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चुनाव 2022
भारत
राजनीति
सबिना मार्टिन से ख़ास बातचीत: गोवा चुनाव और महिलाओं का एजेंडा
लोगों के जो वास्तविक मुद्दे हैं वो चुनाव चर्चा में अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद कर रहे हैं। ऐसा ही एक अहम मुद्दा है जेंडर का। महिलाओं के अधिकार, सुरक्षा, न्याय और गोवा में महिलाओं से जुड़े अन्य मुद्दों पर हमने सबिना मार्टिन से साक्षात्कार किया है। सबिना गोवा में महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक प्रमुख शख़्सियत हैं।
राज कुमार
30 Jan 2022
Sabina Martin

14 फरवरी को गोवा विधानसभा के लिए वोट डाले जाएंगे। लेकिन पूरी चुनावी चर्चा में असल मुद्दे गायब हैं। लोगों के जो वास्तविक मुद्दे हैं वो चुनाव चर्चा में अपनी जगह बनाने की जद्दो-जहद कर रहे हैं। ऐसा ही एक अहम मुद्दा है जेंडर का। महिलाओं के अधिकार, सुरक्षा, न्याय और गोवा में महिलाओं से जुड़े अन्य मुद्दों पर हमने सबिना मार्टिन से साक्षात्कार किया है। सबिना गोवा में महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करने वाली एक प्रमुख शख़्सियत हैं। सबिना महिला संगठन बाइलंसो साद की संयोजिका हैं और साथ ही गोवा नेटवर्क ऑन जेंडर जस्टिस की भी संयोजिका हैं। बाइलांसो साद पिछले 35 सालों से गोवा में महिलाओं के अधिकार के लिए काम कर रहा है। सबिना से हुई बातचीत नीचे प्रस्तुत है।

सबिना जी गोवा के चुनावी चर्चा में महिलाओं के अधिकार, सुरक्षा और न्याय से संबंधित मुद्दे कितनी जगह ले पा रहे हैं?

महिलाओं के मुद्दे पर तो कोई बात ही नहीं कर रहा है। अगर किसी मुद्दे का राजनैतिक फायदा उठाना है मसलन कोई रेप हो गया, मर्डर हो गया तो उस बारे सब पार्टियां बात करेंगी। उससे जितना पॉलिटिकल माइलेज़ मिलता हैं वो ले लेंगे, उसके बाद उसके बारे में कोई बात नहीं करता है। वास्तविक मुद्दों पर तो चर्चा हो ही नहीं रही है।

अभी चुनाव की वजह से हालत ये है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर केस भी दर्ज नहीं हो रहे हैं। क्योंकि अगर केस दर्ज हो गया तो फिर उसके ऊपर राजनीति होगी। तो जब हम केस लेकर पुलिस स्टेशन में जा रहे हैं तो वो केस दर्ज ही नहीं कर रहे हैं। अगर केस ही दर्ज नहीं होगा तो न्याय कैसे मिलेगा? जबसे चुनाव की घोषणा हुई है ऐसा हो रहा है।

महिलाओं के प्रश्नों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बहुत घटनाएं हो रही हैं। हमारे पास एक लड़की का केस आया था। स्कूली छात्रा को ड्रग्स दिये गये, उसे सेक्सुअल एक्टिविटी में डाला गया। लड़की की मां ने पुलिस में शिकायत दी। लेकिन पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की। जब पुलिस पर दबाव डाला गया तो लड़की को ढूंढ लिया गया और पुलिस स्टेशन में लड़की के साथ मारपीट की गई। यानी लड़की के ऊपर दोहरा अत्याचार हुआ। लड़की का डोप टेस्ट भी नहीं किया गया और ना ही यौन अपराध के तहत कोई मेडिकल टेस्ट किया गया, ना ही एफआईआर दर्ज हुई। ऐसे बहुत सारे केस हैं। हमारे पास एक घरेलू हिंसा का केस आया। औरत का हाथ तोड़ दिया गया था। लेकिन फिर भी पुलिस स्टेशन में केस दर्ज नहीं हुआ। पुलिस ने कहा पति-पत्नी का आपसी मामला है मिलकर खुद ही संभाल लो। ऐसे कई केस आए हैं जहां घरेलू हिंसा के केस में एफआईआर ही दर्ज नहीं हुई। तो ये सब चुनाव के दौरान हो रहा है।

महिलाओं की सुरक्षा और न्याय के लिए जो सरकारी एजेंसियां हैं उनकी स्थिति क्या है?

