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भारत
राजनीति
हड़तालों के सिलसिले में आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक आईएलओ नीति का उल्लंघन
ट्रेड यूनियनों की दलील है कि रक्षा क्षेत्र में निगमीकरण से जुड़े तमाम घोषित उद्देश्यों को सरकारी ढांचे के भीतर भी हासिल किया जा सकता है और ये प्रस्ताव सही मायने में उसी कथित सिलसिले में पेश किये गये हैं।
डॉ के आर श्याम सुंदर
06 Aug 2021
हड़तालों के सिलसिले में आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक आईएलओ नीति का उल्लंघन

यह आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, 2021 अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन के उन दो प्रस्तावों का उल्लंघन करता है, जो आईएलओ की नीति के लिए दिशानिर्देश देता है और हड़ताल के अधिकार की मान्यता पर ज़ोर देता है। इस विधेयक का गंभीर विश्लेषण करने वाली दो-भागों की श्रृंखला के इस आख़िरी भाग में के.आर. श्याम सुंदर इस बात का ज़िक़्र करते हैं कि संगठन बनाने की आज़ादी पर आईएलओ की समिति हड़ताल के अधिकार को श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए उपलब्ध आवश्यक उपायों में से एक मानती है और लेखक बताते हैं कि इस बिल के ज़रिये ट्रेड यूनियनों को किस तरह शक्तिहीन कर दिया जायेगा।

लोकसभा ने आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक, 2021 को बिना किसी बहस के ध्वनि मत से सनसेट क्लॉज़ (किसी क़ानून, विनियम या विधि के भीतर का एक ऐसा उपाय, जो यह प्रावधान करता है कि क़ानून एक ख़ास तारीख़ के बाद प्रभावी होना बंद हो जायेगा, जब तक कि उस क़ानून को विधायी कार्रवाई के ज़रिये विस्तार नहीं दिया जाता है) के साथ पारित कर दिया है। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सदन को भरोसा दिलाया है कि संसदीय सहमति और राष्ट्रपति की मंज़ूरी के बाद यह अधिनियम एक वर्ष तक के लिए ही प्रभावी रहेगा, जबतक कि इसे आगे बढ़ाने की मांग नहीं की जाती है।

आवश्यक रक्षा सेवाओं में लगे कर्मचारियों द्वारा हड़ताल और आंदोलन पर प्रतिबंध लगाने वाले इस विधेयक का मक़सद "देश की रक्षा तैयारियों के लिए सशस्त्र बलों को युद्ध सामग्रियों की निर्बाध आपूर्ति" सुनिश्चित करना है और सरकार के मुताबिक़ यह सुनिश्चित करना भी है कि "ये आयुध कारखाने, ख़ास तौर पर देश के उत्तरी मोर्चे पर मौजूदा स्थिति को देखते हुए बिना किसी व्यवधान के अपना काम जारी रख सकें।"

हालांकि, यह अधिनियम "भारत की संप्रभुता और अखंडता और किसी भी राज्य की सुरक्षा के हित में" हड़ताल, तालाबंदी और कामबंदी को प्रतिबंधित करता है, लेकिन सरकार का इसके लाने के पीछे का असली इरादा ऑर्डनेंस फ़ैक्ट्री बोर्ड (OFB) के निगमीकरण किये जाने की अड़ंगा डालने की ट्रेड यूनियनों की कोशिशों को हतोत्साहित करना और विफल कर देना है। एक प्रमुख न्यूज़ वेबसाइट पर एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी की टिप्पणी से यह साफ़ हो जाता है कि "यह एक ऐसा अच्छा विधेयक है, जिसे रक्षा सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य उपक्रमों के कर्मचारियों की ओर से अतीत में किये गये हड़तालों को देखते हुए लाया गया है।" 

विधेयक की विषय-वस्तु

इस विधेयक का इरादा "राष्ट्र  की सुरक्षा और बड़े पैमाने पर जनता के जीवन और संपत्ति को सुरक्षित करने के लिए आवश्यक रक्षा सेवाओं के रखरखाव के लिए प्रावधान करना है (यही शब्द इस्तेमाल किया गया है)। ….”  अगर इसके बंद होने से रक्षा उपकरण या रक्षा सामग्रियों का उत्पादन, रक्षा प्रतिष्ठानों के संचालन या रखरखाव और रक्षा उत्पादों की मरम्मत प्रभावित होती है...तो 'रक्षा सेवाओं' की यह परिभाषा न सिर्फ़ इस क्षेत्र में सीधे तौर पर लगे हुए लोगों पर लागू होने के लिए पर्याप्त है, बल्कि "किसी भी सेवा" पर लागू होती है। इस परिभाषा में प्रमुख बंदरगाह और डॉक,यानी गोदी या कोई भी विनिर्माण प्रतिष्ठान शामिल हो सकते हैं।

