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कोविड-19
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पर्याप्त बेड और ऑक्सीज़न ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को बचा सकते थे: शीर्ष वैज्ञानिक
हम नोवल कोरोनवायरस के वैरिएंट के बारे में जो कुछ जानते हैं,उसके बारे में सेंटर ऑफ़ सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के सलाहकार,डॉ राकेश मिश्र व्याख्या करते हुए यह बताते हैं कि ये वैरिएंट,कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के फ़ैलने और बड़ी संख्या में हो रही मौत से किस तरह जुड़े हुए हैं।
रश्मि सहगल
25 May 2021
कोरोना
प्रतिकात्मक फ़ोटो: साभार: लाइवमिंट

प्रमुख वैज्ञानिक डॉ राकेश मिश्र दो सप्ताह पहले उस सेंटर ऑफ़ सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं,जो कोविड-19 अनुसंधान में शामिल है।वह इंडियन SARS-CoV2 जीनोम सीक्वेंसिंग कंसोर्टिया (INSACOG) के भी सदस्य हैं। वह उस विशेषज्ञ पैनल में भी थे,जिसने मार्च की शुरुआत में ही इस नये वैरिएंट के उभरने को लेकर सरकार को चेतावनी दे दी थी। रश्मि सहगल के साथ एक साक्षात्कार में डॉ मिश्र बताते हैं कि महामारी की इस बर्बर दूसरी लहर के दौरान भारत में होने वाली ज्यादा मौतों के लिए यह नया वैरिएंट ज़िम्मेदार क्यों नहीं हैं। इसके बजाय,उनका मानना है कि समय पर मिलने वाली और पर्याप्त चिकित्सा सेवा-ऑक्सीज़न और बेड की कमी ही इस बड़ी संख्या में हो रही मौत में योगदान दे रही है। ऐसा इसलिए हुआ है,क्योंकि दूसरी लहर की हद ने वैज्ञानिक समुदाय और सरकार में बैठे सभी लोगों को हैरान कर दिया है। वह इस साक्षात्कार में सरकार की तरफ़ से बनायी  गयी समिति से एक प्रमुख वायरोलॉजिस्ट का इस्तीफ़ा और सरकार की शुरुआती वैज्ञानिक चेतावनियों पर ध्यान देने में साफ़-साफ़ नाकामी जैसे उन कुछ हालिया विवादों की भी बात करते हैं,जिन्होंने वायरस के ख़िलाफ़ भारत की लड़ाई पर असर डाला है। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार का संपादित अंश।

नोवल कोरोनवायरस के वेरिएंट की जांच करने वाली प्रयोगशालाओं के एक संघ के वैज्ञानिक सलाहकार समूह,INSACOG के अध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे प्रमुख वायरोलॉजिस्ट,डॉ शाहिद जमील के इस्तीफ़े पर बतौर वैज्ञानिक आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए एक लेख में डॉ जमील ने इस बात का इशारा किया था कि वैज्ञानिकों की तरफ़ से सुझाए गये उपायों को नीति निर्माताओं के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था।

मेरी विशेषज्ञता विज्ञान और जीनोमिक्स में है।

हम आगे इन पर भी बात करेंगे,लेकिन डॉ जमील ने तो इस बात पर ज़ोर दिया था कि वैज्ञानिक साक्ष्य के आधार पर फ़ैसले की कोई अहमियत नहीं थी। यह टिप्पणी कहां तक सही है ? डॉ जमील शायद ही उस तरह के वैज्ञानिक हैं,जो अतिरंजित बयान देते हों...

आप ठीक कह रही हैं। मेरे मन में शाहिद (जमील) की बहुत इज़्ज़त है। हमरे बीच बहुत बातचीत होती हैं और वह एक अच्छे दोस्त हैं। जमील ने जो कुछ कहा है,मुझे नहीं लगता कि उस पर टिप्पणी करना मेरे लिए मुनासिब है,हालांकि उनकी टिप्पणियां फ़िज़ूल नहीं हैं।

मैं यह सवाल इस सिसलिसे में पूछ रही हूं कि कई वैज्ञानिकों ने फ़रवरी के आख़िर और मार्च की शुरुआत में देश में वायरस के इस म्यूटेंट के बारे में सरकार को चेतावनी दे दी थी। क्या उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया गया ?