तमाम विभाग और एजेंसियां बिल्कुल काम ही नहीं कर रही हैं। तो हमने महिलाओं के अधिकारों और मुद्दों पर काम करने वाली संस्थाओं का एक नेटवर्क बनाया। हमने तय किया कि चुनाव के दौरान हम अपनी मांगों की सूची बनाएंगे और पार्टियों को देंगे और महिलाओं का एजेंडा चुनाव में पेश करेंगे।

हमने चार फोकस प्वाइंट लिए हैं। घरेलू हिंसा और यौन हिंसा। लेज़िस्लेटिव सुधार एवं बदलाव। इंप्लिमेंटिंग मैकेनिज़्म। सक्रिय इंप्लिमेंटिंग मैकेनिज़्म होना चाहिये और उसके लिए पर्याप्त बजट होना चाहिये।

हमारी मांग है कि हरेक तालुका में एक जेंडर ऑफिस बनाया जाना चाहिये। हरेक तालुका में प्रोटेक्शन ऑफिसर होना चाहिये। अभी गोवा में सरकार ने बीडीओ को प्रोटेक्शन ऑफिसर बना दिया है। उसके पास समय ही नहीं है पीड़ित महिलाओं से मिलने के लिए। पर्याप्त इंफरास्ट्रक्चर होना चाहिये। महिलाओं के लिए उचित यातायात की सुविधा होनी चाहिये। सरकार महिलाओं के लिये योजनाओं की घोषणा करती है लेकिन जब कोई महिला उस योजना का लाभ लेना चाहे तो उसको ढंग से कोई जानकारी ही नहीं मिलती है। एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर भटकना पड़ता है।

लेकिन पार्टियां तो इन मुद्दों पर कोई बात ही नहीं कर रही हैं। सिर्फ बात कर रही है कि हर महिला के खाते में पैसा भेजा जाएगा।

राजनैतिक पार्टियों ने चुनाव में ये आदत डाल दी है कि हम आपको पैसे देंगे आप हमें वोट दो। इसी को वैधानिक तौर पर करने के लिए पार्टियों ने ये तरीका निकाला है। सब कह रहे हैं कि अगर आपने हमारी सरकार बनाई तो आपको पैसे देंगे। भाजपा की पिछली सरकार ने भी ऐसा किया था। शुरू में वो योजना के तहत पैसा देते हैं। फिर अचानक बीच में बंद कर देते हैं। तो जो महिलाएं इन पैसों पर निर्भर होती हैं उनकी हालत बहुत खराब हो जाती है। ज़रूरतमंद महिलाओं को इस तरह की मदद की काफी ज़रूरत है। इससे एक तरह की सुरक्षा मिलती है। लेकिन इन योजनाओं का लाभ भी सबको नहीं मिलता है। उन महिलाओं को मिलता है जिन्होंने उस पार्टी को वोट किया है। बाकी महिलाओं को धक्के मिलते हैं। उनके फार्म दफ़्तरों में पड़े रहते हैं। तो नाम के तौर पर कहते हैं कि इतने पैसे महिलाओं के खाते में जाएंगे लेकिन ज़मीनी तौर पर ऐसा होता नहीं है।