इस विधेयक में न सिर्फ़ हड़तालें, बल्कि नियोक्ताओं की ओर से की गयी तालाबंदी और छंटनी भी शामिल हैं। हड़तालों में न सिर्फ़ काम को आम तौर पर अस्थायी रूप से काम को रोक देना शामिल है, बल्कि सामूहिक तौर पर आकस्मिक छुट्टी पर चले जाना, एक साथ काम से इन्कार कर देना या काम को अस्वीकार कर देना, सरकार द्वारा आवश्यक समझे जाने वाले ओवरटाइम करने से इनकार कर देना और "ऐसा कोई भी आचरण, जिसके परिणामस्वरूप कार्य में बाधा उत्पन्न होती है या बाधा उत्पन्न होने की संभावना भी शामिल है..."

सरकार भारत की संप्रभुता और अखंडता, किसी भी राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, सार्वजनिक शिष्टता या नैतिकता के आधार पर छह या इससे ज़्यादा महीनों के लिए हड़ताल पर रोक लगा सकती है।

हड़तालों को तक़रीबन असंभव बना देने वाला यह विधेयक औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत आवश्यक रक्षा सेवाओं को "सार्वजनिक उपयोगिता सेवा" (PUS) के रूप में घोषित कर देता है। पीयूएस में हड़ताल करने वाले यूनियनों को छह सप्ताह का नोटिस देना होगा और अनिवार्य रूप से सुलह शुरू करनी होगी। अगर सुलह की कोशिश विफल रहती है, तो सरकार मामले को अनिवार्य रूप से निर्णयादेश के लिए आगे भेज सकती है। इस अवधि के दौरान और निर्धारित शांति अवधि (सुलह के बाद या निर्णयादेश के बाद की अवधि) में काम से इन्कार करना ग़ैर-क़ानूनी होगा।

अवैध हड़ताल को शुरू करने या उसमें भाग लेने या उकसाने, भड़काने या वित्तीय सहायता प्रदान करने की सज़ा क़ैद (एक-दो वर्ष) या जुर्माना (10,000  रुपये से लेकर 15,000 रुपये तक) या दोनों है। इस तरह के अपराध दंडनीय और संज्ञेय तथा ग़ैर-ज़मानती दोनों हैं। सबसे ज़्यादा चिंता की बात तो यह है कि यह विधेयक जिस अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रावधान करता है, उसमें उपरोक्त कार्यों के लिए बर्ख़ास्तगी तक शामिल है।

इस विधेयक के पीछे की मंशा

इस विधेयक के पीछे की मंशा चिंता पैदा करने वाली है और इसका दायरा काफ़ी व्यापक है। हड़ताल/तालाबंदी/कामबंदी की घोषणा नहीं की जा सकती। वास्तविक आर्थिक कारणों से आवश्यक होने पर भी नियोक्ता किसी एक कर्मचारी को भी नहीं हटा सकते। लेकिन,इस विधेयक में निर्धारित कड़ी सजा को देखते हुए श्रमिक किसी भी रूप में विरोध भी नहीं कर सकते हैं।

ऐसे में तो सामूहिक सौदेबाज़ी या बातचीत का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा, क्योंकि विरोध या हड़ताल जैसी कार्रवाई इन प्रक्रियाओं के ही तो पूरक हैं। ट्रेड यूनियनों को सही मायने में अशक्त कर दिया जायेगा और वे श्रम कल्याण और अपने अधिकारों को नुक़सान पहुंचाने वाली किसी भी प्रबंधकीय क़वायद को चुनौती नहीं दे पायेंगे।

भले ही सरकार बड़े स्तर पर ट्रेड यूनियनों के साथ जुड़ना चाहती हो, लेकिन इस बिल में प्रतिकूल और डराने वाले उपायों को देखते हुए किसी भी संवाद का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। अगर सीधे शब्दों में कहा जाये,तो यह बिल औद्योगिक रिश्तों के स्वतंत्र मिजाज़ को अक्षम बना देता है।