यह एक बड़ी समस्या बन गयी है और हम सभी की ज़िंदगी पर असर डाल रही है।

वैज्ञानिकों ने इस नये वैरिएंट की मौजूदगी को लेकर चेतावनी तो दी ही थी और आपको भी यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि वैज्ञानिक उस राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र को दैनिक रिपोर्ट भेज रहे थे,जो बारी-बारी से वे रिपोर्ट उच्च अधिकारियों को भेजी जा रही थीं,लेकिन उन रिपोर्टों को उतनी अहमियत नहीं मिली,जितनी कि मिलनी चाहिए थी।

पिछली बातों को याद करते हुए मैं कह सकता हूं कि इस मुद्दे को देखने के कई तरीक़े हैं। उस वक़्त कोई नहीं जानता था कि यह लहर कितनी बड़ी होगी। पिछले साल तक़रीबन इसी समय लोग वैक्सीन आने की बात कर रहे थे,लेकिन छह महीने पहले ही मैंने कहा था कि इतने कम समय में कोई वैक्सीन नहीं बन सकती। मैं ग़लत साबित हुआ हूं।

हम बहुत ही मुश्कित वक़्त से गुज़र रहे हैं। मुझे ख़ुशी होगी कि मैं अपनी विशेषज्ञता वाले क्षेत्र के बारे में बात करूं और लोगों पर टिप्पणी करने से बचना चाहूंगा। मैं ऐसा व्यक्ति भी नहीं हूं,जिसके पास समग्र रूप से स्थिति पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार बनता हो। कोविड-19 एक बहुत ही ग़ैर-मामूली स्थिति है और इससे निपटने वाली हर चीज़ बेहद संवेदनशील है। व्यवस्थाअपनी सीमा तक खिंच गयी है। मेरा विचार है कि इस समय हमें व्यवस्था की मदद के लिए हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। हम ज़बरदस्त समस्याओं का सामना कर रहे हैं और हम सभी को मिल-जुलकर एक साथ काम करना चाहिए और देखना चाहिए कि हम इस स्थिति से कैसे बेहतर तरीक़े से निपट सकते हैं।

जीनोम सिक्वेंसिंग को लेकर वैज्ञानिक जो कुछ कर रहे हैं,उसमें उन्होंने ऐसा क्या पाया है,जो दूसरे  वैरिएंट के मुक़ाबले इसे ज़्यादा अहम बना देता है ?

वेरिएंट की सूची की संख्या बहुत बड़ी है। हमने भारत में मिलने वाले तक़रीबन ऐसे 6,000 जीनोम-सीक्वेंसिंग का विश्लेषण किया है,जो हमारे पास जमा हैं। हमने लगभग 7,400 वेरिएंट का पता लगाया है,जिसका साफ़-साफ़ मतलब यही है कि ज़्यादातर वेरिएंट बहुत कम अहमियत वाले हैं। इनकी आवाजाही चलती रहती है और इनकी प्रासंगिकता महज़ अकादमिक लिहाज़ से है।लेकिन ऐसे भी वैरिएंट हैं,जो हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं,जिनमें एक बदलाव हुए हैं। यह बदलाव इस वायरस के स्पाइक प्रोटीन में हो सकता है; यह बदलाव वायरस के जैविक रूप से उस अहम हिस्से में हो सकता है,जो इम्यून प्रतिक्रिया से बचकर निकल जायेगा या फिर रिसेप्टर (कोशिकाओं) के साथ इसका इतना मज़बूत जुड़ाव होगा ताकि यह ज़्यादा आसानी से इसमें दाखिल हो सके।

