28 सितंबर 2015 को एक भीड़ ने मोहम्मद अख़़लाक़ को उत्तर प्रदेश में दादरी के बिसाहड़ा गांव स्थित उनके घर से बाहर निकाल लिया और उनकी पीट-पीटकर हत्या कर दी। एक स्थानीय हिंदू मंदिर से घोषणा की गई थी कि अख़़लाक़़ के परिवार ने गोमांस का सेवन किया है और इसे घर में रखा हुआ है जिससे भीड़ भड़क गई और उनके परिवार पर जानलेवा हमला किया। इस हमले में अख़लाक़ के बेटे को भी गंभीर चोटें आई जो इलाज के बाद बच गया लेकिन कुछ दिनों बाद अख़लाक़़ की मौत हो गई। इस घटना के पांच साल बाद अख़लाक़ के परिवार को क्या न्याय मिला है? साल 2018 तक इस परिवार के सदस्य ’फास्ट ट्रैक’ कोर्ट की 45 सुनवाई में शामिल हुए और ट्रायल शुरू होना अभी भी बचा था।
भीड़ हिंसा की घटनाओं को द क्विंट द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि साल 2015 से सितंबर 2019 के बीच लिंचिंग की वजह से कुल 113 मौतें हुई हैं। सवाल यह है कि इनमें से कितने मामलों की उचित जांच और ट्रायल हुए? इसके विपरीत कई मामलों में पीड़ितों के परिवार के ख़िलाफ़ मामले दर्ज किए गए, जबकि अपराधी या तो ज़मानत पर बाहर थे या बीजेपी की रैलियों में शामिल हो रहे थे।
साल 2015 में अख़लाक़ की हत्या के एक साल बाद अदालत ने आदेश दिया कि उसके परिवार के ख़िलाफ़ यूपी गौ संरक्षण अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज की जाए। पहलू ख़ान का मामला यह समझने के लिए एक बेहतर उदाहरण है कि भीड़ की हिंसा के मामलों में अपराधियों और पीड़ितों के साथ क्या हुआ है। कौन सज़ा भुगतता है और किसे सज़ा नहीं मिलती है? अप्रैल 2017 में मवेशी लेकर जा रहे पहलू ख़ान और उनके दो बेटों पर राजस्थान के अलवर में कथित गौ-रक्षकों ने हमला किया था। दो दिन बाद पहलू खान ने दम तोड़ दिया और राजस्थान गौवंश पशु (वध प्रतिबंध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात के नियमन) अधिनियम के तहत उनके और उनके साथ अन्य लोगों के खि़लाफ़ मामला दर्ज किया गया, जिसमें उनके दो बेटे भी शामिल थे।
इस भयावह घटना के दो साल बाद अगस्त 2019 में नौ आरोपियों में से छह को सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए, अलवर की एक स्थानीय अदालत ने बरी कर दिया था जबकि पहलू खान के बेटों का उनके ख़िलाफ़ इस मामले में आरोप पत्र सौंपा गया था। दिलचस्प बात यह है कि नौ आरोपियों में से दो आरोपी, जो घटना के समय नाबालिग थे, उनको जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने इस साल की शुरुआत में दोषी ठहराया था।
साल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के एक हफ्ते बाद एक युवा आईटी पेशेवर मोहसिन शेख को पुणे में हिंदू राष्ट्र सेना की भीड़ ने मौत के घाट उतार दिया था। उनके परिवार को अभी भी न्याय का इंतज़ार है।
जब कोई मॉब लिंचिंग मामले में न्याय चाहने वाले परिवारों की यात्रा की खोज करता है तो मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का पक्षपात स्पष्ट हो जाता है। तबरेज अंसारी के एक और परेशान करने वाले मामले में पुलिस को उनकी हत्या में उलझा हुआ देखा जा सकता है। अंसारी को एक भीड़ ने चोर समझ कर पीटा था और जय श्री राम का नारा लगाने के लिए मजबूर किया था। गंभीर रूप से घायल होने के बाद पुलिस ने उन्हें हिरासत में लिया और उन पर हमला करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज नहीं किया। झारखंड जनाधिकार महासभा की एक फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्होंने उचित चिकित्सा उपचार से इनकार कर दिया। पुलिस ने उनकी मौत को हृदय आघात बताकर एफआईआर से हत्या के मामले को हटाने का फैसला किया था। सिटिजन अगेंस्ट हेट की 2017 की रिपोर्ट में भी भीड़ की हिंसा के मामलों में पुलिस की मिलीभगत की बात कही गई है, क्योंकि जांच दोषपूर्ण है और कई मामलों में एफआईआर में देरी हुई है।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश
जुलाई 2018 में तहसीन एस पूनावाला के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने हिंसक भीड़ को रोकने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को कई निर्देश जारी किए थे। न्यायालय इन दिशा-निर्देशों के लिए सरकार के अनुपालन की निगरानी भी कर रहा था।
हालांकि इस मामले की अंतिम सुनवाई 24 सितंबर 2018 को की गई थी और तब से यह मामला आगे नहीं बढ़ा है, जबकि भीड़ के हमले होते रहे। गृह मंत्रालय का कहना है कि सरकार लिंचिंग से होने वाली मौतों का आंकड़ा नहीं दे सकती क्योंकि यह देश में विशेष रूप से लिंचिंग की घटनाओं का आंकड़ा नहीं रखती है।
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Five Years Since Dadri Lynching: Whither the Laws?
यह लेख पहले इंडियन कल्चरल फॉरम में प्रकाशित हो चुका है।