ट्रेड यूनियनों की प्रतिक्रियायें

जैसा कि अपेक्षित ही था, ट्रेड यूनियनों ने इस विधेयक पर "क्रूर" और "सख़्त" होने का इल्ज़ाम लगाया है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने अन्य क्षेत्रों में भी 'आपातकालीन' प्रावधानों के विस्तार की आशंका के डर से इस विधेयक को वापस लेने के लिए इसका विरोध किया है और इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया है।

जुलाई में सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियन(CITU) ने इस बिल के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) का दरवाजा खटखटाने का फ़ैसला किया था। सीटू ने आईएलओ से शिकायत करते हुए कहा है कि यह बिल "आईएलओ के उन मौलिक अधिकारों के प्रावधानों के साथ-साथ संगठनों की स्वतंत्रता पर घोषित कोर कन्वेंशन, संकल्प और उन नीतियां का भी घोर उल्लंघन है, जिनका ज़िक़्र आईएलओ सम्मेलनों में किया गया है।”  

आईएलओ और आवश्यक सेवाओं में हड़ताल का अधिकार

आईएलओ के मौलिक अधिकारों का यह "घोर उल्लंघन" दो मुख्य सम्मेलनों,यानी C. 87, संगठन बनाने की स्वतंत्रता और सभा आयोजित करने के अधिकार संरक्षण सम्मेलन, 1948 और C.98, यानी संगठित करने का अधिकार और सामूहिक सौदेबाजी सम्मेलन, 1949 के सिलसिले में है। ये दोनों सम्मेलन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संगठन बनाने की स्वतंत्रता और सामूहिक सौदेबाज़ी के अधिकारों के इस्तेमाल को प्रतिबंधित करने वाले सार्वजनिक अधिकारियों के किसी भी हस्तक्षेप पर रोक लगाते हैं। इस तरह, हड़ताल का अधिकार इन दो सम्मेलनों (ख़ास तौर पर सी.87 का अनुच्छेद 3 देखें) से निकला हुआ है ।

श्रम सम्बन्ध (लोक सेवा) कन्वेंशन, 1978 (नंबर 151) इस सिलसिले में एक अहम साधन है। अनुच्छेद 4(1)(2) कर्मचारियों को यूनियन विरोधी भेदभावपूर्ण गतिविधियों से सुरक्षा देता है। अनुच्छेद 4(2) संगठन की सामान्य गतिविधियों में भाग लेने के सिलसिले में बर्ख़ास्त किये जाने से सुरक्षा प्रदान करता है (इस पर ज़ोर दिया गया है)। हड़तालों को ट्रेड यूनियन की सामान्य गतिविधियों का एक हिस्सा कहा जा सकता है।

अनुच्छेद 9 में इस बात का प्रावधान है कि "सरकारी कर्मचारियों के पास अन्य श्रमिकों की तरह ही नागरिक और राजनीतिक अधिकार होंगे, जो कुछ वैध शर्तों के अधीन संघ की स्वतंत्रता के सामान्य इस्तेमाल के लिहाज़ से आवश्यक हैं।" इस तरह, सरकारी कर्मचारियों को भी कुछ अहम श्रम अधिकार और सुरक्षा हासिल हैं।

किसी भी आईएलओ सम्मेलन में सीधे तौर पर हड़ताल करने के अधिकार की मनाही नहीं है। इसकी निगरानी करने वाली संस्था, यानी संगठन बनाने की स्वतंत्रता से जुड़ी समिति के पास न्यायशास्त्र का एक ऐसा विशाल निकाय है, जिससे विश्लेषक  हड़ताल के अधिकार से जुड़े सिद्धांत को हासिल करते हैं।

यह समिति हड़ताल के अधिकार को श्रमिकों और उनके यूनियनों के उनके आर्थिक और सामाजिक हितों की सुरक्षा के लिहाज़ से उपलब्ध आवश्यक उपायों में से एक मानती है। ये निगरानी संस्थायें सालों से इस बात को मानती रही है कि "हड़ताल का अधिकार कन्वेंशन नंबर 87 द्वारा संरक्षित संगठित होने के अधिकार का एक स्वाभाविक परिणाम है।"

उनके न्यायशास्त्र में इस बात का साफ़ तौर पर ज़िक़्र है कि हड़ताल का अधिकार सशस्त्र बलों और पुलिस, सरकारी प्राधिकरणों के एजेंटों के रूप में कार्य करने वाले लोक सेवकों, आवश्यक सेवाओं में लगे श्रमिकों और "ज़बरदस्त राष्ट्रीय आपातकाल" की स्थितियों में लागू नहीं होगा। हालांकि, इन कर्मचारियों की शिकायतों और विवादों को हल करने को लेकर एक प्रतिपूरक नियामक ढांचा होना चाहिए,जैसे,मध्यस्थता / सुलह या अनिवार्य न्यायिक फ़ैसले के ज़रिये।