दूसरी श्रेणी का जो वैरिएंट है,वह चिंता पैदा करने वाला है,जो (वैरिएंट) दूसरों की मुक़ाबले ज़्यादा असरदार होता जा रहा है और अपने पांव लगातार पसार रहा है,हालांकि हम इसकी जैविकी के बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं। सबसे बड़ी बात तो यही है कि यह अपने पांव लगातार पसार रहा है, जो कि चिंता का विषय है। भले ही इसमें ज़्यादा लक्षण नहीं हों,लेकिन यह अपनी संक्रामकता बढ़ायेगा। इस समय हमारे पास भारत में चिंता पैदा करने वाले दो प्रमुख वैरिएंट हैं और ये हैं- B117,जिसे यूके वैरिएंट भी कहा जाता है और B1.617 । सौभाग्य से ये दोनों वैरिएंट वैक्सीन के प्रति असंवेदनशील नहीं हैं,जिसका मतलब यह है कि वैक्सीन उन्हें बेअसर कर सकती है।

इन वैरिएंट के ज़्यादा लक्षण नहीं होते या इसकी वजह से ज़्यादा मौत भी नहीं हो रही है,वे पिछले ही वैरिएंट की तरह हैं,लेकिन इसे लेकर जो स्थापित तथ्य है,वह यह कि ये ज़्यादा संक्रामक हैं-जिसका मतलब यह हुआ कि मामलों की संख्या में बढ़ोत्तरी और इसी वजह से हमारे अस्पतालों में भीड़ बहुत बढ़ गयी है।

हां,लेकिन क्या इसके ज़्यादा संक्रामक होने से हमारे चिकित्सा से जुड़े बुनियादी ढांचे की सीमायें टूट नहीं गयी हैं और इसका नतीजा बड़ी संख्या में हो रही मौत नहीं है ?

बड़ी संख्या में होने वाली मौत की पीछे की वजह ये वैरिएंट नहीं हैं। ये वेरिएंट उच्च मृत्यु दर का कारण नहीं बन रहे हैं। अगर कोई शख़्स इन वैरिएंट से संक्रमित हो जाता है और उसे अस्पताल में बेड नहीं मिलता या उसे वक़्त पर ऑक्सीज़न नहीं दी जाती है,तो उसे मौत से भला कैसे बचाया जा सकता है। अगर हमारे पास बेड होते या हमारे पास ऑक्सीजन होती,तो हम उसे(संक्रमित शख़्श को) बचा सकते थे। मैं इस बात पर फिर से ज़ोर देना चाहता हूं कि हो रही इन (बेहिसाब) मौतों से बचा जा सकता था। ये वेरिएंट इतनी तेज़ी से बढ़ते हैं कि यह सिस्टम पर ज़बरदस्त दबाव डाल देता है। लेकिन,जैविक रूप से  देखा जाये, तो इसके लक्षण पहले के वैरिएंट की तरह ही हैं। इसका मतलब यह है कि इन्हें क़ाबू किया जा सकता है। यदि हम भीड़-भाड़ नहीं होने देकर इस वायरस को फ़ैलने नहीं देते,तो बेशक हम इसे क़ाबू कर सकते थे। अगर हम सख़्त लॉकडाउन लगाये होते, तो ठीक है कि इससे आर्थिक समस्या तो हो सकती थी,लेकिन इससे वायरस को नियंत्रित करने में मदद मिलती।

ठीक है कि इसके लक्षण पहले के वेरिएंट की तरह ही हैं,लेकिन जब वैज्ञानिकों ने सरकार को चेतावनी दे दी थी कि ये वैरिएंट ज़्यादा संक्रामक हैं,तो सलाह का पालन किया जाना चाहिए था…

मैं सिर्फ़ तकनीकी सवालों के ही जवाब देना चाहूंगा।

आपके पास ऐसी दस प्रयोगशालायें हैं,जो INSACOG का हिस्सा हैं, लेकिन भारत में कोविड-19 मामलों की कुल संख्या बहुत ज़्यादा है,इसे देखते हुए जीनोम सिक्वेंसिंग की संख्या काफ़ी कम है।