हमारे ख़्याल से लड़कियों की शिक्षा पर पैसा खर्च होना चाहिये। लड़कियों की उच्च शिक्षा पर विशेषतौर पर ध्यान देना चाहिये। उनके पास कॉलेज़ आने-जाने के पैसे नहीं होते है। तो उनके लिए यातायात की सुविधा मुहैया करानी चाहिये। हालांकि किराये में आधी छूट मिलती है लेकिन बहुत सारी लड़कियों के पास इतना पैसा भी नहीं होता है। वो उच्च शिक्षा से बाहर हो जाती हैं। तो लड़कियों को उच्च शिक्षा में मदद करनी चाहिये। सरकार को महिलाओं और लड़कियों के लिए ऐसे कदम उठाना चाहिये कि वो पढ़-लिख कर, ट्रेनिंग हासिल करके अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बन सके। अभी लड़कियों को सिर्फ सिलाई सिखाना, स्वयं सहायता समूह में खाना बनाना सिखाना वगैरह तक ही सोचते हैं। महिलाओं के बारे में जेंडर भूमिका से बाहर निकलक सरकारें सोच ही नहीं पा रही हैं। सोलर एनर्ज़ी का ज़माना है महिलाओं को सोलर लैंप आदि बनाना सिखाया जा सकता है। उनकी मार्केटिंग और बिज़नेस में मदद की जा सकती है। महिलाओं के रोज़गार के बारे में सरकारें पितृसत्तात्मक ढंग से ही सोचती हैं। उसी दिशा में नीतियां बनाती हैं।

नीतियों में और ज़मीनी हक़ीक़त में इतना अंतर क्यों है?

जो लोग ज़मीनी स्तर पर महिलाओं के लिए काम कर रहे हैं। जो ज़मीनी सच्चाई और महिलाओं की स्थिति को जानते हैं, सरकार नीतियां बनाते हुए उन संगठनों से कभी कोई चर्चा ही नहीं करती। तो अगर इनके इनपुट के बिना नीतियां बनेंगी तो हवा में ही बनेंगी। फिर नीति बन जाती है तो बजट होता ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर बलात्कार पीड़िता को मुआवज़ा देने का प्रावधान है। हमारे पास बलात्कार पीड़ित कई लड़कियां आई। हमने मुआवज़े के लिए उनका आवेदन डाला। लेकिन किसी को भी मुआवज़ा नहीं मिला। हम लगातार इन लड़कियों के आवेदन को फॉलो कर रहे थे। लीगल अथॉरिटी के पास एक स्कीम है, जिला कलेक्टर के पास एक स्कीम है। तो हमने सरकार से कहा कि आपसे बात करनी है कि इन योजनाएं की प्रक्रिया को स्ट्रीम लाइन किया जाए कि कौनसे खाते से पैसे आएंगे, इसे स्पष्ट करो। गोवा सरकार के बजट से पैसा आएगा या सेंटर से आएगा। सरकार ने हमें मिलने का कोई समय ही नहीं दिया। हमसे कोई बात नहीं की। पिछले पांच साल में हमने भाजपा सरकार से महिलाओं के इन मुद्दों पर बात करने के लिए अप्वाइंटमेंट मांगा लेकिन सरकार ने एक बार भी अप्वाइंटमेंट नहीं दिया। तो जब चर्चा ही नहीं होंगी तो नीतियां ढंग की कहां से आएंगी।

जेंडर के एंगल से आप भाजपा सरकार के कार्यकाल को कैसे देखती हैं?

मैं आपको अनुभव ही बता रही हूं। हम महिलाओं के बहुत सारे मुद्दों पर काम कर रहे हैं। हम पुलिस स्टेशन में क्वार्टर्ली मीटिंग करते थे। इस तरह की हमने एक परंपरा रखी थी कि हम पुलिस वालों के साथ मिलकर काम करें। पुलिस के साथ जो दिक्कते आती थीं वो हम मीटिंग में चर्चा करते थे। मीटिंग में एसपी होता था, बाकी इंसपेक्टर होते थे। तो जहां स्पष्टता नहीं होती थी मिलकर मीटिंग में हल निकलाते थे। जैसे- एक औरत को अगर किसी कारण से घर छोड़कर बाहर निकलना है तो उसे सामान नहीं निकालने देते थे। तो हमने इसे स्पष्ट किया कि गोवा में महिलाओं को संपत्ति पर बराबर का अधिकार है। उसे ऐसा नहीं बोल सकते कि कोर्ट से जाकर ऑर्डर लेके आओ। आप पुरुष को तो ऐसा नहीं कहते हैं। औरत को ही घर में रहने के लिए, छोड़ने के लिए या सामान इस्तेमाल करने के लिए कोर्ट क्यों जाना पड़ता है? इस तरह के बहुत से प्रश्न हमने पुलिस के साथ टेबल पर चर्चा करके हल किए हैं। लेकिन सरकार ने इन मीटिंगों को बंद कर दिया और कम्युनिकेशन बिल्कुल बंद हो गया। जैसा मैंने आपको बताया यहां तो अब एफआईआर तक दर्ज नहीं हो रही है। अगर किसी केस से राजनैतिक फायदा है तो रजिस्टर होता है वर्ना नहीं। 