इन क़ानूनों ने 'आवश्यक सेवाओं' को निर्धारित करने वाले जो मानदंड निर्धारित किये हैं,वे हैं: “…जीवन, व्यक्तिगत सुरक्षा या संपूर्ण या आबादी के एक हिस्से के स्वास्थ्य को लेकर एक स्पष्ट और आसन्न ख़तरे की मौजूदगी।”

हालांकि, अगर हड़ताल ऊपर बताये गये मानदंड का पालन करते हुए पर्याप्त समय तक चलती है,तो एक ग़ैर-आवश्यक सेवा एक आवश्यक सेवा बन सकती है। इसके अलावा, जो आवश्यक है, वह यह कि यह सब "किसी देश में क़ायम विशेष परिस्थितियों पर काफ़ी हद तक निर्भर करेगा।”

असल में इसमें जिन आवश्यक सेवाओं का ज़िक़्र हैं,उनमें अस्पताल, बिजली, पानी की आपूर्ति, टेलीफ़ोन, पुलिस और सशस्त्र बल, अग्निशमन सेवायें, जेल, स्कूली छात्रों को भोजन का प्रावधान और स्कूलों की सफ़ाई, और हवाई यातायात नियंत्रण है, और इसमें क्या कुछ नहीं है।

विधेयक पेश करने का कोई आधार नहीं

इसलिए, केंद्र को यह खुलकर कह देना चाहिए कि ओएफ़बी कर्मचारियों और/या अन्य नागरिक रक्षा कर्मचारियों की हड़ताल भारत के लोगों के जीवन, व्यक्तिगत सुरक्षा या स्वास्थ्य के लिहाज़ से एक स्पष्ट और आसन्न ख़तरा है, जो कि हड़ताल करने के उनके वैध अधिकार का उल्लंघन नहीं,बल्कि "आवश्यक सेवाओं" के तहत उनके वर्गीकरण को सही ठहराता है।

हालांकि, सरकार सिर्फ़ सीमा पर तनाव के आधार पर ही इस विधेयक का बचाव कर सकती है, लेकिन संगठन और उससे जुड़े अधिकारों के इस्तेमाल पर कड़े प्रतिबंध लगाने के लिहाज़ से एक नैतिक, सैन्य, संस्थागत और आर्थिक दलील को पेश करने में विफल रही है। सीमा पर चलने वाला तनाव लंबे समय से जारी मामला होता है और ऐसे में इस तरह के कड़े क़दम उठाने की ज़रूरत नहीं होती है।

यह विधेयक अपने दायरे में आने वाले प्रतिष्ठानों में भी सामान्य औद्योगिक रिश्तों पर चोट करता है। आईएलओ के न्यायशास्त्र और इसके सम्मेलन इस बिल के औचित्य के लिए बहुत कम आधार मुहैया कराते हैं। दूसरी ओर, कुछ टिप्पणीकारों की तरफ़ से ओएफ़बी के निगमीकरण का समर्थन करने वाले आर्थिक और संगठनात्मक मामले पर भी सवाल उठाये गये हैं।  

ट्रेड यूनियनों की दलील है कि रक्षा क्षेत्र में निगमीकरण के सभी घोषित उद्देश्यों को सरकारी ढांचे के भीतर हासिल किया जा सकता है और ये प्रस्ताव सही मायने में उसी कथित सिलसिले में पेश किये गये हैं। सरकार को चाहिए कि वह इन प्रस्तावों को विशेषज्ञों के एक निकाय के पास भेजकर इसके औचित्य की छानबीन कराये। इस बीच, त्रिपक्षीय परामर्श (अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक) सम्मेलन, 1976 (नंबर 144) के मुताबिक़, तब तक सरकार को आंदोलनकारी ट्रेड यूनियनों के साथ जुड़ा रहना चाहिए क्योंकि भारत जैसे बहुलतावादी लोकतंत्र में सामाजिक संवाद का कोई विकल्प नहीं है।

इस आलेख का पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

(के आर श्याम सुंदर जमशेदपुर स्थित एक्सएलआरआई,ज़ेवियर स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में ह्यूमन रिसोर्सेज़ मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

यह आलेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Essential Defence Services Bill violates ILO policy on strikes

Democracy and Rule of Law
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