INACOG का लक्ष्य 5% नये मामलों के लिए ही (जीनोम-सिक्वेंसिंग) करना था, लेकिन यह लक्ष्य तो कई महीने पहले निर्धारित किया गया था,जब मामलों की संख्या बहुत ही कम थी। आज,सभी मामलों में से 5% मामलों को नहीं किया जा सकता है (क्योंकि पोज़िटिव संक्रमणों की कुल संख्या बहुत ज़्यादा है)। अगर पोज़िटिव होने की दर में कमी आती है,तो शायद हम उस संख्या पर फिर जा सकते हैं। अभी ध्यान तो इस बात पर है कि कहीं सुपर-स्प्रेडर इवेंट(संक्रमण फ़ैलाने वाले आयोजन) नहीं हो,संक्रमण में अचानक उछाल नहीं आये,इसके बाद ही हम उनके ख़ास विशिष्टताओं पर नज़र डाल पायेंगे। और हम अलग-अलग भौगोलिक स्थानों से वैज्ञानिक रूप से बेतरतीब नमूने भी इकट्ठा करते हैं,जो कि हमारे लिए एक ज़बरदस्त चुनौती पेश करते हैं। ख़ासकर तब,जब स्वास्थ्यकर्मी कई महीनों से चौबीसों घंटे काम पर लगे हुए हों। कोल्ड चेन के हिस्से के रूप में इन नमूनों को एकत्र करने और भेजने में ऐसी कई अड़चनें हैं,जिन्हें हर समय सुलझाने की ज़रूरत होती है।

हमें हर वक़्त यह सुनिश्चित करना होगा कि हम देश के उस किसी भी हिस्से से ऐसा करना न भूलें,जहां से एक नया वैरिएंट सामने आ सके। यह एक ऐसी चुनौती है,जिस पर हम काम कर रहे हैं। हमने 20,000 जीनोम सिक्वेंसिंग को पार कर लिया है-जिनमें से ज़्यादातर जमा किये जा चुके हैं। यह देखते हुएये कि नए संस्करण दक्षिण भारत और बंगाल में अपने पांव पसार रहे हैं, हम ज़्यादा से ज़्यादा भौगोलिक जगहों पर प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ा रहे हैं ताकि परिवहन आसान हो जाये। हमारे सामने प्रमुख समस्या है-नमूनों का वैज्ञानिक रूप से तहां-तहां के नमूने का संग्रह करना ताकि हम उभर रहे किसी भी नये वैरिएंट से नावाकिफ़ न हों।

इस समय आपके संस्थान का मुख्य मुद्दा वास्तव में क्या है ?

हम तीन अलग-अलग चीज़ें कर रहे हैं-हम एक सत्यापन केंद्र,एक राष्ट्रीय भंडार और एक परीक्षण केंद्र की वैधता या शुद्धता की जांच करने की प्रक्रिया में हैं। हमने परीक्षण के बेहतर तरीक़े मुहैया कारने वाले ऐसे कई किटों को मान्यता दे दी है,जिससे पूरी प्रक्रिया कम ख़र्चीली और तेज़ हो गयी है। हमने कई किट विकसित किये हैं और ड्राई स्वैब टेस्टिंग की शुरुआत करके परीक्षण की RTPCR पद्धति में सुधार किया है,जो एक कम ख़र्चीला, तेज़ और सुरक्षित तरीक़ा है और जिसे भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने भी अनुमोदित कर दिया है। इसका असर होगा। ये किट इस सप्ताह से ही उपलब्ध हैं।

यह कितनी तेज़ी से काम करेगा ?