महिलाओं के स्वास्थ्य का सवाल भी इग्नोर किया जा रहा है। गोवा मेडिकल कॉलेज़ में इलाज के लिए पहले बीस रुपये की पर्ची बनती थी। अभी उसे बढ़ा-चढ़ाकर सौ रुपये कर दिया। हमारे समाज में वैसे ही महिलाओं के स्वास्थ्य को इग्नोर किया जाता है। महिलाएं भी परिवार के स्वास्थ्य का ध्यान पहले रखती हैं और अपना बाद में। अब अगर उसे मेडिकल जाना भी पड़े तो पहले किराये का पैसा लगेगा, फिर सौ रुपये की पर्ची मेडिकल में अलग से कटेगी। तो बहुत सारी महिलाओं की पहुंच से ही बाहर हो गया इलाज। सरकार को लगता है कि सबके पास इतना पैसा है कि वो सौ रुपये दे सकते हैं। जबकि ज़मीनी तौर पर ऐसा नहीं है। तो ऐसे में महिला के स्वास्थ्य को कहां से प्राथमिकता मिलेगी। इस कारण बहुत सी छोटी-छोटी बीमारियां भी इग्नोरेंस के चलते गंभीर रुप धारण कर लेती हैं।

राशन में पहले चावल, दाल, शक्कर मिलता था। अब तो कुछ नहीं मिलता है। सिर्फ चावल मिलता है। तो ग़रीब महिला को कहां से पोषण मिलेगा। अब सबकुछ खरीदना पड़ता है। कोविड के दौरान कुछ राशन मिला, थोड़ी मदद मिली। पीड़ित महिलाएं भंयकर आर्थिक संकट से गुजरती हैं। किराये के पैसे नहीं होते हैं। खाने के लिए पैसे नहीं होते हैं। दिनभर चाय और एक ब्रेड खाकर रहती हैं। रात फिर ऐसा ही कुछ जुगाड़ कर लेती हैं। एक युवा लड़की हमारे पास आई थी। अचानक बोली चक्कर आ रहे हैं। हमने पूछा नाश्ता किया था? बोली नहीं। बहुत बार इस बारे में महिलाएं बात भी नहीं करती हैं क्योंकि उनको शर्म लगती है कि कैसे कहूं मेरा पेट खाली है। स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति बहुत गंभीर है।

पार्टियों ने ऐसे उम्मीदवारों को भी टिकट दिया है जिनपर रेप व अन्य यौन अपराध के गंभीर आरोप हैं। इसे आप कैसे देखती हैं?

आजकल राजनीति तो बिज़नेस बन गई है। पार्टियां ऐसे लोगों को टिकट देती हैं जिनके पास पैसा है। ये लोग पैसे से वोट खरीदते हैं, सत्ता में आते हैं और फिर और पैसा इकठ्ठा कर लेते हैं। कोई इस बात को नहीं देखता की क्या उम्मीदवार ने कहीं किसी नियम और कानूनों की अवहेलना की है। उनका व्यवहार कैसा रहा है? काफी उम्मीदवारों पर आरोप हैं। कई बार ग़लत आरोप भी हो सकता है, ये ठीक है। लेकिन जब उनके खिलाफ ठोस सबूत हैं, लेकिन ट्रायल ही नहीं हो रहा है तो कैसे साबित करेंगे। सबूत होने के बाद भी ट्रायल नहीं होता है। कोर्ट ने उसे दोषी नहीं माना तो इस वजह से क्या हम ये बोल सकते हैं कि वो दोषी नहीं है? हमारे संगठन के पास जो भी केस आए हैं और हमें लगता है कि जो सबूत हमारे पास आया है वो सही है और ठोस है। हम सहमत हैं कि इस लड़की के साथ अत्याचार हुआ है। अगर वो आदमी राजनैतिक पार्टी का है तो हम खुलकर बोलते हैं कि उस आदमी को वोट मत दो। हम किसी राजनैतिक पार्टी को सपोर्ट नहीं करते हैं लेकिन अगर हमारे पास ऐसा केस आया है और वो व्यक्ति चुनाव लड़ रहा है तो हम खुलेआम बोलते हैं कि इसको वोट मत दो। वो खुद चुनाव में खड़ा हो रहा है या किसी को सपोर्ट कर रहा है तो हम खुलकर बोलते हैं।

