराया गया कि मेरे ठिकानों के बारे में उससे पूछताछ कुख्यात श्री पी.एस. भिंडर द्वारा की जा रही थी। उन दिनों भिंडर, पुलिस उपमहानिरीक्षक हुआ करते थे, लेकिन असल में ‘तानाशाह के पुत्र’ संजय गांधी के जोकि तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के पुत्र और आपातकाल की कुछ सबसे अधिक भयानक ज्यादतियों के वास्तुकार थे, के स्वेच्छा से चाटुकार के तौर पर जाने जाते थे।

बाद में 1978-79 में जाकर शाह आयोग ने आपातकाल की ज्यादतियों की जाँच के दौरान भिंडर को दोषी ठहराया था।

“सबूतों के आधार पर यह स्पष्ट है कि श्री पीएस भिंडर, केएस बाजवा और नवीन चावला ने आपातकाल के दौरान अपनी शक्तियों का भारी मात्रा में दुरुपयोग किया था क्योंकि उनकी पहुँच तत्कालीन प्रधान मंत्री के घर तक बेहद आसान थी। उस ताकत को हथियाकर उन्होंने इसका मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया था, बिना यह सोचे विचारे कि इन शक्तियों का प्रयोग करना नैतिक होगा या अनैतिक है, कानूनी या गैर-क़ानूनी है। इस बारे में आयोग की राय है कि हालाँकि इन अधिकारियों की संलिप्तता में मात्रा का अंतर हो सकता है, लेकिन नागरिकों से संबंधित अवधि की समस्याओं को लेकर उनका दृष्टिकोण निरंकुश और वहशियाना रहा है।

इन्होने अपने पद का दुरुपयोग किया था और जन कल्याण के प्रति घोर बेरुखी जाहिर करते हुए जिस प्रकार से अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है। इस प्रक्रिया में इन लोगों ने स्वयं को किसी भी सार्वजनिक पद पर बने रहने के लिए अयोग्य साबित किया है, जिसमें बने रहने के लिए सभी के प्रति निष्पक्ष बने रहने और दूसरों के विचारों के लिए भी स्थान दिए जाने की दरकार होती है। सत्ता के मद में इन्होने कमांड और प्रशासनिक प्रक्रिया के सभी सामान्य चैनलों को भी पूरी तरह से नष्ट कर डाला था।"

"2007 में जाकर श्री भिंडर को गुरदासपुर से विधान सभा चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस से मिल जाती है, लेकिन भला हो उस निर्वाचन क्षेत्र के अच्छे लोगों का, जिन्होंने उन्हें हार का मुँह देखने को विवश कर दिया था।"

2007 में जाकर श्री भिंडर को गुरदासपुर से विधान सभा चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस से सीट मिल जाती है, लेकिन भला हो उस निर्वाचन क्षेत्र के अच्छे लोगों का, जिन्होंने उन्हें हार का मुँह देखने को विवश कर दिया था। सत्ता प्रतिष्ठान ने इन सारे वर्षों तक उनको बचाकर रखने का काम किया था। इसी तरह आपातकाल के दिनों में के.एस. बाजवा दिल्ली में आपराधिक जांच विभाग (सीआईडी) में पुलिस अधीक्षक के तौर पर नियुक्त थे। थर्ड डिग्री को इस्तेमाल में लाना उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुका था। इस सबके बावजूद वे दिल्ली पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) इन दोनों ही वरिष्ठ पदों पर पर विराजमान रहे। यहाँ तक कि संजय गांधी के गुर्गे के तौर पर विख्यात नवीन चावला आगे जाकर भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त तक बना दिए गए।

अब जैसा कि हम 1975 के तानाशाही शासन के दौर के बाद एक बार फिर से आसन्न अधिनायकवादी व्यवस्था के खतरों को महसूस कर रहे हैं, तो आज के दिन भी इस कहानी में कोई बदलाव नजर नहीं आता। निरंकुशता अपने चरम पर है। जबकि जवाबदेही अगर कहीं है भी तो वह सिर्फ एक पवित्र आकांक्षा के तौर पर मौजूद है। उतना ही बदल जाता है।

(लेखक साउथ एशिया राइट्स डॉक्यूमेंटेशनस सेंटर में कार्यरत हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफलेट

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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Emergency 1975 . Police Brutality
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