इससे आप तीन से चार घंटे के समय में नतीजा पा सकते हैं। यह काफी सस्ता भी है। दूसरी चीज़ जो हम करते हैं, वह है-वायरस कल्चर(ज़रूरत के हिसाब से वायरस में बदलाव)। (जब कभी) कोई नया वैरिएंट आता है, तो हम इसे प्रयोगशाला में कल्चर करते हैं और इसके विभिन्न गुणों को लेकर इसका परीक्षण करते हैं, और फिर उस वायरस को कंपनियों के साथ साझा करते हैं। इस वायरस के ख़िलाफ़ हमने जो एंटीडोट्स तैयार किये हैं,उनमें से एक एंटीडोट का मानव परीक्षण हैदराबाद स्थित विंग्स नामक एक कंपनी की मदद से इस सप्ताह करने जा रहे हैं। यह कुछ ही हफ़्तों में उपलब्ध हो जाना चाहिए,क्योंकि अभी तक वायरस को लेकर कोई एटीडोट नहीं है।

हम यह देखने के लिए भी वायरस को कल्चर करते हैं कि यह टीकों के ख़िलाफ़ प्रभावी है या नहीं और हमने यूके वेरिएंट और B1.617 का परीक्षण कर लिया है। रक्षा मंत्री ने रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) की तरफ़ से बनायी गयी एक नयी दवा जारी कर दी है। हमने इसके कोविड-19 विरोधी गुणों को लेकर इसका परीक्षण किया था। हमारे पास विभिन्न कंपनियों के साथ विकास के विभिन्न स्तरों पर कई दवायें हैं।

डीआरडीओ द्वारा बनायी गयी दवा कितनी कारगर है ?

जैविकी और जीनोम कल्चर हमारी अपनी (सीसीएमबी की) है। ऐसा लगता है कि यह दवा अस्पताल और ऑक्सीज़न पर हमारी निर्भरता को तीन दिनों के लिए कम कर सकता है। यह रेमडेसिविर की तरह है। लेकिन,चूंकि यह अभी परीक्षण चरण में ही है, जब दवा अपने इस्तेमाल के चरण में आयेगी, तब ज़्यादा से ज़्यादा डेटा एकत्र किया जाएगा, फिर हम इसे लेकर और ज़्यादा सटीक बात करने की हालत में होंगे।

हम एयरपोर्ट पर भी नज़र बनाये रखते हैं। एयरपोर्ट से सभी सैंपल हमारे पास आते हैं। आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि यूके वैरिएंट आंध्र प्रदेश के हैदराबाद,तेलंगाना में प्रवेश नहीं कर सका,क्योंकि हमने ऐसा होने ही नहीं दिया। हमने संक्रमित हुए मुसाफ़िरों को क्वारंटाइन में रखा, लेकिन पंजाब और दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ।

अगर सारी टेस्टिंग आपके पास आ रही थी,तो आप इसे पूरे देश में क्यों नहीं रोक पाये ?

हमने ऐसा सिर्फ़ हैदराबाद के लिए किया। हम पूरे देश के लिए नहीं कर सकते। हम नमूने एकत्र करके व्यापक निगरानी भी कर रहे हैं,जो हमें बताते हैं कि कितने प्रतिशत लोग संक्रमित हैं। इस समय हम आठ से दस शहरों के लिए (ऐसा) कर रहे हैं। हम पिछले कुछ समय से इस पर नज़र रख रहे हैं और हम पाते हैं कि यह वास्तविक नैदानिक संख्याओं से मेल खाता है। इसे नियमित निगरानी व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

मगर,बंगाल वैरिएंट पर तो सवालिया निशान है...

बंगाल वैरिएंट,यानी B1.618 ग़ायब हो गया है और इसकी जगह पूरी तरह B1.617 वैरिएंट ने ले ली है। यह (B1.618) वहां कई महीनों तक था, लेकिन B1.617 ज़्यादा संक्रामक है। E480K वैरिएंट के साथ भी ऐसा ही है। इन दोनों की जगह ज़्यादा संक्रामक वेरिएंट ने ले ली हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Enough Beds and Oxygen Would Have Saved More People: Top Scientist

Shahid Jameel
New Virus Variants
India second wave
Oxygen shortage
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