क्या आपके पास कोई इस तरह का केस आया है? कोई महिला आपके पास जिस व्यक्ति के खिलाफ शिकायत लेकर आई हो वो व्यक्ति चुनाव में खड़ा हो।

एक साल पहले ऐसा हुआ था। लड़की मोलेस्टेशन का केस लेकर हमारे पास आई थी। देखिये, क्या होता है कि अगर जिसके खिलाफ केस है वो सत्ता में हो तो लड़की के लिए बहुत मुश्किल हो जाती है। लड़की न्याय की प्रक्रिया को एक्सेस नहीं कर पाती है। हमारे पास जो लड़की आई थी, उसके घर पर पत्थर मारे जाते थे। उसे परेशान किया जाता था, डराया जाता था। जब वो व्यक्ति इलेक्शन में खड़ा हुआ तो उस वक्त हमने अभियान चलाया कि इस व्यक्ति को वोट मत दीजिये। वो उस उम्मीदवार की चुनाव में हार हुई। हमने ये नहीं कहा कि किसे वोट दो। लेकिन जिन पर आरोप हैं उन्हें वोट मत दीजिये ये तो हम खुलकर बोलते हैं।

अन्य और कौन से मुद्दे हैं जो चुनावी चर्चा का हिस्सा बनने चाहिये?

आर्थिक नीतियां बहुत महत्वपूर्ण हैं। पर्यटन नीति बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि विधानसभा का काम ही है उचित नीतियां बनाना। आर्थिक नीतियां सबको प्रभावित करती हैं। महिला को भी प्रभावित करती हैं और अन्य तबकों को भी। सरकार बोल रही है कि पर्यटक पांच गुणा बढ़ गये हैं। विकास हो रहा है। पर क्या सचमुच विकास हो रहा है या इसका उल्टा असर हो रहा है? देखिये, अगर पर्यटक और लोकल का अनुपात 1:4 से बढ़ जाता है तो अनरेस्ट हो सकता है। ये स्थिति गेवा में है। अगर क्रिसमस के समय पर देखेंगे तो सड़कें इस तरह भर जाती हैं कि कोई एंबुलेंस, फायर ब्रिगेड आदि निकल ही नहीं सकती। इसके अलावा कसीनो हैं, ड्रग्स हैं, वैश्यवृत्ति है, शराबखोरी है इन सबका का लोकल पर बहुत असर पड़ रहा है। गोवा में रियल इस्टेट भी नियोजित होना चाहिये। लेकिन पर्यटन को इतना बढ़ावा दिया है कि खेत, पानी, जंगल, पहाड़ सब बर्बाद हो रहे हैं। टूरिस्ट के नाम पर प्रोजेक्ट पे प्रोजेक्ट पास  हो रहे हैं। पेड़ काट रहे हैं, पहाड़ काट रहे हैं। लोकल के नाम पर कुछ नहीं हो रहा सब टूरिस्ट के नाम पर हो रहा है। पर्यावरण खराब हो रहा है, प्रदूषण बढ़ रहा है, शांती खत्म हो रही है। तो नीतियां लोकल को ध्यान में रखकर बनानी चाहिये, ना कि टूरिस्ट, कार्पोरेट और बड़े-बड़े इनवेस्टर को ध्यान में रखकर। गोवा में कोयले की ज़रूरत नहीं है। छोटा सा प्रदेश है अगर इसे कोल हब बना दिया तो हमारा वातावरण खराब हो जाएगा। इन सब मुद्दों को भी कायदे से चुनावी चर्चा का हिस्सा होना चाहिये।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है।)

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